विक्रय कोटा क्या है विक्रय कोटे का निर्धारण करने हेतु संस्थाओं द्वारा विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है?

प्रत्येक उपक्रम या व्यावसायिक उपक्रम अपने संगठन के विस्तृत उद्देश्य निर्धारित करता है। जिनमें से अधिकतम विक्रय भी एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उपक्रम के प्रबन्धकों द्वारा विक्रेताओं के तथा विक्रय क्षेत्रों के लिए विक्रय लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। इन विक्रय लक्ष्यों की प्राप्ति का एक प्रभावी उपाय विक्रय अभ्यंश या कोटा होता है।

किसी वैयक्तिक विकयकर्ता, विक्रेता विक्रय ईकाई या विक्रय क्षेत्रा के सामयिक विक्रय लक्ष्य निर्धारित करना विक्रय कोटा या विक्रय अभ्यंश कहलाता हैं दूसरे शब्दों में विक्रय लक्ष्यों का वह भाग, जो विक्रेता, मध्यस्थ या किसी विक्रय क्षेत्रा को निश्चित समावधि में प्राप्ति के लिए सौंपा जाता है विक्रय कोटा या अभ्यंश कहलाता है। विक्रय कोटा विक्रय प्रत्याय या वस्तु के पारिमाण या शुद्ध लाभ की मात्रा में निर्धारित किया जा सकता है।” 

विक्रय कोटा की परिभाषा

विक्रय कोटा की परिभाषाएँ विद्वानों ने निम्न प्रकार से दी हैं :

1. जे. आर. डॉबरमैन के अनुसार, “विस्तृत शाब्दिक अर्थ में कोटा, यथाचित रूप में अपेक्षित एक निष्पादन है। विशेषत: यह विक्रय की वह अनुमानित मात्रा है, जिसे पूर्व निश्चित समय में एक उद्देश्य के रूप में प्राप्त किया जाता है।” 

2. फिलिप कोटलर के अनुसार, “विक्रय कोटा किसी उत्पाद पंक्ति, कम्पनी संभाग अथवा विक्रय प्रतिनिधि के लिए निर्धारित विक्रय लक्ष्य है। यह प्राथमिक रूप से विक्रय प्रयास की व्याख्या का एक प्रबन्धकीय उपकरण है।”

विक्रय कोटा सम्बन्धी अवधारणायें

विक्रय कोटे के सम्बन्ध में तीन विचारधाराएँ प्रचलित है :

1. उच्च अभ्यंश विचारधारा : इस विचारधारा के अनुसार विक्रयकर्ताओं, वितरक या डीलर के प्रयासों में निरन्तरता लाने के लिए विक्रय कोटा हमेशा ऊँचा रखना चाहिये ताकि उनका लक्ष्य उनके लिए दीर्घकाल तक चुनौतीपूर्ण बना रहे।

2. सन्तुलित कोटा विचारधारा : विक्रयकर्ताओं या विक्रेताओं, वितरक या डीलरों में आत्मविश्वास उन्नत करने के लिए तथा उन्हें निर्धारित कोटे से अधिक कार्य करने को प्रेरित करने के लिए विक्रय अभ्यंश या कोटे की मात्रा इतनी हो कि वे उसे प्राप्त करने में आसानी से सफल हो जायें।

3. क्रमिक परिवर्र्तनशील कोटा विचारधारा : विक्रय कोटा सन्तुलित होना चाहिए किन्तु उसमें परिस्थिती और समयानुसार पवितर्तित करने की सम्भावना रहगी चाहिए। इस विचारधारा के अनुसार विक्रयकर्ता या विक्रेता कोटे के ऊँचा होने पर उसे प्राप्त करने में असफल हो जाने के कारण हताश हो जाते हैं कुछ समय के बाद यही कोटा उन्हें छोटा लगने लगता है। अत: प्रारम्भ में कोटा सन्तुलित हो जिसमें परिवर्तन सम्भावित रहना चाहिए। इसके अन्तर्गत एव विक्रेता का कोटा प्रतिवर्ष के सम्भाव्य बृद्धि के अनुरूप धीरे-धीरे बढ़ाया जाता रहना चाहिये।

