प्राथमिक समूह का अर्थ, परिभाषा एवं प्राथमिक समूह के लक्षणों का उल्लेख

प्राथमिक समूह के कई दृष्टाान्त है, परिवार, मित्र मण्डली, जनजातीय समाज, पड़ोस और खेल समूह। इनके सदस्यों के बीच में घनिष्ठ अनौपचारिक, प्रत्यक्ष संबंध होते है। इस समूह के सदस्यों में अपनवत् की भावना होती है। भारतीय गाँव एक प्राथमिक समूह है। गाँव के लोग न केवल एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप् से जानते है, वे प्रत्येक परिवार के इतिहास से परिचित होते हैं। इरावतीं कर्वे अपनी पुस्तक दि हिन्दु सोशल ऑरगनाइजेशन में कहती है गाँव में जब कोई अजनबी आती है तो उसकी पहचान अजनबी के रूप में सारा गाँव करता है। गाँव के एक परिवार का दामाद वस्तुत: सम्पूर्ण गाँव का दामाद समझा जाता है। गाँव में उसके प्रवेश पर बहुएँ घूंघट खींच लेती है। एक परिवार का भानजा सम्पूर्ण गाँव का भानजा समझा जाता है। ये सब सम्बन्ध प्राथमिक है। कम से कम आज की भारतीय गाँव में प्राथमिक समूह का महत्व किसी भी अर्थ से कम नहीं किया जा सकता। प्रेमचन्द की कहानी गुल्ली डंडा में जिस खेल समूह का विवरण है, आज भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है।

कूले ने अपनी पुस्तक सोशल ऑरगेनाजेशन में प्राथमिक समूह की परिभाषा इस तरह की है : प्राथमिक समूहों से मेरा तात्पर्य ऐसे समूहों से है जिनकी विशेषता आमने-सामने के घनिष्ठ साहचर्य और सहयोग के रूप में व्यक्त होती है। ये समूह अनेक अर्थों में प्राथमिक है, परन्तु मुख्यत: इस बात में कि वे व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों के निर्माण में मौलिक है। घनिष्ठ साहचर्य का परिणाम यह होता है कि एक सामान्य सम्पूर्णता में वैयक्तिकताओं का इस प्रकार एकीकरण हो जाता है कि प्राय: कई प्रयोजनों के लिए व्यक्ति का अह्म समूह का सामान्य जीवन और उद्देश्य बन जाता है। इस सम्पूर्णता के वर्णन के लिए अति सरल विधि ‘हम’ कहना उचित होगा, क्योंकि वह अपने में उस प्रकार की सहानुभूति और पारस्परिक पहचान को समविष्ट करता है। इसके लिए ‘हम’ की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। 

किंग्सले डेविस ने अपनी पुस्तक हा्रमन सोसायटी में कूले की उपरोक्त परिभाषा की सुन्दर व्याख्या की है। वे कहते हैं कि प्राथमिक समूह के सदस्य रुबरु मिलते हैं, और हमनें हम की भावना सर्वोपरि होती है। वैसे हम दैनिक जीवन में कई लोगों के साथ रुबरू सम्बन्ध रखते है। व्यापारी और ग्राहक के सम्बन्ध, बैंक के काऊंटर पर बैठे बाबू से सम्पर्क रुबरु या आमने सामने के संबंध होते है लेकिन ये आमने सामने के सम्बन्ध निश्चितरूप से किसी प्राथमिक समूह को नहीं बनाते। ये प्राथमिक समूह तो तब बनते है जब भावात्मक स्तर पर लोग आमने सामने मिलते है। प्राथमिक समूह के लिए गहन संवेगों का होना आवश्यक है। यह भी संभव है कि कभी-कभार द्वितीयक समूहों में भी कई बार प्राथमिक समूह बन जाते हैं। बैकिंग उद्योग में कई लोग काम करते हैं। यह द्वितीयक समूह है पर इसमें मुट्ठी भर लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने आपको प्राथमिक स्तर पर बांध लेते हैं।

यद्यपि डेविस ने कूल की प्राथमिक समूह की परिभाषा की स्टीक व्याख्या की है, पर वे इस तरह की परिभाषा से असहमत भी है। कूले हम की भावना पर अत्यधिक जोर देते हैं। यह डेविस को स्वीकार नहीं है। उनका तो कहना है कि प्राथमिक समूह ही क्यों, सभी समूहों में कम या ज्यादा हम की भावना अवश्य होती है। ऐसी अवस्था में हम की भावना केवल प्राथमिक समूह की ही विशेषता हो, ऐसी नहीं है। भारत एक राष्ट्र है यानी यह द्वितीयक समूह है, इससे हम की भावना अनिवार्य रूप से पायी जाती है - हमारा भारत महान् है, हम सभी भारतवासी है, हमारा राष्ट्र भारतवर्ष है। ये सब मुहावरें हम की भावना से बंध हुए है। ऐसा होते हुए भी भारत राष्ट्र प्राथमिक समूह नहीं है। कूले का तो कहा है कि प्राथमिक समूह है तो वह अपने सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन की देखरेख करता है। परिवार अपने सदस्यों का लालन-पालन करता है, शिक्षा-दीक्षा देता है, विवाह सम्पन्न करवाता है। रोगी होने पर सेवा करता है। तात्पर्य यह है कि प्राथमिक समूह अपने सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन को अपनी सीमाओं में बांध लेता है।

