अर्थशास्त्र एक अत्यंत विशाल विषय है। इसलिये अर्थशास्त्र की कोई निश्चित परिभाषा अथवा
अर्थ देना आसान नहीं है क्योंकि इसकी सीमा तथा क्षेत्र, जो इसमें सम्मिलित हैं, अत्यंत विशाल
हैं। जिस समय से यह सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की एक पृथक शाखा के रूप में उभर कर
आया है, विभिन्न विद्वानों तथा लेखकों ने इसका अर्थ तथा उद्देश्य बताने का प्रयत्न किया है।
यह ध्यान देना चाहिये कि समय तथा सभ्यता के विकास के साथ अर्थशास्त्र की परिभाषा में
रूपान्तरण तथा परिवर्तन हुए हैं। आइये, हम अर्थशास्त्र के अर्थ से संबंधित प्रमुख विचारों
पर अपना ध्यान केन्द्रित करें :
(ii) धन की परिभाषा में समस्या थी कि यह उन लोगों के बारे में बात नहीं करती थी जिनके पास धन नहीं होता। धन होना तथा धन नहीं होना ने समाज को धनी तथा निर्धन अथवा गरीब में विभाजित कर दिया। उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ में अनेक विज्ञानों ने सोचा कि अर्थशास्त्र को ‘समाज के कल्याण’ के विषय पर बात करनी चाहिये न कि केवल धन के बारे में। तदनुसार अर्थशास्त्र को कल्याण के विज्ञान के रूप में देखा गया। कल्याण प्रकृति में परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों होता है। वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि आदि कल्याण के परिमाणात्मक पहलू हैं। शांति से रहना, अवकाश का आनन्द लेना, ज्ञान अर्जित करना आदि कल्याण के गुणात्मक पहलू हैं। कल्याण के विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र का संबंध केवल परिमाणात्मक कल्याण से ही माना गया क्योंकि उसे मुद्रा में मापा जा सकता है।
(iii) अर्थशास्त्र की कल्याण की परिभाषा ने कल्याण के केवल भौतिक पहलुओं की ही व्याख्या की। परन्तु लोगों को भौतिक वस्तुओं तथा अभौतिक सेवाओं दोनों की आवश्यकता होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अथवा समाज के पास उपलब्ध संसाधन दुर्लभ होते हैं, लोग अपने लक्ष्यों को इन संसाधनों के बैकल्पिक प्रयोग से प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं जो वे उपयुक्त चयन के द्वारा करते हैं। अत: अर्थशास्त्र को दुर्लभता तथा चयन का विज्ञान कहा गया। दुर्लभता तथा चयन के विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र मानवीय व्यवहार के उद्देश्यों व उन दुर्लभ साधनों के संबंधों का अध्ययन करता है जिनका वैकल्पिक प्रयोग किया जा सकता है।
यहाँ ‘उद्देश्यों’ से अभिप्राय ‘आवश्यकताएं’ तथा ‘दुर्लभ संसाधनों’ से अभिप्राय ‘सीमित
संसाधनों’ से है। दुर्लभता की परिभाषा के अनुसार, सीमित संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोग
हो सकते हैं। कपड़ा तथा गेहूँ - दो वस्तुओं के उत्पादन का उदाहरण लीजिये। सीमित संसाधनों
से हम कपड़ा तथा गेहूँ की असीमित मात्रा में उत्पादन नहीं कर सकते। इन वस्तुओं का
उत्पादन करने के लिये संसाधनों को विभाजित करना पड़ता है।
(i) अठारहवीं शताब्दी के अन्त तथा उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में अनेक विद्वानों तथा लेखकों
का मत था कि अर्थशास्त्र धन का विज्ञान है। इन विद्वानों को क्लासिकी अर्थशास्त्री कहते
हैं। उनकी दृष्टि में अर्थशास्त्र धन से संबंधित घटनाओं/पदार्थों का अध्ययन करता है जिसमें
धन की प्रकृति तथा उद्देश्य, व्यक्तियों तथा देशों आदि द्वारा धन का सृजन करना आदि
को शामिल किया जाता है।
