भाषा संरचना से क्या तात्पर्य है

भाषा यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था है। अर्थात् इस व्यवस्था की अपनी विशेष प्रकार की संरचना होती है साथ ही इस संरचना में केवल एक स्तर नहीं होता, इसमें कई स्तर होते हैं। प्रत्येक स्तर की अपनी अलग संरचना होती है।

भाषा की संरचना 

भाषा संरचना का मूलाधार संरचनात्मक पद्धति है जिस प्रकार भवन रचना में ईट, सीमेंट, लोहा, शक्ति अर्थात् मजदूर और कारीगर की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भाषा संरचना में ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य, प्रोक्ति और अर्थ की अपनी-अपनी भूमिका होती है।

1. ध्वनि संरचना

दो या दो से अधिक वस्तुओं के आपस में टकराने से वायु में कम्पन होता है। जब यह कम्पन कानों तक पहुँचता है, तो इसे ध्वनि कहते हैं। ध्वनि भाषा की लघुतम, स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण इकाई है। यदि सभी भाषा की ध्वनियों में सैद्धान्तिक रूप से कुछ समानताएँ होती हैं तो प्रत्येक भाषा की ध्वनियों में कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं।

(क) वर्गीकरणः भाषा-ध्वनियों का अध्ययन करते हैं, तो दो मुख्य वर्ग सामने आते हैं - स्वर और व्यंजन।

1. स्वर : भाषा में कुछ ऐसी ध्वनियाँ होती हैं जिनके उच्चारण में किसी प्रकार का अवरोध नहीं होता इनके उच्चारण में फेफड़े से आने वाली वायु अबाध गति से बाहर आती है और इनका उच्चारण जितनी देर चाहें कर सकते हैं। 

विभिन्न भाषाओं में स्वर ध्वनियों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है; यथा - वर्तमान समय में हिन्दी की स्वर ध्वनियाँ हैं -

    अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
 
    अंग्रेजी में स्वरों की संख्या पाँच है - a, e, i, o, u.।

विभिन्न भाषाओं में स्वर-ध्वनियों के स्थान-व्यवस्था में भी भिन्नता है। किसी भाषा में समस्त ध्वनियाँ पूर्ववर्ती या परवर्ती एक स्थान पर व्यवस्थित होती है, तो किसी भाषा में व्यंजन ध्वनियों के मध्य व्यवस्थित होती हैं। हिंदी की सभी स्वर ध्वनियाँ व्यंजन से पूर्व एक स्थान पर व्यवस्थित हैं-

    अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ट्ट, ए, ऐ, ओ, औ।

अंग्रेजी में स्वरों की व्यवस्था व्यंजनों के मध्य है-

    abcde..........hij..........nop..........tuv..........z

2. व्यंजन : जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वर ध्वनियों का सहयोग अनिवार्य हो और जिनके उच्चारण में फेफड़े से आनेवाली वायु मुख के किसी भाग में अल्पाधिक रूप से अवरुद्ध होने के कारण घर्षण के साथ बाहर आए, उन्हें व्यंजन ध्वनि कहते हैं। हिन्दी में व्यंजन ध्वनियों को स्वर के बाद स्थान दिया गया है जबकि अंग्रेजी में स्वर ध्वनि के साथ मिश्रित रूप में। 

हिन्दी में कुछ व्यंजन ध्वनियों का प्रयोग स्वर के रूप में भी होता है। इन्हें अर्ध स्वर कहते हैं : यथा - य्, व्।  

हिन्दी में महाप्राण ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र चिन्हों की व्यवस्था है; यथा - प्रत्येक वर्ग की दूसरी और चौथी ध्वनियाँ -

    कवर्ग - ख, घ
    चवर्ग - छ, झ
    टवर्ग - ठ, द
    तवर्ग - थ, ध
    पवर्ग - फ, भ

(ख) बलाघात - जब किसी ध्वनि पर अपेक्षाकृत अधिक दबाव होता है, तो उसे बलाघात कहते हैं; यथा - ‘आम’ शब्द में “आ” और “म” दो ध्वनियाँ हैं। “आ” पर ‘म’ की अपेक्षा अधिक बल दिया जाता है।

हिन्दी ध्वनियों में बलाघात के विषय में यह ध्यातव्य है कि यह प्रभाव सदा स्वर पर ही होता है। 

