कृषि वित्त (कृषि साख) से अभिप्राय ग्रामीण क्षेत्र में किसानों को ऋण सुविधाएं उपलब्ध
कराने से है। ग्रामीण साख सर्वेक्षण के अनुसार ‘‘कृषि की वह साख जिसकी कृषको को
कृषि कार्यों को पूर्ण करने में आवश्यकता होती है, कृषि वित्त या साख के अन्तर्गत आती
है।‘‘ दूसरे शब्दों में कृषि वित्त या साख से तात्पर्य उस वित्त अथवा साख से होता है
जिसका उपयोग कृषि से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों के संपादन हेतु किया जाता है। कृषि
यन्त्र क्रय करने, सिंचाई की व्यवस्था करने विपणन से सम्बन्धित कार्य या कृषि से
सम्बन्धित अन्य किसी कार्य के लिए हो सकती है।
भारतीय किसानों का अधिकतर भाग, छोटे व सीमान्त किसानों का है जो निर्धन है। जिस
कारण कृषि की नवीन तकनीक को अपनाने के लिए, उत्पादन के नए साधनों को बाजार
से खरीदने के लिए इनके पास पर्याप्त धन नहीं है। ऐसे में कृषि वित्त की उचित व्यवस्था
द्वारा किसानों को कृषि विकास हेतु उचित वित्त उपलब्ध करा के ही भारत में कृषि का पूर्ण
विकास किया जा सकता है।
1. साहूकार व महाजन- भारत में साहूकार तथा महाजन संस्थागत कृषि साख का विकास हो जाने पर भी ग्रामीण वित्त व्यवस्था में अपना अस्तित्व बनाये हुए है। यह अभी भी देश के सभी भागों में पाए जाते है। अखिल भारतीय साख एवं निवेश सर्वेक्षण रिर्पोट के अनुसार साहूकार तथा महाजन दो प्रकार के है प्रथम कृषक साहूकार है जो मुख्य व्यवसाय के रुप में कृषि कार्य करते है। द्वितीय व्यावसायिक साहूकार है जिनका प्रमुख व्यवसाय ही रुपया उधार देना है।
साहूकार उत्पादक, अनुत्पादक तथा उपभोग सभी उद्देश्यों के लिए अल्पकाल व दीर्घकाल के लिए किसानों को वित्त उपलब्ध कराते है। इन साहूकारों तक किसानों की पहुंच आसान होती है। क्योंकि इनका किसानों से पारिवारिक सम्बंध होता है। इनक वित्त लेन-देन के तरीके सरल और लचीले होते है। साथ ही ये जमानत लेकर तथा बिना जमानत के भी वित्त उपलब्ध कराते। इस प्रकार इनकी कार्य पद्धति अत्यन्त लोचदार होती है, जो समय परिस्थिति तथा व्यक्ति के अनुसार परिवर्तित होती है। इसलिए ये अपने क्षेत्र में काफी लोकप्रिय होते है।
अखिल भारतीय ग्राम ऋण सर्वेक्षण (1954) की जांच के अनुसार सम्पूर्ण ग्राम वित्त में साहूकारो द्वारा 70 प्रतिशत वित्त दिया गया। लेकिन 1991 के एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार साहूकारों का अंश मात्र 18 प्रतिशत रह गया था। इससे पता चलता है कि इनका प्रभाव कम होता जा रहा है। क्योंकि अनेक बार साहूकार ब्याज की रकम अग्रिम रुप में काट लेते हैं। ये हिसाब-किताब में गड़बडी करते हैं और रसीद भी नही देते। अधिक ब्याज लगाते है। कम मूल्य पर फसल का जबरन क्रय करते हैं तथा किसानों से बगार भी कराते है।
कृषि वित्त या कृषि साख क्या है?
कृषि वित्त एवं कृषि साख से तात्पर्य उस वित्त (साख) से होता है जिसका उपयोग कृषि से
संबंधित विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए होता है। कृषि वित्त की आवश्यकता सामान्यत:
भूमि पर स्थायी सुधार करने, बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्र पर क्रय करने, सिंचाई की
व्यवस्था करने, मालगुजारी देन, विपणन से सम्बद्ध कार्य अथवा कृषि से संबंधित अन्य किसी
कार्य के लिए हो सकती है।
कृषि वित्त के प्रकार
किसानों की आवश्यकताओं के आधार पर कृषि वित्त के
मुख्य दो प्रकार हैं।
(1) समय के अनुसार कृषि वित्त-
समय का अभिप्राय उस अवधि से है जिसमें ऋण
चुकाया जाता है। समय के अनुसार वित्त की आवश्यकता को तीन श्रेणियों में बांटा जा
सकता है-
(क) अल्पकालीन वित्त- सामान्यतया अल्पकालीन वित्त की अवधि एक फसल से दूसरी
फसल तक की होती है। इस प्रकार के वित्त की आवश्यकता किसानों को बिज, उर्वरक,
कृषि यंत्र, कीटनाशक, श्रमिकों की मजदूरी तथा अन्य तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति
करने के लिए होती है। अल्पकालीन वित्त की अवधि 15 माह तक होती है।
(ख) मध्यकालीन वित्त- किसानों को अपनी भूमि में सुधार के लिए पशु खरीदने के लिए,
कृषि के बडे यन्त्र, सिंचाई के लिए पम्प खरीदने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है।
इन कार्यों को पूरा करने के लिए साधारण देय क्षमता से अधिक वित्त की आवश्यकता होती
है। जिन्हें किसान फसल पर किस्तों द्वारा ही भुगतान करते है। मध्यकालीन वित्त की अवधि
15 माह से लेकर 5 वर्ष तक की होती है।
(ग) दीर्घावधि वित्त- जब किसानों को नयी भूमि खरीदनी हो, अपने खेत का विस्तार करना
