यदि परिभाषित करें तो अधिवास मानवीय बसाहट का एक स्वरूप है जो एक मकान
से लेकर नगर तक हो सकता है। अधिवास से एक और पर्याय का बोध होता
है-क्योंकि अधिवास में बसाहट एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत पूर्व में वीरान
पड़े हुए क्षेत्र में मकान बना कर लोगों की बसाहट शुरू हो जाना आता है। भूगोल में
यह प्रक्रिया अधिग्रहण भी कही जाती है।
इसलिए हम कह सकते हैं कि अधिवास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्तियों के समूह का निर्माण तथा किसी क्षेत्र का चयन मकान बनाने के साथ उनकी आर्थिक सहायता के लिए किया जाता है। अधिवास मुख्य रूप से दो प्रकारों में विभक्त किये जा सकते हैं- ग्रामीण अधिवास और नगरीय अधिवास। इसके पहले कि भारत में ग्रामीण एवं नगरीय अधिवास के अर्थ एवं प्रकार पर चर्चा करें हमें आमतौर पर ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के बीच के कुछ मौलिक अंतर को समझ लेना चाहिए।
- ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के बीच सबसे बड़ा अन्तर दोनो के बीच क्रियात्मक गति विधियों से है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ लोगों के कार्यकलापों में प्राथमिक क्रियाएँ प्रमुख होती हैं वहीं नगरीय क्षेत्रो में द्वितीयक एवं तृतीयक क्रियाएँ प्रमुख हैं।
- ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है।
मानव अधिवास के प्रकार
- ग्रामीण अधिवास
- नगरीय अधिवास
1. ग्रामीण अधिवास
जहाँ तक ग्रामीण अधिवासों के प्रकार का संबंध है, यह आवासों के वितरण के अंश को दर्शाता है। ग्रामीण अधिवासों के प्रकार भूगोलवेत्ताओं ने अधिवासों को वर्गीकृत करने के लिए अनेकों युक्तियाँ सुझाई हैं। यदि देश में विद्यमान सभी प्रकार के अधिवासों को वर्गीकृत करना चाहें तो इन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-- सघन/संहत केन्द्रित अधिवास
- अर्धसघन/अर्धसंहत/विखंडित अधिवास
- पल्ली-पुरवा अधिवास
- प्रकीर्ण या परिक्षिप्त अधिवास
1. सघन अधिवास - जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है कि इन अधिवासों में मकान पास-पास सट कर बने होते हैं। इसलिए ऐसे अधिवासों में सारे आवास किसी एक केन्द्रीय स्थल पर संकेन्द्रित हो जाते हैं और आवासीय क्षेत्र खेतों व चारागाहों से अलग होते हैं। हमारे देश के अधिकांश आवास इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे अधिवास देश के प्रत्येक भाग में मिलते हैं। इन अधिवासों का वितरण समस्त उत्तरी गंगा-सिंध मैदान (उत्तर-पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक), उड़ीसा तट, छत्तीसगढ़ राज्य के महानदी घाटी क्षेत्र, आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र, कावेरी डेल्टा क्षेत्र (तमिलनाडु), कर्नाटक के मैदानी क्षेत्र, असाम और ित्रापुरा के निचले क्षेत्र तथा शिवालिक घाटियों में है।
कभी-कभी लोग सघन अधिवास में अपनी सुरक्षा या प्रतिरक्षा के उद्देश्य से
रहते हैं। ऐसे अधिवासों के बड़े ही सुन्दर उदाहरण मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में मिलते हैं। राजस्थान में भी लोग सघन अधिवास में कृषि योग्य भूमि
की उपलब्धता तथा पेयजल की कमी के कारण रहते हैं, ताकि वे उपलब्ध प्राकृतिक
संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर सकें।
