सामाजिक समूह की परिभाषा उसका अर्थ और विशेषताएँ

सामाजिक समूह की अवधारणा का अंतर हमें इससे मिलती-जुलती दो और धारणाओं से करना चाहिए। ये धारणाएँ है : (1) समुच्चय, और (2) सामाजिक कोटियाँ। समुच्चय और सामाजिक कोटियाँ निश्चित रूप से व्यक्तियों का जोड़ है।

सामाजिक समूह की परिभाषा 

सामाजिक समूह न तो अनेक व्यक्तियों का समुच्चय है और न ही यह एक सामाजिक कोटि है। विभिन्न विद्वानों ने समूह को पारिभाषित किया है। सभी इस तथ्य को स्वीकार करते है कि समूह में सम्मिलित लोगों के बीच में पारस्परिक सम्पर्क होता है और यह सम्पर्क हमेशा बना रहता है, एक-दो दिन तक नहीं। वास्तविकता यह है कि समूह के सदस्यों की अन्त:क्रियाएँ नियमित रूप से होती रहती है। नियमित रूप से होने वाली अन्त:क्रिया ही व्यक्तियों को समूह का सदस्य बनाती है। एन्थोनी गिडेन्स ने सामाजिक समूह की परिभाषा इस भाँति की है :

सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का एक योग है जो नियमित रूप से एक दूसरे के साथ अन्त:क्रिया करते है। इस तरह की नियमित अन्त:क्रियाएँ समूह के सदस्यों को एक निश्चित इकाई का रूप देती है। इन सदस्यों की पूर्ण रूप से सामाजिक पहचान अपने समूह से ही होती है। आकार की दृष्टि से समूह में विभिन्नत आती है। समूह का आकार बहुत निकट सम्बन्धों जैसे परिवार से लेकर विशाल समष्टि जैसे रोटेरी क्लब तक होता है।

ऐमोरी बोगार्डस ने पाँचवे दशक के प्रारंम्भ में समाजशास्त्र की एक पाठ्यपुस्तक लिखी थी। उनका कहना है कि बहुत थोड़े में या सार रूप में समाजशास्त्र और कुछ न होकर समूह का अध्ययन मात्र है। उन्होंने समूह की व्याख्या वृहत् रूप में की है। उन्होंने समूह का सम्बन्ध संस्कृति, परिवार, समुदाय, व्यवसाय, खेलकूद, शिक्षा, धर्म, प्रजाति और संसार तक के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार, ये सब समाज के अंग अपने आप में समूह है। उनकी दृष्टि में विभिन्न प्रजातियाँ इसी भाँति समूह और यहाँ तक रेडियो और टी.वी. देखने-सुनने वाले लोग भी समूह है। प्रारंभिक अर्थ में समूह व्यक्तियों की एक इकाई है जिनमें पारस्परिक सम्बन्ध होते हैं। उदाहरण के लिये, किसी जंगल में वृक्षों का जो झुरमुट है, वह समूह है, इसी तरह गली के नुक्कड़ पर बसे हुए मकान समूह है या हवाई अड्डे पर पड़े हुए हवाई जहाज समूह बना देते है। ये सब समूह बेजान है, एक प्रकार के समुच्चय है। समूह सामाजिक समूह तब बनते है जब उनमें अन्त:क्रिया प्रारम्भ होती है। समूह की मूल आवश्यकता अन्त:क्रिया है।

