अनुबंध किसे कहते हैं एक वैध अनुबंध के आवश्यक लक्षण क्या है?

‘अनुबंध है क्या ?’ सामान्य अर्थ में दो या अधिक व्यक्तियों में ऐसा समझौता जो कानूनी रूप से लागू किया जा सके, ‘अनुबंध’ कहलाता है।

अनुबंध का अर्थ

अनुबंध दो पक्षकारों के मध्य किया गया ऐसा समझौता होता है जो कि उनके मध्य वैधानिक दायित्व उत्पन्न करता है। ऐसे ठहराव अथवा समझौते अथवा वचन जो पक्षकारों के मध्य हो तथा जो राजनियम द्वारा प्रर्वतनीय कराया जा सके अनुबंध कहलाता है। एक अनुबंध के लिए दो बातों का होना आवश्यक है :-
  1. पार्टियों के बीच समझौता
  2. कानून द्वारा लागू करने योग्य समझौता
यदि अनुबंध करते समय उपरोक्त में कोई एक बात पूरी न होती हो तो वह अनुबंध नहीं होगा अर्थात् समझौते के बिना अनुबंध नहीं हो सकता तथा यदि समझौते का उद्देश्य दायित्व उत्पन्न करना नहीं है अथवा उसे राजनियम द्वारा परिवर्तनीय नहीं कराया जा सके तो वह अनुबंध नहीं हो सकताए केवल समझौता ही रहेगा।

For Example : राम ने 4000 रूपयें में श्याम को अपना स्कूटर बेचने का प्रस्ताप करता है जिसे श्याम स्वीकार कर लेता है तो वह अनुबंध होगा क्योंकि दोनों पक्षकारों ने अपनी सहमति प्रकट की है।

अनुबंध की परिभाषा

कुछ विद्वानों ने अनुबंध की परिभाषा दी है :-

1. सर विलियम अनसन (Sir William Anson) : ‘‘अनुबंध दो पक्षकारी के मध्य किया गया ऐसा ठहराव है जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है। तथा जिसके द्वारा एक या अधिक पक्षकारों द्वारा कुछ कार्यों के लिए अधिकार प्राप्त किए जाते हैं। अथवा दूसरे या अन्य पक्षकारों द्वारा उनका त्याग किया जाता है।’’ 

2. सर जॉन सोलमन (Sir John Solmon) : ‘‘अनुबंध एक ऐसा समझौता है जो दो पक्षकारों के मध्य दायित्व उत्पन्न करता है एवं उनकी व्यवस्था करता है।’’

अनुबन्ध के प्रकार

विभिन्न आधारों पर अनुबन्ध को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है।

1. वैधता के आधार पर अनुबंध 

वैधता के आधार पर अनुबन्ध को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया हैः

1. वैध अनुबन्ध-  भारतीय अनुबन्ध की धारा 10 के अनुसार सभी ठहराव अनुबन्ध है यदि उनमें पक्षकारों की स्वतंत्र सहमति है, प्रतिफल है तथा वैध उद्देश्य है तो ऐसे अनुबन्ध वैध कहलाते हैं। उदाहरण के लिए अ अपनी मोटर गाड़ी
1 लाख रुपये में विक्रय करना चाहता है और ब उसे उस मूल्य पर क्रय करने के लिए तैयार हो जाता है।

2. अवैध अनुबन्ध- जैसा कि शीर्षक के द्वारा स्पष्ट है कि ऐसे ठहराव विधि विपरीत होते हैं। ऐसे ठहराव की विधान के समक्ष कोई मान्यता नहीं होती हैं ऐसे ठहरावों को क्रियान्वित नहीं कराया जा सकता है। इस प्रकार के अनुबन्धों के पक्षकार भी वैधानिक रूप से दोषी घोषित किये जा सकते हैं।

2. प्रर्वतनीयता के आधार पर अनुबंध

प्रर्वतनीयता के आधार पर अनुबन्ध को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया हैः

1. व्यर्थ अनुबन्ध - व्यर्थ शब्द का विधान के अनुसार अर्थ होता है शून्य एवं प्रभावहीन, जिसका कोई वैधानिक अस्तित्व न हो। ऐसे अनुबन्धों को विधि द्वारा किसी प्रकार से भी क्रियान्वित नहीं कराया जा सकता है। इनमें ऐसा कोई भी तथ्य नहीं होता है जिसको विधि परिभाषित करती हो। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 के अनुसार जो ठहराव विधि द्वारा क्रियान्वित न करा जा सकते हों, वह व्यर्थ कहलाते हैं।