जब एक वाक्य में किसी शब्द की सभी ध्वनियाँ अन्य शब्दों की ध्वनियों की अपेक्षा अधिक सशक्त रूप से प्रयुक्त होती हैं, तो उसे शब्द बलाघात कहते हैं; यथा -
  1. मुझे एक रंगवाली कलम चाहिए।  (एक रंग की कलम)
  2. मुझे एक रंगवाली कलम चाहिए।  (रंगवाली एक कलम)
यहाँ ‘क’ वाक्य में ‘एक’ शब्द की ध्वनियों पर बलाघात है, तो ‘ख’ वाक्य में ‘रंगवाली’ शब्द की ध्वनियों पर। इस प्रकार दोनों वाक्यों के अर्थ में भिन्नता आ गई है। 

(ग) सन्धि कभी-कभी दो भाषिक इकाइयाँ मिलकर एक हो जाती हैं, ऐसे ध्वनि परिवर्तन को सन्धि कहते हैं। प्रत्येक भाषा के सन्धि-नियमों की अपनी विशेषताएँ होती हैं। हिन्दी में कई प्रकार की सन्धियाँ मिलती हैं, जैसे -

i. स्वीकरण : हिन्दी तद्भव शब्दों में यह प्रक्रिया मिलती है -
  1. आप + ना (अ > अ) = अपना
  2. आधा + खिला (आ > अ) = अधखिला
  3. भीख + आरी (ई > इ) = भिखारी
ii. दीघ्रीकरण 
  1. मुख्य + अर्थ (अ + अ = आ) = मुख्यार्थ
  2. कवि + इन्द्र (इ + इ = ई) = कवीन्द्र
iii. घोषीकरण 
  1. डाक + घर (क > घ) = डाकघर
  2. धूप + बत्ती (प > ब) = धूपबत्ती
iv. लोप
  1. घोड़ा + दौड़ (आ लोप) = घुड़दौड़
  2. पानी + घाट (ई और आ लोप) = पनघट
v. आगम 
  1. मूसल + धार (आ आगम) = मूसलाधार
  2. दीन + नाथ (आ आगम) = दीनानाथ
  3. विश्व + मित्र (आ आगम) = विश्वामित्र

2. शब्द संरचना

शब्द-संरचना का अध्ययन उपसर्ग, प्रत्यय, समास तथा पुनरुक्ति आदि रूपों से करते हैं।

उपसर्ग -
 उपसर्ग वह भाषिक इकाई है, जो शब्द के पूर्व में प्रयुक्त होती है, किन्तु इसका स्वतंत्र प्रयोग नहीं होता। ऐसी इकाई शब्द-संरचना का मुख्य आधार है। इसे मुख्यत: दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।

i . प्रथम - अपनी भाषा के उपसर्ग; यथा - हिन्दी में उ, कु, स, सु आदि।
  1. अ - धर्म झ अधर्म, दुर - दिन झ दुर्दिन
  2. स - जीव झ सजीव, सु - गंध झ सुगंध
ii . द्वितीय - दूसरी भाषा के उपसर्ग; यथा
  1. बे - बेकाम (फा. + हि.)
  2. बे - बेसिर (फा. + हि.)।
iii . प्रत्यय - निज भाषा के प्रत्यय
  1. कार = नाटककार, साहित्यकार, स्वर्णकार
  2. आनी = सेठानी, जेठानी, देवरानी
  3. ता = सफलता, असफलता, सुन्दरता
द्वितीय - कभी-कभी शब्द के साथ भिन्न भाषा के उपसर्ग प्रयुक्त होते हैं; यथा -
  1. ई = डाक्टरी [ डॉक्टर (अंग्रेजी) + ई (हिन्दी प्रत्यय)]
  2. दारी = वफादारी [वफा (अ.) + दार (फा.) ]
  3. ची = संदूकची [संदूक (अ.) + ची (तु.) ]
  4. दार= जड़दार [जड़ (हिन्दी) + दार (फा.) ]
समास - समास में दो शब्द जुड़कर एक सामासिक शब्द का रूप धारण कर लेते हैं। ऐसे रूप को समस्त पद या सामासिक पद कहते हैं; जैसे - घोड़ों की दौड़ > घुड़दौड़ अर्थ संदर्भ से सामासिक शब्दों को दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं - प्रथम वर्ग में उन सामासिक शब्दों को रख सकते हैं जिनके अर्थ वही रह जाते हैं जो समास के पूर्व होते हैं; जैसे - 
  1. माता और पिता = माता-पिता, 
  2. राजा और रानी = राजा-रानी। 
दूसरे वर्ग में उन सामासिक शब्दों को रख सकते हैं, जिनके अर्थ में भिन्नता आ जाती है; जैसे - 
  1. जल और वायु = जलवायु 
यहाँ विग्रह में पानी और हवा का ज्ञान होता है, सामासिक रूप में विशेष अर्थ वातावरण का ज्ञान होता है।