विक्रय कोटा की विशेषताएँ

  1. विक्रय कोटे का सम्बन्ध निश्चित समय से होता है।
  2. विक्रय कोटे प्रबन्धकीय नियन्त्रण का साधन है। 
  3. विक्रय कोटे संस्था के सम्पूर्ण विक्रय अनुमान का एक भाग होता है। 
  4. विक्रय कोटा विक्रय पूर्वनुमानों पर आधारित होता है 
  5. विक्रय कोटा विक्रय लक्ष्य है। 
  6. विक्रय कोटा परिमाणात्मक लक्ष्य होते हैं। 
  7. विक्रय कोटे का निर्धारण विशिष्ट विक्रय संगठनात्मक इकाइयों जैसे विक्रेता, मध्यस्थ, शाखा आदि के लिए निर्धारित किया जाता हैं। 
  8. विक्रय कोटा विक्रेताओं के कार्य मूल्यांकन में प्रमाप के रूप में प्रयोग होते हैं। 
  9. विक्रय कोटे बाजार अध्ययनों के आधार पर निर्धार्रित होते है। 
  10. विक्रय कोटे की सफलता शुुद्ध व सही सूचनाओं पर निर्भर करती है। 
  11. विक्रय कोटा उच्च संगठनात्मक स्तरों पर विक्रय प्रदेशों के लिए निर्धारित होते हैं जिन्हें बाद में जिला स्तर पर या वैयक्तिक विक्रय कर्मचारियों को सौंपा जाता है। 
  12. कोटा निर्धारण में उच्च निर्णय क्षमता व प्रशासनिक कौशल की आवश्यकता होती है जिसके लिए पूर्ण बाजार ज्ञान भी आवश्यक है।

विक्रय कोटा निर्धारित करने की आवश्यकता या उद्देश्य

विक्रय कोटा विक्रयकर्ताओं को अधिक कार्य करने की प्रेरणा देने का साधन है। विक्रय कोटा निर्धारित कर देने से लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त होती है। यह एक ऐसा प्रमाप है जिसकी विक्रेताओं या अन्य विपणन इकाईयों से अपेक्षा की जाती है। निम्नांकित शीर्षकों से इसके महत्त्व को दर्शाया जा सकता है -

1. कर्त्तव्यों व अधिकारों का निर्र्धारण (Determination of Duties and Rights) : विक्रय कोटा निर्धारित होने से विक्रेताओं तथा अन्य विपणन इकाईयों को अपने कर्त्तव्यों व अधिकारों का बोध हो जाता है। उनमें किसी प्रकार का कोई भ्रम उत्पन्न नहीं होता। इसके निर्धारण से विक्रेताओं, विक्रय विभाग आदि के अधिकारों एवं दायित्त्वों को आसानी से निर्धारित किया जा सकता है तथा वे इनका स्वतन्त्रातापूर्वक प्रयोग कर पाते हैं।

2. कार्यों की पुुनरावृति पर रोक (Repetition of Work is Stopped) : विक्रय कोटा निर्धारित होने से सम्बन्धित व्यक्तियों का कार्य निश्चित हो जाता है। अत: सभी व्यक्ति अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर कार्य करते हैं। परिणाम स्वरूप ग्राहकों से सम्पर्क करने, विक्रय प्रदेशों में भ्रमण आदि की पुनरावृति रूक जाती है। इससे धन व समय की बचत होती है।

3. अन्य विभागों से सहयोग व सम्न्वय (Cooperation & Coordination with other Departments) : विक्रय कोटा निर्धारित होने से उत्पादन, क्रय, भण्डारण, वित्त आदि से सहयोग व समन्वय करने में कठिनाई नहीं होती।

4. कार्यभार में समानता (Parity in Work Load) : विक्रेताओं के बीच भेदभाव, पक्षपात आदि की सम्भावना समाप्त करने के लिए विक्रय कोटा निर्धारण आवश्यक है क्योंकि विक्रय कोटे को निश्चित करने में उचित नीति एवं सिद्धान्तों का पालन किया जाता है। इससे विक्रताओं आदि के कार्यों का वितरण समान रूप से हो पाता है।

5. विक्रय व्ययों पर नियन्त्रण (Control on Sales Expenses) : विक्रय कोटा विक्रय व्ययों को निर्धारित सीमाओं में रखने का भी एक प्रभावी साधन है। विक्रय कोटा निर्धारित करते समय विक्रय व्यय का भी कोटा निश्चित किया जा सकता है।

6. विक्रेताओं की क्रियाओं पर नियन्त्रण (Control on Activities of Salesmen) : विक्रय कोटा निर्धारण से विक्रेता निर्धारित समय में निर्धारित मात्रा में माल बेचने के लिए प्रेरित होते हैं। इससे व्यर्थ की क्रियाओं में होने वाली समय की बर्बादी पर रोक लग जाती है। अत: विक्रय कोटा के माध्यम से प्रबन्धक विक्रेताओं की क्रियाओं पर प्रभावशील नियन्त्रण कर पाते हैं।

7. उपयुक्त पारिश्रमिक प्रणाली का विकास (Developing an Approprate System of Compensating Sales Personnel) : विक्रय कोटा निर्धारण से एक प्रभावशाली पारिश्रमिक प्रणाली का विकास किया जा सकता है। निर्धारित कोटा के लक्ष्य प्राप्त करने वाले विक्रेताओं को विशेष कमीशन या बोनस देने की व्यवस्था की जा सकती है। इसी प्रकार, विक्रेताओं को दिये जाने वाले पारिश्रमिक सुविधाओं में वृद्धि आदि का निर्णय भी विक्रय कोटा की प्राप्ति के आधार पर ही लिया जा सकता है।

