अनुक्रम
असंगठित पदार्थों से बनी पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को मृदा कहते हैं। यह अनेक
प्रकार के खनिजों, पौधों और जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी है। यह जलवायु,
पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और भूमि की ऊँचाई के बीच लगातार परस्पर क्रिया के
परिणामस्वरूप विकसित हुई है। इनमें से प्रत्येक घटक क्षेत्र विशेष के अनुरूप बदलता
रहता है। अत: मृदाओं में भी एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच भिन्नता पाई जाती है। मृदा
पौधों की वृद्धि के लिये सुरक्षित आधार एवं मौलिक कच्चा माल प्रदान करने का माध्यम
है। मृदा अपनी तुलनात्मक उर्वरता के द्वारा मानव की आर्थिक क्रियाओं को प्रभावित और
अपने देश की नियति का निर्धारण करती है। मृदा के नष्ट होने के साथ ही सम्पत्ति एवं
संस्कृति दोनों की ध्वस्त हो जाती है। इसीलिये मृदा भारत की बहुमूल्य राष्ट्रीय एवं
मौलिक भू-संपदा है। मृदा के प्रकार है -
मृदा के प्रकार
मृदा के प्रकार भारत की मृदाओं को छ: प्रकारों में बाँटा जाता है -1. जलोढ़ मृदा -
जलोढ़ मृदाएँ भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण मृदाएँ हैं। सतलुज, गंगा और ब्रह्मपुत्रा नदियों के विस्तृत घाटी क्षेत्रों और दक्षिणी प्रायद्वीप के सीमावर्ती भागों में पाई जाती हैं। भारत की सबसे उपजाऊ भूमि के 6.4 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में जलोढ़ मृदाएँ फैली हुई हैं। जलोढ़ मृदाओं का गठन बलुई-दोमट से मृत्तिका-दोमट तक होता है। इसमें पोटाश की अधिकता होती है, लेकिन नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी होती है। सामान्यतया ये मृदाएँ धुंधले से लालामी भूरे रंग तक की होती हैं। इन मृदाओं का निर्माण हिमालय पर्वत और विशाल भारतीय पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद और बालू के लगातार जमाव से हुआ है। तरुण होने के नाते इन मृदाओं में परिच्छेदिका के विकास की कमी है।अत्यधिक उत्पादक होने के नाते
इन मृदाओं को दो उप-विभागों में बाँटा गया है: नवीन जलोढ़क (खादर) और प्राचीन
जलोढ़क (बांगर)। दोनों प्रकार की मृदाएँ संरचना, रासायनिक संघटन, जलविकास
क्षमता एवं उर्वरता में एक दूसरे से भिन्न हैं। नवीन जलोढ़क हल्का भुरभुरा दोमट है
जिसमें बालू और मृत्तिका का मिश्रण पाया जाता है। यह मृदा नदियों की घाटियों, बाढ़
मैदानों और डेल्टा प्रदेशों में पाई जाती है। इसके विपरीत प्राचीन जलोढ़क दोआबा (दो
नदियों के बीच की ऊँची भूमि) क्षेत्र में पाया जाता है। मृत्तिका का अनुपात अधिक होने
के कारण यह मृदा चिपचिपी है और जलनिकास कमजोर है। इन दोनों प्रकार की
मृदाओं में लगभग सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं।
2. काली मृदाएँ (रेगड़ मृदा) -
काली मृदा दक्कन के लावा प्रदेश में पाई जाती है। यह मृदा महाराष्ट्र के बहुत बड़े भाग, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में पाई जाती है। इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी के बेसाल्ट लावा के विघटन के परिणामस्वरूप हुआ है। इस मृदा का रंग सामान्यतया काला है जो इसमें उपस्थित अलुमीनियम और लोहे के यौगिकों के कारण है। इस मृदा का स्थानीय नाम रेगड़ मिट्टी है और यह लगभग 6.4 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर फैली है। यह सामान्यतया गहरी मृत्तिका (चिकनी मिट्टी) से बनी है और यह अपारगम्य है या इसकी पारगम्यता बहुत कम है। मृदा की गहराई भिन्न-भिन्न स्थानों में अलग-अलग है। निम्न भूमियों में इस मृदा की गहराई अधिक है जबकि उच्चभूमियों में यह कम है।![]() |
काली मृदा |
इस मृदा की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि
शुष्क ऋतु में भी यह मृदा अपने में नमी बनाये रखती है। ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी
निकलने से मृदा में चौड़ी-चौड़ी दरारें पड़ जाती है और जल से संतृप्त होने पर यह
फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती है, इस प्रकार मृदा पर्याप्त गहराई तक हवा से
युक्त और आक्सीकृत होती है जो इसकी उर्वरता बनाये रखने में मदद देते हैं। मृदा
की इस प्रकार लगातार उर्वरता बनी रहने के कारण यह कम वर्षा के क्षेत्रों में भी बिना
सिंचाई के कपास की खेती करने के लिये अनुकूल है। कपास के अतिरिक्त यह मृदा
गन्ना, गेहूँ, प्याज और फलों की खेती करने के लिये अनुकूल है।
Super
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