बोगार्डस कहते हैं : एक सामाजिक समूह में कई व्यक्ति होते हैं - दो या अधिक। इन व्यक्तियों का ध्यान कुछ सामान्य लक्ष्णों की ओर होता है। ये लक्ष्य एक दूसरे को प्रेरित करते हैं। इन सदस्यों में एक सामान्य निष्ठा होती है और ये सदस्य एक जैसी गतिविधियों में अपनी भागीदारी करते है। बोगार्डस ने समूहों के कई प्रकार बताये हैं। इन प्रकारों का आधार समूह द्वारा की जाने वाली गतिविधियाँ हैं। समूहों की लम्बी तालिका में वे परिवार, समुदाय, व्यवसाय, शिक्षा, राष्ट्र आदि को सम्मिलित करते हैं। बोगार्डस अपनी पुस्तक में बार-बार आग्रहपूर्वक कहते हैं कि समूह कभी भी स्थ्रित नहीं होता, उसमें गतिशीलता होती है और इससे आगे इसकी गतिविधियों में परिवर्तन आता है और इसका स्वरूप भी बदलता रहता है। कभी-कभी लगता है कि जैसे समूह स्थिर हो गया है, चलते हुए उसके पाँव थम गये से लगते है और कभी ऐसा भी लगता है कि जैसे समूह सरपट गति से दौड़ता जा रहा है। यह सब भ्रम जाल है। वास्तविकता यह है कि समूह किसी तालाब के पानी की तरह बंधा हुआ नहीं रहता। उसमें गतिशीलता बराबर रहती है। कभी यह गतिशीलता बहुत धीमी होती है, कभी मध्यम और कभी-कभार बहुत तेज। आगबर्न और निमकॉफ पुरानी पीढ़ी के पाठ्यपुस्तक लेखक हैं। उन्होंने समूह की परिभाषा बहुत ही सामान्य रूप में रखी हैं :

जब कभी भी दो या अधिक व्यक्ति एकत्र होते हैं, और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।

रोबर्ट मर्टन ने सामाजिक समूह की अवधारणा को संशोधित रूप में रखा है। वे बोगार्डस द्वारा की गयी समूह की परिभाषा से एकदम असहमत है। उनका तर्क है कि सामाजिक समूह की किसी भी परिभाषा में अनिवार्य तत्व अन्त:क्रिया है। समूह के सदस्य कितने ही क्यों न हों जब तक उनमें अन्त:क्रिया नहीं होती, वे समूह नहीं बनाते। बोगार्डस प्रजाति को एक समूह मानते हैं। कॉकेशियन प्रजाति की जनसंख्या असीमित है और रुचिकर बात यह है कि इस नस्ल के लोग न तो दूसरे को जानते है और न ही उनमें कोई नियमित अन्त:क्रिया है। ऐसी अवस्था में मर्टन प्रजाति या इसी तरह राष्ट्र को एक समूह नहीं मानते। वास्तव में मर्टन ने सामाजिक समूह की परिभाषा अपने संदर्भ समूह सिद्धांत की पृष्ठभूमि में दी है। उनका कहना है कि समूह एकत्रीकरण नहीं है। प्रजाति और राष्ट्र तो व्यक्तियों के एकत्रीकरण है। इन व्यक्तियों में पारस्परिक अन्त:क्रियाएँ नहीं होती। अत: सामाजिक समूह मर्टन के अनुसार एकत्रीकरण तो है लेकिन इसके अतिरिक्त सदस्यों में अनत:क्रिया होती है, ‘‘हम एक ही समूह के सदस्य है,’’ हम सुदृढ़ता की भावना भी रखते हैं, आदि भी इसकी आवश्यकताएँ है। इन सदस्यों में मानदण्ड और मूल्य भी एक समान होते हैं।

वास्तविकता यह है कि हाल में समूह की व्याख्या जिस तरह हुई है इससे लगता है कि यह अवधारणा अपनी टूटन अवस्था पर आ गयी है। पिछले तीन-चार दशकों में समाजशास्त्रीय अवधारणाओं में बड़ा फेरबदल आया है। जब अवधारणाएँ संशोधित होती है या कभी-कभार आनुभाविकता से सत्यापित नहीं होती तो वे अतीत के गर्त में खो जाती है। नयी अवधारणाएँ नये सिद्धान्तों को जन्म देती हैं। सामाजिक समूह की अवधारणा के साथ भी कुछ ऐसा ही गुजरा है।

