उपपुराण के नाम एवं उपपुराण की संख्या

पुराणों की भांति उपपुराणों की भी गणना की गयी है। विद्वानों का विचार है कि पुराणों के बाद ही उपपुराणों की रचना हुई है, पर प्राचीनता अथवा मौलिकता के विचार से उपपुराणों की महत्ता पुराणों के समान है। उपपुराणों में स्थानीय सम्प्रदाय तथा पृथक् पृथक् सम्प्रदायों की धार्मिक आवश्यकता पर अधिक बल दिया गया है। 

उपपुराणों की सूची इस प्रकार है- 
  1. सनत्कुमार, 
  2. नरसिंह, 
  3. नान्दी, 
  4. शिवधर्म, 
  5. दुर्वासा, 
  6. नारदीय, 
  7. कपिल, 
  8. मानव, 
  9. उषनस्, 
  10. ब्रह्माण्ड, 
  11. वारुण, 
  12. कालिका, 
  13. वसिष्ठ, 
  14. लिड़्ग, 
  15. महेश्वर, 
  16. साम्ब, 
  17. सौर, 
  18. पराशर, 
  19. भार्गव, 
  20. मारीच उपपुराण। 
एक नीलमत उपपुराण भी मिलता है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य उपपुराण भी हैं-
  1. आदित्य, 
  2. मुद्गल, 
  3. कल्कि, 
  4. देवीभागवत, 
  5. वृहद्धर्म, 
  6. परानन्द, 
  7. पशुपति, 
  8. हरिवंश तथा 
  9. विष्णुधर्मोत्तर।

उपपुराण के नाम एवं संख्या

  1. हरिवंश पुराण
  2. देवी भागवत
  3. नृसिंह पुराण
  4. नारद पुराण
  5. बृहद्धमर्पपुराण
  6. गणेश पुराण
  7. मुद्गल पुराण
  8. कल्कि पुराण
  9. कालिका पुराण
  10. नीलमत पुराण

हरिवंश पुराण

‘हरिवंश’ को महाभारत का खिल भाग माना जाता रहा है; किन्तु इसमें पुराणों के सभी लक्षण विद्यमान हैं, अत: इसका विकास एक स्वतन्त्र पुराण के रूप में हुआ है। यह खेद की बात है कि विद्वानों ने महापुराण के रूप में इस पर कम ध्यान दिया है, फलत: यह उपेक्षा का पात्र बना हुआ है। इसका कारण यह है कि महापुराणों की सूची में जिन 18 पुराणों को स्थान दिया गया है, उनमें हरिवंश नहीं है। पर फरक्युहर तथा विण्टरनित्स प्रभृति विद्वानों ने इसमें पौराणिक तत्त्वों का पर्यवेक्षण कर इसे महापुराणों में स्थान दिया है और संख्या-क्रम से इसे 20वाँ पुराण कहा है। अधिकांश विद्वान् इसे उपपुराण ही स्वीकार करते हैं।

देवी भागवत

देवी या शक्ति के माहात्म्य का वर्णन होने के कारण इसे देवी को भागवत कहते हैं। सम्प्रति भागवत संज्ञक दो पुराणों की स्थिति विद्यमान है-’श्रीमद्भागवत’ एवं ‘देवी भागवत’ और दोनों ही महापुराण कहा जाता है। श्रीमद्भागवत में भगवान् विष्णु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है और देवी भागवत में शक्ति की महिमा का बखान हुआ है। इस समय दोनों ही ग्रन्थों में द्वादश स्कन्ध एवं 18 हजार श्लोक हैं। ‘पद्म’, ‘विष्णु’, ‘नारद’, ‘ब्रह्मवैवर्त्त’, ‘मार्कण्डेय’, ‘वाराह’, ‘मत्स्य’, तथा ‘कूर्म’ महापुराणों में पौराणिक क्रम से भागवत को पंचम स्थान प्राप्त है, किन्तु शिवपुराण के रेवामाहात्म्य में ‘श्रीमद्भागवत’ नवम स्थान पर अधिष्ठित कराया गया है।

नृसिंह पुराण

यह वैष्णव उपपुराण है। इसका प्रकाशन (हिन्दी अनुवाद के साथ) अभी कुछ वर्ष पूर्व गीतापे्रस, गोरखपुर से हुआ है। इसमें नृसिंह को विष्णु का एक अवतार मानकर उन्हें नारायण या ब्रह्म का रूप दिया गया है। यह पा×चरात्रा-विषयक रचना है। इसमें पुराण सम्बन्धी पाँच विषयों का वर्णन है। इसके कतिपय अध्यायों में योग की शिक्षा, यज्ञ तथा नृसिंह की पूजा-पद्धति का निरूपण है। इसमें सूर्य और चन्द्रवंशी राजाओं की वंशावलियाँ भी हैं, जिसमें उदयन और वासवदत्ता के पौत्रा क्षेमक एवं शुद्धोदन के पुत्रा सिद्धार्थ तक का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसमें यम-यमी का पूरी कथा का रोचक वर्णन है तथा रामायण, महाभारत, वायुपुराण और वाराह पुराण के उद्धरण प्राप्त होते हैं। विद्वानों ने इसका समय पंचम शती के लगभग माना है।