एलेक्स इंकेल्स ने प्राथमिक समूह की बहुत बड़ी विशेषता आमने-सामने या रुबरु सम्बन्धों को माना है। वे लिखते हैं - प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध भी प्राथमिक होते हैं, जिनमें व्यक्ति एक दूसरेसे रुबरु मिलते हैं। इन समूहों में सहयोग और साहचर्य की भावनाएँ इतनी प्रभावपूर्ण होती है कि व्यक्ति का अहं हम की भावना में बदल जाता है।

टॉनिज ने समाज को समूहों का एक जाल कहा है। वे कहते है कि कोई भी समाज समुदायों और समितियों का एक संगठन है। वे समुदाय को जेमैनशाफ्ट कहते है। यदि उनकी परिभाषा की व्याख्या करें तो समुदाय वस्तुत: प्राथमिक समूह है। टॉनिज के अनुसार समुदाय के सदस्यों के बीच में भौतिक निकटता होती है, समुदाय का आकार छोटा होता है और समुदाय के सदस्यों में सामाजिक सम्बन्ध एक लम्बी अवधि तक चलते रहते हैं। इस भाँति टॉनिज के समुदाय के जो तीन लक्षण - भौतिक निकटता, छोटा आकार और लम्बी अवधि के संबंध - होते हैं वे प्राथमिक समूह में भी पाये जाते है। बोटोमोर ने टॉनिज के जेमैनशाफ्ट यानी समुदाय की व्याख्या की है और वे भी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि समुदाय भी एक प्राथमिक समूह है। जे.एल. मोरेना, कुमारी ईवी बारनेट, विलियम वाइट तथा रोबर्ट रेडफील्ड के अध्ययन प्राथमिक समूह के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है। मोरेना ने छोटे समूहों के अध्ययन करके यह स्थापित किया कि ऐसे अध्ययन सामाजिक प्रयोगों के लिए उपयोगी होते है। कुमारी बारनेट ने पारिवारिक जीवन की एक बहुत ही अच्छी तस्वीर प्रस्तुत की है। वाइट ने अपनी पुस्तक द स्ट्रीट कोरनर सोसाइटी विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है। रोबर्ट रेडफील्ड का अध्ययन वस्तुत: गाँवों का अध्ययन है। वे किसी भी गाँव को एक प्राथमिक समूह मानते है।

प्राथमिक समूह के लक्षण

प्राथमिक समूह के जिन लक्षणों का उल्लेख करते है वे सब लक्षण प्राथमिक समूह के अध्ययन से निहित है। ये लक्षण इस भाँति है :

1. एक से अधिक व्यक्ति - कूल ने जब प्रारम्भ में प्राथमिक समूह की परिभाषा दी तब उन्होंने कहा कि समूह के लिए एक से अधिक सदस्यों का होना आवश्यक है। समूह के इस लक्षण के सम्बन्ध के बाद के सभी समाजशात्रियों ने यह एक अनिवार्य लक्षण स्वीकार किया।

2. संवेग - कूल ने प्राथमिक समूह का दूसरा लक्षण संवेग बताया। ये संवेग हम की भावना को सुदृढ़ करते हैं। जब समूह के सदस्य संवेगात्मक रूप से जुड़े होते हैं तब बिना किसी हानि-लाभ की चिंता करते हुए वे एकजुट होकर रहते है।

3. पारस्परिक पहचान - कूल ने प्राथमिक समूह की एक और विशेषता पारस्परिक पहचान बतायी है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति की समाज या समुदाय में पहचान अपने परिवार से होती है, अपने आप में वह कुछ नहीं है।

4. शारीरिक समीपता - किंग्सले डेविस ने प्राथमिक समूह का बहुत बड़ा लक्षण शारीरिक समीपता को माना है। एक ही छत के नीचे रहने के कारण प्राथमिक समूह के सदस्य एक दूसरे को बहुत निकटता से समझते है। ये सदस्य एक ही चूल्हे से भोजन करते हैं, एक ही बटुए से खर्च करते हैं और सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन का सरोकार प्राथमिक समूह से होता है। रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार सभी में प्राथमिक समूहों के सदस्यों की किसी न किसी प्रकार से भागीदारी होती है।

5. लघु आकार - डेविस यह भी कहते हैं कि प्राथमिक समूहों का आकार छोटा होता है। छोटे आकार की कोई संख्या निर्धारित नहीं है लेकिन आकार इतना छोटा होना चाहिए कि समूह के सदस्य एक दूसरे से रुबरु हो सके, सम्पर्क कर सकें। नातेदार और समुदाय के सदस्य अन्त:क्रियाओं की दृष्टि से एक दूसरे के निकट होते हैं। इसीलिए डेविस कहते है कि समूह का आकार इतना छोटा होना चाहिए कि सदस्य एक दूसरे से प्रत्यक्ष सम्पर्क बनाए रख सकें। रेडफील्ड ने भी समूह के छोटे आकार को स्वीकार किया है।