(ii) धन की परिभाषा में समस्या थी कि यह उन लोगों के बारे में बात नहीं करती थी जिनके पास धन नहीं होता। धन होना तथा धन नहीं होना ने समाज को धनी तथा निर्धन अथवा गरीब में विभाजित कर दिया। उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ में अनेक विज्ञानों ने सोचा कि अर्थशास्त्र को ‘समाज के कल्याण’ के विषय पर बात करनी चाहिये न कि केवल धन के बारे में। तदनुसार अर्थशास्त्र को कल्याण के विज्ञान के रूप में देखा गया। कल्याण प्रकृति में परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों होता है। वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि आदि कल्याण के परिमाणात्मक पहलू हैं। शांति से रहना, अवकाश का आनन्द लेना, ज्ञान अर्जित करना आदि कल्याण के गुणात्मक पहलू हैं। कल्याण के विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र का संबंध केवल परिमाणात्मक कल्याण से ही माना गया क्योंकि उसे मुद्रा में मापा जा सकता है।
(iii) अर्थशास्त्र की कल्याण की परिभाषा ने कल्याण के केवल भौतिक पहलुओं की ही व्याख्या की। परन्तु लोगों को भौतिक वस्तुओं तथा अभौतिक सेवाओं दोनों की आवश्यकता होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अथवा समाज के पास उपलब्ध संसाधन दुर्लभ होते हैं, लोग अपने लक्ष्यों को इन संसाधनों के बैकल्पिक प्रयोग से प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं जो वे उपयुक्त चयन के द्वारा करते हैं। अत: अर्थशास्त्र को दुर्लभता तथा चयन का विज्ञान कहा गया। दुर्लभता तथा चयन के विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र मानवीय व्यवहार के उद्देश्यों व उन दुर्लभ साधनों के संबंधों का अध्ययन करता है जिनका वैकल्पिक प्रयोग किया जा सकता है।
मान लीजिये, इनमें से किसी
एक वस्तु जैसे गेहूँ की मांग में वृद्धि हो जाती है, इसलिये इसको अधिक मात्रा में उत्पादन
करना पड़ता है जिसके लिये हमें अधिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु दिया
हुआ है कि संसाधन सीमित हैं, हम अधिक गेहूँ का उत्पादन केवल कपड़े के उत्पादन में
से कुछ संसाधनों को निकालकर तथा इन्हें गेहूँ के उत्पादन में लगाकर ही कर सकते हैं।
परिणामस्वरूप, कपड़े का उत्पादन कम हो जायेगा तथा गेहूँ के उत्पादन में वृद्धि हो जायेगी।
इस उदाहरण में हमारे पास दो विकल्प हैं :
(iv) बीसवीं शताब्दी में पूरी अर्थव्यवस्था की संवृद्धि तथा विकास प्राप्त करने के उद्देश्य ने गति पकड़ी। आर्थिक संवृद्धि तथा विकास में सरकार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई। इसलिये अर्थशास्त्र अब केवल व्यक्तिगत निर्णय लेने तथा संसाधनों के प्रयोग तक ही सीमित नहीं रह गया। समय के साथ वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग को सम्मिलित कर इसके क्षेत्र में विस्तार किया गया ताकि अर्थव्यवस्था में संवृद्धि तथा विकास हो सके।
इसलिये अर्थशास्त्र को संवंवृृिद्धि तथा विकास का विज्ञान कहा गया है। वास्तव में, यह सत्य है कि आजकल लोग व्यक्तियों तथा पूरे देश के कल्याण के बारे में बात करते हैं। यह समझा जाता है कि किसी व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के योग्य बनाने के लिये यह आवश्यक है कि पूरी अर्थव्यवस्था में संवृद्धि होनी चाहिये तथा संवृद्धि के लाभों को व्यक्तिगत नागरिकों में वितरित करने के लिये उपयुक्त साधन ढूँढने चाहिए।
- कपड़ा तथा गेहूँ का उसी मात्रा में उत्पादन करते रहें।
- गेहूँ की मांग में वृद्धि होने के कारण उसका अधिक उत्पादन करें, इसके कारण कपड़े की कुछ मात्रा कम कर दें।
(iv) बीसवीं शताब्दी में पूरी अर्थव्यवस्था की संवृद्धि तथा विकास प्राप्त करने के उद्देश्य ने गति पकड़ी। आर्थिक संवृद्धि तथा विकास में सरकार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई। इसलिये अर्थशास्त्र अब केवल व्यक्तिगत निर्णय लेने तथा संसाधनों के प्रयोग तक ही सीमित नहीं रह गया। समय के साथ वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग को सम्मिलित कर इसके क्षेत्र में विस्तार किया गया ताकि अर्थव्यवस्था में संवृद्धि तथा विकास हो सके।
