भूमंडलीय तापन क्या है तापमान के वितरण का अध्ययन?

आज हमारी पृथ्वी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या भूमंडलीय तापन है। वैज्ञानिक इसका संबंध वायु में ओजोन परत के घटने और कार्बन-डाइ-आक्साइड के बढ़ने से बताते हैं। आप जानते हैं कि समतापमंडल के ऊपरी भाग में ओज़ोन गैस की परत है। ओज़ोन सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है और उन्हें पृथ्वीतल तक नहीं पहुँचने देती। वैज्ञानिकों का मत है कि ओज़ोन परत की मोटाई अब घट रही है। इस कारण वायुमंडल की गैंसों का संतुलन बिगड़ रहा है और सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरातल पर पहुंच रही है। ये धरातल के तापमान को बढ़ाने और पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं को कई तरह से प्रभावित करने के लिए उत्तरदायी हैं।

गत 50 वर्षों में कोयला और पेट्रोलियम के उत्पादों को बड़ी मात्रा में जलाने के परिणाम स्वरूप वायुमंडल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ रहा है। ऐसा अनुमान है कि पिछले 100 वर्षों के अंतराल में कार्बन-डाइ-आक्साइड की मात्रा में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कार्बन-डाई-आक्साइड सूर्यातप को तो गुजर जाने देती है; परन्तु पार्थिव विकिरण को अवशोषित कर लेती है। वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के परिणाम स्वरूप, भूमण्डल का तापमान बढ़ रहा है। ऐसा अनुमान है कि गत 100 वर्षों में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने के कारण वायुमंडल का तापमान लगभग 0.5ºC बढ़ गया है। बड़े पैमाने पर वनों के विनाश, कूड़े-करकट का जलाना, कारखानों में दोहन क्रियाओं और ज्वालामुखी के उद्गारों के कारण भी वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ी है।

यदि ओजोन परत का ह्रास और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि इसी प्रकार होती रही तो ऐसा समय आ सकता है, जब वायुमंडल का तापमान इस सीमा तक बढ़ जायेगा, कि इससे ध्रुवीय हिमचादर पिघल सकती है और समुद्र-तल के ऊँचा होने से तटीय भाग तथा द्वीप पानी में डूब सकते हैं। ओज़ोन परत के ह्रास और कार्बन-डाइऑक्साइड में वृद्धि के कारण सारी पृथ्वी के तापमान के बढ़ने को भूमंडलीय तापन कहते हैं।

तापमान एवं उसका वितरण

ऊष्मा वह ऊर्जा है जो किसी वस्तु को गर्म करती है जबकि तापमान किसी वस्तु में ऊष्मा की तीव्रता की माप है। यद्यपि ऊष्मा और तापमान दो अलग-अलग पहलू हैं परन्तु इन दोनों के बीच बहुत निकट का संबंध है। जब किसी वस्तु में ऊष्मा की वृद्धि या कमी होती है तो उस वस्तु का तापमान भी क्रमश: बढ़ या घट जाता है। इसके अतिरिक्त तापमान का अंतर ऊष्मा के प्रवाह की दिशा निर्धारित करता है। इस बात की जानकारी तापमान के वितरण का अध्ययन करके की जा सकती है।

तापमान का क्षैतिज एवं उध्र्वाधर वितरण दोनों ही बदलते रहते हैं। अत: तापमान के वितरण का अध्ययन नीचे दिए दो रूपों में किया जाता है :
  1. तापमान का क्षैतिज वितरण
  2. तापमान का ऊध्र्वाधर वितरण

1. तापमान का क्षैतिज वितरण 

पृथ्वी की सतह पर अक्षांश और देशांतर रेखाओं के आरपार तापमान के वितरण को तापमान का क्षैतिज वितरण कहते हैं। इस वितरण को मानचित्र में समताप रेखाओं द्वारा दर्शाया जाता है। समताप रेखा मानचित्र पर खींची गई वह काल्पनिक रेखा है जो मध्य समुद्र तल पर उतारे गये समान तापमान वाली स्थानों को मिलाती है। यदि आप तापमान के वितरण को दर्शाने वाली समताप रेखाओं के मानचित्र का अध्ययन करें तो आपको ज्ञात होगा कि पृथ्वी की सतह पर तापमान का वितरण समान नहीं है। 