ऐसे अधिवास मणिपुर में नदियों के सहारे, मध्य प्रदेश के मण्डला एवं बालाघाट जिलों तथा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में मिलते हैं। विभिन्न जनजातियाँ छोटा नागपुर क्षेत्र में ऐसे अधिवास बनाकर रहती हैं।
सघन अधिवासों के समान अर्ध-सघन अधिवासों के भी कई भिन्न प्रतिरूप होते हैं। कुछ प्रतिरूप हैं- (i) चौक-पट्टी प्रतिरूप, (ii) बढ़ी हुई आयताकार प्रतिरूप, (iii) पंखाकार प्रतिरूप।
ऐसे अधिवास मणिपुर में नदियों के सहारे, मध्य प्रदेश के मण्डला एवं बालाघाट जिलों तथा छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में मिलते हैं। विभिन्न जनजातियाँ छोटा नागपुर क्षेत्र में ऐसे अधिवास बनाकर रहती हैं।
सघन अधिवासों के समान अर्ध-सघन अधिवासों के भी कई भिन्न प्रतिरूप होते हैं। कुछ प्रतिरूप हैं- (i) चौक-पट्टी प्रतिरूप, (ii) बढ़ी हुई आयताकार प्रतिरूप, (iii) पंखाकार प्रतिरूप।
3. पल्ली-पुरवा अधिवास - इस प्रकार के अधिवास कई छोटी इकाइयों में प्रकीर्ण रूप से बसे रहते हैं। मुख्य
अधिवास का अन्य अधिवासों पर कोई ज्यादा प्रभाव नहीं होता है। अधिवास का
वास्तविक स्थान अन्तर करने योग्य नहीं होता तथा मकान एक बड़े क्षेत्र में बिखरे होते
हैं, जिनके बीच-बीच में खेत होते हैं। यह विभाजन सामान्यत: सामाजिक व जातीय
कारकों द्वारा प्रभावित होता है। इन मकानों को स्थानीय तौर पर फलिया, पारा, धाना,
धानी, नांगलेई आदि कहते हैं।
ये अधिवास सामान्यत: पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश,
मध्य प्रदेश और तटीय मैदानों में पाये जाते हैं। भौगोलिक रूप से इसके अंतर्गत
निचला गंगा मैदान, हिमालय की निचली घाटियाँ तथा केन्द्रीय पठार या देश की उच्च
भूमियां आती हैं।
4. परिक्षिप्त या प्रकीर्ण अधिवास - इन अधिवासों को एकाकी अधिवास भी कहते हैं। इन बस्तियों की एक विशेषता होती है। इन अधिवासों की इकाइयाँ छोटी-छोटी होती है अर्थात आवासीय घर या घरों का समूह भी छोटा होता है। इनकी संख्या दो से सात मकानों की हो सकती है। ऐसे अधिवास एक बड़े क्षेत्र में बिखरे होते हैं तथा इनका कोई स्पष्ट प्रतिरूप नहीं बन पाता है। ऐसे अधिवास भारत के जनजाति बहुल मध्य क्षेत्र में पाये जाते हैं, जिसके अन्तर्गत छोटा नागपुर का पठार, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि आते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरी बंगाल, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु एवं केरल राज्यों में भी ऐसे अधिवास मिलते हैं।
5. ग्रामीण अधिवासों के प्रकार को प्रभावित करने वाले कारक - ग्रामीण अधिवासों को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख कारक हैं- (i) भौतिक, (ii) जातीय या सांस्कृतिक तथा (iii) ऐतिहासिक अथवा प्रतिरक्षात्मक।
आइये, तीनों कारकों
की एक-एक करके चर्चा करें।
इस प्रकार से, शहरों अथवा नगरीय अधिवासों के दो बड़े वर्ग होते हैं। वे स्थानीय क्षेत्र जो अनुच्छेद 29.5 की कण्डिका (क) में वख्रणत शर्तो के अनुरूप हैं, उन्हें वैधानिक शहर कहा जाता है। दूसरे वर्ग में आने वाले वे नगरीय क्षेत्र हैं जो कण्डिका (ख) में दी गई शर्तों का पूर्णत: पालन करते हैं, इन्हें जनगणना शहर कहा जाता है। नगरीय बसाहट के समूहों में नीचे दिए गए तीन गुणों में से कोई एक गुण हो सकते हैं-
- प्राकृतिक कारक- इन कारकों में शामिल हैं- भूमि की बनावट, जलवायु, ढाल की दिशा, मृदा की सामर्थ्य, जलवायु, अपवाह, भू-जल स्तर आदि।