इसलिये अर्थशास्त्र को संवंवृृिद्धि तथा विकास का विज्ञान कहा गया है। वास्तव में, यह सत्य है कि आजकल लोग व्यक्तियों तथा पूरे देश के कल्याण के बारे में बात करते हैं। यह समझा जाता है कि किसी व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के योग्य बनाने के लिये यह आवश्यक है कि पूरी अर्थव्यवस्था में संवृद्धि होनी चाहिये तथा संवृद्धि के लाभों को व्यक्तिगत नागरिकों में वितरित करने के लिये उपयुक्त साधन ढूँढने चाहिए।
अत: संसाधनों
के प्रयोग तथा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन तथा वितरण के संबंध में अर्थव्यवस्था का
निष्पादन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अर्थव्यवस्था को अपने संसाधनों का विभिन्न वैकल्पिक
गतिविधियों में आबंटन, कुशल प्रयोग सुनिश्चित करना चाहिये तथा अर्थव्यवस्था के भावी
विकास के लिये उनमें संवृद्धि किस प्रकार होगी इसके तरीके ढूँढने चाहिये। इस आधार
पर, विश्व की अनेक अर्थव्यवस्थाओं का निष्पादन अच्छा रहा है।
उदाहरण के लिये संयुक्त
राज्य (USA) यूरोप के देश, जापान आदि को विकसित अर्थव्यवस्थायें कहा जाता है क्योंकि
इन्होंने अपने नागरिकों के लिये आय के उच्च स्तर को प्राप्त किया है। हमारी भारतीय
अर्थव्यवस्था विकासशील अर्थव्यवस्था है क्योंकि इसके अनेक नागरिक अभी भी गरीब हैं।
अर्थशास्त्र का अध्ययन हमें अपनी अर्थव्यवस्था की स्थिति के बारे में ज्ञान कराता है तथा
संवृद्धि तथा विकास के ऊँचे स्तर को प्राप्त करने में मार्गदर्शन करता है।
अर्थशास्त्र की परिभाषा
अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है जो आवश्यकताओं तथा उनकी पूर्ति से सरोकार रखता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मनुष्य की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएं असीमित होती हैं और उनकी पूर्ति के लिए उपलब्ध संसाधन सीमित होते हैं। यही कारण है कि लोग संसाधन इकट्ठे करने तथा धन कमाने में लगे रहते हैं जिससे वे अधिक से अधिक आवश्यकताएं व इच्छाएं पूरी कर सकें। किसान खेतों में, मजदूर कारखानों में, कर्मचारी कार्यालयों में तथा शिक्षक विद्यालयों में इसीलिए काम करते हैं कि वे धन अर्जित कर सकें।विभिन्न कार्यों में लोग क्यों व्यस्त रहते हैं? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि वे अपने-अपने कार्यों के बदले धन अर्जित करते हैं जिससे वे अपने जीवन में अधिक से अधिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति कर सकें। आवश्यकताएं अनेक प्रकार की होती हैं। इन में आवश्यक आवश्यकताएं हैं . रोटी, कपड़ा और मकान तथा अन्य अनेक आवश्यकताएं जैसे बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं आदि। सभी इच्छाओं की तथा आवश्यकताओं की पूर्ति इसलिए भी संभव नहीं क्योंकि ज्यों ही मनुष्य एक इच्छा पूरी करता है त्यों ही दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। इस सिलसिले का कोई अंत नहीं। कच्चे माल को उपयोग में आने वाली वस्तुओं में बदलने की प्रक्रिया अर्थशास्त्र के अंतर्गत आती है। इन वस्तुओं को उत्पाद कहा जाता है। वस्तुओं के इस्तेमाल को अर्थशास्त्र की भाषा में उपभोग एवं वितरण कहा जाता है। अर्थशास्त्र उपभोग, उत्पादन एवं धन वितरण का अध्ययन है।
समाजशास्त्र सामाजिक विज्ञान है और वह मनुष्यों से जुड़े तमाम संस्थानों व सरोकारों से सीधा संबंध रखता है। समाजशास्त्र मानवीय व्यवहारों, उनकी सामाजिक परिस्थितियों तथा दशाओं का वैज्ञानिक अध्ययन है। मनुष्य के समस्त आर्थिक क्रियाकलापों से अर्थशास्त्र का सीधा संबंध है। अर्थशास्त्र मूलतः धन एवं उससे जुड ़े सरोकारों का अध्ययन है।
प्रोफेसर
रॉबिंस के अनुसार अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान है, जो मनुष्य की असीमित इच्छाओं तथा
