भारतीय लोक लेखा समिति के एक सदस्य ऐरा सेजीयन (Era Sezhiyan) ने समिति के 40 वें प्रतिवेदन
पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि प्रतिवेदनों में बीती घटनाओं से संबंधित आलोचनाओं
की बुद्धिमत्ता इस दृष्टि से परखी जानी चाहिए कि इनके द्वारा व्यवस्था की वास्तविक कमजोरियों
को उदघा्टित करके राष्ट्रीय हित के बड़े मुद्दों के प्रति ध्यान आकर्षित किया जाता है। भारत में
लोक लेखा समिति की करीब 90% सिफारिशों को सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है।
फलत: हर अगले वर्ष वित्तीय शासन के क्षेत्र में सुधार की संभावनाएं तो बनती ही हैं।
समिति की एक आम शिकायत यह है कि सरकार उसकी सिफारिशों को गंभीरता से नहीं लेती तथा इन्हें संसदीय लोकतंत्र में पूर्ण करने योग्य औपचारिक मात्र मान लिया जाता है। जब कभी कोई अनियमितता बतलायी जाती है तो सरकार इसके लिए एक दूसरी समिति गठित कर देती है जो प्राय: विभागीय प्रकृति की होती है, न्यायिक स्वरूप वाली नहीं होती। ऐसी समितियाँ प्राय: लीपा-पोती के अलावा और कुछ नहीं करतीं तथा वे मंत्रालयों के कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने के प्रसास में लगी रहती हैं।
लोक लेखा समिति सरकारी विभागों तथा विभिन्न निगम मंडलों के काम-काज के बारे में लेखा परीक्षक के प्रतिवेदन के आधार पर सिफारिशें करती हैं, उससे काम-काज को अधिक सुचारू करने के अलावा भ्रष्टाचार, अपव्यय और नौकरशाही के अनियन्त्रित तरीकों पर रोक लग सकती है। लेकिन अफसोस यह है कि सरकार इस बारे में ध्यान नहीं देती और न ही प्रतिवेदनों पर कार्यवाही करती है। इसके कारण मनमानी चलती है और सरकारी धन के व्यय के प्रति कोई गंभीर नहीं होता।
यद्यपि समिति के पास अपनी सिफारिशें लागू करवाने की कोई सत्ता नहीं होती तथापि इस अर्थ में उसकी सेवाएं महत्वपूर्ण हैं कि वह प्रशासन के दोषों को जनता के समक्ष प्रकट करती है तथा अधिकारियों को इस बात के लिए सचेष्ट रखती है कि उनकी लापरवाही अथवा भ्रष्ट आचरण की सूक्ष्म जांच करने वाली वैधानिक इकाई निरन्तर उनके कार्यों पर नजर रखे रहती है। इसके अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति अतिरिक्त इस समिति के मंच पर प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति मंच पर एकत्रित होकर जिस उच्च स्तर पर विचार-विमर्श करते हैं, उससे पूरे वित्तीय प्रशासन तंत्र में सतत् सुधार तथा निखार की संभावनाएँ बलवती बनती हैं। इस दृष्टि से लोक लेखा समिति को संसदीय वित्त नियंत्रण का एक सशक्त माध्यम माना जा सकता है। इसमें विशेषज्ञ भले ही न हों, उसके विचार-विमर्श में चाहे राजनीतिक रंगत ही क्यों न दिखायी दे तथापि यह संसदीय तंत्र का एक ऐसा अंग है जो प्रशासन तंत्र को आर्थिक कुशलता की ओर अग्रसर करने के लिए दिशा स्तम्भ की भूमिका निरन्तर निभाती रहती है।
“लोक लेखा समिति में यद्यापि सभी दलों के सदस्य होते हैं किन्तु इस समिति ने सदा एक मत से प्रतिवेदन प्रस्तुत किए हैं तथा सभी मामलों पर निष्पक्षता से विचार किया है।” “समिति द्वारा व्यय तथा प्रशासनिक त्रुटियों की जाँच पड़ताल का काफी प्रभाव पड़ता है तथा इससे सरकारी विभागों में अकार्यकुशलता, लापरवाही जैसे दोष नहीं आ पाते। सरकारी धनराशि को खर्च करते समय प्रशासन सावधानी बरतता है तथा प्रशासनिक कार्यवाही में कार्यकुशलता बनी रहती है।”
