कौटिल्य का अर्थशास्त्र क्या है?
आचार्य कौटिल्य द्वारा विरचित अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ राजनीति और अर्थशास्त्र का ऐसा महत्वपूर्ण
ग्रन्थ है जिसमें ईसा से तीन शताब्दी पूर्व के एतद्विषयक भारतीय चिन्तन की पराकाष्ठा के दर्शन
होते हैं। हमारे प्राचीन चिन्तन के बारे में पाश्चात्त्य विद्वानों का सामान्यत: यही मानना था कि भारत
ने विचार क्षेत्र में तो प्रगति की है, लेकिन क्रिया क्षेत्र में बुरी तरह असफल रहा है, लेकिन कौटिल्य
के अर्थशास्त्र के आधार पर सिद्ध हो जाता है कि हम भारतीय प्राचीन काल में विचार क्षेत्र के साथ
कार्य क्षेत्र में भी निपुण थे। इस अर्थशास्त्र में राज्य-प्रबन्ध सम्बन्ध समस्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषय वर्णित
है; जिनका अध्ययन-मनन करके भारतीय राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि संसार के राजनीतिज्ञ तथा
कूटनीतिज्ञ भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
कौटिल्य अर्थशास्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह भी है
कि इसमें सिद्धान्त एवं क्रिया का समन्वित रूप मिलता है चाणक्य अर्थशास्त्र में नीति सम्बन्धी
अत्यन्त उत्कृष्ट श्लोक सरल भाषा-शैली में निबद्ध हैं। अर्थशास्त्र यद्यपि राजनीति सम्बन्धी ग्रन्थ
है, फिर भी इसमें व्यावहारिक सामान्य नीति सम्बन्धी शाश्वत सत्य के द्योतक श्लोक मिलते हैं। इसी
कारण आज इस ग्रन्थ का महत्व ग्रीक के अरस्तु अथवा अफलातून के ग्रन्थों से भी अधिक है।
अर्थशास्त्र के कर्त्ता और उनका समय
राजनीति सम्बन्धी ज्ञान के भण्डार अर्थशास्त्र के लेखक सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधानमन्त्राी विष्णुगुप्त
चाणक्य माने जाते हैं।
आचार्य कौटिल्य का मूल नाम विष्णुगुप्त था। ‘चणक-ऋषि’ का पुत्र होने के कारण ‘चाणक्य’ तथा कुटिल गोत्राीय ब्राह्मण होने से ‘कौटिल्य’ इनके उपनाम हैं। वैसे ‘अभिज्ञान चिन्तामणि’ नामक कोश के अनुसार इनके-वात्स्यायन, मल्लनाग, कौटिल्य, चाणक्य, द्रमिल, पक्षिश-स्वामी, विष्णुगुप्त, आंगल आदि आठ नाम भी मिलते हैं। जहां कुटिल गोत्राीय ब्राह्मण होने के कारण कौटिल्य कहा गया है, वहां यह भी मिलता है कि कुटिल नीति के पक्षपाती होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से जाना जाता है। अर्थशास्त्र के अन्त में स्वयं चाणक्य द्वारा लिखे गये इस वाक्य से-”स्वमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रांच भाष्यं च” सिद्ध होता है स्वयं विष्णुगुप्त ने ही सूत्रा और भाष्य की रचना की है। कौटिल्य के जन्मस्थान के बारे में उल्लेख कहीं नहीं मिलता। माना जाता है कि आचार्य कौटिल्य का जन्म गान्धार जनपद के ‘तक्षशिला’ नामक नगर में हुआ था, उस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय विद्याओं के क्षेत्र में प्रसिद्ध एवं मुख्य केन्द्र था। संस्कृत के प्रथम व्याकरणाचार्य ‘पाणिनि’ इसी विश्वविद्यालय के आचार्य थे।
आचार्य कौटिल्य का मूल नाम विष्णुगुप्त था। ‘चणक-ऋषि’ का पुत्र होने के कारण ‘चाणक्य’ तथा कुटिल गोत्राीय ब्राह्मण होने से ‘कौटिल्य’ इनके उपनाम हैं। वैसे ‘अभिज्ञान चिन्तामणि’ नामक कोश के अनुसार इनके-वात्स्यायन, मल्लनाग, कौटिल्य, चाणक्य, द्रमिल, पक्षिश-स्वामी, विष्णुगुप्त, आंगल आदि आठ नाम भी मिलते हैं। जहां कुटिल गोत्राीय ब्राह्मण होने के कारण कौटिल्य कहा गया है, वहां यह भी मिलता है कि कुटिल नीति के पक्षपाती होने के कारण इन्हें कौटिल्य नाम से जाना जाता है। अर्थशास्त्र