हो, पुराने ऋण का भुगतान करना हो, भूमि में कोई स्थायी सुधार करना हो तथा बडे कृषि
यंत्र खरीदने हो तो उन्हें बडी मात्रा में वित्त की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में
किसान जो ऋण लेता है उसे वह 5 से 10 या 20 वर्ष तक के लिए लेता है।
(2) उद्देश्य के अनुसार कृषि वित्त-
भारतीय किसान को केवल कृषि कार्य के लिए ही
नहीं परन्तु सामाजिक कार्यों को पूरा करने के लिए भी वित्त की आवश्यकता पड़ती है। इस
आधार पर कृषि वित्त को निम्न भागों में बांटा जा सकता है।
(अ) उत्पादक वित्त - इसमें ऐसे ऋण शामिल किये जाते हैं, जो किसानों को कृषि क्रियाओं
जैसे- कृषि यन्त्र की खरीद, उर्वरक, उन्नत बीज, मजदूरी भुगतान, ट्यूबवैल लगाने, भूमि
सूधार हेतु कुएं खुदवाने तथा फसल की बिक्री आदि में सहायता देते हैं। इन्हें उत्पादक
इसलिए कहा जाता है। क्योंकि इनका उत्पादन की विभिन्न क्रियाओं से सीधा सम्बन्ध होता
है। कृषि के व्यवसायीकरण के साथ आजकल खेती में धीरे-धीरे मशीनों का प्रयोग बढ़ रहा
है। सिंचाई के लिए किसान अपने ट्यूबवैल तथा कृषि यंत्रों का प्रयोग करने लगे है।
जिसके लिए उन्हें बडी मात्रा में कृषि वित्त की आवश्यकता होती है। अधिकांश उत्पादक
कार्यों के लिए वित्त की व्यवस्था सहकारी समितियों, व्यापारिक बैंकों, भूमी विकास बैंक तथा
नाबार्ड द्वारा की जाती है।
(ब) उपभोग वित्त- किसानों को प्रायः उपभोगता हेतु भी वित्त की आवश्यकता होती है।
बहुत सारे किसानों को फसल बिक्री से इतनी आय नहीं होती कि वह अगली फसल तक
परिवार का उचित जीवन-निर्वाह कर सकें। इसलिए वह अपनी दैनिक परिवारिक
आवश्यकता के लिए ऋण लेते है। सूखे व बाढ़ के बाद यह आवश्यकता और बढ़ जाती
है। ऐसे स्थिति में संस्थागत साख स्रोतों से किसानों को वित्त की प्रति नहीं होती। इसलिए
उन्हें मजबूर होकर उपभोग सम्बन्धी जरुरतों के लिए साहूकार और महाजनों से ही उधार
लेना पड़ता हैं।
(स) अनुत्पादक वित्त- भारतीय किसानों को उपभोग के अतिरिक्त अनेक अनुत्पादक कोर्यो
के लिए भी वित्त की आवश्यकता होती है। फसल ठीक न होने पर लगान अदायगी के
लिए वित्त की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त किसान मुकदमेबाजी तथा अनेक
सामाजिक संस्कारों जैसे- विवाह, पुत्र जन्मोत्सव, मृत्यु-भोज आदि के लिए भी अक्सर
उधार लेते है। इन बातों के लिए गये कार्ज को आसानी से नही चुका पाते और प्रायः इस
प्रकार के ऋणों की ब्याज की दर भी अधिक होती हैं और ऐसे वित्त की पूर्ति साहूकार व
महाजन ही करते है।
भारत में कृषि वित्त के स्रोत
भारत में कृषि वित्त की पूर्ति के अनेक स्रोत है, जिन्हें मुख्य रुप से दो भागों में बांटा जा सकता है (1) गैर संस्थागत स्रोत या व्यक्तिगत स्रोत (2) संस्थागत स्रोत।1. गैर संस्थागत वित्त स्रोत
गैर संस्थागत वित्त स्रोत में मुख्य रुप से साहूकार या महाजन, व्यापारी, मित्र व सम्बन्धी तथा भू-स्वामी आते है। जिनका विवरण इस प्रकार है।1. साहूकार व महाजन- भारत में साहूकार तथा महाजन संस्थागत कृषि साख का विकास हो जाने पर भी ग्रामीण वित्त व्यवस्था में अपना अस्तित्व बनाये हुए है। यह अभी भी देश के सभी भागों में पाए जाते है। अखिल भारतीय साख एवं निवेश सर्वेक्षण रिर्पोट के अनुसार साहूकार तथा महाजन दो प्रकार के है प्रथम कृषक साहूकार है जो मुख्य व्यवसाय के रुप में कृषि कार्य करते है। द्वितीय व्यावसायिक साहूकार है जिनका प्रमुख व्यवसाय ही रुपया उधार देना है।
साहूकार उत्पादक, अनुत्पादक तथा उपभोग सभी उद्देश्यों के लिए अल्पकाल व दीर्घकाल के लिए किसानों को वित्त उपलब्ध कराते है। इन साहूकारों तक किसानों की पहुंच आसान होती है। क्योंकि इनका किसानों से पारिवारिक सम्बंध होता है। इनक वित्त लेन-देन के तरीके सरल और लचीले होते है। साथ ही ये जमानत लेकर तथा बिना जमानत के भी वित्त उपलब्ध कराते। इस प्रकार इनकी कार्य पद्धति अत्यन्त लोचदार होती है, जो समय परिस्थिति तथा व्यक्ति के अनुसार परिवर्तित होती है। इसलिए ये अपने क्षेत्र में काफी लोकप्रिय होते है।
अखिल भारतीय ग्राम ऋण सर्वेक्षण (1954) की जांच के अनुसार सम्पूर्ण ग्राम वित्त में साहूकारो द्वारा 70 प्रतिशत वित्त दिया गया। लेकिन 1991 के एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार साहूकारों का अंश मात्र 18 प्रतिशत रह गया था। इससे पता चलता है कि इनका प्रभाव कम होता जा रहा है। क्योंकि अनेक बार साहूकार ब्याज की रकम अग्रिम रुप में काट लेते हैं। ये हिसाब-किताब में गड़बडी करते हैं और रसीद भी नही देते। अधिक ब्याज लगाते है। कम मूल्य पर फसल का जबरन क्रय करते हैं तथा किसानों से बगार भी कराते है।