8. भावी गतिविधियों के स्तर व आवश्यकताओं का अनुुमान (Future Estimates - Level) : विक्री का भावी अनुमान कोटे के आधार पर आसानी से लगाया जा सकता है। सभी क्षेत्रों के कोटे का योग ही विक्रय पूर्वानुमान माना जा सकता है। विक्रय का अनुमान लगने के बाद विज्ञापन, विक्रय संवर्द्धन, कर्मचारी, व्यय तथा पूँजी आदि की आवश्यकताओं का भी अग्रिम अनुमान लगाकर नियोजन किया जा सकता है। 

9. विक्रेताओंं की उत्पादकता का मूल्यांन (Evaluation of Salesman.s Productivity) : विक्रय कोटा की वास्तविक विक्रय कार्यों एवं परिणामों से तुलना करके विक्रेताओं की उत्पादकता का मूल्यांकन किया जा सकता है। यदि उनके कार्यों में सुधार की आवश्यकता हो तो इनकी सहायता से उत्पादकता बढ़ाने तथा प्राप्त स्तर को बनाये रखने की प्रेरणा दी जा सकती है।

10. विक्रेताओं को प्रेरित करने के लिए (For Motivating Salesman) : विक्रय लक्ष्यों का ज्ञान हो जाने पर उनकी प्राप्ति के लिए विक्रेताओं के प्रयासों में तीव्रता आती है। वे अपने विक्रय कोटा को निश्चित समय में पूरा करने का प्रयास करते हैं। वे अपने विक्रय लक्ष्यों के प्रति गम्भीर रहते हैं तथा उनको प्राप्त करने में आने वाली बाधाओं के प्रति भी सचेत रहते हैं।

विक्रय कोटा निर्धारण के प्रमुख सिद्धान्त

विक्रय कोटा निर्धारण एक योजना बद्ध कार्य है। विक्रय कोटा निर्धारण में कुछ सिद्धान्तों का पालन आवश्यक है। इन सिद्धान्तों के पालन करने से अभ्यंश (कोटा) व्यावहारिक हो जाते हैं जिन्हें प्राप्त करने में विक्रेताओं को कठिनाई नहीं आती तथा वे हताश नहीं होते। ये सिद्धान्त हैं :

1. सरल व सुुगम विधि : विक्रय कोटा निर्धारित करने की विधि सरल व सुगम होनी चाहिए ताकि विक्रेता व अन्य सम्बन्धित व्यक्ति उसे आसानी से समझ सके।

2. व्यावहारिकता : विक्रय कोटा व्यावहारिक होना चाहिए उसे न तो अति उच्च व न अति न्यून होना चाहिए बल्कि सन्तुलित हो तथा उसमें आवश्यकता अनुसार परिवर्तन सम्भव हो।

3. स्पष्टता : विक्रय कोटा दुविधा रहित व स्पष्ट हो जिसकी विक्रेताओं को पहले से जानकारी होनी चाहिये। 4ण् निश्चितता : कोटा निर्धारण, विक्रयराशि, इकाईयों, लाभ की मात्रा आदि की रूप में हो लेकिन उसमें निश्चितता होनी चाहिये। विक्रेता को स्पष्ट होना चाहिए कि उसे किस लक्ष्य को प्राप्त करना है।

4. समता : विक्रय कोटा निर्धारित करते समय समता के सिद्धान्त का पालन किया जाना आवश्यक है। जिन क्षेत्रों में विक्रय संभावना अधिक हो वहाँ का कोटा उच्च तथा जहाँ यह संभावना कम हों वहाँ का कोटा न्यून तय किया जाना चाहिये।

5. लोचशीलता : विक्रय कोटे में लोचशीलता होनी चाहिए जिससे उसको बदलती आर्थिक, सामाजिक व व्यावसायिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित किया जा सके।

6. उद्देश्यनिष्ठता : विक्रय कोटा ऐस तथ्यों पर आधारित होना चाहिए जो विश्वसनीय हों व उचित तरीके से एकित्रत किये गये हों।

7. अनुुगमन : विक्रय कोटा पद्धति के निरन्तर मूल्यांकन की व्यवस्था करके ही सफल बनाया जा सकता है। विक्रय कोटा लक्ष्यों की वास्तविक परिणामों से तुलना करके पाये जाने वाले ऋणात्मक विचलनों को दूर करने के उपाय किये जाने चाहियें। ऐसा करने से विक्रेताओं तथा प्रबन्धकों की बीच सदभाव बढ़ेगा।
  1. विक्रय कोटा विक्रय कर्मचारियों को स्वीकार्य होना चाहिये।
  2. विक्रय कोटा पूर्वाग्रहों व कल्पना पर आधारित न हो।
  3. विक्रय कोटा प्रेरणात्मक तथा निष्पक्षता से परिपूर्ण हो।

