आर्थिक समस्या किसे कहते हैं आर्थिक समस्या के उत्पन्न होने के दो मुख्य कारण हैं

प्रत्येक अर्थव्यवस्था की कुछ आधारभूत आर्थिक समस्याएं हैं। इन आधारभूत समस्याओं की विस्तृत विवेचना करने से पहले यह जानना आवश्यक है कि आर्थिक समस्या से अभिप्राय क्या है। प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताएं असीमित हैं परंतु उन्हें संतुष्ट करने वाले अधिकतर साधन सीमित हैं। एक अर्थव्यवस्था के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह प्रत्येक नागरिक के लिये प्रत्येक वस्तु का उत्पादन कर सके क्योंकि किसी भी अर्थव्यवस्था के पास इतने अधिक साधन नहीं होते। अतएवं प्रत्येक अर्थव्यवस्था को यह चुनाव करना पड़ता है कि अर्थव्यवस्था के वैकल्पिक प्रयोग वाले साधनों (Resources) जैसे: भूमि, श्रम तथा पूंजी का किस प्रकार कुशलतापूर्वक प्रयोग किया जाए।
 
उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना पड़ता है कि कितने साधनों का प्रयोग मक्खन के तथा कितने साधनों का प्रयोग बन्दूकों के उत्पादन के लिए किया जाये। साधनों के विभिन्न उपयोगों में बंटवारे (Allocation) सम्बन्धी इस समस्या को ही आर्थिक समस्या कहा जाता है। अत: आर्थिक समस्या चुनाव की समस्या या साधनों के बचतपूर्ण प्रयोग की समस्या (Economising Problem) है। यह ध्यान रखना चाहिए कि आर्थिक समस्या केवल वर्तमान साधनों के वितरण की समस्या ही नहीं वरन् भविष्य में उनके विकास की समस्या (Problem of Growth and Distribution of Resources) भी है। अतएव आर्थिक समस्या वह समस्या है जिसका सम्बन्ध वर्तमान साधनों के उचित बंटवारे तथा भविष्य के साधनों की वृद्धि और उनके वितरण से है।

आर्थिक समस्या की परिभाषा

राबर्ट यॉह के अनुसार, “आर्थिक समस्या वह समस्या है जिसका सम्बन्ध चुनाव की इस आवश्यकता से है कि क्या, कैसे और किसके लिए उत्पादन करना है तथा आर्थिक प्रगति कैसे प्राप्त करनी है।”

लेफ्टविच के अनुसार, “आर्थिक समस्या का सम्बन्ध मनुष्य की वैकल्पिक आवश्यकताओं के लिए सीमित साधनों के वितरण तथा इन साधनों का अधिक से अधिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये प्रयोग करने से है।”

आर्थिक समस्या के कारण

आर्थिक समस्या के उत्पन्न होने के दो मुख्य कारण हैं:

1. असीमित आवश्यकताएं 

मनुष्य की आवश्यकताएं जो पदार्थों व सेवाओं के उपयोग द्वारा सन्तुष्ट की जा सकती हैं, असीमित होती हैं। कोई भी मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नहीं कर सकता। किसी समाज के सभी सदस्यों की आवश्यकता को किसी निश्चित समय में पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य की आवश्यकताएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व रंगीन टेलीविजन की कोई मांग नहीं थी परन्तु अब लगभग प्रत्येक परिवार रंगीन टेलीविजन खरीदना चाहता है। 

समय के साथ-साथ वीडियो कैमरों, कीमती कारों, वी.सी.आर., डीलक्स कार, कम्प्यूटर, कैलकूलेटर इलेक्ट्रॉनिक टाईपराइटर आदि की मांग में काफी वृद्धि होने की सम्भावना है। अतएव हम यह कह सकते हैं कि किसी निश्चित समय में प्रत्येक समाज में असन्तुष्ट आवश्यकताएं होती हैं।

