शिक्षा दर्शन का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप, कार्य, आवश्यकता

शिक्षा दर्शन दर्शन की वह शाखा है जिसमें मनुष्य और उसकी शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या विभिन्न दार्शनिक मतों के आधार पर की जाती है और उसकी शिक्षा संबंधी समस्याओं के दार्शनिक हल प्रस्तुत किए जाते हैं।

दर्शन का वह भाग जिसमें शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है और उन समस्याओं का हल प्रस्तुत किया जाता है, शिक्षा दर्शन कहलाता है। दर्शन मनुष्य जीवन की व्याख्या कर उसके उद्देश्य और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए साधन मार्ग निश्चित करता है और शिक्षा दर्शन में इन उद्देश्यों एवं साधनों की व्याख्या होती है। इसके साथ-साथ इसमें यथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप पर भी विचार किया जाता है। हम जानते हैं कि इस ब्रह्मांड और उसमें मानव जीवन के प्रति दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हैं और इस भिन्नता के कारण दर्शन के अनेक संप्रदायों का विकास हुआ है। 

इस विभिन्न संप्रदायों ने शिक्षा की प्रक्रिया को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा है और उसकी भिन्न-भिन्न रूप में व्याख्या की है। शिक्षा दर्शन में इस सबका आलोचनात्मक विवरण होता है। शिक्षा दर्शन के इस स्वरूप पर एकमत होते हुए भी विद्वानों ने उसे भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है। 

अधिकतर विद्वान शैक्षिक समस्याओं के दार्शनिक हल को ही शिक्षा दर्शन कहते हैं।

शिक्षा दर्शन का अर्थ

साधारण अर्थ में शिक्षा पद्धति दर्शन की ही एक शाखा होती है जिसमें दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रयोग शिक्षा के सम्बंध में होता है। शिक्षा दर्शन शिक्षा से संबंधित विचारों पर विचार करता है और उनके समाधान के लिये दार्शनिक अर्थात् चिन्तनपूर्ण एवं निर्णयात्मक दृष्टि से प्रयत्न करता है। 

कनिंघम महोदय ने शिक्षा दर्शन एवं दर्शन को साथ-साथ रखकर विचार प्रकट किया है। उनका कथन है कि शुद्ध दर्शन की परिभाषा से हम शिक्षा दर्शन की परिभाषा को समझ सकते हैं। प्रथम दर्शन सभी वस्तुओं का विज्ञान है। इसीलिये शिक्षा दर्शन शिक्षा की समस्याओं को मुख्य बिन्दुओं से देखता है।

शिक्षा दर्शन की परिभाषा

कुछ विचारकों के अनुसार- दर्शन ने मौलिक सिद्धान्तों की खोज होती है और उन सिद्धान्तों को शिक्षा में व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार शिक्षा दर्शन में दार्शनिक सिद्धान्तों का शिक्षा के क्षेत्र में व्यवहार किस प्रकार होता है और होना चाहिये इसे बताया जाता है। 

कुछ विचारक शिक्षा को ही मुख्य मानते हैं- और उनके अनुसार दर्शन तो शिक्षा का सामान्य सिद्धान्त है। कुछ विचारक यह मानते हैं कि ‘‘दर्शन सभी वस्तुओं को उनके अन्तिम तर्कों एवं कारणों के जरिये जानने का विज्ञान है।’’
 
हेन्डरसन महोदय के शब्दों में- ‘‘शिक्षा दर्शन, शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन में दर्शन का प्रयोग है।’’ इस परिभाषा में पूर्णता नहीं है। हमारी दृष्टि में शिक्षा दर्शन को इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है। 

‘‘शिक्षा दर्शन शिक्षाशास्त्र की वह शाखा है जिसमें शिक्षा के सम्प्रत्ययों , उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों एवं शिक्षा सम्बंधी अन्य समस्याओं के संदर्भ में विभिन्न दार्शनिकों एवं दार्शनिक सम्प्रदायों के विचारों का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाता है।’’

अत: शिक्षा दर्शन शिक्षा के क्षेत्र में गहनतम समस्याओं का सम्पूर्ण रूप से अध्ययन करता है और विज्ञान के लिये उन समस्याओं को छोड़ देता है, जो तात्कालिक है और वैज्ञानिक विधि से सर्वोत्तम ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। शिक्षा की प्रक्रिया के लिये आवश्यक संकेतों एवं साधनों को शिक्षा दर्शन एक निश्चित रूप भी प्रदान करता है और शिक्षा प्रक्रिया के अंगो को निर्धारित भी करता है।

