सौर विकिरण किसे कहते हैं धरातल पर प्राप्त सूर्यातप की मात्रा को ये कारक प्रभावित करते हैं :

पृथ्वी पर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य है। यह ऊर्जा अंतरिक्ष में चारों ओर लघु तरंगों के रूप में विकरित होती रहती है। इस विकिरित ऊर्जा को सौर विकिरण कहा जाता है। कुल सौर विकिरण का मात्रा दो इकाई (1,00,00,00,000 का 0.000000002) ही धरातल पर पहुंचता है। 

दूसरे शब्दों में अगर हम सौर विकिरण की कुल मात्रा को एक अरब इकाई मान लें तो धरातल पर केवल 2 इकाई की उर्जा प्राप्त होती है। सौर विकिरण का यह अल्प भाग ही पृथ्वी के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि पृथ्वी पर होने वाली सारी भौतिक एवं जैविक घटनाओं के लिये ऊर्जा का एकमात्र स्रोत यही है। लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी की ओर आने वाले सौर विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। 

पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली सूर्यातप की मात्रा सूर्य से विकिरित ताप की मात्रा से बहुत ही कम होती है, क्योंकि पृथ्वी सूर्य से बहुत छोटी है और यह सूर्य से बहुत दूर है। इसके अतिरिक्त वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प, धूलकण, ओज़ोन तथा अन्य गैसे सूर्यातप की कुछ मात्रा को सोख लेती हैं।
  1. पृथ्वी की सतह पर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य है।
  2. पृथ्वी की ओर आने वाले सौर विकिरण को सूर्यातप कहते हैं।

सूर्यातप तथा तापमान में अन्तर

सामान्यत: सूर्यातप तथा तापमान को पर्यायवाची शब्द समझा जाता है लेकिन इन दोनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ है।

1. सूर्यातप

  1. सूर्यातप ऊष्मा है जिससे गर्मी पैदा होती है।
  2. सूर्यातप को कैलोरी में मापा जाता है।
  3. गर्मी कारण मात्रा है। किसी पदार्थ को गर्मी देने पर उसका तापमान बढ़ता है।

2. तापमान

  1. तापमान ऊष्मा से पैदा हुई गर्मी का माप है।
  2. तापमान को थर्मामीटर द्वारा डिग्री में मापा जाता है।
  3. तापमान गर्मी का प्रभाव है गर्मी मिलने से तापमान बढ़ता है।

सूर्यातप को प्रभावित करने वाले कारक

सूर्यातप की मात्रा पृथ्वी की सतह पर सब जगह समान नहीं है। इसकी मात्रा स्थान-स्थान और समय-समय पर भिन्न होती है। ऊष्ण कटिबन्ध में मिलने वाला वार्षिक सूर्यातप सर्वाधिक होता है और ध्रुवों की ओर यह धीरे-धीरे कम होता जाता है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्यातप अधिक होता है और शीत ऋतु में कम। धरातल पर प्राप्त सूर्यातप की मात्रा को ये कारक प्रभावित करते हैं :
  1. सूर्य की किरणों का आपतन कोण 
  2. दिन की अवधि स्थान
  3. वायुमंडल की पारदर्शकता 
1. सूर्य की किरणों का आपतन कोण - पृथ्वी के गोलाकार होने के कारण सूर्य की किरणें इसके तल के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कोण बनाती है। पृथ्वी के किसी बिन्दु पर सूर्य की किरण और पृथ्वी के वृत्त की स्पर्श रेखा के साथ बनने वाले कोण को आपतन-कोण कहते हैं। आपतन कोण सूर्याताप को दो प्रकार से प्रभावित करता है। पहला, जब सूर्य की स्थिति ठीक सिर के ऊपर होती है, उस समय सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं। आपतन कोण बड़ा होने के कारण सूर्य की किरणें छोटे से क्षेत्रा पर संघनित हो जाती हैं, जिससे वहाँ अधिक ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। यदि सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं तो आपतन कोण छोटा होता है। इससे सूर्य की किरणें बड़े क्षेत्रा पर फैल जाती हैं और उनसे वहाँ कम ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। दूसरे, तिरछी किरणों को सीधी किरणों (लम्बवत्-किरणों) की अपेक्षा वायुमंडल में अधिक दूरी पार करके धरातल पर आना पड़ता है। सूर्य की किरणें जितना अधिक लम्बा मार्ग पार करेंगी उतनी ही अधिक उनकी ऊष्मा वायुमंडल द्वारा सोख ली जाएगी या परावर्तित कर दी जायेगी। इसी कारण एक स्थान पर तिरछी किरणों से लम्बवत् किरणों की अपेक्षा कम सूर्यातप प्राप्त होता है।

2. दिन की अवधि स्थान - स्थान और ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। पृथ्वी की सतह पर मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा का दिन की अवधि से सीधा संबंध है। दिन की अवधि जितनी लम्बी होगी सूर्यातप की मात्रा उतनी ही अधिक मिलेगी। इसके विपरीत दिन की अवधि छोटी होने पर सूर्यातप कम मिलेगा।