विक्रय कोटा के निर्धारक घटक

1. भूतकालीन विक्रय आँकड़े़े : आगामी वर्षों की बिक्री का अनुमान विगत वर्षों में की गई विक्री के आँकड़े आधार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। अत: विक्रय कोटे के निर्धारण में भूतकाल में की गई बिक्री के आँकड़ें अहम् स्थान रखते हैं।

2. बाजार की स्थितियाँ आकार : विक्रय अभ्यंश या कोटे के निर्धारण में वस्तु विशेष की बाजार की स्थिति भी एक महत्त्वपूर्ण घटक है अर्थात् यदि वस्तु के बाजार के आकार में कोई परिवर्तन हो तो उसे भी ध्यान में रखकर कोटा निश्चित किया जाता है।

3. विक्रय सम्भावनायें : विक्रय कोटा निर्धारित करते समय बाजार में विक्रय सम्भावनायें भी ध्यान में रखी जाती हैं। इस सम्बन्ध में उपभोक्ताओं की रुचि, फैशन, स्वभाव, क्रयशक्ति, सरकारी नीति आदि को आधार बनाया जा सकता है।

4. विक्रयकर्ता की क्षमता : विक्रय कोटा तय करते समय सम्बन्धित विक्रेताओं की विक्रय क्षमता को भी ध्यान में रखा जाता है।

5. विक्रय पूर्वानुमान : भावी विक्रय का पूर्वानुमान लगाने के बाद उसे क्षेत्रों के आधार पर बाँटकर विक्रय कोटा निर्धारित किया जाता है।

6. प्रतियोगिता की स्थिति : विक्रय कोटा निर्धारित करने में प्रतियोगिता में होने वाले परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना होता है क्योंकि प्रतियोगिता में वृद्धि या कमी भी विक्रय स्तर को प्रभावित करती हैं। कड़ी प्रतियोगिता की स्थितियों में विक्रय कोटा का स्तर अपेक्षाकृत छोटा होना चाहिए अन्यथा बड़ा।

7. उपभोक्ताओं का जीवनस्तर व आय : उपभोक्ताओं की आय के स्तर व जीवन स्तर को भी ध्यान में रखकर ही विक्रय कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए। यदि जीवन स्तर व आय का स्तर ऊँचा हो तो विक्रय कोटा उच्च होगा इसके विपरीत होने पर न्यून।

8. विक्रय नीति : विक्रय कोटा संस्था की विक्रय नीति से भी प्रभावित होता है। यदि संस्था विक्रय में वृद्धि के लिए नये-नये नीतिगत कदम उठा रही है जैसे - उधार नीति में लचीलापन, बट्टा नीति में उदारता ला रही है तो उच्च विक्रय कोटा निर्धारित किया जाना चाहिये।

9. सरकारी नीति : विक्रय कोटा निर्धारण में उद्योग के प्रति सरकार की सामान्य नीति व सरकारी क्रय नीति अदि को भी ध्यान में रखा जाता है। यदि नीति उद्योग को प्रोत्साहित करने वाली है तो विक्रय कोटा बढ़ाया जा सकता है।

10. विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन : विक्रय कोटा निर्धारित करते समय विज्ञापन तथा विक्रय संवर्द्धन के स्तर को भी ध्यान में रखा जाता है। उदाहरण के लिये, यदि उपक्रम द्वारा किसी क्षेत्रा में व्यापक पैमाने पर विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन किया जाता है तो उस क्षेत्रा के लिए विक्रय कोटा अधिक निर्धारित किया जा सकता है। 

11. उत्पादन क्षमता : विक्रय कोटा निर्धारित करते समय उपक्रम की उत्पादन क्षमता को भी ध्यान में रखना चाहिए। यदि संस्था उत्पादन क्षमता बढ़ाना चाहती है तो विक्रय कोटा भी उसी के अनुसार बढ़ाया जा सकता है।

12. अन्य घटक : (1) विक्रेताओं के विचार (2) स्थानीय कानून व व्यवस्था की स्थिति (3) आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियाँ।

विक्रय कोटा के प्रकार

प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम की विक्रय से सम्बिन्ध्त समस्याएँ, प्रबन्धकीय निर्णय, व्यावसायिक दर्शन तथा नीतियाँ, कोटा निर्धारण की विधियाँ व बजटिंग पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। परिणामस्वरूप उनके विक्रय कोटा का निर्धारण भी भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इन संस्थाओं का विक्रय कोटा भी अलग-अलग होते हैं। इस विक्रय कोटा के प्रकार निम्नांकित हैं :

1. विक्रयकर्ता का कोटा - इस प्रकार की कोटा प्रणाली का प्रचलन बहुत अधिक मात्रा में है। इस प्रणाली के अन्र्तगत प्रत्येक विक्रेता का पृथक-पृथक विक्रय कोटा निर्धारित किया जाता है, जिसे पूरा करना उसके लिए आवश्यक होता है। इस कोटे को निर्धारित करते समय विक्रेता के वेतन व भत्तों, क्षेत्राीय विक्रय संभावनायें व उसकी विक्रय क्षमता को ध्यान में रखा जाता है। विक्रेता को कोटे के परिणामों के आधार पर ही पे्ररणात्मक परिश्रमिक का भी भुगतान किया जाता है।