शिक्षा दर्शन का स्वरूप

शिक्षा दर्शन को मुख्यत: शिक्षा एवं दर्शन दोनों के योग के रूप में देखा जाता है। शिक्षा दर्शन शिक्षा की एक शाखा के रूप में है। इसमें शिक्षा प्रमुख है और दर्शन तो शिक्षा का सामान्य सिद्धान्त ही है। इसमें दर्शन का वास्तविक कार्य शिक्षा की समस्याओं को ढूढना है। इस युक्ति से तो सम्पूर्ण दर्शन ही शिक्षा दर्शन है। 

जॉन डी0वी0 ने स्पष्ट किया है कि ‘‘शिक्षा दर्शन में तो तत्कालीन सामाजिक जीवन की कठिनाइयों के प्रति उचित दृष्टिकोण बनाने की समस्या का स्पष्टीकरण होता है अत: शिक्षा दर्शन को बाह्य सिद्धान्तों का व्यवहश्त रूप नहीं समझना चाहिये। उनके अनुसार दर्शन स्वयं ही शिक्षा का सिद्धान्तीकरण है।’’ 

शिक्षा दर्शन कुछ विचारकों के अनुसार एक नया क्षेत्र है जिमसें शैक्षिक समस्याओं पर दाशर्निक दृष्टिकोण से विचार किया जाता है। शिक्षा दर्शन के स्वरूप पर चार दृष्टिकोण प्रचलित है-

1. दर्शन के अंग स्वरूप- 
शिक्षा दर्शन वास्तव में दर्शन होता है, क्योंकि उसमें भी अन्तिम सत्यों, मूल्यों, आदर्शों, आत्मा-परमात्मा, जीव, मनुष्य, संसार, प्रकृति आदि पर चिन्तन एवं उसके स्वरूप को जानने का प्रयत्न होता है, अतएव यह दर्शन एक अभिन्न अंग ही होता है और प्रारम्भिक शिक्षा दार्शनिक दर्शन पर ही बल देते रहे। कुछ विचारकों ने शिक्षा दर्शन को अंग स्वरूप ही माना है।]

2. शिक्षाशास्त्र के अंग स्वरूप- शिक्षाशास्त्र के विकास करने वाले शिक्षाशास्त्रियों ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है। शिक्षाशास्त्र के चार आधार स्तम्भ है जिसमें एक शिक्षा दर्शन भी है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा दर्शन शिक्षा शास्त्र का अभिन्न अंग बना है।

3. स्वमेव एक स्वतंत्र विषय स्वरूप- आधुनिक शिक्षा दर्शन ने एक स्वतत्रं विषय का रूप ले लिया। इसमें शिक्षा को दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन कियाजाता है, अर्थात् शिक्षा को अन्तिम परिभाषा, सर्वमान्य उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं चिन्तन आधारित शिक्षा विधियों का निर्माण होता है, यही दर्शन शिक्षा के नाम से पुकारा जाता है जो केवल शिक्षाशास्त्र नहीं केवल दर्शनशास्त्र नहीं परन्तु नव-निर्मित विषय शिक्षा दर्शन हो जाता है। इस विचार से दर्शन के विभिन्न अंग ( ज्ञान दर्शन, मूल्य दर्शन, नीति दर्शन, सौन्दर्य दर्शन आदि) के समान ही शिक्षा दर्शन के भी विभिन्न अंग निश्चित किये जाते हैं। इसमें अंतिम, शाश्वत एवं सूक्ष्म, ज्ञान, तर्क, नैतिकता, सौन्दर्यानुभूति आदि का अध्ययन शिक्षा के रूप, उद्देश्य, मूल्य, आदर्श, विधि, भावनात्मक दृष्टिकोण आदि प्रसंग में होता है।

4. शिक्षा में दर्शन के प्रयोग स्वरूप- शिक्षा दर्शन का यह स्वरूप एक प्रकार का साधन स्वरूप हेाता है वास्तव में यह स्वरूप एक और दर्शन का अंग है तो दूसरी ओर शिक्षा का एक साधन है। इसमें इसके साधन एवं प्रयोग तत्व पर बल दिया जाता है। इसका तात्पर्य यह होता है कि शिक्षा के अध्ययन में दर्शन के सिद्धान्त एवं अंग-प्रत्यंग सहायता देते हैं तभी शिक्षा की प्रक्रिया पूरी होती है। यदि दर्शन का प्रयोग न हो तो शिक्षा की निर्णयात्मक स्थिति नहीं होती है।

