राष्ट्रीय जल नीति क्या है?
जल राष्ट्रीय अमूल्य निधि है। सरकार द्वारा जल संसाधनों की योजना, विकास तथा
प्रबंधन के लिए नीति बनाना आवश्यक है, जिससे पृष्ठीय जल और भूमिगत जल का न
केवल सदुपयोग किया जा सके, अपितु भविष्य के लिए भी जल सुरक्षित रहे। वर्षा की
प्रकृति ने भी इस ओर सोचने के लिए विवश किया है। इसी संदर्भ में सितम्बर, 1987
में ‘राष्ट्रीय जल नीति’ को स्वीकार किया गया। कालान्तर में कई मुद्दों व समस्याओं
के उभरने के कारण वर्ष 2002 में इसे संशोधित कर ‘राष्ट्रीय जलनीति 2002’ प्रस्तुत
की गई। जल पारितंत्रा का एक महत्वपूर्ण और प्रमुख घटक है। सभी प्रकार के जीवन
के लिए इसे आवश्यक पर्यावरणीय रूप में मानकर व्यवहार करना चाहिए। इसका
योजना बद्ध तरीके से विकास, सरंक्षण तथा प्रबंधन करना चाहिए। इसके सामाजिक
और आर्थिक पहलू पर भी विचार आवश्यक है। देश के विस्तृत क्षेत्र हर वर्ष सूखा और
बाढ़ से पीड़ित रहते हैं। इससे न केवल धन-जन की हानि होती है; अपितु विकास का
पहिया भी ठहर जाता है।
बाढ़ और सूखे की समस्याएँ किसी राज्य विशेष की सीमा से नहीं जुड़ी हैं। यह राष्ट्रीय स्तर पर ही विचारणीय विषय है। जल संसाधनों की योजना, उनके क्रियान्वयन के साथ अनेक समस्याएं जुड़ जाती हैं। इनमें पर्यावरणीय सतत् पोषणीयता, सही ढंग से लोगों और पशुधन के विस्थापन एवं पुनर्वास, स्वास्थ्य, बाँध सुरक्षा आदि विषय अपने में समय साध्य एवं व्यय साध्य हैं। कई क्षेत्रों में जल भराव तथा मृदा के क्षारीयपन की समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। देश के कई भूभागों में तो भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक शोषण ने भी चुनौतियां दे डाली हैं। इन सभी समस्याओं पर सामान्य नीति के तहत ही विचार आवश्यक है।
खाद्यान्न का उत्पादन 1950 के दशक में 500 लाख टन था जो 1999-2000 में बढ़कर 2080 लाख टन हुआ। सन् 2025 में खाद्यान्न की मात्रा 3500 लाख टन करनी होगी। घरेलू उपयोग, उद्योगों, ऊर्जा उत्पादन आदि क्षेत्रों में जल की मांग बढ़नी है। जल संसाधन पहले से ही कम हैं, भविष्य में इनकी और कमी होगी। जल की गुणवत्ता एक और महत्वपूर्ण पहलू है। पृष्ठीय और भूमिगत जल में प्रदूषण बढ़ रहा है। जल प्रदूषण के मानव जन्य मुख्य स्रोत-घरेलू अपशिष्ट जल, औद्योगिक अपशिष्ट जल और निस्राव तथा कृषि कार्यों में प्रयुक्त रसायन है। कभी-कभी प्राकृतिक कारण भी जलप्रदूषण को बढ़ाने से नहीं चूकते। जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत-अपरदन, भूस्खलन, पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की सड़न और विघटन हैं। भारत के तीन चौथाई पृष्ठीय जल संसाधन प्रदूषित हैं। प्रदूषण से मुक्ति के लिए वैज्ञानिक नई तकनीक और प्रौद्योगिकी तथा प्रशिक्षण द्वारा जल संसाधन विकास और प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
बाढ़ और सूखे की समस्याएँ किसी राज्य विशेष की सीमा से नहीं जुड़ी हैं। यह राष्ट्रीय स्तर पर ही विचारणीय विषय है। जल संसाधनों की योजना, उनके क्रियान्वयन के साथ अनेक समस्याएं जुड़ जाती हैं। इनमें पर्यावरणीय सतत् पोषणीयता, सही ढंग से लोगों और पशुधन के विस्थापन एवं पुनर्वास, स्वास्थ्य, बाँध सुरक्षा आदि विषय अपने में समय साध्य एवं व्यय साध्य हैं। कई क्षेत्रों में जल भराव तथा मृदा के क्षारीयपन की समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। देश के कई भूभागों में तो भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक शोषण ने भी चुनौतियां दे डाली हैं। इन सभी समस्याओं पर सामान्य नीति के तहत ही विचार आवश्यक है।
खाद्यान्न का उत्पादन 1950 के दशक में 500 लाख टन था जो 1999-2000 में बढ़कर 2080 लाख टन हुआ। सन् 2025 में खाद्यान्न की मात्रा 3500 लाख टन करनी होगी। घरेलू उपयोग, उद्योगों, ऊर्जा उत्पादन आदि क्षेत्रों में जल की मांग बढ़नी है। जल संसाधन पहले से ही कम हैं, भविष्य में इनकी और कमी होगी। जल की गुणवत्ता एक और महत्वपूर्ण पहलू है। पृष्ठीय और भूमिगत जल में प्रदूषण बढ़ रहा है। जल प्रदूषण के मानव जन्य मुख्य स्रोत-घरेलू अपशिष्ट जल, औद्योगिक अपशिष्ट जल और निस्राव तथा कृषि कार्यों में प्रयुक्त रसायन है। कभी-कभी प्राकृतिक कारण भी जलप्रदूषण को बढ़ाने से नहीं चूकते। जल प्रदूषण के प्राकृतिक स्रोत-अपरदन, भूस्खलन, पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की सड़न और विघटन हैं। भारत के तीन चौथाई पृष्ठीय जल संसाधन प्रदूषित हैं। प्रदूषण से मुक्ति के लिए वैज्ञानिक नई तकनीक और प्रौद्योगिकी तथा प्रशिक्षण द्वारा जल संसाधन विकास और प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।