2. सीमित या दुर्लभ संसाधन 

आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए बहुत-सी वस्तुओं तथा सेवाओं की जरूरत होती है। भूख लगने पर रोटी, फल या दूध की आवश्यकता होती है। बीमार होने पर डाक्टर की सेवा की आवश्यकता पड़ती है। प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है। सांस लेने के लिए वायु की आवश्यकता होती है। 

आप यह भी जानते हैं कि पानी तथा वायु को प्राप्त करने के लिए आपको कोई त्याग नहीं करना पड़ता अथवा कोई कीमत नहीं देनी पड़ती। इसके विपरीत रोटी, फल, दूध तथा डाक्टर की सेवाओं को प्राप्त करने के लिए आपको अपनी किसी वस्तु या सेवा का त्याग करना पड़ेगा अथवा मुद्रा के रूप में कीमत देनी पड़ती है। 

उन वस्तुओं तथा सेवाओं को जिन्हें प्राप्त करने के लिए हमें कीमत देनी पड़ती है अथवा किसी दूसरी वस्तु या सेवा का त्याग करना पड़ता है, आर्थिक पदार्थ कहा जाता है। आर्थिक पदार्थ को सीमित साधन या धन भी कहा जाता है, जैसे: रोटी, फल आदि वस्तुएं, डाक्टर, वकील आदि की सेवाएं। इन पदार्थों को सीमित इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनकी मांग, इनकी पूर्ति से अधिक होती है। आवश्यकताओं को पूरा करने वाले अधिकतर साधन सीमित होते हैं। यहां सीमित शब्द का प्रयोग सापेक्ष (Relative) रूप से किया गया है। हम उन साधन को सीमित कहते हैं जिसकी मांग उसकी पूर्ति की तुलना में अधिक होती है। 

मान लो हम 30 किलोग्राम सेब की एक पेटी खरीदते हैं, जिसमें 25 किलोग्राम सेब अच्छी श्रेणी के हैं परन्तु 5 किलोग्राम सेब गले हुए हैं। हम उन गले हुए सेबों को फेंक देते हैं। ये फेंके गए 5 किलो सेब दुर्लभ नहीं हैं; बल्कि इसके विपरीत 25 किलोग्राम बढ़िया सेब, इन 5 किलोग्राम गले हुए सेबों की तुलना में, अधिक होते हुए भी दुर्लभ हैं क्योंकि इनकी मांग पूर्ति से अधिक है। आर्थिक पदार्थ दुर्लभ होते हैं क्योंकि इनका उत्पादन करने वाले साधन (Resources) भी दुर्लभ होते हैं। साधनों से हमारा अभिप्राय प्राकृतिक, मानवीय तथा मनुष्य द्वारा निर्मित उन साधनों से है जिनके द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन किया जाता है। इनके अन्तर्गत कारखाना, खेत, मशीनें, औज़ार, विभिन्न प्रकार का श्रम और उनकी योग्यताएं सभी प्रकार के खनिज पदार्थ आदि शामिल किए जाते हैं। 

अध्ययन की सरलता की दृष्टि से इन साधनों का चार विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण किया जाता है।

1. भूमि (Land) : भूमि से अभिप्राय उन सब प्राकृतिक साधनों से है जो प्रकृति के नि:शुल्क उपहार हैं तथा जिन्हें उत्पादन प्रक्रिया में प्रयोग किया जाता है। इन साधनों में भूमि, खजिन, पैट्रोलियम, जल, सूर्य की रोशनी, नदियां, वन आदि शामिल किये जाते हैं।

2. श्रम (Labour) : अर्थशास्त्रा में श्रम से अभिप्राय उन सब भौतिक तथा मानसिक योग्यताओं से है जिनका वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार की सेवाओं को शामिल किया जाता है, चाहे वह घरेलू नौकर की सेवाएं हैं अथवा एक इंजीनियर की सेवाएं हैं।

3. पूंजी (Capital) : पूंजी से अभिप्राय मनुष्य द्वारा निर्मित उत्पादन (वितरण, भण्डार, यातायात आदि) साधनों से है जिनके फलस्वरूप अधिक उत्पादन किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत मशीनें, यन्त्रा, यातायात के साधन, दफ्तर के भवन, कारखाने आदि शामिल किये जाते हैं।