- जातीय और सांस्कृतिक कारक- इनमें शामिल हैं- जाति, समुदाय, जातीयता, धाख्रमक विश्वास इत्यादि। भारत में यह सामान्य रूप से पाया जाता है कि प्रमुख भूमि स्वामी जातियाँ गाँव के नाभिक क्षेत्र में बसती हैं और अन्य सेवा प्रदान करने वाली जातियां ग्राम की परिधि में बसती हैं।
- ऐतिहासिक या प्रतिरक्षात्मक कारक- ऐतिहासिक काल में भारत के उत्तर-पश्चिम मैदानी भागों के अधिकांश भागों में कई बार आक्रान्ताओं ने आक्रमण किया तथा कुछ भागों को कब्जे में भी लिया। इसके पश्चात् एक लम्बे समय तक बाहरी ताकतों के हमलों के अलावा देश के इस भाग में प्रमुख राज्य व साम्राज्य आपस में लड़ते-झगड़ते रहे। इसलिए नाभिकीय प्रारूप के अधिवास सुरक्षा को ध्यान में रखकर बनते रहे।
2. नगरीय अधिवास
भारत की जनगणना के अनुसार शहरी या नगरीय क्षेत्र वे हैं जिनमें स्थितियाँ मिलती हैं- (क) नगरीय क्षेत्रों में या तो नगरपालिका अथवा निगम या फिर छावनी बोर्ड होगा अथवा अधिसूचित शहरी क्षेत्र समिति मौजूद होनी चाहिए (ख) अन्य सभी क्षेत्र जो इन मानकों को पूरा करते हैं-- कम से कम 5000 जनसंख्या,
- कार्यशील पुरुष जनसंख्या का कम से कम 75 प्रतिशत अकृषि क्षेत्र में लगे हों और
- जनसंख्या का घनत्व कम से कम 4000 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. हो।
इस प्रकार से, शहरों अथवा नगरीय अधिवासों के दो बड़े वर्ग होते हैं। वे स्थानीय क्षेत्र जो अनुच्छेद 29.5 की कण्डिका (क) में वख्रणत शर्तो के अनुरूप हैं, उन्हें वैधानिक शहर कहा जाता है। दूसरे वर्ग में आने वाले वे नगरीय क्षेत्र हैं जो कण्डिका (ख) में दी गई शर्तों का पूर्णत: पालन करते हैं, इन्हें जनगणना शहर कहा जाता है। नगरीय बसाहट के समूहों में नीचे दिए गए तीन गुणों में से कोई एक गुण हो सकते हैं-
- मुख्य नगर एवं उससे जुड़े शहरी अपवृद्धि वाले क्षेत्र;
- दो या दो से अधिक संलग्न मुख्य नगर (उनके अपवृद्धि क्षेत्र सहित या उसके बिना);
- एक बड़ा शहर और उससे संलग्न एक या एक से अधिक शहरों के अपवृद्धि क्षेत्र इतने सानिध्य में विकसित हो जाते हैं कि कोई लम्बा सा जनसंख्या का वितान फैल गया हो।
नगरीय अधिवासों के प्रकार - ग्रामीण अधिवासों के सामान नगरीय अधिवासों को कई आधारों पर भिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है। सबसे प्रचलित एवं सर्वसाधरण वर्गीकरण का आधार नगरीय अधिवासों के आकार तथा सम्पादित कार्य होते हैं। आइये इस पर चर्चा करें। जनसंख्या के आकार पर आधारित वर्गीकरण जनसंख्या के आकार को आधार मानकर भारतीय जनगणना, नगरीय क्षेत्रों को 6 वर्गो में विभक्त करता है -
- नगरीय अधिवासों का एक और वर्गीकरण है, जो इस प्रकार है-
- नगर - ऐसे स्थान जिनकी जनसंख्या एक लाख से कम होती है,
- शहर - नगरीय स्थान जहाँ की जनसंख्या एक से 10 लाख के बीच हो,
- महानगर - बड़े नगर जहाँ की जनसंख्या 10 लाख से 50 लाख के बीच हो तथा
- वृहद महानगर - महानगर जहाँ की जनसंख्या 50 लाख से ऊपर हो।
नगरीय अधिवासों का वर्गीकरण
वर्ग | जनसंख्या |
---|---|
वर्ग I | 1,00,000 या इससे अधिक |
वर्ग II | 50,000–99,999 |
वर्ग III | 20,000–49,999 |
वर्ग IV | 10,000–19,999 |
वर्ग V | 5000–9,999 |
वर्ग VI | 5000 से कम |
Hii
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