तापमान के असमान वितरण के लिये उत्तरदायी कारक हैं - (i) अक्षांश, (ii) स्थल और जल की विषमता, (iii) उच्चावच एवं ऊँचाई, (iv) महासागरीय धारायें, (v) पवनें, (vi) वनस्पति आवरण, (vii) मिट्टी की प्रकृति और (viii) भूमि का ढाल एवं अभिमुखता।

1. अक्षांश : आपने सूर्यातप के अंतर्गत पहले ही पढ़ लिया है कि विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर जाने पर सूर्य की किरणों का आपतन-कोण छोटा होता जाता है। आपतन कोण जितना बड़ा होगा उतना ही ऊँचा तापमान होगा। इसके विपरीत छोटे आपतन कोण के कारण तापमान नीचे होते हैं। इस सिद्धांत के आधार पर ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में ऊँचे तापमान पाये जाते हैं और ध्रुवों पर वर्ष के अधिकतर भाग में तापमान हिमांक बिंदु से नीचे रहते हैं।

2. स्थल और जल की विषमता : स्थल और जल की विषमता का तापमान के वितरण पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। दिन (सूर्य के प्रकाश) में स्थल भाग जल भाग की अपेक्षा शीध्र और अधिक गर्म हो जाता है। यह रात में भी शीघ्र और अधिक ठंडा हो जाता है। अत: दिन के समय अपेक्षाकृत ऊँचे तापमान स्थल भाग पर पाये जाते हैं और रात के समय जलभाग पर। इसी प्रकार तापमान के वितरण में ऋतुओं के अनुसार भी भिन्नताएँ मिलती हैं। ग्रीष्म ऋतु में महासागरों की अपेक्षा महाद्वीपों पर ऊँचे तापमान मिलते हैं। शीत ऋतु में महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों पर ऊँचे तापमान पाये जाते हैं। स्थल और जल के बीच तापमान की बहुत बड़ी विषमता होने के बावजूद भी अलग-अलग प्रकार के भूभागों के भी गर्म होने की दर अलग-अलग है। हिम से ढका धु्रवीय भाग बहुत धीरे-धीरे गर्म होता है; क्योंकि वह सौर ऊर्जा का अधिकतर भाग परावर्तित कर देता है। वनस्पति से ढका भूभाग भी ज्यादा गर्म नहीं हो पाता; क्योंकि सूर्यातप की अधिक मात्रा पौधों में से जल को वाष्पित करने में खर्च हो जाती है।

3. उच्चावच एवं ऊँचाई : पर्वत, पठार और मैदान जैसे उच्चावच लक्षण तापमान के वितरण को नियंित्रात करते हैं। पवनों के प्रवाह में पर्वत अवरोध का कार्य करते हैं। हिमालय पर्वतमाला शीतऋतु में मध्य एशिया से आने वाली ठंडी पवनों को रोक कर भारत के तापमान को नीचे गिरने से रोकती हें इसी कारण शीत ऋतु में कोलकत्ता (भारत) उतना ठंडा नहीं होता जितना वयांगजो (कैन्टन, चीन) यद्यपि दोनों नगर एक ही अक्षांश वृत्त पर स्थित हैं। हम समुद्र तल से जैसे-जैसे ऊपर जाते हैं तापमान में धीरे-धीरे गिरावट का अनुभव करते हैं। तापमान औसतन प्रति 165 मीटर की ऊँचाई पर 1.0 सें. की दर से गिरता है। इसे सामान्य ह्रास दर कहते हैं। कम ऊँचाई की वायु तप्त धरातल के निकट होने और घनी होने के कारण अधिक ऊँचाई की वायु से ज्यादा गर्म होती है। यही कारण है कि ग्रीष्म ऋतु में मैदानों की अपेक्षा पर्वतीय भाग ठंडे होते हैं । यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि किसी स्थान पर ऊँचाई के साथ तापमान कम होने की दर दिन के विभिन्न समयों, ऋतु और स्थान की स्थिति के अनुसार बदलती रहती है। क्विटो और गुआयक्विल विषुवत वृत्त पर एक दूसरे के निकट स्थित इक्वेडोर (अमरीका ) के दो नगर हैं। इन दोनों नगरों की समुद्र तल से ऊँचाई क्रमश: 2800 मीटर तथा 12 मीटर है। ऊँचाई में भिन्नता के कारण क्विटो का औसत वार्षिक तापमान 13.3 डिग्री सेल्सीयस है; जबकि गुआयाक्विल का औसत वार्षिक तापमान 25.5 डिग्री सेल्सीयस है।