साहूकर के दोषों के बारे में बम्बई बैकिंग जांच सतिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘‘
साहूकारों के लेन-देन का ढंग इस प्रकार का है कि एक बार उनसे ऋण लेने पर
छुटकारा पाना कठिन है।‘‘ ग्रामीण क्षेत्र में सहकारी व वाणिज्य बैंको की स्थापना के साथ
दिन-प्रतिदिन इनका महत्व घटता जा रहा है, लेकिन ये अभी भी महत्वपूर्ण है।
2. व्यापारी एवं कमीशन एजेन्ट- व्यापारी व कमीशन एजेन्ट किसानों को कृषि उत्पादन कार्यों हेतु वित्त उपलब्ध कराते हैं। इनके द्वारा कुछ विशेष फसलों जैसे- फल, मूँगफली, गन्ना तथा तम्बाकू आदि के उत्पादन हेतु ऋण प्रदान किये जाते हैं।ये किसानों को कम कीमत पर फसल बेचने के लिए बाध्य करते हैं और इसमें से भी अपने कमीशन की भारी वसूली करते हैं।
3. सम्बन्धी एवं मित्र- किसान आवश्यकता पडने पर अपने मित्रों और रिश्तेदारों से नकद या वस्तुओं के रुप में उधार लेते है। ये उधार सामान्यतः अनौपचारिक रुप से दिए जाते है जिन पर ब्याज दर बहुत नीची होती है या ब्याज ही नहीं लिया जाता। ऐसे उधार अल्पकालिन होते है जो फसल कटाई पर लौटा दिये जाते हैं। इस प्रकार की वित्त व्यवस्था अनिश्चित होती है। कुल कृषि वित्त में इस प्रकार के वित्त का हिस्सा बहुत कम ही रहा है। 1951-52 में यह 14.2 प्रतिशत था जो 1991 में घटकर 4.3 प्रतिशत रह गया।
4. भू-स्वामी एवं अन्य- छोटे एवं सीमान्त किसान तथा काश्तकार अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भू-स्वामी एवं अन्य पर निर्भर करते हैं। इस प्रकार के वित्त स्रोत में भी साहूकार व व्यापारियों एजेन्ट जैसी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली द्वारा किसानों का शोषण किया जाता है। और छल द्वारा उनकी भूमि पर कब्जा कर लिया जाती है। और उन्हें भूमिहीन कर बन्धुआ मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जाता है। 1951-52 में 3.3 प्रतिशत तथा 1991 में 3.8 प्रतिशत वित्त की पूर्ति इनके द्वारा की गई। कृषि के गैर संस्थागत स्रोतों की कार्य प्रणाली में अनेक दोष है- अनुत्पादक व उपभोग कार्यों के लिए वित्त देना, ब्याज की ऊॅची दर, हिसाब में गड़बडी, अग्रिम ब्याज, भूमि पर कब्जा आदि। जो किसानों का शोषण कर उन्हें हमेशा के लिए कर्जदार बना देती हैं।
2. व्यापारी एवं कमीशन एजेन्ट- व्यापारी व कमीशन एजेन्ट किसानों को कृषि उत्पादन कार्यों हेतु वित्त उपलब्ध कराते हैं। इनके द्वारा कुछ विशेष फसलों जैसे- फल, मूँगफली, गन्ना तथा तम्बाकू आदि के उत्पादन हेतु ऋण प्रदान किये जाते हैं।ये किसानों को कम कीमत पर फसल बेचने के लिए बाध्य करते हैं और इसमें से भी अपने कमीशन की भारी वसूली करते हैं।
3. सम्बन्धी एवं मित्र- किसान आवश्यकता पडने पर अपने मित्रों और रिश्तेदारों से नकद या वस्तुओं के रुप में उधार लेते है। ये उधार सामान्यतः अनौपचारिक रुप से दिए जाते है जिन पर ब्याज दर बहुत नीची होती है या ब्याज ही नहीं लिया जाता। ऐसे उधार अल्पकालिन होते है जो फसल कटाई पर लौटा दिये जाते हैं। इस प्रकार की वित्त व्यवस्था अनिश्चित होती है। कुल कृषि वित्त में इस प्रकार के वित्त का हिस्सा बहुत कम ही रहा है। 1951-52 में यह 14.2 प्रतिशत था जो 1991 में घटकर 4.3 प्रतिशत रह गया।
4. भू-स्वामी एवं अन्य- छोटे एवं सीमान्त किसान तथा काश्तकार अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भू-स्वामी एवं अन्य पर निर्भर करते हैं। इस प्रकार के वित्त स्रोत में भी साहूकार व व्यापारियों एजेन्ट जैसी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली द्वारा किसानों का शोषण किया जाता है। और छल द्वारा उनकी भूमि पर कब्जा कर लिया जाती है। और उन्हें भूमिहीन कर बन्धुआ मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जाता है। 1951-52 में 3.3 प्रतिशत तथा 1991 में 3.8 प्रतिशत वित्त की पूर्ति इनके द्वारा की गई। कृषि के गैर संस्थागत स्रोतों की कार्य प्रणाली में अनेक दोष है- अनुत्पादक व उपभोग कार्यों के लिए वित्त देना, ब्याज की ऊॅची दर, हिसाब में गड़बडी, अग्रिम ब्याज, भूमि पर कब्जा आदि। जो किसानों का शोषण कर उन्हें हमेशा के लिए कर्जदार बना देती हैं।
2. संस्थागत वित्त स्रोत
इसके अन्तर्गत ऐसी राशियाॅ शामिल की जाती है जो सहकारी समितियों, वाणिज्य बैंकों,