मर्टन ने समूह की जो नयी संशोधित व्याख्या की है, उसके अनुसार (1) समूह में दो या उससे अधिक सदस्य होते है; (2) समूह में अन्त:क्रियाओं का होना आवश्यक है और ये अन्त:क्रियाएँ निरन्तर चलती रहती है। (3) समूह की एक ओर अनिवार्यता समूह के सदस्यों के बीच में हम की भावना पर्याप्त रूपी से पायी जाती है। हम की भावना के दो पहलु है। पहला तो यह है कि व्यक्ति अपनी पहचान उस समूह से करता है जिसका वह सदस्य है और दूसरा समूह के लोग अपने सदस्यों को अपना समझते है। अन्य शब्दों में व्यक्ति की पहचान समूह से है और समूह की पहचान व्यक्ति से।

मटर्न का आग्रह है कि समूह में अपनी सदस्यों के लिए एकता की भावना होती है। समूह में एकीकरण जितना अधिक होगा, समूह उतना ही सुदृढ़ होगा। समूह के एकीकरण के इन बिन्दुओं पर मर्टन जोर देते हैं :
  1. समूह में एकीकरण की भावना तब शक्तिशाली बनती है। जब समूह के सदस्य इस बात का अनुभव करते है कि समूह को बचाये रखना उनके कल्याण के लिए आवश्यक है। 
  2. समूह का एकीकरण इस तथ्य पर निर्भर है कि समूह के प्रत्येक सदस्य के उद्देश्यों की उपलब्धि में अपने योगदान और अपनी उपलब्धि की भावना से चेतना के स्तर पर जुड़ा रहता है। 
  3. समूह की एकता के लिए यह भी आवश्यक है कि समूह के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ और वैयक्तिक हों। पारस्परिक प्रोत्साहन और प्रशंसा के शब्द सदस्यों के बीच में होने अनिवार्य है। 
  4. समूह का एकीकरण और अधिक सुदृढ़ होता है, जब समूह के उद्देश्य आसानी से प्रापत न हो और उनकी प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करना पड़े। 
  5. समूह की एकता का एक और आधार भी है जब समूह के सदस्य संगीत, अनुष्ठान, पदवी, नारों आदि के प्रतीकों द्वारा बार-बार सदस्यों को बांधे रखें। 
  6. समूह के एकीकरण के लिए यह भी आवश्यक है कि सदस्यों को समूह की परम्पराओं, उपलब्धियों और उच्चता का बराबर ज्ञान दिया जायें।
पिछले पृष्ठों में हमने समूह की व्याख्या वृहत् रूप में की है। यह निश्चित है कि सभी विचारकों ने इन अवधारणा को समाजशास्त्र की बुनियादी अवधारणा कहा है। इस शताब्दी के पाँचवे दशक में समूह की परिभाषा बहुत लचली थी। हाल में इस अवधारणा को आनुभाविक अध्ययनों की उपलब्धियों के आधार पर अधिक सशक्त बनाया गया है। विवाद होते हुए भी आज यह निश्चित रूप से कहा जा रहा है कि किसी भी समूह के लिए कुछ निश्चित तत्वों का होना आवश्यक है। ये निश्चित तत्व की समूह की विशेषताएँ है। अब हम इन्हीं विशेषताओं का उल्लेख करेंगे।

समूह की विशेषताएँ 

1. एक से अधिक सदस्य सदस्यों की बहुलता : कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही महान क्यों न हों, समूह नही बनाता। समूह के लिए कम से कम दो व्यक्ति होने चाहिए। अधिकतम सदस्यों की संख्या वहाँ तक सीमित है जहाँ तक सदस्यों के बीच में किसी न किसी तरह की अन्त:क्रिया सम्भव हो। 

2. सम्पर्क और अन्त:क्रिया : हमने कहा है कि समुच्चय यानी एकाधिक व्यक्तियों का जमावड़ा समूह नहीं बनता। समूह के लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों में पारस्परिक सम्पर्क हों और उनके बीच में अन्त:क्रियाएँ हों। मर्टन अन्त:क्रियाओं पर सबसे अधिक जोर देते हैं। निश्चित रूप से अन्त:क्रियाएँ समूह की प्राणवायु है।