6. सम्बन्धों की अवधि - यह लक्षण भी डेविस ने रखा है। वे कहते है कि प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध छोटी अवधि के लिए नहीं होते। संबंध जितने लम्बे समय के लिए होंगे, प्राथमिक समूह उतना ही अधिक सुदृढद्य और सुगठित होगा। गाँव के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। पीढ़ियाँ भी इसी भाँति परिवार से जुड़ी रहती है। नातेदारों के सम्बन्ध भी लम्बी अवधि तक चलते है।

7. सुनिश्चितता - रोबर्ट रेडफील्ड ने प्राथमिक समूह के जो लक्षण रखे हैं उनका संदर्भ ग्रामीण समुदाय से है। उन्होंने मेक्सिको के गाँवों का अध्ययन किया है। भारतीय सामाजिक मानवशास्त्री इस शताब्दी के पांचवे दशक में रेडफील्ड के ग्रामीण अध्ययन से बहुत अधिक प्रभावित थे। इस दशक में तो रेडफील्ड की लोकप्रियता हमारे यहाँ चरम सीमा पर थी। रेडफील्ड ने प्राथमिक समूह की बहुत बड़ी विशेषता सुनिश्चितता को बताया है। इसका मतलब यह है कि एक प्राथमिक समूह दूसरे अगणित प्राथमिक समूहों से पृथक होता है। इसकी अपनी एक अलग पहचान होती है। गाँव के संदर्भ में रेडफील्ड कहते है कि यह बहुत निश्चित है कि गाँव यहाँ प्रारम्भ होता है और वहाँ समाप्त होता है। परिवार की भी ऐसी ही पृथकता होती हे। यह परिवार अमुक पीढ़ियों का है, इसका गोत्र यह है और सामान्यतया इस परिवार में इस तरह के व्यवसाय होते रहते है।

8. सजातीयता - प्राथमिक समूह के सदस्य चाहे पुरूष हो या स्त्री, छोटे हों, या बड़े, समान स्तर के होते हैं। सामान्यतया सोच-विचार, शिक्षा-दीक्षा और धंधे में इन सदस्यों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता। इसी कारण रेडफील्ड सजातीयता को प्राथमिक समूहों का बहुत बड़ा लक्षण मानते हैं। ग्रामीण समुदाय में तो धंधे की यानी कृषि की सजातीयता बहुत अधिक होती है। बाढ़ आ गयी या सूखा पड़ गया तब गाँव के लोग निराशा की सांस में ऊपर नीचे होने लगते हैं। यह एक प्रकार की मानसिक सजातीयता है।

9. आत्मनिर्भरता - रेडफील्ड गाँवों के बारे में कहते हैं कि यहाँ आत्मनिर्भरता होती है। पालने से लेकर श्मशान घाट तक की सम्पूर्ण आवश्यकताएँ गाँव में पूरी हो जाती है। इस अर्थ में प्राथमिक समूह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में आत्मनिर्भर होते हैं। परिवार को देखिए - गरीब हो या अमीर, अपने भाई-बहिनों की सभी आवश्यकताएँ यहाँ पूरी हो जाती है। मित्र मण्डली भी एक ऐसा समूह है जो अपने मित्रों की सहायता सभी आवश्यकताओं में करते हैं। यही हाल नातेदारों का भी है।
हमारे यहाँ गांधीजी जीवनभर यह कहते रहे कि हमें गाँवों को स्वावलम्बी बनाना चाहिये। इससे उनका तात्पर्य यह था कि गाँव के लोग स्वयं अपनी आवश्यकताओं को पूरा करें। लोगों को खाने के लिए जितना अनाज चाहिए, गाँव के खेतों में पैदा किया जाना चाहिए। गाँव की अतिरिक्त उपज ही बाजार में पहुँचनी चाहिए। गाँव के कपड़े की आवश्यकता जुलाहे के करधे को करनी चाहिए। बुनियादी शिक्षा गाँव के स्कूल से मिल जानी चाहिए। ये सब तत्व या ऐसे ही तत्व प्राथमिक समुदाय को स्वावलम्बी बनाते है। यह निश्चित है कि आज के विश्वव्यापीकरण और उदारीकरण के युग में आत्मनिर्भरता हाशिये पर आ गयी है, फिर भी कई ऐसी आवश्यकताएँ है, जो सामान्यतया प्राथमिक समूहों के सदस्यों के कारण पूरी हो जाती है। रेडफील्ड ने प्राथमिक समूह के जो लक्षण दिये है उनमें कतिपय लक्षण आधुनिक समाज के लिए अप्रासंगिक हो गये है। स्वयं रेडफील्ड ने इस अप्रांसगिकता की चर्चा की है। ऐसा लगता है कि औद्योगीकरण, शहरीकरण और विश्वव्यापीकरण के कारण समाज में जो तीव्रतम परिर्वतन आ रहे है उनमें प्राथमिक समूहों की भूमिका धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से सिकुड़ रही है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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