सरकार, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक भूमि विकास बैंक आदि द्वारा उपलब्ध करायी जाती है।
संस्थागत वित्त संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य किसानों को अपनी उत्पादकता बढ़ाने या आय
को अधिकतम करने में सहायता देना है। ये अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन
सभी प्रकार के ऋण की व्यवस्था करते हैं। संस्थागत वित्त के प्रमुख स्रोत इस प्रकार है।
1. सरकार- केन्द्र तथा राज्य सरकारों दोनो ही किसानों को अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन वित्त सहायता देती रही है। सरकार किसानों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से प्रदान करती है। प्रत्यक्ष रुप से किसानों को दिये जाने वाले ऋणों को तकावी ऋण कहा जाता है। ऐसे ऋण विपदा या आपात स्थिति में दिये जाते हैं। जैसे- युद्ध, बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि यह ऋण सामुदायिक विकास विभाग राजस्व विभाग, या सहकारी समितियों के माध्यम से दिये जाते हैं।
सरकार किसानों को अप्रत्यक्ष रुप से अल्पकाल तथा दीर्घकाल के लिए ऋण देती है। सरकार यह ऋण सहकारी समितियों, भूमि विकास बैंको को धन राशि उपलब्ध करा कर किसानों तक पहुंचाती है। सरकार राज्य सहकारी बैंकों को अनुदान देकर भी किसानों को पर्याप्त मात्रा में साख उपलब्ध कराती है।
सरकार द्वारा दिये जाने वाले ऋण अधिक लोकप्रिय नहीं है। ब्याज दर कम होने के बावजूद , इन ऋणों की कम राशी, प्राप्ति में देरी, अकुशल प्रशासन तथा कागजी कार्यवाही के कारण किसान इनका लाभ नहीं उठा पाते।
2. सहकारी समितियाँ- सहकारी साख समितियाँ कृषि वित्त का सबसे बढि़या तथा सस्ता स्रोत है। ये समितियां उत्पादन कार्यों हेतु ही ऋण प्रदान करती है। जिनकी ब्याज दर भी अन्य संस्थाओं की तुलना में कम होती है। भारत में सहकारी समितियाँ तीन स्तरों पर कार्य करती है। राज्य सहकारी बैंक राज्य में शीर्ष संस्था होती है। उसके बाद केन्द्रीय या जिला सहकारी बैॅंक तथा ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक साख समितियों का स्थान होता है। गाँव के कोई भी दस लोग मिलकर प्राथमिक सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते हैं। इनकी कार्यपद्धति समस्त सहकारी साख की उन्नति एवं समृद्धि की सूचक है।
3. वाणिज्य बैंक- काफी लम्बे समय तक वाणिज्य (व्यापारिक) बैंकों का कृषि वित्त में हिस्सा बहुत कम था। 1950-51 में 0.9 प्रतिशत तथा 1961-62 में 0.7 प्रतिशत था 19 जुलाई 1969 को सरकार ने 14 वाणिज्य बैंकों तथा 15 अप्रैल 1980 में 6 वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके बाद इन बैंको द्वारा कृषि वित्त में महत्वपूर्ण योगदान दिया जाने लगा ये अल्पकालीन तथा मध्यकालीन दोनों प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं। वाणिज्य बैंक न केवल किसानों को उर्वरक, पम्पिंग सेट व अन्य कृषि यन्त्र खरिदने के लिये ऋण दे रहे हैं। राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि वित्त में इनकी हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है। जो 1950-51 में मात्र 0.9 प्रतिशत थी वह 1971 में 2.6 प्रतिशत तथा 2001 में बढ़कर 33.4 प्रतिशत हो गई । 30 जून 2009 तक व्यापारिक बैंको की संख्या 80514 थी जिसमें से 39.53 प्रतिशत शाखाए ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थी।
4. भारतीय स्टेट बैंक- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भारतीय स्टेट बैंक सबसे बडा बैंक है। जो देश के कुल बैंकिंग कारोबार का 26.2 प्रतिशत कारोबार सम्भालते है 1955 में अपनी स्थापना के समय से ही यह कृषि वित्त उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा है। यह सहकारी बैंको को वित्त उपलब्ध कराता है।सहकारी बैंकों के धन का निःशुल्क स्थानान्तरण करता है। गोदामों के निर्माण के लिय ऋण देता है। किसानों को ट्रैक्टर व अन्य यन्त्र खरीदने के लिये सीधे ऋण देता है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 1972 में कृषि विकास शाखा खोलने की एक विशेष योजना प्रारम्भ की गई तथा ‘‘गाॅव अंगीकृत योजना‘‘ प्रारम्भ की जिसके द्वारा किसानों को सीधे वित्त सुविधा प्रदान की जा सकें। 30 जून को भारतीय स्टेट बैंक तथा सहयोगी बैंकों की 16294 शाखायें थी जिसमें से 34.49 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में स्थिति है।