इस घोषणा के साथ प्रारम्भ में लोकसभा के 25 सदस्यों की एक समिति चुनी गयी किन्तु 1956 से इसकी सदस्य संख्या 30 कर दी गयी। यहाँ यह याद रखना उचित होगा कि अनुमान समिति में वास्तव में स्थायी वित्त समिति की प्रतिस्थापक समिति अथवा उसी का सुधरा रूप नहीं है। ये दोनों समितियाँ 1952 तक साथ-साथ काम करती रहीं। किन्तु 1952 में स्थायी वित्त तथा स्थायी सलाहकार समितियों को समाप्त कर दिया गया है।
समिति का अध्यक्ष लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा मानोनीत किया जाता है किन्तु यदि लोकसभा का उपाध्यक्ष इस समिति में चुना जाता है तो फिर यही समिति का अध्यक्ष भी चुना जाता है। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल का कोई वरिष्ठ सदस्य इस पद पर चुना जाता है और व्यवहार में लोकसभा अध्यक्ष के स्थान पर सत्तारूढ़ दल के संसदीय बोर्ड अथवा संसदीय मामलों के मंत्री से दिशा-निर्देशित होता है। भारत में अनुमान समिति के अध्यक्ष की आंख प्राय: मंत्री पद पर लगी रहती है और इस कारण उसके व्यवहार में निष्पक्ष दृष्टिकोण का अभाव पाए जाने की संभावना रहती है।
संसदीय कार्यवाही नियमन नियम संख्या 310 से 312 में अनुमान समिति के कार्यक्षेत्र का विवेचन किया जाता है। पूर्व में इस समिति को बतलाना होता था कि “अनुमानों को निर्धारित करने की नीति को ध्यान में रखते हुए इनमें क्या मितव्ययिताएं लागू की जा सकती है?” किन्तु अक्टूबर, 1956 में किए गए व्यापक संशोधनों के बाद इस समिति का कार्यक्षेत्र काफी व्यापक कर दिया गया है। नए प्रावधानों के अनुसार समिति को यह प्रतिवेदन देना होता है कि “सरकारी नीति संगतता के आधार पर तैयार किए गए अनुमानों में क्या मितव्ययिताएं संगठनात्मक सुधार, कुशलता या प्रशासनिक सुधार लागू किए जा सकते हैं, प्रशासन में मितव्ययिता तथा कुशलता लाने के लिए क्या नीति विकल्प हो सकते हैं तथा यह जांच करना कि किस हद तक नीति के अनुरूप तैयार किए गए अनुमानों के लिए मौद्रिक प्रावधान सही ढंग से किए गए हैं।” इस संशोधित कार्य-प्रणाली नियमन के अनुसार अनुमान समिति के कार्यों का सार निम्नांकित शीर्षों में दिखाया जा सकता है :
अपनी बैठकों में विभागीय अधिकारियों से स्पष्टीकरण प्राप्त करने के अलावा संबंधित मंत्रालयों अथवा विभागों को समिति द्वारा तैयार कर भिजवायी गयी प्रश्नावली भी भरकर भेजनी होती है। इस परिपत्र में अपने विभाग के लिए तैयार किए गए अनुमानों के संदर्भ में मुख्यतया निम्न सूचनाएं देनी पड़ती हैं :
समिति ने अपने 26वें प्रतिवेदन में सुरक्षा मंत्रालय तथा सुरक्षा सेना के प्रमुख कार्यालय के मध्य त्वरित निर्णय प्रक्रिया लागू करने का सुझाव दिया जो कालान्तर में अत्यधिक उपयोगी साबित हुआ। सुरक्षा सेना मंत्रालयों को अधिक अधिकार देने की समिति की पैरवी वस्तुत: एक रचनात्मक दिशा-निर्देशन का प्रतीक मानी जा सकती है। इसके अलावा समिति ने भारतीय नियोजन में बढ़ते गैर-योजना व्यय को कम करने, नागरिक पायलटों के प्रशिक्षण तथा रोजगार, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की कार्मिक सेवा नीतियों जैसे अनेक छोटे-बड़े मुद्दों पर अपने विचार दिए हैं। चाहे विदेशी विनिमय के सदुपयोग का सवाल हो या ग्रामीण गृह निर्माण योजना को प्रभावशाली बनाने की समस्या हो या किसी विशिष्ट शोध संस्थान को सुदृढ़ करने की पेचदगी हो, अनुमान समिति निरन्तर अपने गहन अध्ययन के आधार पर महत्वपूर्ण सुझाव देती रही है।