2. व्यर्थनीय अनुबन्ध - व्यर्थनीय का अर्थ है जिसे व्यर्थ घोषित किया जा सकता हो। यह ऐसे अनुबन्ध होते हैं जिन्हें अनुबन्ध के किसी एक पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थ घोषित किया जा सके। ऐसे अनुबन्धों में पक्षकार अनुबन्ध को पूरा करा सकते हैं अथवा अपनी इच्छा पर व्यर्थ घोषित कर सकते हैं। ऐसे अनुबन्धों में ध्यान रखना चाहिए कि व्यर्थ घोषित कर देने के लिए पर्याप्त आधार होना चाहिए। केवल इच्छामात्र ही सब कुछ नहीं है। ऐसी स्थिति में दूसरा पक्षकार को यदि हानि हो तो वह न्यायालय की शरण लेकर अनुबन्ध को क्रियान्वित कराने का आदेश प्राप्त कर सकता है। 

उदाहरण के लिए यदि अनुबन्ध हो जाने के पश्चात् एक पक्षकार को यह पता चलता है कि दूसरे पक्षकार ने किसी अवसर पर मिथ्या वर्णन किया था। ऐसी स्थिति में पहला पक्षकार ऐसे अनुबन्ध को व्यर्थ घोषित कर सकता है और यदि वह (पहला पक्षकार) झूठ बोलने की बात को अनदेखा कर दे तो वह अनुबन्ध को चालू रख सकता है। एक बात और स्पष्ट हो जानी चाहिए कि यदि एक पक्ष द्वारा अनुबन्ध को व्यर्थ घोषित किये जाने के परिणामस्वरूप दूसरा पक्ष को अकारण हानि होती है तो वह (हानि वहन करने वाला) न्यायालय की शरण लेकर अनुबन्ध को क्रियान्वित कराने का आदेश प्राप्त कर सकता है।

कुछ ऐसी दशाएं हैं जब अनुबन्ध को व्यर्थ घोषित किया जा सकता है जैसे जब अनुबन्ध के पक्षकार या पक्षकारों की सहमति, उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, मिथ्यावर्णन एवं कपट के द्वारा प्राप्त की गई हो। ऐसी दशा में पीडि़त पक्षकार की इच्छा पर अनुबन्ध व्यर्थ (वैधानिक रूप से) घोषित किया जा सकता है।

3. प्रवर्तनीय अनुबन्ध - प्रवर्तनीय अनुबन्ध ऐसे सामान्य रूप से पाए जाने वाले ठहरावों के रूप होते हैं जिन्हें सभी लक्षणों के साथ राजनियम के द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। इनमें किसी प्रकार की कोई वैधानिक कमी अथवा दोष नहीं पाया जाता है। इनमें वैध अनुबन्ध के सभी लक्षण होते हैं। उदाहरण के लिए जैसे राम जो एक वस्तु का उत्पादक है, अपने उत्पाद का विक्रय करने के लिए श्याम के पास प्रस्ताव रखता है और श्याम उसे स्वीकार कर लेता है तथा निश्चित समय पर देानों पक्ष अपने-अपने वचन का निष्पादन कर देते हैं तथा अनुबन्ध क्रियान्वित हो जाता है।

4. अप्रर्वतनीय अनुबन्ध - अप्रवर्तनीय अनुबन्ध वह होते हैं जिन्हें किसी दोष अथवा त्रुटि के कारण वैधानिक रूप से क्रियान्वित नहीं कराया जा सकता है। इनके दोष वैधानिक त्रुटियाँ अथावा तकनीकि कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘लिमिटेशन एक्ट’ के अनुसार समय सीमा का बीत जाना, स्टाम्प एक्ट के अनुसार उचित स्टाम्प का न लगा होना, या अनुबन्ध का रजिस्र्टड (यदि अपेक्षित हो तो) न होना। इस प्रकार की कमियों अथवा त्रुटियाँ या भूल के होते हुए कोई पक्षकार अनुबन्ध को वैधानिक रूप से क्रियान्वित नहीं करवा सकता है। एक बात और ध्यान देने की है कि यद्यपि ऐसे अनुबन्ध क्रियान्वित भले न कराए जा सकते हों पर आवश्यक नहीं कि ऐसे ठहराव व्यर्थ या व्यर्थनीय हों। अर्थात् ऐसे अनुबन्धों के अन्य प्रभाव विद्यमान रहेंगे जैसे कि स्वतंत्र सहमति, अनुबन्ध करने की योग्यता अथवा प्रतिफल इत्यादि।

3. संरचना के आधार पर अनुबंध 

संरचना के आधार पर अनुबन्ध को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया हैः