5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- बैंकिंग आयोग द्वारा लघु एवं सीमान्त किसानों तथा भूमिहीन कृषि श्रमिकों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु 1972 में ग्रामीण बैंको की स्थापना का सुझाव दिया गया। फलस्वरुप सरकार द्वारा नियुक्त ग्रामीण बैंक के कार्यदल की विशेष सिफारिश पर 2 अक्टूबर 1975 को 4 राज्यों उत्तरप्रदेश में मुरादाबाद और गोरखपुर, हरियाणा में भिवानी राजस्थान में जयपुर तथा पश्चिम बंगाल में माल्दा में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई। इन्हें प्रायोज्य या प्रायोजित बैंक भी कहा जाता है क्योंकि इन बैंको की स्थापना, प्रबन्धन तथा वित्तीय व्यवस्था में व्यापारिक बैंको की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।1975 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या 6 तथा शाखाओं की संख्या 200 थी जो 2003 में बैंकों की संख्या 196 तथा शाखाओं की संख्या बढ़कर 14,507 हो गई है। इन बैंको के ऋणों का 90 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के कमजोर वर्गों को दिया जाता है। देश के कुल कृषि ऋण प्रवाह में क्षेत्रीय बैंकों का हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत है।
प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की अधिकृत पूॅजी 1 करोड़ रुपये निर्धारित की गई है। यह अधिकृत पूँजी केन्द्रीय सरकार, रिजर्व बैंक एवं प्रायोजित बैंक की सलाह से कम कर सकता है, किन्तु यह 25 लाख रुपये से कम नहीं होगी। जिसमें 50 प्रतिशत केन्द्रीय सरकार, 15 प्रतिशत राज्य सरकार एवं 35 प्रतिशत प्रायोजित बैंक द्वारा प्रदान की जायेगी।
12 जुलाई 1982 को इन बैंकों का नियन्त्रण रिजर्व बैंक ने नाबार्ड को सौंप दिया था। यद्यपि इन बैंकों की स्थापना ग्रामीण साख के विस्तार के लिये की गई थी, परन्तु इन बैंकों के क्षेत्रीय वितरण में असमानता है। जिसमें से अधिकांश क्षेत्रीय बैंक घाटे में चल रहे हैं, जिस कारण उन्हें वित्तीय कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इस लिए स्वीकृत ऋणों के प्रयोग का निरीक्षण किया जाना चाहिए जिससे ऋण उसी कार्य में लगे जिसके लिए स्वीकृत किया गया है और समय पर ऋण वापसी हो सके।
6. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) - देश में कृषि एवं ग्रामीण विकास कार्यों के लिये व्यवस्था करने, कृषि वित्त संस्थाओं की सहायता व समन्वय के लिये कृषि वित्त की सर्वोच्च संस्था के रुप में 12 जुलाई 1982 एक शीर्षस्थ बैंकों के रुप में नाबार्ड की स्थापना की गई। इसने 15 जुलाई 1982 से अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। इसका मुख्यालय मुम्बई में तथा 4 मण्डलीय तथा प्रत्येक राज्य में क्षेत्रीय कार्यालयों की स्थापन की गई है।नाबार्ड को कृषि पुनर्वित्त व विकास निगम तथा राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोण तथा राष्ट्रीय कृषि साख (स्थायीकरण) कोष के सभी कार्य हस्तान्ततरित कर दिये गये है। नाबार्ड अपने कार्यों के द्वारा कृषि वित्त में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2003-04 के दौरान अल्पकालीन ऋण के रुप में 8,820 करोड रुपये के ऋणाों की स्वकृति दी।
1. सरकार- केन्द्र तथा राज्य सरकारों दोनो ही किसानों को अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन वित्त सहायता देती रही है। सरकार किसानों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से प्रदान करती है। प्रत्यक्ष रुप से किसानों को दिये जाने वाले ऋणों को तकावी ऋण कहा जाता है। ऐसे ऋण विपदा या आपात स्थिति में दिये जाते हैं। जैसे- युद्ध, बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि यह ऋण सामुदायिक विकास विभाग राजस्व विभाग, या सहकारी समितियों के माध्यम से दिये जाते हैं।
सरकार किसानों को अप्रत्यक्ष रुप से अल्पकाल तथा दीर्घकाल के लिए ऋण देती है। सरकार यह ऋण सहकारी समितियों, भूमि विकास बैंको को धन राशि उपलब्ध करा कर किसानों तक पहुंचाती है। सरकार राज्य सहकारी बैंकों को अनुदान देकर भी किसानों को पर्याप्त मात्रा में साख उपलब्ध कराती है।
सरकार द्वारा दिये जाने वाले ऋण अधिक लोकप्रिय नहीं है। ब्याज दर कम होने के बावजूद , इन ऋणों की कम राशी, प्राप्ति में देरी, अकुशल प्रशासन तथा कागजी कार्यवाही के कारण किसान इनका लाभ नहीं उठा पाते।