के अन्त में स्वयं चाणक्य द्वारा लिखे गये इस वाक्य से-”स्वमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रांच भाष्यं च” सिद्ध होता है स्वयं विष्णुगुप्त ने ही सूत्रा और भाष्य की रचना की है। कौटिल्य के जन्मस्थान के बारे में उल्लेख कहीं नहीं मिलता। माना जाता है कि आचार्य कौटिल्य का जन्म गान्धार जनपद के ‘तक्षशिला’ नामक नगर में हुआ था, उस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय विद्याओं के क्षेत्र में प्रसिद्ध एवं मुख्य केन्द्र था। संस्कृत के प्रथम व्याकरणाचार्य ‘पाणिनि’ इसी विश्वविद्यालय के आचार्य थे।
कौटिल्य ने इसी नगर में शिक्षा प्राप्त
करके इसी विश्वविद्यालय में अध्ययन का कार्य प्रारम्भ कर दिया था। उनके समय में विश्वविद्यालय
की ख्याति के कारण बहुत दूर-दूर से ब्राह्मण कुमार, राजकुमार शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य संसार के प्रमुख राजनीतिज्ञों में अग्रगण्य हैं। इनका जन्म आज से लगभग
2350 वर्ष पूर्व हुआ था। चाणक्य ने मगध वंश को समूल नष्ट करके चन्द्रगुप्त को सम्राट् बनाया
था।
इतिहासकारों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल ई0पू0 324 से ई0पू0 300 के बीच
ठहरता है। तदनुसार आचार्य कौटिल्य का स्थितिकाल निर्विवाद रूप से ई0पू0 चतुर्थ शताब्दी मानना
चाहिए। क्योंकि कौटिल्य अर्थशास्त्र पर अंग्रेजी अनुवाद करने वाले डॉ0 फ्लीट ने अपनी संक्षिप्त
भूमिका में अर्थशास्त्र का संभावित रचनाकाल 321-296 ई0पू0 माना है। इस मत से डॉ0 जैकोबी
तथा डॉ0 टॉमस आदि विद्वान भी सहमत हैं।
लेकिन कुछ विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। प्रोफेसर जॉली ने कौटिल्य का समय ईसा की चौथी शताब्दी माना है क्योंकि मैगस्थनीज के यात्रा विवरण में चाणक्य के नाम का उल्लेख नहीं है। उनका यह भी मानना है कि यह ग्रन्थ कामसूत्रा, जो ई0 चतुर्थ शती की रचना है, से भी मिलता-जुलता है। अन्य विद्वानों ने भी अर्थशास्त्र का समय ई0 चतुर्थ शताब्दी माना है जिनमें विण्टरनिट्ज तथा डॉ0 कीथ के नाम उल्लेखनीय हैं। उनका कहना है कि अर्थशास्त्र का रचयिता चाणक्य जैसा कोई राजनीतिज्ञ न होकर कोई विद्वान् पण्डित होना चाहिए।
वस्तुत: इतिहास के द्वारा चाणक्य का चन्द्रगुप्त मौर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है। अर्थशास्त्र में ‘नरेन्द्रार्थे’, ‘मौर्यार्थे’ इत्यादि पदावली से भी यह निश्चित होता है कि अर्थशास्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य (ई0पू0 चतुर्थ शताब्दी) के जीवनकाल में हुई। चाणक्य के अर्थशास्त्र पर अशोक का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अर्थशास्त्र और अशोक के शासन-लेखों में कुछ एक जैसे विधान पाये जाते हैं जैसे चक्रवाक, शुक और सारिका आदि पक्षियों की हत्या का वर्जित होना। युता, राजुका, समाज, महामाता आदि पारिभाषिक पदावली का दोनों में समान रूप से प्रयोग मिलता है। बाह्य प्रमाणों के आधार पर यदि विचार करें तो पता चलेगा कि सर्वप्रथम कामन्दक ने अपने ‘नीतिसार’ नामक ग्रन्थ का प्रयोजन एकमात्र कौटिल्य अर्थशास्त्र का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करना बतलाया है, साथ ही ग्रन्थारम्भ में विष्णुगुप्त को नमस्कार किया है। दण्डीकृत दशकुमारचरित में राजा के दैनिक कर्त्तव्यों का विवेचन भी अर्थशास्त्र की तरह मिलता है तथा दो स्थलों पर ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र‘ को उद्धृत किया है इससे स्पष्ट होता है कि दण्डी को अर्थशास्त्र के 6000 श्लोकों का पर्याप्त ज्ञान भी था।
चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के पारस्परिक सम्बन्ध का पता कितने ही ग्रन्थों से मिल जाता है। सर्वप्रथम विष्णु पुराण, वायु पुराण तथा ब्राह्मण पुराण में चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के घनिष्ठ सम्बन्ध का वर्णन आया है। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में दोनों की मित्राता का वर्णन मिलता है। विशाखादत्त ने भी चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य की घनिष्ठता का चित्राण अपने नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में किया है। अत: स्पष्ट है कि आचार्य कौटिल्य, जिनका अपर नामक चाणक्य भी है, ही अर्थशास्त्र के कर्ता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र का काल ई0 पू0 तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ही होना चाहिए।
प्रथ््रथ््रथम अधिकरण में राजा की शिक्षा तथा उसके कर्तव्यों का निर्देशन है। एक राजा के लिए सांख्य, योग, लोकायत के दार्शनिक विचार, वेदांगों में वर्णित चारों वर्णों के कर्तव्य, देश की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक दशा, चरवाहों के कर्तव्य, व्यापार, उद्योग नीति, दण्ड नीति आदि का ज्ञान रखना आवश्यक है। इसके साथ ही राजा के आन्तरिक एवं बाह्य कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए मन्त्राी तथा गुप्तचरों का वर्णन किया गया है। क्योंकि राजकार्य सहायता के बिना सिद्ध नहीं हो सकता, एक पहिए से राज्य की गाड़ी नहीं चल सकती, इसलिए राजा को परिषद् व सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए। परिषद् में केवल ऐसे ही व्यक्तियों को नियुक्त किया जाये जो “सर्वोपधाशुद्ध” हों अर्थात् सब प्रकार के दोषों-निर्बलताओं से रहित हों। परिषद् के अमात्य राजा की शासन में सहायता तो करते ही थे, मन्त्राी के अतिरिक्त पुरोहित का पद भी शासन में अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इनके अतिरिक्त शासन सत्ता के अन्य महत्वपूर्ण पद ये थे-समाहर्ता, सन्निधाता, सेनापति, युवराज, प्रदेष्टा, नायक, व्यावहारिक, कर्मान्तिक, दण्डपाल, दुर्गपाल आदि। उस समय दूत और चर-व्यवस्था पर अत्यधिक ध्यान था। दूत की आवश्यकता, आचरण एवं व्यवहार, कर्तव्य, विशेषाधिकार तथा दूतों के विविध प्रकारों आदि का विस्तृत तथा उपयुक्त विवेचन अर्थशास्त्र के पहले, चौथे और बारहवें अधिकरण में है। चर को राजा की आँख कहा गया है। कौटिल्य ने चरों के नौ प्रकार बताते हुए उनके कर्तव्यों का विवेचन किया है।
लेकिन कुछ विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। प्रोफेसर जॉली ने कौटिल्य का समय ईसा की चौथी शताब्दी माना है क्योंकि मैगस्थनीज के यात्रा विवरण में चाणक्य के नाम का उल्लेख नहीं है। उनका यह भी मानना है कि यह ग्रन्थ कामसूत्रा, जो ई0 चतुर्थ शती की रचना है, से भी मिलता-जुलता है। अन्य विद्वानों ने भी अर्थशास्त्र का समय ई0 चतुर्थ शताब्दी माना है जिनमें विण्टरनिट्ज तथा डॉ0 कीथ के नाम उल्लेखनीय हैं। उनका कहना है कि अर्थशास्त्र का रचयिता चाणक्य जैसा कोई राजनीतिज्ञ न होकर कोई विद्वान् पण्डित होना चाहिए।