1 स्पष्ट अनुबंध - स्पष्ट ठहराव से आशय है कि जब पक्षकार ठहराव करने के लिए अपने-अपने निर्णय पर अडिग हो, तथा इसके लिए अपना प्रस्ताव तथा स्वीकृति स्पष्ट रूप से एक दूसरे को लिखित या मौखिक प्रेषित करें। इसके अतिरिक्त अन्य जो अन्य आर्हताएं हैं उन्हें पूरा करते हों। उदाहरण के लिए मोहन एक कपड़ों का थोक विक्रेता सोहन जो कपड़ों का फुटकर विक्रेता है उसे कपड़े विक्रय का प्रस्ताव करता है तथा सोहन उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। यह स्पष्ट अनुबन्ध होगा।

2. गर्भित अनुबंध - भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 9 में वर्णित है कि गर्भित ठहराव में दोनों पक्ष अपना प्रस्ताव अथवा स्वीकृति लिखित या मौखिक रूप से न देते हों तो ऐसे अनुबन्ध गर्भित अनुबन्ध कहलाते हैं। यहां पर शब्दों से अधिक पक्षकारों का आचरण अथवा व्यवहार महत्व रखता है। इसके अतिरिक्त व्यापारिक रीति-रिवाज और परिस्थिति को भी ध्यान में रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए एक फल का फुटकर विक्रेता फलों को ठेले पर रखकर विक्रय करने के लिए सड़क के किनारे खड़ा हो जाता है, तभी सड़क से जा रहा एक व्यक्ति वहाँ रूकता है और फल के ठेले से एक केला उठा कर खाने लगता है। इसका अर्थ यह निहित है कि वह व्यक्ति केले का मूल्य चुकता करेगा और वह ऐसा कर भी देता है। यह एक गर्मित अनुबन्ध का उदाहरण है।

3. अर्ध अनुबंध - अर्ध अनुबन्ध वह होते हैं जिनमें पक्षकारों के मध्य अधिकार एवं दायित्व, अनुबन्ध के द्वारा नहीं वरन् कानून के क्रियाशील होने से उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार के अधिकार एवं दायित्व विधान के द्वारा एक प्रकार से आरोपित किए जाते हैं जो पक्षकारों के मध्य किसी विशेष परिस्थिति अथवा घटना पर आधारित होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अर्ध अनुबन्ध वह होते हैं जो पक्षकारों द्वारा औपचारिक रूप से किए नहीं जाते हैं वरन परिस्थितियों के कारण उनके सम्बन्ध अनुबन्ध के सम्बन्धों जैसे हो जाते हैं और कानूनी रूप से प्रभावी भी होते हैं। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति का मित्र मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है और वह व्यक्ति अपने मित्र के परिवार की देखभाल करता है तो ऐसा व्यक्ति अपने द्वारा किए गए व्ययों को अपने मित्र की सम्पत्ति (यदि कोई हो तो) से प्राप्त कर सकता है।

4. निष्पादन के आधार पर अनुबंध 

निष्पादन के आधार पर अनुबन्ध को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया हैः

1. निष्पादित अनुबन्ध - जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि जहाँ पर पक्षकारों ने अनुबन्ध के अन्तर्गत अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन कर दिया है वह निष्पादित या क्रियान्वित हो चुका ठहराव कहलाता है। उदाहरण के लिए सुरेश एक टन वनस्पति तेल को रमेश को विक्रय करता है जिसका मूल्य 1,50,000 रु0 है। रमेश मूल्य चुकता कर
देता है और सुरेश तेल को सुरेश को सुपुर्द कर देता है। यह एक निष्पादित अनुबन्ध है जहाँ पर दोनों पक्षों ने अपने-अपने दायित्वों को पूरा कर दिया है।

2. निष्पादनीय अनुबन्ध  - यह ऐसे ठहराव होते हैं जहाँ पर पक्षकारों को अपने दायितवों को भविष्य की किसी तिथि पर पूरा करना है। उदाहरण के लिए राम 1000 रु0 मूल्य की एक वस्तु को विक्रय करने का प्रस्ताव श्याम के समक्ष रखता है। श्याम उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। वस्तु की सुपुर्दगी एवं मूल्य का भुगतान आगामी 1 जुलाई को होना है। यह एक निष्पादनीय अनुबन्ध है। यहाँ पर दोनों पक्षों ने अभी अपने दायित्व का निर्वहन नहीं किया है जो आगामी 1 जुलाई की तिथि पर होगा।

अनुबंध की विशेषताएं

अनुबन्ध की विशेषताओं को इस प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
  1. अनुबन्ध में कम से कम दो पक्षकारों का होना अनिवार्य है।
  2. अनुबन्ध पक्षकारों के आपस में सहमत होने से उत्पन्न होता है।
  3. पक्षकारों के मध्य प्रस्ताव एवं स्वीकृति होने से ठहराव होता है।
  4. प्रस्ताव एवं स्वीकृति हो जाने से पक्षकार पारस्परिक रूप से वचनबद्ध हो जाते हैं।
  5. अनुबन्ध पक्षकारों के मध्य वैधानिक दायत्वि उत्पन्न करता है।
  6. अनुबन्ध में पक्षकारों को वैधानिक अधिकार प्राप्त होता है कि वह दूसरे पक्षकार से उसके वचन का पालन करवा सकें।