सीमित संसाधनों से उपजे हालातों एवं मानवीय व्यवहारों का अध्ययन करता है। यह मनुष्य
की उत्पादन, उपभोग, वितरण तथा आदान प्रदान से जुड ़ी समस्त गतिविधयों पर विशेष
ध्यान देता हैं। विभिन्न आर्थिक संगठनों जैसे बैंकों व बाज़ारों आदि के स्वरूप एवं कार्य
प्रणालियाँ भी अर्थशास्त्र के अंतर्गत आते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्थशास्त्र
मनुष्यों की भौतिक आवश्यकताओं तथा उसके हितों से सीधा संबंध रखता है।
समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र दोनों ही सामाजिक विज्ञान हैं और इनका एक दूसरे से गहरा संबंध है। दोनों एक दूसरे से संबंधित भी हैं और एक दूसरे पर निर्भर भी हैं। समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के संबंध के संदर्भ में थॉमस का विचार है कि, अर्थशास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है।
समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र दोनों ही सामाजिक विज्ञान हैं और इनका एक दूसरे से गहरा संबंध है। दोनों एक दूसरे से संबंधित भी हैं और एक दूसरे पर निर्भर भी हैं। समाजशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के संबंध के संदर्भ में थॉमस का विचार है कि, अर्थशास्त्र समाजशास्त्र की एक शाखा है।
सिल्वर मैन के अनुसार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र से ही जन्मा है जो सभी
सामाजिक संबंधों के सामान्य सिद्धांतों का अध्ययन करता है।
अर्थशास्त्र मनुष्य के लिए हितों को साधने वाले समस्त भौतिक संसाधनों का अध्ययन करता है। मानवीय हितों को साधने के लिए अर्थशास्त्र मनुष्य के हितों से जुड़े सभी विज्ञानों विशेष रूप से समाज विज्ञान से सहयोग लेता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र पर आधारित है। अर्थशास्त्र, क्योंकि समाजशास्त्र का ही हिस्सा है अतः समाजशास्त्र की सहायता के बिना अर्थशास्त्र को नहीं समझा जा सकता। मनुष्य के आर्थिक तथा सामाजिक हित एक दूसरे से सीधे जुड ़ें हैं।
जब समाज के सामने आर्थिक मंदी, गरीबी, बेरोजगारी, अदि समस्याएं आती हैं तब उनका हल निकालने के लिए अर्थशास्त्री समाजशास्त्र की ही सहायता लेते हैं और पता लगाते हैं कि उस काल विशेष में कौन-कौन सी सामाजिक घटनाएं घटी। यह भी सच है कि व्यक्ति की आर्थिक गतिविधियों को समाज ही नियत्रित करता है।
अर्थशास्त्र मनुष्य के लिए हितों को साधने वाले समस्त भौतिक संसाधनों का अध्ययन करता है। मानवीय हितों को साधने के लिए अर्थशास्त्र मनुष्य के हितों से जुड़े सभी विज्ञानों विशेष रूप से समाज विज्ञान से सहयोग लेता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र पर आधारित है। अर्थशास्त्र, क्योंकि समाजशास्त्र का ही हिस्सा है अतः समाजशास्त्र की सहायता के बिना अर्थशास्त्र को नहीं समझा जा सकता। मनुष्य के आर्थिक तथा सामाजिक हित एक दूसरे से सीधे जुड ़ें हैं।
जब समाज के सामने आर्थिक मंदी, गरीबी, बेरोजगारी, अदि समस्याएं आती हैं तब उनका हल निकालने के लिए अर्थशास्त्री समाजशास्त्र की ही सहायता लेते हैं और पता लगाते हैं कि उस काल विशेष में कौन-कौन सी सामाजिक घटनाएं घटी। यह भी सच है कि व्यक्ति की आर्थिक गतिविधियों को समाज ही नियत्रित करता है।
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री मैक्स वेबर,
विल्फ्रेडो परेटो आदि ने वित्तीय मामलों व सामाजिक सरोकारों पर विशेष अनुसंधान किए हैं
जो अर्थशास्त्र के लिए बड ़े उपयोगी साबित हुए है । कुछ अर्थशास्त्री तो यहां तक मानते हैं
कि जब समाज बदलता है तो उसके साथ.साथ अर्थशास्त्र भी बदल जाता है। हर आर्थिक
समस्या का समाधान प्रायः समाजशास्त्र से प्राप्त आंकड़ों से ही संभव हो पाता है। स्पष्ट है
कि समाजशास्त्र से द ूरी बना लेने से अर्थशास्त्र का विकास नहीं हो सकता। इसी प्रकार