2. सहकारी समितियाँ- सहकारी साख समितियाँ कृषि वित्त का सबसे बढि़या तथा सस्ता स्रोत है। ये समितियां उत्पादन कार्यों हेतु ही ऋण प्रदान करती है। जिनकी ब्याज दर भी अन्य संस्थाओं की तुलना में कम होती है। भारत में सहकारी समितियाँ तीन स्तरों पर कार्य करती है। राज्य सहकारी बैंक राज्य में शीर्ष संस्था होती है। उसके बाद केन्द्रीय या जिला सहकारी बैॅंक तथा ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक साख समितियों का स्थान होता है। गाँव के कोई भी दस लोग मिलकर प्राथमिक सहकारी साख समिति की स्थापना कर सकते हैं। इनकी कार्यपद्धति समस्त सहकारी साख की उन्नति एवं समृद्धि की सूचक है।
3. वाणिज्य बैंक- काफी लम्बे समय तक वाणिज्य (व्यापारिक) बैंकों का कृषि वित्त में हिस्सा बहुत कम था। 1950-51 में 0.9 प्रतिशत तथा 1961-62 में 0.7 प्रतिशत था 19 जुलाई 1969 को सरकार ने 14 वाणिज्य बैंकों तथा 15 अप्रैल 1980 में 6 वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके बाद इन बैंको द्वारा कृषि वित्त में महत्वपूर्ण योगदान दिया जाने लगा ये अल्पकालीन तथा मध्यकालीन दोनों प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं। वाणिज्य बैंक न केवल किसानों को उर्वरक, पम्पिंग सेट व अन्य कृषि यन्त्र खरिदने के लिये ऋण दे रहे हैं। राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि वित्त में इनकी हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है। जो 1950-51 में मात्र 0.9 प्रतिशत थी वह 1971 में 2.6 प्रतिशत तथा 2001 में बढ़कर 33.4 प्रतिशत हो गई । 30 जून 2009 तक व्यापारिक बैंको की संख्या 80514 थी जिसमें से 39.53 प्रतिशत शाखाए ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थी।
4. भारतीय स्टेट बैंक- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भारतीय स्टेट बैंक सबसे बडा बैंक है। जो देश के कुल बैंकिंग कारोबार का 26.2 प्रतिशत कारोबार सम्भालते है 1955 में अपनी स्थापना के समय से ही यह कृषि वित्त उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा है। यह सहकारी बैंको को वित्त उपलब्ध कराता है।सहकारी बैंकों के धन का निःशुल्क स्थानान्तरण करता है। गोदामों के निर्माण के लिय ऋण देता है। किसानों को ट्रैक्टर व अन्य यन्त्र खरीदने के लिये सीधे ऋण देता है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 1972 में कृषि विकास शाखा खोलने की एक विशेष योजना प्रारम्भ की गई तथा ‘‘गाॅव अंगीकृत योजना‘‘ प्रारम्भ की जिसके द्वारा किसानों को सीधे वित्त सुविधा प्रदान की जा सकें। 30 जून को भारतीय स्टेट बैंक तथा सहयोगी बैंकों की 16294 शाखायें थी जिसमें से 34.49 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में स्थिति है।
5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- बैंकिंग आयोग द्वारा लघु एवं सीमान्त किसानों तथा भूमिहीन कृषि श्रमिकों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु 1972 में ग्रामीण बैंको की स्थापना का सुझाव दिया गया। फलस्वरुप सरकार द्वारा नियुक्त ग्रामीण बैंक के कार्यदल की विशेष सिफारिश पर 2 अक्टूबर 1975 को 4 राज्यों उत्तरप्रदेश में मुरादाबाद और गोरखपुर, हरियाणा में भिवानी राजस्थान में जयपुर तथा पश्चिम बंगाल में माल्दा में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई। इन्हें प्रायोज्य या प्रायोजित बैंक भी कहा जाता है क्योंकि इन बैंको की स्थापना, प्रबन्धन तथा वित्तीय व्यवस्था में व्यापारिक बैंको की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।1975 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या 6 तथा शाखाओं की संख्या 200 थी जो 2003 में बैंकों की संख्या 196 तथा शाखाओं की संख्या बढ़कर 14,507 हो गई है। इन बैंको के ऋणों का 90 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के कमजोर वर्गों को दिया जाता है। देश के कुल कृषि ऋण प्रवाह में क्षेत्रीय बैंकों का हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत है।
प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की अधिकृत पूॅजी 1 करोड़ रुपये निर्धारित की गई है। यह अधिकृत पूँजी केन्द्रीय सरकार, रिजर्व बैंक एवं प्रायोजित बैंक की सलाह से कम कर सकता है, किन्तु यह 25 लाख रुपये से कम नहीं होगी। जिसमें 50 प्रतिशत केन्द्रीय सरकार, 15 प्रतिशत राज्य सरकार एवं 35 प्रतिशत प्रायोजित बैंक द्वारा प्रदान की जायेगी।