2. डीलर या वितरक का कोटा - उत्पादकों को अपने वस्तु विक्रय के लिए कोई डीलर या वितरक भी नियुक्त करना होता है। इन वितरकों या डीलरों का विक्रय कोटा भी निर्धारित किया जा सकता है जो डीलर या वितरक का कोटा कहलाता है। ऐसे डीलर या वितरक के लिए डीलरशिप या डिस्ट्रीब्यूटरशिप को बनाये रखने के लिए यह कोटा पूरा करना आवश्यक होता है।

3. शाखा का कोटा - जब उपक्रम की कई शाखाएँ हों जैसे - बैंक व बीमा-कम्पनियों में तो प्रत्येक शाखा को एक निर्धारित समय में अपने पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करना आवश्यक होता है। इस प्रकार इन शाखाओं के लक्ष्य निर्धारित होना ही शाखा कोटा कहलाता है।

4. मण्डलीय कोटा - यदि निर्माता के कार्यालय मण्डल स्तर पर भी हों तो प्रत्येक मण्डल के स्तर पर कोटा निर्धारित करना मण्डलीय कोटा कहलाता है। यदि विक्रय संगठन जिला, प्रान्तीय, व राष्ट्रीय आधार पर गठित किया जाता हो तो जिलों, प्रान्तों व राष्ट्रों का कोटा भी निर्धारित किया जा सकता है। ऊपर वर्णित विक्रय का कोटा चार रूपों में हो सकता है

i. विक्रय मात्रा कोटा : विक्रय मात्रा कोटे में विक्रय की मात्रा या परिमाण ;फनंदजपजलद्ध तय कर दी जाती है। ऊपर वर्णित विक्रयकर्ता, वितरक, शाखा तथा मण्डल आदि के लिए विक्रय की मात्रा निर्धारित करना ही विक्रय मात्रा कोटा कहलाता है। इस विक्रय मात्रा के लिए निर्धारित समावधि होती है जिसमें इन्हें पूरा करना होता है। लाभ में वृद्धि का एक प्रत्यक्ष आधार विक्रय की मात्रा है। अत: इन कोटा में विक्री की मात्रा ही आधार होती है जिसके द्वारा विक्रेता के कार्य निष्पादन को मूल्यांकित किया जाता है। विक्रय मात्रा कोटा तीन रूपों में हो सकता है जैसे :
  1. मुद्रुा विक्रय परिमाण कोटा : यह विक्रय कोटा मुद्रा अर्थात रूपया, पौंड, डॉलर, रूबल, यन आदि में व्यक्त किया जा सकता है।
  2. इकाई विक्रय-मात्रा कोटा : यह कोटा विक्रय इकाईयों के रूप में व्यक्त किया जाता है जैसे µ विक्रेता को एक माह की अवधि में 5000 इकाईयों का विक्रय करना हो।
  3. बिन्दू विक्रय-परिमाण कोटा : विक्रय परिमाण कोटा बिन्दुओं में भी व्यक्त किया जा सकता है। इसके लिए इकाई विक्रय अथवा रुपयों में निर्धारित विक्रय को पहले ‘बिन्दुओं में परिवर्तित करना होता है जैसे - X उत्पाद की 250 इकाईयों के लिए 5 बिन्दु, उत्पाद Y की 1000 इकाईयों के लिए 10 बिन्दु, Z उत्पाद की इकाईयों की 500 इकाईयों के लिए 15 बिन्दु निर्धारित करना। इस विधि में विक्रय की मुद्रा में मात्रा के लिए भी बिन्दु निर्धारित किये जा सकते हैं जैसे - 10000 रुपये तक की बिक्री के लिए 1 बिन्दु, 15000 रुपये तक की बिक्री के लिए 2 बिन्दु आदि। बोनस भुगतान के लिए यह आवश्यक कर दिया जाता है कि बिक्री पूर्व-निर्धारित बिन्दुओं के कोटा तक या उससे अधिक हो।
ii. विक्रय बजट कोटा : इस प्रकार से कोटा निर्धारित करने का उद्देश्य संस्था के व्ययों, सकल लाभ या शुद्ध लाभ को नियिन्त्रात करना होता है। इसके माध्यम से विक्रयकर्ताओं को स्पष्ट किया जाता है कि उनका कार्य केवल विक्रय वृद्धि करना नहीं है बल्कि लाभप्रद विक्रय करना भी है। इस कोटे के दो रूप हो सकते हैं :
  1. व्यय कोटा : व्यय कोटा विक्रय पर होने वाले व्ययों पर सीमा लगाता है। इसमें विक्रेताओं को स्पष्ट किया जाता है कि वे विक्रय पर कितनी राशि व्यय कर सकते हैं। इनसे विक्रेताओं की विक्रय लागतों व व्ययों के प्रति जागरूकता बढ़ती है।
  2. शुद्ध लाभ या सकल मािर्र्जन : इस कोटा के अन्र्तगत विक्रेता का बल सदैव शुद्ध लाभ पर होता है। इसमें विक्रेताअें को यह स्पष्ट किया जाता है कि विक्रय वृद्धि या व्ययों में कमी अथवा दोनों का लाभ तभी होगा जबकि मार्जिन या लाभों में वृद्धि हो।
iii. विक्रय क्रिया कोटा : प्राय: विक्रेता विक्रय करने का प्रयास अधिक करते हैं तथा विक्रय की सहायक क्रियाओं पर ध्यान नहीं देते हैं या बहुत कम ध्यान देते हैं। ऐसी दशा में विक्रय प्रबन्धकों द्वारा क्रिया कोटा निर्धारित किया जाता है ताकि विक्रेता ओदश प्राप्त करने के साथ-साथ विक्रय की सहायक क्रियाओं जैसे-माल का प्रदर्शन, विक्रय उपरान्त सेवा, उधार विक्रय की वसूली आदि पर ध्यान दे सकें।