समाजशास्त्र भी अर्थशास्त्र के सहयोग पर निर्भर करता है।
अर्थशास्त्र से सामाजिक ज्ञान में वृद्धि होती है। सामाजिक जीवन के हर पहलू को कहीं ना कहीं आर्थिक सरोकार प्रभावित करते हैं। दहेज, आत्महत्या आदि सामाजिक समस्याएं प्रायः आर्थिक सरोकारों से ही जुड ़ी होती हैं। आर्थिक तंगी ही अक्सर इन की जड ़ों में पाई जाती है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र का ही एक भाग है और अर्थशास्त्र के सहयोग के बिना समाजशास्त्री अधिकतर सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं तलाश सकते।
सामाजिक विज्ञान एवं अनुसंधान के क्षेत्र में भी अर्थशास्त्र समाजशास्त्र की सहायता करता है। सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कार्ल माक्र्स मानता है कि समाज की स्थापना आर्थिक संबंधों से ही हुई है। हमारे सामाजिक जीवन में आर्थिक सरोकारों की भूमिका सबसे बड़ी होती है। आर्थिक संस्थानों से समाज शास्त्रियों का सीधा सरोकार रहता है। यही कारण है कि स्पेंसर, वेबर, दुर्खेइम आदि समाजशास्त्री यह मानते हैं कि अर्थशास्त्र से सहयोग लिए बिना मनुष्य के सामाजिक संबंधों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता।
यह सच्चाई कि समाज पर आर्थिक सरोकारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है तथा आर्थिक नीतियां एवं योजनाएं समाज की स्थितियों के आधार पर बनाई जाती हैं, साफ़ साफ़ बताती हैं कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के बीच गहरा संबंध है। अर्थशास्त्र को मनुष्य जीवन के उद्यमों में व्यवसायों का अध्ययन कहा जा सकता है। द ूसरे शब्दों में कहें तो अर्थशास्त्र वित्त एवं संसाधनों का विज्ञान है जिसकी तीन प्रमुख आयाम है. उत्पादन, वितरण तथा उपभोग। समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के बीच सहयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक है। आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करते समय अर्थशास्त्री समाज शास्त्रियों का साथ जरूरी मानते हैं। जब दोनों मिलकर काम करते हैं तो आर्थिक चुनौतियों का सामना करने में आसानी हो जाती है।
अर्थशास्त्र से सामाजिक ज्ञान में वृद्धि होती है। सामाजिक जीवन के हर पहलू को कहीं ना कहीं आर्थिक सरोकार प्रभावित करते हैं। दहेज, आत्महत्या आदि सामाजिक समस्याएं प्रायः आर्थिक सरोकारों से ही जुड ़ी होती हैं। आर्थिक तंगी ही अक्सर इन की जड ़ों में पाई जाती है। इस प्रकार अर्थशास्त्र समाजशास्त्र का ही एक भाग है और अर्थशास्त्र के सहयोग के बिना समाजशास्त्री अधिकतर सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं तलाश सकते।
सामाजिक विज्ञान एवं अनुसंधान के क्षेत्र में भी अर्थशास्त्र समाजशास्त्र की सहायता करता है। सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कार्ल माक्र्स मानता है कि समाज की स्थापना आर्थिक संबंधों से ही हुई है। हमारे सामाजिक जीवन में आर्थिक सरोकारों की भूमिका सबसे बड़ी होती है। आर्थिक संस्थानों से समाज शास्त्रियों का सीधा सरोकार रहता है। यही कारण है कि स्पेंसर, वेबर, दुर्खेइम आदि समाजशास्त्री यह मानते हैं कि अर्थशास्त्र से सहयोग लिए बिना मनुष्य के सामाजिक संबंधों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता।
यह सच्चाई कि समाज पर आर्थिक सरोकारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है तथा आर्थिक नीतियां एवं योजनाएं समाज की स्थितियों के आधार पर बनाई जाती हैं, साफ़ साफ़ बताती हैं कि समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के बीच गहरा संबंध है। अर्थशास्त्र को मनुष्य जीवन के उद्यमों में व्यवसायों का अध्ययन कहा जा सकता है। द ूसरे शब्दों में कहें तो अर्थशास्त्र वित्त एवं संसाधनों का विज्ञान है जिसकी तीन प्रमुख आयाम है. उत्पादन, वितरण तथा उपभोग। समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के बीच सहयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक है। आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करते समय अर्थशास्त्री समाज शास्त्रियों का साथ जरूरी मानते हैं। जब दोनों मिलकर काम करते हैं तो आर्थिक चुनौतियों का सामना करने में आसानी हो जाती है।