वैध अनुबंध की अनिवार्यता

अनुबंध के सम्बन्ध में विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं में अनुबंध की वैधानिकता पर अधिक जोर दिया गया है। वैधानिक अनुबंध को अनुबंध अधिनियम की धारा 10 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है :-

Sec. 2 (h) or sec 10 के अनुसार एक (legal) valid contract में इन लक्षणों का होना आवश्यक है :-

1. समझौता: प्रत्येक अनुबंध के लिए समझौता होना आवश्यक है। Sec 2 (e) :- ‘‘प्रत्येक वचन अथवा वचनों का समूह जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल होते हैंए समझौता कहलाता है।’’ अत: समझौते के लिए वचन का होना आवश्यक है। Acc. to Sec. 2 (b) :- ‘‘प्रस्ताव स्वीकार होने पर वचन बन जाता है।’’ अत: वचन के लिए प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति आवश्यक है। प्रस्ताव की स्वीकृति निधाख्ररत ढंग से की जानी चाहिए तथा प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को दी जानी चाहिए।

2. पार्टियों की संविदात्मक क्षमता: अनुबंध में दोनों पक्षकारों में अनुबंध करने की योग्यता होनी चाहिए। कानून कभी व्यक्तियों को अनुबंध करने के योग्य मानता है :- यदि वह व्यस्क हैए स्वस्थ मस्तिष्क का है, सम्बन्धित कानून द्वारा अनुबंध करने के लिए अयोग्य घोषित न किया गया हो।

3. स्वतंत्र सहमति: एक वैध अनुबंध के लिए दो पक्षकारों के मध्य केवल सहमति ही आवश्यक नहीं है, बल्कि ऐसी सहमति का स्वतंत्रा होना भी आवश्यक है। स्वतंत्रा सहमति से तात्पर्य ऐसी सहमति से है जबकि दोनों पक्षकर एक बात पर एक ही भाव से सहमत हों। धारा 14 के अनुसार पक्षकारों की सहमति स्वतंत्रा मानी जाएगी यदि वह उत्पीड़न (Coercion) अनुचित प्रभाव (Under Influence) Fraud or Mistake के आधार पर प्राप्त न की गई हो।

4. वैध विचार : एक वैध अनुबंध में प्रतिफल का होना आवश्यक है तथा ऐसा प्रतिफल वैध होना चाहिए। प्रतिफल से तात्पर्य ‘बदले में कुछ’। बिना प्रतिफल के अनुबंध व्यर्थ होता है। इस प्रकार प्रतिफल भूतए वर्तमान व भावी हो सकता है।

5. अनुबंध का उद्देश्य - अनुबंध का उद्देश्य वैधानिक होना चाहिए। किसी अनुबंध का उद्देश्य वैधानिक नहीं माना जा सकता: यदि वह - (1) कानून द्वारा निषिद्ध है। (2) संविदें को लागू करने से किसी कानून का उल्लंघन होता है। (3) यह किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने वाला हो। (4) किसी को धोखा देने का अभिप्राय हो।

6. अनुबंध को स्पष्ट रूप से शून्य घोषित नहीं किया गया: अनुबंध अधिनियम में कुछ समझौतों को स्पष्ट रूप से घोषित किया गया है। ये समझौते Sec 26, 30, 56 में दिए गए हैं। इसमें मुख्य रूप से विवाह में रूकावट डालने वाले ठहराव, व्यापार में रूकावट डालने वाले ठहराव हैं।

7. कानूनी औपचारिकताएं: समझौते लिखित व मौखिक हो सकते हैं। यदि किसी विशेष अनुबंध का किसी अधिनियम के अन्तर्गत लिखित अथवा साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है। तो ऐसा अनुबंध तभी वैध माना जाएगा जब वह साक्ष्यी द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है तो ऐसा अनुबंध तभी वैध माना जाएगा जब वह साक्ष्यी द्वारा प्रमाणित हो। कुछ अनुबंध जैसे बीमे के अनुबंध व निर्णय ठहरावए विनियम साध्य लेखपत्र आदि को लिखित में होना अनिवार्य है। 
इस प्रकार एक वैधे अनुबंध में उपरोक्त सभी लक्षणों का होना आवश्यक है। यदि इनमें से कोई एक लक्षण नहीं पाया जाता है तो अनुबंध वैध नहीं होगा।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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