शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, कार्य, आवश्यकता एवं महत्व

शिक्षा का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द ’Education’ है। हमारा ’शिक्षा’ शब्द भी संस्कृत की शिक्षा धातु से निकला है जिसका अर्थ है, सीखना और सिखाना। शिक्षा में सीखने - सिखाने की क्रिया होती है।

शिक्षा का अर्थ

शिक्षा का शब्दिक अर्थ होता है सिखाना व आगे बढाना होता है, शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन भर चलती है। यह बालक के जन्म से मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है शिक्षा के अर्थ को समझने के लिए इसके सभी दृष्टिकोण को समझने की आवश्यकता है। शिक्षा के अर्थ को समझने की दृष्टि से इसे दो भागों में विभाजित किया गया है । संकीर्ण अर्थ-संकीर्ण अर्थ से अभिप्राय उस शिक्षा से है जो की स्कूल व कालेज में दिया जाता है संकीर्ण दृष्टिकोण में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान और लिखने-पढ़ने से लिया जाता है।

संकुचित अर्थ मे बालक को स्कूल में दी जाने वाली शिक्षा को ही महत्व दिया है इस प्रकार की शिक्षा कुछ विशेष प्रभावों और विशेष विषयों तक सीमित होती है। यह आधुनिक समय की शिक्षा प्रणली है जो कि विद्यालय के ज्ञान की श्रेष्ठता को ही स्वीकारा करती है तथा पाठ्य-पुस्तकों के ज्ञान को ही अधिक मान्यता देती है यह दृष्टिकोण केवल स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा या व्यवसायिक शिक्षा पर ही अधिक महत्व देता है ।

व्यापक अर्थ में शिक्षा मानव की अन्धकार से प्रकाश की ओर अनन्त यात्रा है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो आजीवन चलती है। व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक जो कुछ भी सीखता , और अनुभव प्राप्त करता है वही उसकी शिक्षा है । व्यापक दृष्टि से शिक्षा का तात्पर्य सभी प्रकार के ज्ञान के संग्रह तथा मानव के चहुंमुखी विकास से लिया जाता है | यह शिक्षा प्रणाली बालक के सर्वागीण विकास पर अत्याधिक बल देती है शिक्षा उन्नति का प्रथम सोपान तथा सच्चा मनुष्य बनाने की प्रक्रिया में एक उत्कृष्ट उपादान है और एक सभ्य मनुष्य बनाने का साधन भी शिक्षा ही है, मनुष्य जीवन भर शिक्षा के माध्यम से सीखता है ।

शिक्षा की परिभाषा

शिक्षा की परिभाषा शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा-परखा और परिभाषित किया है। 

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - शिक्षा के द्वारा मनुष्य को अपने पूर्णता को भी अनुभूति होनी चाहिए। उनके शब्दों में- ‘‘ मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।’’ 

महात्मा गॉधी के शब्दों में- ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।’’ 

प्लेटो - शिक्षा के द्वारा शरीर और आत्मा दोनों क विकाश के महत्व को स्वीकार करते है।

अरस्तू के अनुसार - ‘‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण ही शिक्षा है।’’ 

चार्वाकों की दृष्टि में-’’शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाती है।’’

हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार-’’शिक्षा का अर्थ अन्त: शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।’’ 

सुकरात-’’शिक्षा का अर्थ है- प्रत्यके मनुष्य के मस्तिष्क में अदृश्य रूप में विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाण में लाना।’’

एडीसन-’’अब शिक्षा मानव मस्तिष्क को प्रभावित करती है तब वह उसके प्रत्येक गुण को पूर्णता को लाकर व्यक्त करती है।’’ 

फ्राबेल- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियॉ बाहर प्रकट होती है।’’ 

टी0पी0नन-’’शिक्षा व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है जिससे कि व्यक्ति अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार मानव जीवन को योगदान दे सके।’’

पेस्टालॉजी- ‘‘शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।’’ 

हार्न-’’शिक्षा शारीरिक और मानसिक रूप से विज्ञान विकसित सचेत मानव का अपने मानसिक संवेगात्मक और संकल्पित वातावरण से उत्तम सामंजस्य स्थापित करना है।’’ 

ब्रा्रा्उन-’’शिक्षा चैतन्य रूप में एक नियंत्रित प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किये जाते हैं और व्यक्ति के द्वारा समूह में।’’

शिक्षा के प्रकार

व्यवस्था की दृष्टि से शिक्षा के तीन रूप है-  1. औपचारिक, 2. अनौपचारिक।औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा है जिसमें शिक्षा का माध्यम औपचारिक साधन होते है इन साधनों के अन्तर्गत औपचारिक शिक्षा स्थल होते थे जिसमें पूर्व नियोजित योजना द्वारा व्यक्ति को शिक्षित किया जाता था चूँकि यह शिक्षा बालक का नियोजित पाठ्यक्रम द्वारा दी जाती थी अतः इस क्षा पद्धति को प्रत्यक्ष शिक्षा का साधन भी कह सकते है जिसमें मन्दिर, गुरूकुल तथा आश्रमों को शिक्षा का प्रमुख केन्द्र माने जाते थे।

