मापन किसे कहते हैं हमारे पूर्वज किस प्रकार मापन करते थे?

माना कि आपको एक खेल के मैदान की लम्बाई नापने के लिए कहा जाता है तो आप क्या करेंगे? सम्भवत: आप मैदान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलकर अपने कदमों की संख्या को नापेंगे। एक अन्य सम्भावना है कि आप किसी मापक फीता या किसी मीटर पैमाने की व्यवस्था करें और फिर उसकी सहायता से यह ज्ञात करें कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचने में मीटर पैमाने का कितनी बार प्रयोग किया जाता है। एक अन्य उदाहरण लेते हैं। मान लें कि आपको पुस्तकों से भरे हुए एक दफ्ती के डिब्बे (कार्टन) का भार ज्ञात करना है। इसके लिए एक तुला की सहायता से यह ज्ञात करेंगे कि कितने किलोग्राम के वजन के बराबर उस कार्टन का वजन होगा। इस प्रकार हम मापन को जितनी बार उस पैमाने का हमने प्रयोग किया है उस संख्या द्वारा परिभाषित कर सकते हैं।

‘‘जब आप किसी वस्तु का मापन करते हैं और उसे किसी संख्या द्वारा प्रकट करते हैं तब आपको यह ज्ञात होता है कि आप क्या कह रहे हैं। लेकिन यदि आप उसका मापन नहीं कर सकते हैं और उसे किसी संख्या द्वारा प्रकट नहीं कर सकते हैं तो आपका ज्ञान अल्प और असन्तोषजनक है। यह ज्ञान का प्रारम्भ तो कहा जा सकता है परन्तु आपका यह ज्ञान वैज्ञानिक स्तर तक नहीं पहुँच पाया है।’’ 

मापन की आवश्यकता

मान लें कि आप बाजार में आम खरीदने जाते हैं जिसका मूल्य 50 रु. प्रति किलो है। आप उस दुकानदार से क्या अपेक्षा रखते हैं? वह यदि आपको 4-5 छोटे आम दे तो क्या आप सन्तुष्ट हो जाएँगे जबकि उन आमों का वजन 1 किलो से बहुत कम है? इसलिए सही माप खरीददार व बेचनेवाले दोनों के लिए आवश्यक है। सही माप के बिना दोनों में झगड़े की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। मापन अपने दैनिक जीवन का एक आवश्यक क्रियाकलाप है। आप पूछ सकते हैं कि यह आवश्यक क्यों है। क्या इसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता?

क्या आपने इस पर कभी आश्चर्य किया कि अन्तरिक्ष वैज्ञानिक कैसे यह गणना कर लेते हैं कि कोई अन्तरिक्ष यान अपने निर्धारित लक्ष्य पर कैसे पहुँचता है या जब यह यान वापस आता है तो किस प्रकार पूर्व निर्धारित समय व स्थान पर पहुँचता है? यह विभिन्न प्राचलों के परिशुद्ध मापन और व्यापक गणनाओं द्वारा सम्भव होता है। मापन के लिए हमें एक विशेष मापक्रम की आवश्यकता होती है जिसे हम मात्रक कहते हैं।

हमारे पूर्वज किस प्रकार मापन करते थे?

मापन करने और मापन युक्तियों की आवश्यकता प्राचीन काल से ही रही है। जब मनुष्य सभ्य बना, वह खेतीबाड़ी करने या समुदायों में रहने लगा तब उसने इस बात को समझा कि एक अकेला व्यक्ति सब कुछ नहीं कर सकता और उसे अन्य व्यक्तियों पर निर्भर रहने की आवश्यकता है। इसने व्यापार के लिए मार्ग प्रशस्त किया और फिर संभवत: इससे मापन की आवश्यकता महसूस हुई।

मापन के अनेक तरीके अपनाए गए। तब से लेकर अब तक मापन पद्धति में बहुत विकास हुआ है। मापन के अनेक तरीके अपनाए गए। आइए, हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाए गए मापन के रोचक तरीकों को संक्षप में जानें?