शिक्षा दर्शन के कार्य 

शिक्षा दर्शन के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
  1. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर मनुष्य और उसकी शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करना और शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को समझने में सहायता करना। 
  2. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर विकसित शिक्षा के उपेश्यों की व्याख्या करना और समाज एवं राष्टं विशेष को अपनी शिक्षा के उपेश्य निश्चित करने में सहायता करना। 
  3. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर विकसित शिक्षा की पाठ्यचर्याओं की व्याख्या करना और समाज एवं राष्टं विशेष को अपनी शिक्षा की पाठ्यचर्या के निर्माण में सहायता करना। 
  4. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर विकसित शिक्षण विधियो की व्याख्या करना और विशेष की उपयुक्त शिक्षण विधियों के चयन में सहायता करना। 
  5. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर विकसित शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन के स्वरूप की व्याख्या करना, उसके वास्तविक रूप से परिचित कराना और शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन स्थापित करने की उपयुक्तम विधियों से संबंधित लोगों को परिचित कराना। 
  6. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों एवं शिक्षार्थियों के स्वरूप की व्याख्या करना और उन्हें अपने-अपने कर्तव्यों से परिचित कराना। 
  7. विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के आधार पर शिक्षा की अन्य समस्याओं के हल प्रस्तुत करना और संबंधित लोगों को उपयुक्त हल के चयन करने में सहायता करना। 

शिक्षा दर्शन की आवश्यकता

जीवन और शिक्षा में तादात्म्य है तो जीवन दर्शन और दर्शन तथा शिक्षा दर्शन में भी वही सम्बंध है। दर्शन इसी कारण शिक्षा का एक प्रमुख आधार है। शिक्षा दर्शन की आवश्यकता शिक्षा को अपनी पूर्ण व्यवस्था निर्धारण में पड़ती है।

1. ब्रह्मण्ड और उसमें जीवन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण का ज्ञान- दर्शन हमें इस ब्रह्माण्ड और उसमें मानव जीवन के रहस्य से अवगत कराता है जो रहस्य णेण रह जाता है उसे समझने के लिये अन्तदृष्टि प्रदान करता है। बिना पूर्व और वर्तमान को जाने कुछ भी सोचना गलत होता है अत: शिक्षा दर्शन विभिन्न दर्शनों के मूल सिद्धान्तों की व्याख्या करता हैं और हम इस ब्रह्माण्ड और उसमें मानव जीवन के प्रति विभिन्न दृष्टिकोणों का ज्ञान प्राप्त करते हैं और सही दर्शन का चुनाव करते हैं जो हमारी संस्कण्ति की पोणक हो और वर्तमान परिस्थिति में समायोजन लायक क्षमता हममें विकसित कर सकें।

2. मानव जीवन के विभिन्न उद्देश्यों का ज्ञान एवं प्राप्त करने का उपाय- शिक्षा दर्शन अध्यापक के लिये मार्ग प्रशस्त करता है कि वह जीवन के स्वरूप और अन्तिम उद्देश्यों का विस्तश्त ज्ञान प्राप्त कर सके। इस ज्ञान के आधार पर अपने स्वयं के अनुभव एवं तर्क पर वह अपना दृष्टिकोण बनाता है। जैसे कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज भी शिक्षा का उद्देश्य निष्कलंक एवं पवित्र जीवन की प्राप्ति है जो कि आदर्शवादियों के दृष्टिकोण से मिलता है। शिक्षा दर्शन के अध्ययन से अध्यापक मानव जीवन के विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के उपायों का भी ज्ञान प्राप्त करता है और उस ज्ञान के आधार पर अपना मार्ग निर्धारण करता है।

3. शिक्षा के सम्प्रत्यय का ज्ञान- शिक्षा का सम्प्रत्यय दर्शन का विषय क्षत्रे है। जिस दर्शन का इस ब्रह्माण्ड और उसमे मानव जीवन के प्रति जो दृष्टिकोण हेाता है उसी के अनुरूप- ‘शिक्षा क्या है’ निर्धारित किया जाता है। 

आदर्शवाद प्लेटो के अनुसार- ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है जो, अच्छी आदतों के द्वारा बच्चों में नैतिकता का विकास करती हैं।’’ 