3. पारस्परिकता की चेतना : समूहों के सदस्यों में यह चेतना होनी चाहिए कि उनके समूह के सदस्य उनके ही भाई-बन्धु है। हम सब एक की आंगन की उपज है, यह चेतना समूह के लिए आवश्यक है। समूह के प्रति इस चेतना को कार्ल माक्र्स ने अधिक ताकत के साथ रखा है। मजदूर संघ का सदस्य यह जानता है कि अन्ततोगत्वा वो मजदूर है उसकी पहचान एक मजदूर की ही पहचान है। माक्र्स इसके लिए वर्ग चेतना की अवधारणा को काम में लाते हैं।

4. अन्त:क्रिया करने वाले लोगों में अपने को एक इकाई समझने की भावना : समूह का सदस्य अपनी अस्मिता को समूह के साथ जोड़ता है। वो यह समझता है कि समूह से पृथक उसकी न कोई पहचान है और न कोई अस्तित्व। साधारण शब्दों में, व्यक्ति की पहचान उसके समूह से है जिसका वह सदस्य है और दूसरी ओर समूह की पहचान उसके सदस्यों से हैं। दोनों का अस्तित्व पारस्परिक पहचान पर निर्भर है। 

5. समान लक्ष्य : कोई भी व्यक्ति किसी भी समूह का सदस्य समान लक्ष्णों के कारण बनता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है जब समूह के लक्ष्य अपने आप सदस्य के लक्ष्य बन जाते है। परिवार का सदस्य या तो जन्म से बनता है या विवाह से। ऐसी अवस्था में जन्म के बाद या विवाह के उपरान्त सदस्य के लक्ष्य समूह के साथ जुड़ जाते है। जब तक सदस्य का समूह लक्ष्यों के साथ में तालमेल नहीं बैठता, व्यक्ति की सदस्यता अप्रासंगिक बन जाती है। 

6. समान मानदण्ड : वस्तुतत: लक्ष्य सााध्य होते हैं और मानदण्ड साधन। साध्य और साधन समूह के अनिवार्य तत्व है। ऐसी स्थिति में जब व्यक्ति साध्यों यानि लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समूह का सदस्य बनता है तो परिणामस्वरूप उसके साधन यानि मानदण्ड भी एक जैसे होते हैं। यदि परिवार उच्च व तकनीकी शिक्षा को अपने सदस्यों की समृद्धि के लिए स्वीकार करता है तो निश्चित रूप से सदस्य भी ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के मानदण्डों को स्वीकार करेंगे। 

7. समान मूल्य : मानदण्ड का ऊंचा स्तर मूल्य होते हैं। इस दृष्टि से जब प्रत्येक समूह के मानदण्ड होते है तब उसके कुछ मूल्य भी होते हैं। समूह के सदस्यों का यह प्रयास होता है कि वे अपने निर्धारित मूल्यों को प्राप्त कर सकें। 
समूह की परिभाषा उसके अर्थ और लक्षणों की व्याख्या अधूरी होगी। अगर हम यह याद न दिलायें कि आज के औद्योगिक और पूँजीवादी समाज में समूह का एक वृहत् स्वरूप भी हमारे सामने है और यह स्वरूप औपचारिक और विशाल संगठनों का है। आधुनिक और उत्तर आधुनिक समाजों का, जिनमें यूरोप व अमरीका जैसे देश सम्मिलित हैं, लघु समूहों का युग गुजर गया है। इन देशों में तो परिवार जैसे प्राथमिक समूहों की श्वास भी फूल रही है। यहाँ मनुष्य का लगभग सम्पूर्ण जीवन वृहत् संगठनों में गुजर जाता है। यह तो एशिया, अफ्रीका, और लेटिन अमरीका जैसे देश है जिनमें व्यक्ति का सरोकार सामान्य और छोटे समूहों से होता है। ऐसी स्थिति में समूह के जो लक्षण हमने ऊपर रखे हैं उन्हें वृहत् संगठनों के रूप में भी देखना चाहिए। निश्चित रूप से बोगार्डस के समय की यानी आज से पांच दशक पहले की समूह की अवधारणा बहुत कुछ अप्रासंगिक बन गयी हैं।

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