iv. संयुक्त कोटा : ऊपर बताई गई तीनों प्रकार की कोटा पद्धतियों का मिश्रित रूप संयुक्त कोटा प्रणाली कही जाती है। इसमें विक्रय परिमाण या मात्रा, विक्रय बजट अथवा विक्रय क्रिया कोटा को एक साथ अपनाया जाता है। इस प्रणाली द्वारा विक्रय की मात्रा तथा गैर विक्रय कार्यों के मध्य सन्तुलन रखा जाता है। इससे विक्रेताओं की निष्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग सम्भव होता है तथा विक्रय व्ययों पर नियन्त्राण रहता है।

विक्रय कोटा निर्धारित करने की विधियाँ

विक्रय कोटे का निर्धारण करने हेतु संस्थाओं द्वारा विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है। जिनमें से प्रमुख विधियाँ हैं :

1. कुल अनुमानित विक्री के आधार पर - इस विधि में उद्योग की कुल बिक्री का अनुमान लगाकर उपक्रम की भावी बिक्री का अनुमान किया जाता है। भावी अनुमानों का आधार विगत अवधि की बिक्री होती है। संस्था के बाजार अंश की कमी या वृद्धि के आधार पर पिछले बिक्री के आँकड़ों में संशोधन किया जाता है जिसके अनुसार भावी बिक्री का लक्ष्य निर्धारित कर लिया जाता है। यदि संस्था नयी है तो उद्योग की कुल बिक्री को कोई भी प्रतिशत बिक्री लक्ष्य के रूप में निर्धारित कर लिया जाता है।

भावी बिक्री अनुमानित होने के उपरान्त विक्रेताओं की योग्यता, स्थिति, अनुभव, वितरकों का आकार, जनसंख्या, प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति आदि को ध्यान में रखकर विक्रय कोटा निर्धारित कर लिये जाते हैं। केवल पिछली अवधि की बिक्री को आधार बनाकर कोटा निर्धारित करना काफी जोखिमपूर्ण होता है। अत: बाजार अनुसन्धान एवं टेस्ट-मार्किटिंग जैसी तकनीकों के आधार पर एकित्रात आँकड़ों द्वारा भावी बिक्री को अनुमानित करने से कुछ हद तक इस जोखिम से बचाव हो सकता है। इस विधि के निम्न दो चरण हो सकते हैं :

i. उद्योग की कुल बिक्री का पूर्वानुमान : इस विधि के अनुसार सबसे पहले समस्त उद्योग की कुल बिक्री का पता लगाया जाता है। इसके उपरान्त संस्था की भावी बिक्री को अनुमानित किया जाता है। यदि संस्था के बाजार अंश में वृद्धि की सम्भावना हो तो पिछले वर्षों की बिक्री में थोंड़ी वृद्धि करके भावी बिक्री का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके विपरीत गत वर्षों में संस्था का विक्रय अंश स्थायी रहने या कम होने पर पिछले वर्ष की बिक्री के लक्ष्य को ही भावी बिक्री का लक्ष्य माना जा सकता है। यदि संस्था अभी स्थापित हुई हो तो अनुमानित सापेक्ष स्थिति के आधार पर उद्योग की कुल बिक्री का कोई उचित प्रतिशत बिक्री के लक्ष्य के रूप में निश्चित किया जा सकता है। इसमें बाजार अनुसन्धानों को प्रयोग करके इसे तार्किक बनाया जा सकता है। यह विधि अधिक लोकप्रिय है।

ii. कोटा निर्धारण : बिक्री की उपर्युक्त विधि से राशि की गणना के बाद विविध घटकों विक्रता की विक्रय योग्यता, स्थानीय माँग, बाजार की दशाऐं, प्रतिस्पर्द्धा आदि को ध्यान में रखकर पृथक-पृथक विक्रय कोटे निर्धारित किये जाते हैं।