प्रकृतिवादी एडम्स के अनुसार- ‘‘शिक्षा का सामान्य अर्थ उन सभी शिक्षा पद्धतियों से है जो विद्यालयों और पुस्तकों पर निर्भर न होकर, छात्र के वास्तविक जीवन के अध् ययन पर निर्भर रहती है।’’ 

प्रयोजवादी जॉन रस्किन के अनुसार- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है जो बच्चों को अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समाज में महत्वपूर्ण स्थान पाने और आराम और ऐश्वर्य का जीवन जीने के लिये तैयार करती है।’’ 

इस प्रकार से विर्भिन्न दार्शनिकों ने अपने दर्शन के अनुरूप शिक्षा के सम्प्रत्यय को स्पष्ट किया।

4. उद्देश्य निर्धारण में- दर्शन का प्रथम भाग तत्व मीमासा होता है। रस्क का मत है कि शिक्षा के उद्देश्यों का सम्बंध जीवन के साध्यों के साथ है। दर्शन इस बात का निर्धारण करता है कि जीवन के उद्देश्य क्या होना चाहिये और इन उद्देश्यों का प्रत्याक्षीकरण शिक्षा दर्शन द्वारा होता है। 

टी0पी0 नन ने लिखा है- ‘‘शिक्षा की प्रत्येक योजना अन्ततोगत्वा व्यावहारिक दर्शन है और जीवन के प्रत्येक बिन्दु को आवश्यक रूप से स्पर्श करती है।’’ 

अत: शिक्षा का कोई भी उद्देश्य जो निश्चित रूप से पथ प्रदर्शन करने के लिये पर्याप्त रूप से स्थूल है, जीवन के आदर्शों से सम्बंध रखते हैं, क्योंकि जीवन के आदर्श भिन्न होते हैं, इनकी भिन्नता शैक्षिक सिद्धान्तों में अवश्य प्रतिबिम्बित होगी जैसे -
  1. आदर्शवाद के अनुसार सच्ची वास्तविकता, आध्यात्मिकता और विचार है। तो रॉस एवं रस्क के अनुसार ‘‘शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्तित्व का उत्कर्ण एवं आत्मनुभूति और व्यक्तित्व का मुख्य लक्षण सार्वभौमिक मूल्य से युक्त होना।
  2. प्रकृतिवाद के अनुसार मनुष्य इन्द्रियों एवं विभिन्न शक्तियों का समन्वित रूप है और ज्ञान एवं सत्य का आधार इन्द्रियानुभव होता है तो शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये उचित सहज सम्बद्ध क्रियाओं का निर्माण, जीवन की तैयारी, आत्मसंरक्षण, मूल प्रवृत्तियों का शोधन।
  3. यथार्थवाद के अनुसार- जगत में जिसका अस्तित्व है वही सत्य है। सत्य वास्तविकता का सारतत्व प्रक्रिया है। इस का प्रभाव इनके शिक्षा पर स्पष्ट परिलक्षित हुआ और शिक्षा का उद्देश्य जॉन लॉक के अनुसार- ‘‘बालक में सद्गुण, बुद्धिमान, सदाचरण तथा सीखने की शक्ति का विकास करना ही शिक्षा है।’’
  4. प्रयोजनवाद अर्थ का सिद्धान्त- सत्य का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त और वास्तविकता का सिद्धान्त देता है और प्रयोजनवादियों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य स्थायी रूप से बनाये नहीं जा सकते। उनमें समय और मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन किया जाना चाहिये।
5. पाठ्यक्रम निर्धारण में- दर्शन का दूसरा भाग ज्ञान मीमांसा होता है और इसमें ज्ञान के स्वरूप की व्याख्या की जाती है। शिक्षा दर्शन के लिये प्रश्न की उत्पत्ति होती है। क्या पढ़ाया जाय ? और क्यों पढ़ाया जाय? इस आधार पर शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्धारण भी शिक्षा दर्शन के सहयोग के बिना नहीं हो सकता क्योंकि पाठ्यचर्या शिक्षा के उद्देश्य जीवन के उद्देश्यों से प्रभावित हेाते हैं और उद्देश्यों की विविधता के कारण पाठ्यक्रम में भी विविधता होगी। पाठ्यक्रम निर्धारण में शिक्षा दर्शन विविध काल एवं परिस्थितियों के अनुसार पाठ्यचर्या की जानकारी देता है और अपने लिये उपयुक्त पाठ्यक्रम के चुनाव में सहयोग देता है। उदाहरणार्थ-
  1. आदर्शवादी शिक्षा का उद्देश्य जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति है, तो उन्होनें पाठ्यक्रम में मानवीय विचारों एवं मूल्यों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है, और पाठ्यक्रम विचार केन्द्रित है।
  2. प्रकृतिवादी बालक के स्वाभाविक विकास पर अधिक बल देता है। इनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिकता का विकास करना है अत: पाठ्यक्रम में बालक की तत्कालीन आवश्यकताओं, रूचियों, क्षमताओं आदि को आधार बनाया जाता है, पाठ्यक्रम बात केन्द्रित होता है
  3. प्रयोजनवादी उपयोगिता एवं व्यावहारिकता पर बल देते हेैं। यह बालक को अपने मूल्यों को स्वयं निर्मित करने वाला मानते है। अत: पाठ्यक्रम में बालक की वर्तमान एवं भावी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उपयोगी क्रियाओं को स्थान दिया जाता है।
  4. यथार्थवादी प्रत्यक्ष पर विश्वास करते हैं, अत: पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक के बजाय अधिक व्यावहारिक होता है और जीवन की वास्तविक क्रियाओं को अधिक महत्व दिया जाता है। इन सभी के आधार पर हम यह विचार कर सकते हैं कि प्रत्येक स्तर की शिक्षा में हमारा पाठ्यक्रम विचार से आदर्शवादी, कर्म से प्रकृतिवादी एवं प्रयोजन से यथार्थवादी होना चाहिये। रस्क ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ‘‘शिक्षा दर्शन पर पाठ्यक्रम के सम्बंध में शिक्षा जितना निर्भर है, उतनी अन्य किसी शैक्षिक प्रश्न के सम्बंध में नहीं है।’’
6. शिक्षण विधियों का ज्ञान- दर्शन के ज्ञान मीमांसा के अन्तगर्त मानव बुद्धि, ज्ञान और ज्ञान प्राप्त करने की विधियों पर प्रकाण डाला जाता है। शिक्षा दर्शन शिक्षा व्यवस्था हेतु उपयोगी शिक्षण विधियों की जानकारी भी देता है, और किसको कब और किस प्रकार, पढ़ाना चाहिये, इस प्रकार के विचार अनेक शिक्षा शास्त्रियों के मिलते हैं, जिससे कि अध्यापक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपने आदर्श एवं शिक्षण उद्देश्यों के लिये उचित शिक्षण विधियों का चुनाव कर सकता है। 