अनौपचारिक शिक्षा परिवार, पुरोहित पण्डित, सन्यासी और त्यौहार प्रसंग आदि के माध्यम से प्रदान की जाती थी विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख भी प्राप्त होते है अनौपचारिक शिक्षा प्रदान की जाती थी प्राचीन काल में माता-पिता व परिवार ही बच्चों को शिक्षित करते थे व गुरू की भूमिका निभाते थें । अनौपचारिक शिक्षा भी व्यक्ति के विकास के लिए जरूरी होती थी क्योकि बच्चों की प्रथम पाठशाला तो उनका परिवार होता है परिवार में रहकर ही बच्चा समाज के तौर-तरीकों को सिखता है व बच्चा सामाजिक प्राणी बनता है । 

अल्तेकर महोदय ने शिक्षा के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया है वैदिक युग से लेकर आज तक भारत में शिक्षा प्रकाश का वह स्त्रोत है जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे हमारा सच्चा मित्र और पथ-प्रदर्शक का कार्य भी करती है ।

शिक्षा के कार्य

शिक्षा का कार्य देश और काल के अनुरूप बदलता रहता है, शिक्षा के कार्य है -
  1. मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास करना।
  2. शिक्षा का प्रमुख कार्य सतुंलित व्यक्तित्व का विकास करना भी है।
  3. शिक्षा का अति महत्वपूर्ण कार्य चरित्र का निर्माण एवं उसका नैतिक विकास करना है
  4. मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिये भी सहायक होता है, जो अपना भार स्वयं उठा लेता है।
  5. शिक्षा का प्रमुख कार्य बच्चों को जीवन के लिये तैयार करना है। 

शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व

हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा ही बच्चे की जानवर प्रवृत्ति को मानव प्रवृत्ति में बदलती है। 
  1. शिक्षा वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ परिपक्वता के लिए भी आवश्यक है।
  2. शिक्षा  उसके जीवन में नैतिक, आध्यात्मिक चरित्र निर्माण तथा उच्च स्तर के मूल्यों के व्यवहार के लिए शिक्षा देती है। 
  3. शिक्षा तात्कालिक तथा अंतिम दोनों शैक्षिक लक्ष्यों को पूर्ण करने के लिए महत्वपूर्ण है। 
  4. यह आर्थिक रूप से आत्मसंतुष्ट, आत्मनिर्भर एवं आत्मावलंबी बनाती है। 
  5. शिक्षा मौलिक आवश्यकता के लक्ष्य को पूर्ण करती है। 
  6. यह व्यक्तियों में बौद्धिक तथा भावनात्मक शक्तियों का विकास करती है ताकि व्यक्ति जीवन की समस्याओं के सफलतापूर्वक समाधान करने के योग्य हो जाए। 
  7. शिक्षा व्यक्ति में सामाजिक गुणों जैसे सेवा, सहिष्णुता, सहयोग, सहानुभूति तथा संवैधानिक मूल्यों का विकास करती है। 
  8. शिक्षा हमें राष्ट्र के लिए प्रेम एवं राष्ट्र के विकास के लिए कार्य करना सिखाती है। 

शिक्षा के अंग

शिक्षा के अंग - शिक्षा प्रक्रिया के मुख्यत: दो अंग होते हैं- 
  1. एक सीखने वाला और 
  2. दूसरा सिखाने वाला। 
1. शिक्षार्थी - यह शिक्षा प्रक्रिया का सबसे पहला और मुख्यतम अंग होता है। शिक्षार्थी की अनुपस्थिति में शिक्षा की प्रक्रिया चलने का केाई प्रश्न ही नहीं। शिक्षा अपनी रूचि, रूझान और योग्यता के अनुसार ही सीखता है। सीखने की क्रिया शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, उसकी अभिवृद्धि, विकास एवं परिपक्वता और सीखने की इच्छा, पूर्व अनुभव, नैतिक गुणों, चरित्र, बल, उत्साह, थकान एवं उसकी अध्ययनशीलता पर निर्भर करती है। 

2. शिक्षक - शिक्षा के व्यापक अर्थ में हम सब एक दूसरे को प्रभावित करते हैं सीखते हैं, इसलिये हम सभी शिक्षार्थी और सभी शिक्षक हैं। परन्तु संकुचित अर्थ में कुछ विशेष व्यक्ति, जो जान बूझकर दूसरों को प्रभावित करते हैं और उनके आचार-विचार में परिवर्तन करते हैं, शिक्षक कहे जाते हैं। शिक्षक के बिना नियोजित शिक्षा की कल्पना आज भी सम्भव नहीं है। शिक्षक बालक के विकास में पथ-प्रदर्शक का कार्य करता है। 

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