2. क्षेत्रीय विक्रय सम्भाव्यों के अनुमान के आधार पर - इस विधि में संस्था पहले विक्रेताओं, शाखाओं तथा अन्य विपणन इकाईयों से उनके विक्रय प्रदेशों में उनके द्वारा की जा सकने वाली सम्भावित बिक्री के समंक एकत्रित करती है। इन समकों में उचित संशोधन के बाद क्षेत्रीय लक्ष्य व उपक्रम की कुल भावी बिक्री का अनुमान लगा लेते हैं। इस प्रकार अनुमानित बिक्री को ही उसका बिक्रय कोटा मान लिया जाता है अथवा उसमें संस्था की नीतियों व परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जाता है। इस विधि में क्योंकि विक्रेताओं द्वारा दी गई सूचनायें ही आधार होती हैं अत: वे कोई शिकायत नहीं कर पाते और कोटे के अनुसार उन्हें प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इस विधि में एक दोष यह है कि व्यवहार में विक्रेता, डीलर्स या विपणन इकाईयाँ आदि अनेक क्षेत्रों की विक्रय सम्भावनाओं को कम आँकते हैं ताकि वे उस लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकें तथा अतिरिक्त कमीशन का अन्य लाभ प्राप्त कर सकें। कुल बिक्री के भावी अनुमान को विक्रेताओं आदि में बाँटने के चार तरीके हैं -
  1. भावी बिक्री में वृद्धि के आधार पर विपणन इकाईयों, विक्रेताओं, डीलरों आदिकी गत वर्ष की बिक्री में वृद्धि कर नया कोटा निर्धारित करना।
  2. दूसरा तरीका यह है कि पहले उस सम्बन्धित वर्ष के लिए सम्पूर्ण बिक्री का अनुमान लगाकर यह पता करना कि गत वर्ष में उद्योग की कुल बिक्री के साथ उसका क्या प्रतिशत था। इसके बाद भावी विक्रय अनुमान में उसी प्रतिशत का गुणा करके उस क्षेत्र का कोटा निर्धारित करना।
  3. विक्रय कोटा निर्धारित करने में पहले संस्था की कुल बिक्री का अनुमान लगाकर उस गत वर्ष की कुल बिक्री के क्षेत्राीय अनुपात के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में बाँटकर कोटा निर्धारित करना।
  4. कोटा निर्धारण का एक तरीका यह भी है कि विभिन्न सूचनाओं को एकत्रा कर उनका सहसम्बन्ध ज्ञात करना और फिर इस आधार पर एक अनुक्रमांक तैयार करके उसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रों का विक्रय कोटा निर्धारित करना।
3. प्रबन्धकीय अभिनिर्णय जूरी - इस विधि के अन्र्तगत उपक्रम में कार्यरत कई प्रबन्धकों के एकित्रात मतों के आधार पर विक्रय कोटा निर्धारित किया जाता है। इस सम्बन्ध में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले प्रबन्ध कों के विचारों को एकत्रा करके उन्हें मिश्रित करके उनके निष्कर्षों के आधार पर कोटे का निर्धारण होता है। इस प्रकार से कोटा निर्धारण को ‘अनुमान कोटा’ (Guess Work Quota) भी कहते हैं।

4. मनोवज्ञानिक कोटा प्रणाली - इस विधि में विक्रय कर्मचारियों पर ही अनुमान तैयार करने का दायित्व होता है। इस उद्देश्य के लिए दिये गये फार्म में अनुमान विक्रेताओं द्वारा ही भरे जाते हैं। कभी-कभी विक्रयकर्ता विक्रय प्रबन्धकों के साथ की गई सभाओं में भी अपने-अपने विक्रय प्रदेशों के विक्रय अवसरों पर विचार-विमर्श करते हैं। इन विक्रय सभाओं में पिछली विक्रय सम्बन्धी सूचनायें उपलब्ध रहती हैं जिनके आधार पर कमी या वृद्धि की जाती है। इससे विक्रेताओं में विक्रय नियोजन में सहभागी होने की भावना भी उत्पन्न होती है। इसी कारण इसे मनोवैज्ञानिक कोटा प्रणाली (Psychological Quota System) कहा जाता है।