4. महासागर धाराएं : महासागर धारायें गर्म और ठंडी दो प्रकार की होती हैं। गर्म धाराएं जिन तटों के साथ बहती हैं, उन्हें अपेक्षाकृत गर्म कर देती हैं और ठंडी धारायें निकटवर्ती तटों को ठंडा बना देती हैं। उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट (गर्म धारा) के कारण उत्तरी-पश्चिमी यूरोप का तट सर्दियों में जमने नहीं पाता, जबकि कनाडा का क्यूबेक तट लेब्राडोर ठण्डी धारा के कारण सर्दियों में जम जाता है। यद्यपि यह उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के तट की अपेक्षा निम्न अक्षांशों में स्थित हैं।

5 पवनें : पवनें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ऊष्मा का स्थानांतरण करती हैं। 

6. वनस्पति आवरण : वनस्पति आवरण सूर्य से प्राप्त ऊष्मा को सोख लेती है और पार्थिव विकिरण को रोकती है। इसके विपरीत वनस्पति विहीन मृदा सूर्य से प्राप्त ऊष्मा को शीघ्र सोख लेती है और शीघ्र ही विकिरित कर देती है। इसलिए घने वनों में तापमान में भिन्नता मरुस्थलीय प्रदेशों की अपेक्षा कम पाई जाती है। उदाहरणार्थ विषुवतीय प्रदेशों में वार्षिक ताप परिसर लगभग 5 डिग्री से. है, जबकि मरूस्थलीय प्रदेशों में यह 38 डिग्री तक बढ़ जाता है।

7. मिट्टी की प्रकृति : मिट्टी का रंग, उसकी बनावट तथा संगठन किसी स्थान के तापमान को प्रभावित करते हैं। बलुई मिट्टी की अपेक्षा काली, पीली तथा चिकनी मिट्टी अधिक ऊष्मा अवशोषित करती हैं। साथ ही बलुई मृदा, काली, पीली तथा चिकनी मृदा की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से ऊष्मा विकिरित कर देती है। यही कारण है कि काली मिट्टी के क्षेत्रों में तापमान की भिन्नता कम मिलती है; जबकि बलुई मिट्टी के क्षेत्रों में तापमान में बहुत अधिक भिन्नता मिलती है। समतल और चमकदार धरातल कम ऊष्मा ग्रहण करता है और शीघ्र विकिरित कर देता है जबकि ऊबड़-खाबड़ धरातल अधिक ऊष्मा सोखता है और इसका विकिरण धीरे-धीरे करता है।

8. भूमि का ढाल एवं अभिमुखता : भूमि के ढाल की दिशा और उसका कोण सूर्यातप की प्राप्ति को नियंत्रित करते हैं। सूर्य की ओर अभिमुख ढलान अधिक सूर्यातप प्राप्त करते है; जबकि सूर्य से विमुख ढाल कम ऊष्मा प्राप्त करते हैं। हिमालय के दक्षिणी ढाल, उत्तरी ढलानों की अपेक्षा अधिक गर्म हैं। यही कारण है कि अधिकांश बस्तियां और कृषि कार्य हिमालय के दक्षिणी ढलानों पर पाये जाते हैं।

संसार में तापमान के क्षैतिज वितरण को जनवरी और जुलाई महीने के समताप रेखा मानचित्रों द्वारा अध्ययन किया जा सकता है। इन दो महीनों में अधिकतम और न्यूनतम तापमानों की ऋतुओं के अनुसार भिन्नता उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में अधिक स्पष्ट होती है।