4. उद्यम (Enterprise) : उद्यम से अभिप्राय जोखिम उठाने, व्यवसाय का संचालन करने आदि योग्यताओं से है जिनके फलस्वरूप उत्पादन का संगठन करना सम्भव होता है। एक उद्यमी अपने समय, श्रम और पूंजी का जोखिम उठाता है तथा उत्पादन सम्बन्धी निर्णय के लिए उत्तरदायी होता है।

उत्पादन के सभी साधन अर्थात् श्रम, पूंजी तथा उद्यम सीमित होते हैं, इसका अर्थ यह है कि इनकी पूर्ति इनकी मांग की तुलना में कम होती है और इनको प्राप्त करने के लिए कुछ कीमत देनी पड़ती है। यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक श्रम शक्ति है परन्तु वह अनन्त नहीं है और न ही नि:शुल्क उपलब्ध है। इसी प्रकार खेती योग्य समस्त भूमि हमारी कृषि सम्बन्धी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं है। वास्तव में साधनों के सीमित होने का अर्थ यह है कि असीमित आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए वे पर्याप्त नहीं है। यद्यपि समय के साथ-साथ साधनों की उपलब्धि बढ़ती जाती है परन्तु वे हमारी सभी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में अपर्याप्त रहते हैं क्योंकि आवश्यकताएं भी बढ़ती जाती हैं। यद्यपि उत्पादन के साधन भी असीमित होते तो कोई आर्थिक समस्या उत्पन्न नहीं होती। वास्तव में तब अर्थशास्त्रा जैसा विषय भी नहीं होता। अतएव दुर्लभता आर्थिक समस्याओं का मूल कारण है।

उत्पादन के साधनों की एक और भी विशेषता है कि इनके वैकल्पिक प्रयोग (Alternative Uses) ) होते हैं। लकड़ी का प्रयोग फर्नीचर बनाने में, खेल का सामान, मकान के दरवाजे, रेल के डिब्बे तथा अन्य कार्यों के लिए किया जा सकता है। साधनों के वैकल्पिक प्रयोग होने के फलस्वरूप चुनाव की समस्या (Problem of Choice) उत्पन्न होती है। यह चुनाव की समस्या ही आर्थिक समस्या है। यदि हम किसी साधन का एक विकल्प में प्रयोग करते हैं तो हमें दूसरे विकल्प का त्याग करना पड़ेगा। हम एक विकल्प (Alternative) को प्राप्त करने के लिए जिस विकल्प का त्याग करते हैं वह प्राप्त किए गए विकल्प की अवसर लागत (Opportunity Cost) कहलायेगा। 

अवसर लागत एक निश्चित उद्देश्य के लिए साधनों के प्रयोग की वह लागत है जो उन साधनों का सर्वोत्तम वैकल्पिक प्रयोग नहीं कर सकने के कारण त्यागे जाने वाले लाभ (Benefits) के द्वारा मापी जाती है। अवसर लागत की धारणा, एक वस्तु की प्राप्त मात्रा की लागत को अन्य वस्तुओं की मात्रा के रूप में जो उसके बदले में प्राप्त की जा सकती थी, को माप कर चुनाव की समस्या पर बल देती है, संक्षेप में, साधनों का सीमित होना तथा इनका वैकल्पिक प्रयोग होना आर्थिक समस्याओं के उत्पन्न होने का मुख्य कारण है। चूंकि एक अर्थव्यवस्था अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन नहीं कर सकती, अन्य शब्दों में, वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक वस्तु का उत्पादन नहीं कर सकती, इसलिए उसके सम्मुख कुछ आधारभूत समस्याएं होती हैं जिनके सम्बन्ध में उसे चुनाव करना पड़ता है। इन समस्याओं को ही अर्थव्यवस्था की आधारभूत समस्याएं कहा जाता है।

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