12 जुलाई 1982 को इन बैंकों का नियन्त्रण रिजर्व बैंक ने नाबार्ड को सौंप दिया था। यद्यपि इन बैंकों की स्थापना ग्रामीण साख के विस्तार के लिये की गई थी, परन्तु इन बैंकों के क्षेत्रीय वितरण में असमानता है। जिसमें से अधिकांश क्षेत्रीय बैंक घाटे में चल रहे हैं, जिस कारण उन्हें वित्तीय कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इस लिए स्वीकृत ऋणों के प्रयोग का निरीक्षण किया जाना चाहिए जिससे ऋण उसी कार्य में लगे जिसके लिए स्वीकृत किया गया है और समय पर ऋण वापसी हो सके।
6. राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) - देश में कृषि एवं ग्रामीण विकास कार्यों के लिये व्यवस्था करने, कृषि वित्त संस्थाओं की सहायता व समन्वय के लिये कृषि वित्त की सर्वोच्च संस्था के रुप में 12 जुलाई 1982 एक शीर्षस्थ बैंकों के रुप में नाबार्ड की स्थापना की गई। इसने 15 जुलाई 1982 से अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। इसका मुख्यालय मुम्बई में तथा 4 मण्डलीय तथा प्रत्येक राज्य में क्षेत्रीय कार्यालयों की स्थापन की गई है।नाबार्ड को कृषि पुनर्वित्त व विकास निगम तथा राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोण तथा राष्ट्रीय कृषि साख (स्थायीकरण) कोष के सभी कार्य हस्तान्ततरित कर दिये गये है। नाबार्ड अपने कार्यों के द्वारा कृषि वित्त में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वर्ष 2003-04 के दौरान अल्पकालीन ऋण के रुप में 8,820 करोड रुपये के ऋणाों की स्वकृति दी।
1 अप्रैल 1995 से नाबार्ड के तहत एक नई ग्रामीण आधारित संरचनात्मक विकास निधि
की स्थापना की गई। जिसके द्वारा सिंचाई सडके एवं पुल आदि के निर्माण हेतु सहायता
दी जाती है। 2003-04 में इसके अन्तर्गत 5,440 करोड रुपये की राशी स्वीकृत की गई।
कृषि वित्त या कृषि साख की आवश्यकता
कृषि वित्त या साख की आवश्यकता भारत में कृषकों को विभिन्न उद्देश्यों एवं कालावधियों के लिए वित्त, साख या ऋण की आवश्यकता पड़ती है। कृषि वित्त की आवश्यकता को उद्देश्यों को समयानुसार निम्नलिखित भागों में बाँटा जाता है1. उत्पादन ऋण (Productive Loan)- वो ऋण जो कि कृषि की विभिन्न क्रियाएँ जैसे-
खाद, बीज, यंत्र खरीदने व लगवाने, सिंचाई, भूमि पर स्थायी सुधार करने तथा
वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के हेतु लिए जाते हैं। इस तरह के ऋणों से उत्पादक
और आय में वृद्धि होती है।
2. उपभोग ऋण (Consumption Loan): ये ऋण फसल की बिजाई और बिक्री के
बीच के समय कृषि को अपने परिवार के उपभोग संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिए ऋण की आवश्यकता पड़ती है जिसे प्राय: फसल की बिक्री के बाद चुकता
किया जाता है।
3. अनुत्पादक ऋण (Unproductive Loan): वो ऋण जो उत्पादक कार्यों में नहीं लगाए
जाते बल्कि कुछ अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं जैसे मुकदमा
लड़ना, आभूषण खरीदना, विवाह, जन्म, मृत्यु तथा अन्य सामाजिक, धार्मिक रीति-रिवाज
के पालन के लिए, जिनका उत्पादन से संबंध नहीं होता और जिसमें उधार वापसी
का प्रबंध स्वत: निहित नहीं होता।
4. अल्पकालीन ऋण (Short-term Loan): ये ऋण, सामान्यत: 15 माह की अवधि के
लिए प्राप्त किए जाते हैं तथा फसल कटने के बाद चुका दिए जाते हैं। ये ऋण उत्पादन
या उपभोग कार्यों के लिए प्राप्त किए जा सकते हैं।
5. मध्यकालीन ऋण (Medium-term Loan): इन ऋणों की अवधि 15 महीनों से लेकर
5 वर्ष तक की होती है। ये ऋण प्राय: भूमि पर सुधार करने, पशु एवं कृषि यंत्र खरीदने,
कुआँ खुदवाने आदि कार्यों हेतु लिए जाते हैं। इन ऋणों की मात्रा अधिक होती है
तथा अधिक समय की अवधि के बाद चुकाए जाते हैं।
6. दीर्घकालीन ऋण (Long-term Loan): इन ऋणों की अवधि 5 वर्ष से अधिक तथा
प्राय: 10 से 20 वर्ष तक की होती है। ये ऋण प्राय: भूमि खरीदने, पुराने ऋणों को
चुकाने, महँगे कृषि यंत्रा (ट्रैक्टर) खरीदने तथा अन्य पूँजीगत व्यय हेतु लिए जाते हैं।
कृषि ऋण साख के साधन
भारत के कृषि वित्त की अल्पकालीन, मध्यकालीन और दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने वाले स्रोतों को दो भागों में बाँटा जाता है -1. गैर-संस्थागत स्रोत (Non-Institutional Sources): इनके अंतर्गत ग्रामीण साहूकार
अपना महाजन, व्यापारी एवं कमीशन एजेंट, मित्रा एवं संबंधी आदि को शामिल किया
जाता है।
2. संस्थागत स्रोत (Institutional Sources): इसके अंतर्गत सरकार, सहकारी समितियाँ