वस्तुत: इतिहास के द्वारा चाणक्य का चन्द्रगुप्त मौर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है। अर्थशास्त्र में ‘नरेन्द्रार्थे’, ‘मौर्यार्थे’ इत्यादि पदावली से भी यह निश्चित होता है कि अर्थशास्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य (ई0पू0 चतुर्थ शताब्दी) के जीवनकाल में हुई। चाणक्य के अर्थशास्त्र पर अशोक का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। अर्थशास्त्र और अशोक के शासन-लेखों में कुछ एक जैसे विधान पाये जाते हैं जैसे चक्रवाक, शुक और सारिका आदि पक्षियों की हत्या का वर्जित होना। युता, राजुका, समाज, महामाता आदि पारिभाषिक पदावली का दोनों में समान रूप से प्रयोग मिलता है। बाह्य प्रमाणों के आधार पर यदि विचार करें तो पता चलेगा कि सर्वप्रथम कामन्दक ने अपने ‘नीतिसार’ नामक ग्रन्थ का प्रयोजन एकमात्र कौटिल्य अर्थशास्त्र का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करना बतलाया है, साथ ही ग्रन्थारम्भ में विष्णुगुप्त को नमस्कार किया है। दण्डीकृत दशकुमारचरित में राजा के दैनिक कर्त्तव्यों का विवेचन भी अर्थशास्त्र की तरह मिलता है तथा दो स्थलों पर ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र‘ को उद्धृत किया है इससे स्पष्ट होता है कि दण्डी को अर्थशास्त्र के 6000 श्लोकों का पर्याप्त ज्ञान भी था।
चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के पारस्परिक सम्बन्ध का पता कितने ही ग्रन्थों से मिल जाता है। सर्वप्रथम विष्णु पुराण, वायु पुराण तथा ब्राह्मण पुराण में चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के घनिष्ठ सम्बन्ध का वर्णन आया है। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में दोनों की मित्राता का वर्णन मिलता है। विशाखादत्त ने भी चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य की घनिष्ठता का चित्राण अपने नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में किया है। अत: स्पष्ट है कि आचार्य कौटिल्य, जिनका अपर नामक चाणक्य भी है, ही अर्थशास्त्र के कर्ता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र का काल ई0 पू0 तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ही होना चाहिए।
कौटिल्य का कृतित्व
चन्द्रगुप्त मौर्य (ई0पू0 चतुर्थ शताब्दी) के प्रधान अमात्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य तथा भारत के राजाओं को आने वाली पीढ़ी को राजनीति सिखाने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की, उनकी संख्या पांच मानी जाती है :-- कौटिल्य अर्थशास्त्र - जिसमें 6 हजार श्लोक हैं,
- चाणक्य सूत्राणि - एक हजार श्लोकों में निबद्ध है,
- चाणक्य नीति दर्पण - 248 श्लोक,
- लघु चाणक्य - 108 श्लोक,
- वृद्ध चाणक्य - 205 श्लोक।
अर्थशास्त्र का प्रतिपाद्य
कौटिल्य का अर्थशास्त्र विश्व के राजशास्त्राीय और अर्थशास्त्रीय ग्रन्थों में मूर्धन्य माना जाता है। यह नितान्त यथार्थपरक और व्यावहारिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में कुल 15 अधिकरण, 150 अध्याय, 150 विषय हैं। एक व्यक्ति का ग्रन्थ होने के कारण इसमें अनुक्रम तथा व्यवस्था है। इस ग्रन्थ में एक स्थान पर लिखा है-”सब शास्त्रों का अनुशीलन करके और प्रयोग द्वारा कौटिल्य ने नरेन्द्र चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए शासन की यह विधि बतायी है।