जनवरी में तापमान का क्षैतिज वितरण

जनवरी में सूर्य की किरणें मकर वृत्त के निकट लम्बवत् पड़ती हैं। अत: दक्षिणी गोलार्ध में उस समय ग्रीष्म ऋतु होती है और उत्तरी गोलार्ध में शीत ऋतु। इस समय दक्षिण गोलार्ध में महाद्वीपों के तीन क्षेत्रों में ऊँचे तापमान पाये जाते हैं। ये क्षेत्रा हैं उत्तरी-पश्चिमी अर्जेन्टीना, पूर्वी-मध्य अफ्रीका और मध्यवर्ती आस्ट्रेलिया। इन क्षेत्रों को 30 डिग्री से. समताप रेखा घेरती है। उत्तरी गोलार्ध में इस समय महासागरों की अपेक्षा महाद्वीप अधिक ठंडे होते हैं। इस ऋतु में उत्तरी पूर्वी एशिया में सबसे कम तापमान पाये जाते हैं।

उत्तरी गोलार्ध में महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों के ऊपर की वायु गर्म होती है। इसलिए यहाँ समताप रेखायें महाद्वीपों को पार करते समय विषुवत वृत्त की ओर एवं महासागरों को पार करते समय धु्रवों की ओर मुड़ जाती है। दक्षिणी गोलार्ध में समताप रेखाओं की स्थिति उत्तरी गोलार्ध में समताप रेखाओं की स्थिति के ठीक विपरीत होती है। वे महाद्वीपों को पार करते समय धु्रवों की ओर मुड़ जाती है और महासागरों को पार करते समय विषुवत रेखा की ओर मुड़ जाती है।

दक्षिणी गोलार्ध में महाद्वीपों की अपेक्षा महासागरों का विस्तार अधिक है। इसलिए यहाँ समताप रेखायें नियमित तथा दूर-दूर हैं। इसके विपरीत उत्तरी गोलार्ध में समताप रेखायें, महाद्वीपों का अधिक विस्तार होने के कारण, अनियमित तथा पास-पास है। इन्हीं कारणों से दक्षिणी गोलार्ध के मध्य और उच्च अक्षांशों में भूमि और जल के बीच तापमान में अधिक विषमता नहींं मिलती जैसी कि विषमता उत्तरी गोलार्ध में मिलती है।

जुलाई में तापमान का क्षैतिज वितरण

जुलाई में सूर्य की लम्वबत् किरणें कर्क वृत्त के निकट पड़ती हैं। इस कारण सम्पूर्ण उत्तरी गोलार्ध में ऊँचे तापमान पाये जाते हैं। 30 डिग्री से. की समताप रेखा 10 डिग्री और 40 डिग्री उत्तरी अक्षांशों के बीच गुजरती है। ऐसे ऊँचे तापमान के प्रमुख क्षेत्रा हैं, दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य अमरीका, सहारा, अरब, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, भारत का मरुस्थल और चीन। लेकिन ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी गोलार्ध के मध्यवर्ती ग्रीनलैंड में 00 डिग्री से. के न्यूनतम तापमान भी पाये जाते हैं।

उत्तरी गोलार्ध में ग्रीष्म ऋतु की अवधि में समताप रेखायें महासागरों को पार करते समय विषुवत वृत्त की ओर मुड़ जाती है और महाद्वीपों को पार करते समय वे धु्रवों की ओर मुड़ती है। दक्षिणी गोलार्ध में समताप रेखाओं की स्थिति उत्तरी गोलार्ध की स्थिति से बिल्कुल विपरीत होती है। महासागरों पर समताप रेखायें दूर-दूर और महाद्वीपों पर वे पास-पास होती हैं। जनवरी और जुलाई के समताप रेखाओं के मानचित्रों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्रमुख बातें स्पष्ट होती हैं -
  1. सूर्य की लम्बवत् किरणों के क्षेत्रा में परिवर्तन होने के कारण उच्चतम तापमान के क्षेत्रों में अक्षांशीय परिवर्तन होता है। 
  2. विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर सूर्यातप की मात्रा घटने के कारण उच्चतम तापमान निम्न अक्षांशों में और न्यूनतम तापमान उच्च अक्षांशों में पाये जाते हैं। 
  3. उत्तरी गोलार्ध में समताप रेखायें स्थल भाग छोड़ते ही शीत ऋतु में तेजी से धु्रवों की ओर मुड़ जाती हैं और ग्रीष्म ऋतु में विषुवत वृत्त की ओर। समताप रेखाओं के इस प्रकार मुड़ने का मुख्य कारण स्थल और जल के गर्म या ठंडा होने में अंतर है। महाद्वीप महासागरों की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में अधिक गर्म और शीत ऋतु में अधिक ठंडे होते हैं।
सबसे गर्म महीने और सबसे ठंडे महीने के औसत तापमानों का अंतर वार्षिक ताप परिसर कहलाता है। उत्तरी गोलार्ध के मध्य और उच्च अक्षांशों में महाद्वीपों के आंतरिक भागों में वार्षिक ताप परिसर बहुत अधिक है। उदाहरणार्थ साइबेरिया के वर्खोयांस्क स्थान का वार्षिक ताप परिसर 68 डिग्री से. है, जो संसार में सर्वाधिक हैं शीत ऋतु में इस स्थान का न्यूनतन तापमान - 50 डिग्री सें. है। इसलिए इसे पृथ्वी का ‘‘शीत ध्रुव’’ कहते हैं।