उपर्युक्त विवरण से भलीभांति स्पष्ट हो चुका है कि समाजशास्त्र व अर्थशास्त्र एक दूसरे से
सीधे जुड़े हैं। सामाजिक व आर्थिक समस्याओं का सटीक हल समाजशास्त्री व अर्थशास्त्री
मिलकर ही निकाल सकते हैं। आर्थिक परिवर्तनों से सामाजिक बदलाव आते हैं तथा
सामाजिक परिवर्तन होने पर आर्थिक परिवर्तन भी तदानुसार करने ही पड ़ते हैं।
अर्थशास्त्र की शाखाएं
अर्थशास्त्र के अध्ययन को दो भिन्न शाखाओं में विभाजित किया जाता है।- व्यष्टि अर्थशास्त्र
- समष्टि अर्थशास्त्र
1. व्यष्टि अर्थशास्त्र
“Micro” शब्द का अर्थ अत्यंत सूक्ष्म होता है। अत: व्यष्टि अर्थशास्त्र अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर अर्थशास्त्र के अध्ययन का अर्थ प्रकट करता है। इसका वास्तविक अर्थ क्या है? एक समाज जिसमें सामूहिक रूप से अनेक व्यक्ति सम्मिलित हैं, प्रत्येक अकेला व्यक्ति उसका एक सूक्ष्म भाग है। इसलिये एक व्यक्ति द्वारा लिये गये आर्थिक निर्णय व्यष्टि अर्थशास्त्र की विषय वस्तु हो जाते हैं।समष्टि अर्थशास्त्र
‘Macro’ शब्द का अर्थ है - बहुत बड़ा। एक व्यक्ति की तुलना में समाज अथवा देश अथवा सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है। इसलिये सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर लिये गये निर्णय समष्टि अर्थव्यवस्था की विषयवस्तु है। सरकार द्वारा लिये गये आर्थिक निर्णयों का उदाहरण लीजिये। हम सभी जानते हैं कि सरकार पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, केवल एक व्यक्ति का नहीं। इसलिये सरकार द्वारा लिये गये निर्णय सम्पूर्ण समाज की समस्याओं को हल करने के लिये होते हैं।उदाहरण के लिये, सरकार करों को एकत्र करने, सार्वजनिक वस्तुओं पर व्यय करने तथा कल्याण
से संबंधित गतिविधियों आदि के बारे में नीतियां बनाती है जो पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित
करती हैं। ‘ये नीतियां किस प्रकार कार्य करती है’, समष्टि अर्थशास्त्र की विषय-वस्तु है।
व्यष्टि अर्थशास्त्र में हम एक व्यक्ति के व्यवहार का क्रेता तथा विक्रेता के रूप में अध्ययन करते
हैं। एक क्रेता के रूप में व्यक्ति वस्तु और सेवाओं पर धन/मुद्रा व्यय करता है जो उसका उपभोग
व्यय कहलाता है।
यदि हम सभी व्यक्तियों के उपभोग व्यय को जोड़ दें तो हमें सम्पूर्ण समाज
के समग्र उपभोग व्यय का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी प्रकार, व्यक्तियों की आयों को जोड़कर
सम्पूर्ण देश की आय अथवा राष्ट्रीय आय हो जाती है। इसलिये, इन समग्रों जैसे राष्ट्रीय आय,
देश का कुल उपभोग व्यय आदि का अध्ययन समष्टि अर्थशास्त्र के अन्तर्गत आते हैं। समष्टि अर्थशास्त्र का उदाहरण मुद्रा स्फीति अथवा कीमत-वृद्धि है।
मुद्रा स्फीति अथवा कीमत वृद्धि केवल एक व्यक्ति को प्रभावित नहीं करती, बल्कि यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। इसलिये इसके कारणों, प्रभावों को जानना तथा इसे नियंत्रित करना भी समष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत आता है।
इसी प्रकार, बेरोजगारी की समस्या, आर्थिक संवृद्धि तथा विकास आदि देश की सम्पूर्ण जनसंख्या से संबंधित होते हैं, इसलिये समष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत आते हैं।
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