प्रथ््रथ््रथम अधिकरण में राजा की शिक्षा तथा उसके कर्तव्यों का निर्देशन है। एक राजा के लिए सांख्य, योग, लोकायत के दार्शनिक विचार, वेदांगों में वर्णित चारों वर्णों के कर्तव्य, देश की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक दशा, चरवाहों के कर्तव्य, व्यापार, उद्योग नीति, दण्ड नीति आदि का ज्ञान रखना आवश्यक है। इसके साथ ही राजा के आन्तरिक एवं बाह्य कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए मन्त्राी तथा गुप्तचरों का वर्णन किया गया है। क्योंकि राजकार्य सहायता के बिना सिद्ध नहीं हो सकता, एक पहिए से राज्य की गाड़ी नहीं चल सकती, इसलिए राजा को परिषद् व सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए। परिषद् में केवल ऐसे ही व्यक्तियों को नियुक्त किया जाये जो “सर्वोपधाशुद्ध” हों अर्थात् सब प्रकार के दोषों-निर्बलताओं से रहित हों। परिषद् के अमात्य राजा की शासन में सहायता तो करते ही थे, मन्त्राी के अतिरिक्त पुरोहित का पद भी शासन में अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इनके अतिरिक्त शासन सत्ता के अन्य महत्वपूर्ण पद ये थे-समाहर्ता, सन्निधाता, सेनापति, युवराज, प्रदेष्टा, नायक, व्यावहारिक, कर्मान्तिक, दण्डपाल, दुर्गपाल आदि। उस समय दूत और चर-व्यवस्था पर अत्यधिक ध्यान था। दूत की आवश्यकता, आचरण एवं व्यवहार, कर्तव्य, विशेषाधिकार तथा दूतों के विविध प्रकारों आदि का विस्तृत तथा उपयुक्त विवेचन अर्थशास्त्र के पहले, चौथे और बारहवें अधिकरण में है। चर को राजा की आँख कहा गया है। कौटिल्य ने चरों के नौ प्रकार बताते हुए उनके कर्तव्यों का विवेचन किया है।
दूसरे अधिकरण में राज्य का कार्यभार संभालने वाले विभिन्न
अध्यक्षों और अधिकारियों का विस्तार से वर्णन हुआ है।
तीसरे अधिकरण में कानूनों का विस्तृत
विवेचन है। कौटिल्य ने धर्मसंघीय और कण्टकशोधन न्यायालयों के गठन, अधिकार और कर्तव्य
का विस्तार से विवेचन किया है। धर्मसंघीय न्यायालयों में व्यक्तियों के आपस के मुकदमे पेश होते
थे, इसके विपरीत कण्टकशोधन न्यायालय में वे मुकदमे उपस्थित होते थे जिनका सम्बन्ध राज्य
से होता था।
चौथे अधिकरण में पुलिस द्वारा धोखा-धड़ी करने वालों को पकड़ने तथा समस्त
छल-कपट के कार्यों का वर्णन है।
पांचवें अधिकरण में अपकारी मंत्राी से राजा के बचने तथा
कर-विधान एवं कोष में धन-संग्रह की विधियों का विवेचन है।
छठे अधिकरण में राजनीति के सात
अंगों का उल्लेख है। सभी राजनीतिशास्त्राज्ञों ने राज्य के सात अंग बतलाये हैं-स्वामी, अमात्य,
जनपद या राष्ट, दुगर्, कोश, दण्ड एवं मित्रा। अंगो को पकृ्रति भी कहा जाता है।
सातवें अधिकरण
में शान्ति, युद्ध, तटस्थता, युद्ध की तैयारी, सन्धि, संदेहात्मक व्यवहार आदि के कारणों का उल्लेख
है।
आठवें अधिकरण में शिकार, जुआ, स्त्राी, शराब, आग, पानी आदि द्वारा राजा को कैसी-कैसी
विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, इन सभी बातों का वर्णन है।
नवें अधिकरण में युद्ध का
वर्णन है।
दसवें अधिकरण में युद्ध विषयक शकुन आदि का वर्णन है। ग्यारहवें अधिकरण में स्त्री
द्वारा शत्रु-विनाश का वर्णन है। बारहवें अधिकरण में शत्राु पर विजय प्राप्त करने की अनेक
युक्तियां बताई गई हैं।
तेरहवें अधिकरण में राजा को अपने शत्रु के नगर को जीतने के लिए किस
प्रकार अपने को सर्वशक्तिशाली घोषित करना चाहिए, इन सभी साधनों का उल्लेख है।
चौदहवेंेंं
अधिकरण में कुछ असाधारण बातों का वर्णन है, जैसे-एक व्यक्ति एक माह तक बिना भोजन किए
रह सकता है, कैसे वह आग पर चल सकता है। पन्द्रहवें अधिकरण में कार्य-योजना का विस्तृत
वर्णन है।
इस प्रकार अर्थशास्त्र, राजशास्त्राीय एवं अर्थशास्त्रीय विषयों का अत्यन्त विशद और व्यावहारिक संहिताबद्ध कोश है। इन विषयों का सैद्धान्तिक और प्रायोगिक निरूपण करने वाला यह ग्रन्थ विलक्षण भारतीय मेधा का निर्विवाद प्रतिष्ठापक है।
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