विक्रय कोटा निर्धारण के लाभ

1. उपक्रम को लाभ

  1. कोटा निर्धारित होने से प्रबन्ध को कर्मचारियों के कार्य-निष्पादन के मूल्यांकन का आधार प्राप्त हो जाता है। 
  2. इसके आधार पर विक्रेताओं का प्रेरणात्मक पारिश्रमिक निर्धारित करने में सुविधा रहती है। 
  3. इसके आधार पर कमजोर व अविकसित बाजारों का आसानी से पता लग जाता है।
  4. विक्रय संगठन के कार्यों के नियमन व नियन्त्राण में सहायता मिलती है। 
  5. विक्रय-संवर्द्धन की योजनाओं का प्रभावी ढंग से आयोजन व क्रियान्वयन संभव होता है। 
  6. विक्रय कोटा आबंटन से सम्पूर्ण संस्था का विक्रय लक्ष्य प्राप्त करना आसान हो जाता है।
  7. कोटा निर्धारण से विक्रेता का ध्यान लक्ष्य पर ही केन्द्रित रहता है। विक्रय लक्ष्यों की प्राप्ति से लाभों में अभिवृद्धि सम्भव हो पाती है।
  8. विक्रेताओं तथा क्षेत्राीय अधिकारियों की पदोन्नति, पदावनति व स्थानान्तरण के लिए आधार प्राप्त होता है।
  9. इससे कुशल विक्रेताओं को अभिप्रेरित करने में सहायता प्राप्त होती है। 
  10. कोटा निर्धारण से अति व अल्प स्कन्ध की समस्या हल हो जाती है।

2. विक्रेता या डीलर या वितरक को लाभ 

  1. विक्रय कोटा निर्धारित होने से बिक्री में वृद्धि होती है जिससे उनकी आय बढ़ती है अर्थात् वे अतिरिक्त परिश्रमिक, कमीशन आदि प्राप्त कर पाते हैं। 
  2. विक्रेताओं के प्रयासों का उसे पूर्ण प्रतिफल मिलता है।
  3. विक्रेताओं का अनावश्यक व निराधार दण्डात्मक कार्यवाही से बचाव होता है। 

3. क्रेताओं को लाभ  

  1. क्रेताओं की शिकायतों का निवारण शीघ्रता से होता है।
  2. उनका क्षेत्राीय विक्रयकर्ता या विक्रय प्रभारी उनकी आवश्यकताओं को अच्छी प्रकार समझ पाता है।
  3. क्रेताओं को बेहतर सेवाएँ उपलब्ध हो पाती हैं।

विक्रय कोटा के दोष एवं सीमायें

विक्रय कोटा के सम्बन्ध में कुछ विद्वान निम्न तर्कों के आधार पर आलोचना करते हैं :

1. अनावश्यक क्रय को प्रेरणा : विक्रय कोटा निर्धारित होन पर विक्रेता कई बार ग्राहकों पर अनावश्यक वस्तुयें भी थोंप देते हैं। इससे ग्राहक के पास आवश्यकता से अधिक वस्तुयें जमा हो जाती हैं और फिर लम्बे समय तक उसे खरीदने की जरूरत ही नहीं होती। 

2. दक्ष विक्रयकर्ता की क्षमता का अपूर्ण उपयोग : विक्रय कोटा निर्धारण से दक्ष विक्रेता का केन्द्र बिन्दू कोटा विक्रय रहता है जिसके कारण उस कोटे को पूरा करने के बाद विक्रेता निष्क्रिय हो जाते हैं और अपनी पूर्ण दक्षता का प्रयोग नहीं कर पाते। 

3. गणितीय शुद्धता की कमी : विक्रय कोटा पूर्णत: गणितीय शुद्धता के साथ निर्धारित नहीं किये जा सकते हैं। अत: यह श्रेष्ठ होगा कि वे 70% विज्ञान और 30% अटकलों पर आधारित हों, न कि शत-प्रतिशत संयोगों पर। 

4. वैयैयक्तिक पक्षपात : सही, निष्पक्ष एवं, यथोचित विक्रय कोटा की स्थापना करना एक कठिन कार्य है। प्रबन्धकों के वैयक्तिक दृष्टि कोण, धारणाओं व पक्षपातों से मुक्त नहीं रह सकते।

5. आर्थिक भार : विक्रय कोटा के निर्धारण में बाजार अनुसन्धान, सांख्यिकीय विधियों व विशेषज्ञों की सेवाओं की आवश्यकता होती है जिनके आर्थिक भार को उठा पाना कई संस्थाओं के लिए संभव नहीं होता है। 

6. उच्च निर्धारण : कई बार कुछ कम्पनियाँ काफी ऊँचे विक्रय कोटा निर्धारित कर देती हैं, जिससे वे व्यावहारिक नहीं रह पाते तथा अपेक्षित लाभ उपलब्ध कराने में सहायक नहीं होते। अत: कई संस्थाएँ इनके निर्धारण में विश्वास नहीं रखती हैं। 

7. जटिल तकनीकें : कई विक्रय कोटा के निर्धारण में जटिल सांख्यिकीय तकनीकों का प्रयेाग किया जाता है जो आसानी से नहीं समझी जा सकती।

8. विक्रय वृद्धि मात्रा उद्देश्य : विक्रय कोटा निर्धारण में केवल विक्रय वृद्धि पर जोर दिया जाता है जो कि व्यवसाय का एक मात्रा ध्येय नहीं होता है। अत: कोटा निर्धारण उचित प्रतीत नहीं होता।

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