नारद पुराण

यह भी वैष्णव उपपुराण है। इसमें विष्णु भक्ति का वर्णन हुआ है। यह पांचरात्रा से संबद्धरचना है, जिसका उद्देश्य वैष्णव सिद्धान्तों एवं विधि-विधानों (नियमों) का विविध कथाओं के माध्यम से वर्णन करना है। नारदपुराण में व्रतों का वर्णन है और कुछ अध्यायों में गंगा का माहात्म्य वर्णित है। इसमें वर्णाश्रम धर्म, श्राद्ध तथा पापों के प्रायश्चित्त भी वर्णित हैं। विद्वानों के मतानुसार इसकी रचना बंगाल या उड़ीसा के किसी भाग में 750 ई0 से लेकर 900 ई0 के बीच हुई है।

बृहद्धमर्पपुराण

इसमें विष्णु को परमात्मा से अभिन्न मानकर उनकी भक्ति-विशेषत: दास्य भक्ति का वर्णन है। प्रथम भाग का अधिकांश अंग देवी तथा जप और विजया के संवाद के रूप में रचित है। इसमें गंगा की उत्पत्ति और माहात्म्य का विस्तृत विवरण है और अन्तिम भाग में वर्णाश्रम धर्म, स्त्राी धर्म, ग्रह पूजा, वर्ष भर के उत्सव और व्रत तथा पाप एवं बुराइयों का वर्णन है। माता-पिता और गुरु के प्रति कर्त्तव्यों का इसमें विशेष विवरण प्राप्त होता है तथा तीर्थों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त रामायण और महाभारत की कथाएँ वर्णित हैं।

गणेश पुराण

गणेश पुराण में गणेश की महत्ता का वर्णन कर उन्हें परमात्मा से अभिन्न दिखलाया गया है। इसका समय 500 ई0 से 800 ई0 के आसपास माना गया है। शाम्बपुराण का प्रकाशन बम्बई से 1885 ई0 में हुआ था। इसमें सूर्योपासना का प्रतिपादन किया गया है। शाम्ब ने शाम्बपुर के मित्रावन में सूर्य प्रतिमा की स्थापना की थी। इसमें सूर्य की पूजा के अतिरिक्त सृष्टिप्रक्रिया, ब्रह्माण्ड, पृथ्वी का भूगोल, सूर्य एवं उनकी परिचर्या तथा योग का वर्णन है। यह लघु रचना है।

मुद्गल पुराण

मुद्गल पुराण अभी अप्रकाशित है और इसमें गणपति या गणेश का वर्णन है। इसमें गणपति का गणेश के नौ अवतारों का विवरण प्राप्त हुआ है-वक्रतुण्ड एकदन्त, महोदर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण एवं योग। यह तांित्रक उपासना से प्रभावित है और गणपति के बत्तीस प्रकारों का विवेचन प्रस्तुत करता है। अनुमानत: इस उपपुराण की रचना 900 ई0 से 1100 ई0 के आसपास हुई है।

कल्कि पुराण

कल्कि पुराण में कलियुग में विष्णु के अवतार कल्कि का वर्णन है। यह पुराण कलकत्ता से प्रकाशित हो चुका है।

कालिका पुराण

कालिका पुराण का प्रकाशन चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी से 1972 ई0 में हुआ है। इसमें काली के अनेक रूप धारण करने का वर्णन है। इसकी रचना कामरूप या आसाम के निकट हुई थी। इसमें काली को विष्णु की माया और योगनिद्रा के रूप में दिखाया गया है जो आगे चलकर शिव की पत्नी सती के रूप में दिखाई पड़ती है। इसमें भगवती कासी एवं उनके भयंकर कर्मों का विशद विवेचन प्राप्त होता है तथा आसाम के पर्वत, नदियों एवं धार्मिक स्थानों का वर्णन मिलता है। इस पुराण की रचना दसवीं शताब्दी के आस-पास हुई थी। कामरूप या आसाम के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक इतिहास जानने के लिए यह पुराण अत्यन्त उपादेय है। इसमें नर-बलि और पशु-बलि का उल्लेख है।

नीलमत पुराण

नीलमत पुराण का प्रकाशन 1924 ई0 में लाहौर में हुआ था। इसमें काश्मीर का इतिहास, स्थानों का विवरण एवं अनुश्रुतियाँ हैं तथा राजा नील का विवरण एवं उनके मत का विवेचन है। इस पुराण का उल्लेख कल्हण रचित राजतरंगिणी में प्राप्त होता है। कल्हण ने काश्मीर का आदि इतिहास इसी से लिया है। इसका समय कल्हण से बहुत पूर्व माना जा सकता है। पशुपति पुराण में नेपाल के राजाओं की वंशावलिंयाँ दी गयी हैं। इसके वण्र्य विषयों में नेपाल माहात्म्य और वाग्वती-माहात्म्य है।

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