2. तापमान का ऊध्र्वाधर वितरण

ऊँचाई के आधार पर तापमान के वितरण को तापमान का ऊध्र्वाधर वितरण कहते हैं। इसका सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान घटता जाता है। आप जानते हैं कि वायुमंडन मुख्यतया पार्थिव विकिरण से गर्म होता है। वायुमंडल की परतें जो धरातल के निकट होती हैं, पृथ्वी से सर्वाधिक ऊष्मा प्राप्त करती हैं इसलिए वे सबसे ज्यादा गर्म में होती है। लेकिन जब हम ऊपर जाते हैं तो तापमान धीरे-धीरे कम होता जाता है; क्योंकि ऊपर की परतें पृथ्वी के विकिरण द्वारा कम ऊष्मा प्राप्त करती हैं। ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान गिरने की दर 1 डिग्री से. प्रति 165 मीटर है। इसे तापमान की सामान्य हृास दर कहते हैं।

ताप विलोमता - शीतकालीन लंबी रात, साफ आकाश, शुष्क वायु और पवनों की अनुपस्थिति के कारण धरातल तथा वायुमंडल की निचली परतों से ऊष्मा का विकिरण बड़ी तीव्रता से होता है। परिणामस्वरूप धरातल के निकट की वायु ठंडी हो जाती है। ऊपर की परतें, जिनसे ऊष्मा इतनी शीघ्रता से विकिरित नहीं हो पाती अपेक्षाकृत गर्म रहती है। अत: तापमान की सामान्य दशा, जिसमें ऊँचाई के साथ तापमान कम होता है, उलट जाती है। दूसरे शब्दों में ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान भी बढ़ता है। इसी स्थिति को ताप की विलोमता या तापमान व्युत्क्रमण कहते हैं। कभी-कभी ठंडी और भारी वायु धरातल के निकट कई दिनों तक टिकी रहती है। अत: ताप की विलोमता की दशा कई दिनों तक चलती रहती है।

ताप की विलोमता की स्थिति विशेषतया अंतरपर्वतीय घाटियों में पायी जाती है। शीत ऋतु में पर्वतीय ढलान शीघ्र विकिरण के कारण बहुत जल्दी ठंडे हो जाते हैं। इन ढलानों के निकट की वायु भी ठंडी हो जाती है और उसका घनत्व बढ़ जाता है। अत: यह वायु नीचे की ओर खिसकती है और नीचे घाटी तल पर टिक जाती है। यह ठंडी और भारी वायु घाटी की अपेक्षाकृत गर्म वायु को ऊपर की ओर धकेल देती है और इस प्रकार ताप की विलोमता की स्थिति पैदा हो जाती है। कभी-कभी घाटी में वायु का तापमान हिमांक बिंदु से भी नीचे गिर जाता है, जबकि पर्वतीय ढलानों पर तापमान अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। यही कारण है कि जापान के सुवा बेसिन में शहतूत के वृक्ष और हिमाचल प्रदेश में सेब के बागान पर्वतों के निचले ढलानों पर इसलिए नहीं लगाये जाते कि उनकी शीत ऋतु में पाले से बचाया जा सके। यदि आप कभी पर्वतीय नगर गये हों तो आपने अवश्य देखा होगा कि लोगों के यात्राी निवास और धनी लोगों के मकान पर्वतों के ऊपरी ढलानों पर बने होते हैं।

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