3. पद संरचना

जब शब्द वाक्य निर्माणार्थ निर्धारित व्याकरणिक क्षमता प्राप्त कर लेता है, तो उसे पद की संज्ञा दी जाती है। पद संरचना में शब्दों के विभिन्न व्याकरणिक रूपों का अध्ययन किया जाता है। रूप संरचना, संज्ञा, सर्वमान, क्रिया आदि विभिन्न धरातलों पर करते हैं। संज्ञा के रूप संरचना में मुख्यत: वचन पर चिन्तन करते हैं; जैसे-
  1. लड़का > लड़के, लड़कों
  2. गुड़िया > गुड़ियाँ, गुड़ियो, गुड़ियों।
इस प्रकार विभिन्न प्रत्ययों के योग से पद संरचना होती है।

सर्वनाम के साथ विभिन्न कारक चिह्नों के योग से पद संरचना सामने आती है; जैसे -
  1. तुम > तुमने, तुमसे, तुममें, तुमको आदि।
  2. आप > आपने, आपसे, आपमें, आपको आदि।
क्रिया पद की संरचना में भी प्रत्यय की विशेष भूमिका होती है; यथा -
  1. चलना > चलें, चलो, चलूँगा, चलिएगा, चलोगी आदि।
  2. दौड़ना > दौड़े, दौड़ो, दौडूँगा, दौड़िएगा, दौड़ोगी आदि।
संयुक्त क्रिया के प्रयोग-आधार पर क्रिया-पद की विशेष संरचना होती है; जैसे-
  1. आना > आ जाओ
  2. मारना > मार डाला, मार दिया
  3. खाना > खा लिया, खा डाला
  4. कांपना > काँप उठा, काँप गया

4. वाक्य संरचना

भाषा की स्वतंत्र, पूर्ण सार्थक सहज इकाई को वाक्य कहते हैं। वाक्य में प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से कम से कम एक क्रिया का होना अनिवार्य है। वाक्य संरचना में मुख्यतः उद्देश्य तथा विधेय दो भाग होते हैं; जैसे- “उदित जा रहा है” में “उदित” उद्देश्य और “जा रहा है” विधेय है। 

वाक्य में उद्देश्य छिपा भी हो सकता है; जैसे-
  1. जाओ > (तुम) जाओ।
  2. खाइए > (आप) खाइए।
वाक्य की स्पष्ट संरचना का भावाभिव्यक्ति में विशेष महत्व होता है; यथा - 

    रोको मत जाने दो, रोको मत जाने दो 

यहाँ प्रथम वाक्य संरचना में ‘न रोको’ की भावाभिव्यक्ति है, तो दूसरी वाक्य संरचना में ‘रोकने’ की। वाक्य को संरचनात्मक आधार पर सरल, संयुक्त और मिश्र वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। एक प्रकार के वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में परिवर्तित कर सकते हैं; जैसे- निषेधात्मक वाक्य निर्माण प्रक्रिया - 
  1. वह योग्य है > वह अयोग्य नहीं। 
  2. तुम यहाँ से जाओ > तुम यहाँ न रुको।

5. प्रोक्ति संरचना

भाषा की महत्तम इकाई प्रोक्ति है। ध्वनि यदि भाषा की लघुत्तम इकाई है, तो प्रोक्ति महत्तम और पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाली इकाई है। वाक्य के द्वारा प्रोक्ति के समकक्ष अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है; जैसे-
  1. रमेश अच्छा लड़का है।
  2. रमेश एम.ए. का छात्र है।
  3. रमेश नियमित परिश्रम करता है।
  4. रमेश को परीक्षा में प्रथम स्थान मिला
यहाँ रमेश के विषय में चार वाक्य दिए गए हैं। आपसी सम्बन्धों के अभाव में यहाँ पूर्ण, स्पष्ट और सहज अभिव्यक्ति नहीं है। प्रोक्ति का रूप आते ही भावाभिव्यक्ति स्पष्ट हो जाती है - “रमेश अच्छा लड़का है। नियमित परिश्रम करने के कारण उसे एम.ए. की परीक्षा में प्रथम स्थान मिला।” 