3. वायुमंडल की पारदर्शकता - वायुमंडल की पारदर्शकता भी धरातल को मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करती है। वायुमंडल की पारदर्शकता बादलों की उपस्थिति, उनकी गहनता, धूलकण तथा जलवाष्प पर निर्भर करती है; क्योंकि वे सूर्यातप को परावर्तित, अवशोषित तथा स्थानान्तरित करते हैं। घने बादल सूर्यातप को धरातल पर पहुँचने में बाधा डालते हैं; जबकि बादलों रहित साफ आकाश धरातल पर सूर्यातप पहुँचने में बाधा नहीं डालता। इसी कारण साफ आकाश की अपेक्षा बादलों से घिरे आकाश के समय सूर्यातप कम मिलता है। जलवाष्प भी सूर्यातप को अवशोषित कर धरातल पर उसकी प्राप्ति की मात्रा कम कर देती है।

वायुमंडल का गर्म और ठंडा होना

वायुमंडल की ऊर्जा तथा गर्मी का एकमात्रा स्रोत सूर्य है, परन्तु यह प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करता। उदाहरणार्थ जब हम किसी पर्वत पर चढ़ते हैं या वायुमंडल में सूर्य की ओर ऊपर जाते हैं तो ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान बढ़ने के बजाय घटता है। इसका कारण है वायुमंडल के गर्म होने की प्रक्रिया का जटिल होना। वायुमंडल को सीधे गर्म करने वाली चार प्रक्रियाएं हैं। इनके नाम हैं :-
  1. विकिरण,
  2. चालन, 
  3. संवहन और 
  4. अभिवहन।
1. विकिरण - जब किसी ताप-स्रोत से ताप, तरंगों द्वारा किसी वस्तु तक सीधे पहुँचता है तो इस प्रक्रिया को विकिरण कहते हैं। विकिरण की इस प्रक्रिया में ऊष्मा आकाश में से होकर स्थानांतरित होती हैं। पृथ्वी को मिलने वाली और इससे छोड़ी जाने वाली अधिकांश ताप ऊर्जा विकिरण द्वारा ही स्थानांतरित होती हैं। विकिरण प्रक्रिया के लिये तथ्य उल्लेखनीय हैं -
  1. सभी वस्तुएं चाहे वे गर्म हों या ठंडी निरंतर ऊर्जा का विकिरण करती रहती हैं। 
  2. ठंडी वस्तुओं की अपेक्षा गर्म वस्तुओं के प्रति इकाई क्षेत्राफल से अधिक ऊर्जा विकिरित होती है। 
  3. वस्तु का तापमान विकिरण तरंगों की लंबाई निर्धारित करता है। तापमान और विकिरण तरंगों की लंबाई में उल्टा संबंध होता है। कोई वस्तु जितनी अधिक गर्म होगी उसकी विकिरित तरंगों की लंबाई उतनी ही छोटी होगी। 
  4. सूर्यातप पृथ्वी की सतह पर लघु तरंगों के रूप में पहुँचता है और पृथ्वी द्वारा छोड़ी जाने वाली ताप ऊर्जा दीर्घ तरंगों में होती है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वायुमंडल लघु तरंगों के लिये पारगम्य है और दीर्घ तरंगों के लिये अपारगम्य। यही कारण है कि वायुमंडल सूर्यातप की अपेक्षा पृथ्वी द्वारा छोड़ी गई ऊष्मा या पार्थिव विकिरण से अधिक गर्म होता है।

2. चालन - जब असमान तापमान की दो वस्तुएं एक-दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो ताप ऊर्जा अधिक गर्म वस्तु से कम गर्म वस्तु की ओर गमन करती है और इस प्रक्रिया को चालन कहते हैं। चालन क्रिया द्वारा ताप ऊर्जा का प्रवाह तब तक होता रहता है जब तक दोनों वस्तुओं के तापमान एक समान नहीं हो जाते अथवा उनके बीच संपर्क टूट नहीं जाता। वायुमंडल में चालन प्रक्रिया उस क्षेत्रा में काम करती है, जहाँ वायुमंडल पृथ्वी की सतह के संपर्क में आता है। मगर चालन की प्रक्रिया वायुमंडल को गर्म करने में बहुत ही कम भूमिका निभाती है; क्योंकि चालन का प्रभाव धरातल के निकटस्थ वायु पर ही पड़ता है।

3. संवहन - वायु की सामान्यत: ऊध्र्वाधर गति के कारण ऊष्मा का स्थानांतरण संवहन कहलाता है। वायुमडल की निचली परतें पृथ्वी द्वारा विकिरण अथवा चालन द्वारा गर्म हो जाती है। वायु गर्म होकर फैलती है। इसका घनत्व कम हो जाता है और वह ऊपर उठती है। गर्म वायु के लगातार ऊपर उठने के कारण वायुमंडल की निचली परतों में खाली जगह हो जाती है। इस खाली जगह को भरने के लिए ऊपर से ठंडी वायु नीचे उतरती है और इस प्रकार संवहनीय धारायें बन जाती है। संवहन धाराओं में ताप का स्थानांतरण नीचे से ऊपर की ओर होता है और इस प्रकार वायुमंडल धीरे-धीरे गर्म हो जाता है।

4. अभिवहन -  पवनें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ताप का स्थानांतरण करती हैं। यदि कोई स्थान गर्म क्षेत्रों से आने वाली पवनों के मार्ग में पड़ता है तो उसका तापमान बढ़ जाएगा। यदि वह ठंडे क्षेत्रों से आने वाली पवनों के मार्ग में पड़ता है तो उसका तापमान घट जाएगा। पवनों द्वारा ताप का क्षैतिज स्थानांतरण अभिवहन कहलाता है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

1 Comments

Previous Post Next Post