लिपिबद्ध (लिखित) इतिहास इस बात का साक्षी है कि मनुष्य के शरीर के विभिन्न अंगों को किस तरह से मापन में काम में लाया जाता था। इसके कुछ उदाहरण हैं अंगुली की चौड़ाई (डिजिट), पैर की लम्बाई (फुट), हाथ की लम्बाई (क्यूबीट), पूरी तरह से फैले हाथ में अंगूठे के सिरे और कनिष्ठा के बीच की दूसरी (बालिश्त) आदि। इसी प्रकार फैदम का अर्थ था, किसी अंग्रेज (एग्लो-सेक्शन) किसान के दोनों हाथों को फैलाने के पश्चात् प्राप्त हुई चौड़ाई। यह बड़ी रोचक बात है कि इनमें से कुछ अभी भी प्रयोग में लाए जाते हैं।

कुछ ऐतिहासिक मात्रक आसपास की वस्तुओं पर आधारित थे। उदाहरण के लिए, रोमवासी अपनी मार्च करती सेना के द्वारा लिए गए एक कदम को पेस कहते थे और एक हजार कदम को एक मील कहा जाता था। इसी प्रकार, सोहलवीं सदी में गेहूं के दाने को द्रव्यमान के मात्राक के रूप में लिया जाता था और यह गेहूं के दाने के भार के बराबर था।

प्राचीन काल में भारतीय मापन पद्धति

प्राचीन भारत में किसी वृक्ष या अन्य वस्तु की छाया की लम्बाई की सहायता से दिन के सन्निकट समय को ज्ञात किया जाता था। लंबे समय अंतरालों को चांद-चक्रों के पदों में व्यक्त किया जाता था जो अभी भी कुछ पंचांगों का आधार है, जैसे भारत में विभिन्न ऐतिहासिक कालों में प्रचलित मापन पद्धतियों के उत्तम उदाहरण उपलब्ध हैं।

निर्माण में प्रयुक्त ईटों का आकार सभी क्षेत्रों में समान था। ईटों की लंबाई, चौड़ाई तथा मोटाई को एक मानक के रूप में लिया जाता था तथा ये सदैव ही 4 : 2 : 1 के अनुपात में थीं। इस प्रकार लगभग 2400 वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में मापतोल की एक सुपरिभाषित पद्धति थी। उस समय शासन यह सुनिश्चित करता था कि सभी एक समान बाट व मानकों का उपयोग करें। इस पद्धति के अनुसार लम्बाई का सबसे छोटा मात्राक ‘1 परमाणु’ था। छोटी दूरियाँ ‘अंगुल’ में मापी जाती थीं। लम्बी दूरियाँ योजन में मापी जाती थीं। एक योजन लगभग 10 किलोमीटर के बराबर होता था।

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में प्रयुक्त मापन के विभिन्न मात्रक

8 परमाणु = 1 रजकण (रथ के पहिए से निकली धूल का कण)
8 रजकण = 1 लिक्षा (जूँ का अण्डा)
8 लिक्षा =1 यूकामध्य
8 यूकामध्य = 1 युवमध्य
8 युवमध्य =1 अंगुल
8 अंगुल =1 धनुर्मुष्टि
(संदर्भ- कौटिल्य का अर्थशास्त्र)

भारतीय चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद में भी द्रव्यमान व आयतन के मापन हेतु सुपरिभाषित मात्राक थे। मापन की पद्धति का दृढ़तापूर्वक पालन आवश्यक माना जाता था ताकि किसी विशेष रोग के लिए औषधि की उचित मात्रा सुनिश्चित की जा सके।

मध्यकाल में भारतीय मापन पद्धति

मध्यकाल में भी मापन की पद्धति प्रचलित थी। जैसा कि अबुल अल्लामी द्वारा लिखित पुस्तक आइन-ए-अकबरी में वर्णन किया गया है, मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में लम्बाई को मापने के मात्रक के रूप मे गज का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक गज को 24 बराबर भागों में बांटा जाता था तथा प्रत्येक भाग को तास्सुज कहा जाता था। इस पद्धति का व्यापक उपयोग भूखंडों को मापने, घरों, भवनों, कुंओं, उद्यानों व सड़कों आदि के निर्माण में मापन के लिए किया जाता था। आपको ज्ञात होना चाहिए कि 1956 में दशमलव प्रणाली के अपनाए जाने तक मात्रक के रूप में गज का व्यापक रूप से उपयोग होता रहा। अभी भी हमारे देश में अनेक भागों में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में लम्बाई के मात्रक के रूप में गज का उपयोग किया जाता है।