तथा बैंकों को सम्मिलित किया जाता है।
कृषि साख की समस्याएँ
कृषि-ऋण, अन्य उद्यमों के लिए प्राप्त ऋण से भिन्न होता है जिसका मुख्य कारण कृषि उद्यम की कुछ विशेषताओं का होना है। जिससे कृषि ऋण की समस्याएं अन्य व्यवसायों की ऋण समस्याओं से भिन्न होती हैं। कृषि-ऋण की प्रमुख समस्याएं हैं-1. अपर्याप्त उपलब्धि (Inadequate Availiability): कृषि की आवश्यकताओं को देखते
हुए कृषि की उपलब्धि अपर्याप्त है। यद्यपि कृषि साख की मात्रा में भारी वृद्धि हुई
है परंतु हमारी जनसंख्या में वृद्धि तथा कृषि उपकरणों, खाद व बीजों आदि के मूल्य
में भारी वृद्धि को ध्यान में रखकर देखा जाए तो यह रकम अभी भी हमारी कृषि
साख आवश्यकताओं की तुलना में काफी कम है।
2. कृषि ऋणों की कम वसूली (Less Recovery of Agricultural Credit): कृषि ऋणों
की वसूली में कमी तथा बकाया ऋण की वृद्धि ने भी कृषि साख को प्रभावित किया
है। पिछले तीन-चार वर्षों में 40 से 42 प्रतिशत ऋण राशि बकाया के रूप में रही
है। इससे सहकारी संस्थाओं तथा बैंको को अन्य व्यक्तियों को कृषि साख सुविधाएँ
उपलब्ध कराने में बाधा आई है।
3. निधन कृषको को कम साख (Less Credit of Performances): कृषि साख का
लाभ उन निर्धन कृषकों को नहीं मिल पाता जिन्हें इसकी वास्तव में आवश्यकता होती
है। अधिकतर ऋण धनी तथा प्रभावशाली किसान प्राप्त कर लेते हैं। इसके फलस्वरूप
जहां एक और ऋण की वसूली में बाधा आती है, वहीं दूसरी और जरूरतमंद कृषकों
को ऋण नहीं मिल पाता।
4. ऋणों की अपर्यात मात्रा (Inadequate Amount of Loans): कृषि साख की एक
मुख्य समस्या ऋणों की अपर्याप्त मात्रा है। सामान्यत: देखा गया है कि कृषकों को
पर्याप्त मात्रा में ऋण नहीं मिलता। इस कारण उस ऋण का प्रयोग वे कृषि कार्यों
में न करके बल्कि अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा देते हैं। जिसके
फलस्वरूप कृषि साख का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता तथा कृषि ऋण वसूली की समस्या
उत्पन्न हो जाती है।
5. देरी से कार्रवाई या लालफीताशाही (Red Tapism): कृषि प्रदान करनेवाली समस्याओं
की कागजी कार्रवाई इतनी लंबी-चौड़ी तथा जटिल होती है कि गाँव के गरीब तथा
अशिक्षित किसानों के लिए ऋण संबंधी सारी औपचारिकताएँ पूरी करना मुश्किल हो
जाता है। इससे कृषकों को ऋण मिलने में कठिनाई आती है।
6. ऋण वापस करने की अनिश्चित क्षमता (Uncertain Capacity of Refunding
Loans): अधिकतर किसानों की ऋण वापिस करने की क्षमता अनिश्चित होती है।
पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ न होने के कारण कृषि आज भी मॉनसून का जुआ है। कृषक
को ऋण मिल भी जाए, परंतु वर्षा पर्याप्त नहीं हो पाई तो भी ऋण चुकाने की उसकी
क्षमता प्रभावित होगी। इसके फलस्वरूप बैंकों को नई साख सुविधा उपलब्ध कराने
में कठिनाई होगी।
7. अपर्याप्त संस्थागत साख सुविधाएँ (Inadequate Institutional Credit Facilities):
भारत में अभी भी संस्थागत साख सुविधाएँ अपर्याप्त हैं। प्राथमिक कृषि साख समितियां,
ग्रामीण बैंको तथा व्यापारिक बैंको की शाखाओं की संख्या अभी भी अपर्याप्त हैं। बहुत
से ग्रामीण क्षेत्रा इनकी सुविधाओं से वंचित है। वहाँ के निवासियों को कृषि संबंधी ऋण
प्राप्त करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
सन्दर्भ -
- माथुर बी0 एल0; (2011) ‘‘कृषि अर्थशास्त्र‘‘; अर्जुन पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली।
- कुसुमलता ‘‘ग्रामीण ऋणव्यवस्था और सार्वजनिक बैंक ’’ (फरवरी 2010) योजना, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, प्रकाशन विभाग भारत सरकार, नई दिल्ली।
- वर्मा सुभाष चन्द,‘‘क्षेत्रीय ग्रामीण विकास बैंक: चुनौतियाँ एवं समाधान ’’( फरवरी 2010) योजना, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, प्रकाशन विभाग भारत सरकार, नई दिल्ली।
- पंत नवीन, ‘‘ग्रामीण क्षेत्रों में बैकिंग सुविधाएं ’’ (फरवरी 2010 )योजना, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, प्रकाशन विभाग भारत सरकार, नई दिल्ली।
- सावित्री,‘‘किसान क्रेडिट कार्ड से खत्म हुई किसानों की ऋणग्रस्तता ’’ (जून 2011) कुरूक्षेत्र, ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली।
Thanks
ReplyDeleteI want chunautiya
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteFantastic your answer i proud of you
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