उदाहरणार्थ-सुकरात ने अपने दार्शनिक विचारों के अनुकूल प्रश्नोत्तर विधि को जन्म दिया। प्लेटो ने संवाद विधि अरस्तु ने आगमन एवं निगमन विधि को खोजा। प्रकृतिवादी रूसो ने बालक की अत्यधिक स्वतंत्रता को महत्व देते हुये स्वानुभव तथा स्वक्रिया बल दिया। मान्टेसरी ने इन्द्रिय यथार्थवाद के आधार पर इन्द्रिय प्रशिक्षण को शिक्षण पद्धति के रूप में अपनाया। 

फ्राबेल ने किण्डरमार्टन पद्धति केा जन्म दिया इस प्रकार भिन्न-भिन्न शिक्षाशास्त्रियों द्वारा भिन्न पद्धति को खोजा गया शिक्षा दर्शन इन शिक्षण पद्धति के प्रयोग का कारण एवं महत्व की विवेचना कर हमारा दृष्टिकोण और स्पष्ट करता है। शिक्षा में अनुशासन सम्बंधी दृष्टिकोणो का ज्ञान- शिक्षा दर्शन में विभिन्न दर्शनों एंव उनके द्वारा व्यक्त अनुशासन की समस्या एवं विचारों का अध्ययन किया जाता है। यह भावी शिक्षक को उपयुर्क्त अनुशासन विधियों को समझने तथा चुनाव करने में सहायक होती है। 

रस्क का कथन है- ‘‘विद्यालय कार्य के अन्य किसी भी पक्ष की अपेक्षा अनुशासन किसी व्यक्ति या युग की दार्शनिक पूर्व धारणाओं को अधिक प्रत्यक्ष रूप से प्रतिबिम्बित करता है। 

उदाहरणार्थ- आदर्शवादी मुख्यत: आत्म नियंत्रण एंव शिक्षक के प्रभाव द्वारा अनुशासन की स्थापना को महत्व देते है, तो प्रकृतिवादी प्राकश्तिक नियमों द्वारा दण्ड विधान को महत्व देते थे। प्रयोजनवादी अनुशासन स्थापना हेतु रूचि, आनन्दपूर्ण सहयोगी क्रियाओं को महत्व देते हैं। इस प्रकार अनुशासन मुख्यत: दमनात्मक, प्रभावात्मक, मुक्त्यात्मक एवं सामाजिक अनुशासन के रूप में पाया जात हैं। 