ब्रिटिश काल में भारतीय मापन पद्धति 

मापन की पद्धति में एकरुपता लाने के लिए ब्रिटिश काल में अनेक प्रयास किए गए। अंग्रेज शासक भारतीय मापतोल को उस समय ग्रेट ब्रिटेन में प्रयुक्त पद्धति से जोड़ना चाहते थे। उस काल में लम्बाई मापने के लिए मात्राकों के रूप में इंच, फुट और गज तथा द्रव्यमान मापने के लिए ग्रेन, ऑन्स तथा पौंड का उपयोग होता था। भारत में इन मात्राकों एवं बाटों का उपयोग सन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक होता रहा। भारत में द्रव्यमान के मात्राक के रूप में प्रयोग होने वाले मात्रक में रत्ती, मासा, तोला, छंटाक, सेर तथा मन थे। रत्ती एक लाल रंग का बीज होता है जिसका द्रव्यमान लगभग 120 mg होता है। इसका व्यापक रूप से उपयोग भारतीय परंपरागत चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों तथा स्वर्णकारों द्वारा किया जाता था।

 ब्रिटिश काल में उपयोग होने वाले द्रव्यमान के मात्रकों में परस्पर संबंध

8 रती 1 माशा
12 माशा1 तोला
5 तोला1 छटांक 
16 छटांक1 सेर 
40 सेर 1 मन
1 मन100 पौंड ट्राय (यथार्थ)

आधुनिक मापन पद्धति 

सन् 1790 की फ्रांसीसी क्रान्ति के तुरन्त बाद फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने मापतोल की नई पद्धति को स्थापित करने में अग्रणी भूमिका निभाई। इसके लिए राष्ट्रीय मानकों की स्थापना तथा दशमलव प्रणाली को अपनाने की उन्होंने वकालत की। इससे दशमलव प्रणाली का जन्म हुआ जो हमारी हिन्दू-अरबी गणना पद्धति की तरह ही दस की संख्या के अपवत्र्यों एवं उपविभाजनों पर आधारित थी।

गहन विचार-विमर्श के बाद लम्बाई और द्रव्यमान की मानक इकाई बनाई गई। एक मानक मीटर को बनाने के लिए उन्होंने एक प्लेटिनम-इरिडीयम धातु की छड़ पर एक मीटर की दूरी पर दो रेखाएँ अंकित कीं। इसी प्रकार एक क्यूबिक डेसीमीटर पानी के भार के बराबर उन्होंने प्लेटिनम- इरिडीयम धातु के सिलेण्डर (बेलन) को मानक माना। ये दोनों मानक अभी भी पेरिस के निकट इन्टरनेशनल ब्यूरो ऑफ वेट्स एण्ड मेजर्स पर रखे हुए हैं।

इन मानकों के अनेक प्रतिरूप बनाए गए और भिन्न-भिन्न स्थानों को भेजे गए। समय के मात्रक के लिए पृथ्वी के घूर्णन पर आधारित सेकण्ड, मिनट, घण्टों को लिया गया। इस दशमलव प्रणाली को सम्पूर्ण विश्व में व्यवहार में लाने के लिए सन् 1875 में एक अन्तर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसे मीटर कन्वेशन (metre convention) कहा गया। इन मात्रकों के विकास के दौरान अनेक पद्धतियों को काम में लाया गया। दो पद्धतियाँ जो सबसे अधिक व्यवहार में लाई गई वे थी, बहे और उो पद्धति। बहे पद्धति में लम्बाई, द्रव्यमान और समय के मात्राक क्रमश: सेंटीमीटर, ग्राम व सेकंड लिए गए की इकाई पर आधारित थी जबकि mks पद्धति में मात्राक मीटर, किलोग्राम व सेकण्ड लिए गए। सन् 1958 में इस बात को माना गया कि मात्राकों को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। सन् 1983 में 1 सेन्टीमीटर की दूरी को प्रकाश द्वारा निर्वात में 1 सेकण्ड के 1/299, 792/458 हिस्से में तय की गई दूरी के बराबर माना गया। इस प्रकार मात्रकों की पद्धति को पुन: परिभाषित करने के फलस्वरूप SI मात्रक का चलन हुआ।

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