यह एक लघु प्रोक्ति है। प्रोक्ति का स्वरूप तो उपन्यास या महाकाव्य के प्रथम शब्द से अन्तिम शब्द तक विस्तृत हा े सकता है। वाक्यों का उच्चय (उव् + चय) एक-दूसरे के ऊपर सदा रूप महाकाव्य है। इस प्रकार विभिन्न वाक्यों के एक-दूसरे के साथ समाहित होने के स्वरूप को वाक्य कहते हैं।

प्रोक्ति की संरचना, आन्तरिक अर्थ-संदर्भ और अभिव्यक्ति को ध्यान में रखकर इसे इन तत्त्व-रूपों में देख सकते हैं -
  1. एकाधिकवाक्य।
  2. आन्तरिक सुसंबद्धता या संबद्धता।
  3. तत्त्व-सरणि: वक्ता, श्रोता, वक्तव्य, संदर्भ, शैली प्रकार।
  4. संप्रेषणीयता।
  5. संरचना और संप्रेषणीयता में एक इकाई स्वरूप।
प्रोक्ति-भेदः इसे निम्नलिखित आधारों पर विभक्त कर सकते हैं-
  1. कथन आधार-प्रत्यक्ष-परोक्ष कथन।
  2. कथन-शैली आधार-औपचारिक-अनौपचारिक।
  3. स्थान आधार-स्थानीय-सार्वभौम।
  4. काल आधार-वर्तमान, भूत, भविष्यत्, सार्वकालिक।

6. अर्थ संरचना

ध्वनि, शब्द, पद और वाक्य आदि भाषा की शारीरिक इकाइयाँ हैं, तो अर्थ भाषा की आत्मा है। अर्थ को मुख्यत: सात वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -
  1. मुख्यार्थ - पानी, गाय, विद्यालय आदि।
  2. लक्ष्यार्थ - वह तो गधा है।
  3. व्यंजनार्थ - यहाँ परम्परा से अर्थ जोड़ते हैं, जैसे- गंगा जल (पवित्रता का प्रतीक)
  4. सामाजिक - "VYou"B शब्द के लिए हिन्दी में विभिन्न संदर्भों के लिए तू, तुम और आपका प्रयोग करते हैं। 
तू - (छोटे के लिए, गुस्से में) तू जा, तू खा। 
तुम - (बराबर के लिए) तुम चलो, तुम लिखो। 
आप - (आदर सूचक, बड़ों के लिए) आप चलिए, आप लिखिए।
  1. बलात्मक - प्रमोद रोटी खाएगा, रोटी खाएगा प्रमोद।
  2. शैलीय अर्थ - (हिन्दुस्तानी, उर्दू, हिन्दी शैली) 
आप बैठिए, आप तशरीफ रखिए, आप विराजिए।

पर्यायता : कुछ शब्दों को पर्यायी या समानाथ्र्ाी शब्द कहते हैं। वास्तव में पर्यायी शब्दों के दो वर्ग हैं -
  1. पूर्ण पर्यायी : Dog > कुत्ता, Man > आदमी।
  2. आंंशिक पर्यायी : भीगा-गीला, छोटा-नाटा, सुन्दर-अच्छा, बढ़िया-स्वादिष्ट। 
विलोम : विलोम अर्थ अभिव्यक्ति हेतु मूल यौगिक रूपों में शब्दों का निर्माण करता है।
मूल: जड़-चेतन, सुख-दु:ख, दिन-रात आदि।
यौगिक : इसमें कभी उपसर्ग लगाते हैं कभी प्रत्यय; जैसे- शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित (उपसर्ग-आधार), 

कृतज्ञ-कृतघ्न (प्रत्यय-आधार) 

अर्थ-संरचना में समास की भी विशेष भूमिका होती है; जैसे- 

    दुआ-बद्दुआ, स्वदेश-परदेश (विदेश) 
    स्वतंत्र-परतंत्र, बुद्धिमान-बुद्धिहीन

इसी प्रकार अनेकाथ्री शब्दों की संरचना में भी विविधता देखी जा सकती है, जो भाषा-संरचना का महत्त्वपूर्ण अंश है।

संदर्भ -
  1. भाषा विज्ञान- डाॅ भोलानाथ तिवारी, किताब महल, इलाहाबाद
  2. हिंदी भाषा का संरचनात्मक अध्ययन- डाॅ॰ सत्यव्रत, मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद

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