भारतीय परिप्रेक्ष्य में हम प्रभावात्मक, मुक्त्यात्मक एवं सामाजिक अनुशास को महत्व देते हैं। रस्क ने लिखा है- ‘‘प्रकृतिवादी दर्शनशास्त्र में नैतिक मानदण्डों की प्रमाणिकता को अस्वीकार करके बालक की जन्मजात मूल प्रवश्त्तियों को प्रकट होने में सहयोग देता है। 

प्रयोजनवादी छात्रों के आचरण को सामाजिक स्वीकृति पर ही नियत्रित करता है। दूसरी ओर आदर्शवादी मानव व्यवहार को नैतिक आर्दणों के अभाव में अपूर्ण मानता है।’’

7. शिक्षक-शिक्षार्थी के सम्बन्धों का ज्ञान- दर्शन की तत्व मीमांसा में मनुष्य के स्वरूप और आचार मीमांसा में करणीय और अकरणीय कर्मों की विशद व्याख्या की जाती है। शिक्षा दर्शन विभिन्न विचार धाराओं के अनुसार शिक्षक एवं शिक्षार्थी का स्वरूप एवं उनके कर्तव्य निश्चित करता हैं। 

उदाहरणार्थ- प्रकृतिवादी मानव का विकास मूल शक्तियों के आधार पर ही होता है। अत: वे शिक्षक का कर्तव्य शिक्षार्थी के स्वभाविक विकास में सहयोग मानते हैं। आदर्शवादी शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान देता है रास के अनुसार प्रकृतिवादी कंटीली झाड़ियों से सन्तुष्ट हो सकता है पर आदर्शवादी सुन्दर गुलाबी फूल ही पसन्द करता हैं। शिक्षक छात्र को उच्चतर सीमा तक पहॅुचाने का प्रयास करता है, जहां वह अपने आप नहीं पहुंच पाता। भारतीय शिक्षा में भी गुरू का स्थान सर्वोपरि माना गया है।

8. शैक्षिक प्रशासन का ज्ञान- शिक्षा दर्शन इस बात का अध्ययन करता है कि नियोजित शिक्षा की प्रक्रिया को चलाने के लिये विद्यालयों का क्या स्वरूप होना चाहिये। शिक्षा दर्शन के अभाव में हम विद्यालय प्रशासन का स्वरूप निर्धारित नहीं कर सकते। विद्यालय का आन्तरिक प्रशासन कैसा हो और आचार्य एवं अध्यक्ष कैसा हो यह दर्शन का प्रश्न है। विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्था समाज के दर्शन पर निर्भर करती है यदि समाज लोकतांत्रिक दृष्टिकोण का है तो हम यह तय कर लेते हैं कि विद्यालय की प्रशासन लोकतांत्रिक होगा।

9. शिक्षा की अन्य समस्याओं का दार्शनिक हल- दर्शन के अभाव में शैक्षिक समस्याओं का वास्तविक समाधान, ढूॅढना कठिन है। शिक्षा दर्शन, दर्शन के विभिन्न विचार धाराओं को अपने कसौटी में कसकर वास्तविक हल ढूढंने में सहायक होता है विश्व परिवर्तनशील है और आजकल यह परिवर्तन बड़ी तेजी से हो रहा है। हमारी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति भी तेजी से बदल रही है। विज्ञान के आविष्कारों ने हमारे जीवन को पूर्णतया बदल दिया है। शिक्षा को इसके साथ कदम मिलाकर चलना है अन्यथा हम आने वाले समय में अपने आपको सुरक्षित नहीं रख सकेंगे। पर हमें कितना बदलना है और कितना नहीं जितना बदलना है, वह क्यों और जितना नहीं बदलना है वह क्यों इस सबका उत्तर तो वही दे सकता है जिसने शिक्षा दर्शन का अध्ययन किया हो।
संदर्भ -
  1. 1. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक आधार, माथुर, एस.एस., विनोद पुस्तक मंदिर।
  2. 2. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, योगेंद्र, मध्लिका शर्मा।
  3. 3. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, ओ.पी.।
  4. 4. शिक्षा और मनोविज्ञान: मापन और मूल्यांकन, शशि प्रभा।

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