द्वितीय लोकसभा के समय समिति का सबसे महत्वपूर्ण किन्तु विवादास्पद प्रतिवेदन ‘योजना आयोग’ के बाबत था। समिति ने योजना आयोग को एक सलाहकार संस्था के रूप में मानकर उसमें अनावश्यक रूप से मंत्रियों की नियुक्ति का विरोध किया। इस संस्था को योजना मूल्यांकन तथा निर्माण के पूर्णकालीन कार्य में लगाए रखने के लिए यह जरूरी है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इसका विशिष्ट आस्तित्व बना रहे। यद्यपि प्रारम्भ में सरकार ने नाराज होकर 33 में से केवल 7 सिफारिशें मानी, किन्तु समिति के इस प्रतिवेदन से भारतीय नियोजन को एक नयी दिशा मिली इसमें कोई शक नहीं है।
वर्ष 1950-51 में अनुमान समिति ने भारत सरकार के सचिवालय और विभागों के पुनर्गठन के बारे में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। वर्ष 1953-54 में समिति ने प्रशासनिक, वित्तीय तथा अन्य सुधारों संबंधी प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। वर्ष 1962-63 में समिति ने सुझाव दिया था कि विद्युत चालित करघा उद्योग के विकास के लिए एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता है। वर्ष 1967- 68 में ‘विदेशी मुद्रा’ संबंधित प्रतिवेदन में समिति ने विदेशी मुद्रा की गंभीर स्थिति के कारण योजना आयोग, वित्त मंत्रालय, वाणिज्य एवं औद्योगिक विकास मंत्रालय के बीच तालमेल की कमी बताया। 1965-66 में समिति ने कहा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को उन विश्वविद्यालयों को अनुदान देने में सख्ती बरतनी चाहिए, जो आयोग की अनुमति के बिना स्थापित किए गए हैं। 1972-73 के अपने प्रतिवेदन में सरकारी क्षेत्र के उर्वरक कारखानों द्वारा अधिष्ठापित क्षमता से कम उत्पादन करने के लिए उनकी आलोचना करते हुए समिति ने इच्छा व्यक्त की कि सरकार को इसके कारणों का पता लगाना चाहिए।
लोक व्यय पर संसदीय नियन्त्रण के व्यापक लक्ष्य की पूर्ति के लिए अनुमान समिति द्वारा किए गए इन महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद भी यह समिति कतिपय रचनात्मक आलोचनाओं से स्वयं को नहीं बचा पायी है। भारत के भूतपूर्व नियंत्रक तथा महा लेखापरीक्षक श्री अशोक चन्दा ने समिति की निम्न आधारों पर आलोचना की है :
इन अलोचनाओं में सत्य का अंश होते हुए भी यह कहना उचित होगा कि समिति निरन्तर मितव्ययिता बरतने योग्य क्षेत्रों की खोजबीन में लगी रहती हैं। यह अपने जांच प्रतिवेदनों के माध्यम से संसद तथा आम जनता को सरकारी क्रियाकलापों से संबद्ध महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध कराती है। कभी-कभी ये सूचनाएं व्यापक जनमत को जाग्रत करने का इतना महत्वपूर्ण कार्य करती हैं कि सरकार को समिति की सिफारिशों के समक्ष झुकना पड़ता है। एन- जोन्सन समिति की महत्ता की चर्चा करते हुए ठीक ही कहते हैं कि, “यद्यपि खुले रूप में उपेक्षित होने के बावजूद भी अनुमान समिति के कार्य सरकारी क्रियाकलापों को स्पष्ट करने तथा उन्हें आम चर्चा का विषय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यह वास्तव में एक स्थायी महत्व का राजनीतिक कार्य माना जा सकता है।”
यह समिति एक और मंच उपलब्ध कराती है जहां प्रशासक तथा लोक प्रतिनिधि मिलकर जनतंत्रीय शासन प्रणाली में लोक सत्ता की प्रभुता के सिद्धान्त की की महत्ता को मूर्त रूप प्रदान करते हैं और इसी अर्थ में अनुमान समिति संसदीय शासन व्यवस्था का प्रभावशाली वित्त नियंत्रण तंत्र मानी जाती है। यह संतोष की बात है कि सरकार ने समिति की 70 से 80 प्रतिशत सिफारिशें स्वीकार की हैं।
समिति की एक आम शिकायत यह है कि सरकार उसकी सिफारिशों को गंभीरता से नहीं लेती तथा इन्हें संसदीय लोकतंत्र में पूर्ण करने योग्य औपचारिक मात्र मान लिया जाता है। जब कभी कोई अनियमितता बतलायी जाती है तो सरकार इसके लिए एक दूसरी समिति गठित कर देती है जो प्राय: विभागीय प्रकृति की होती है, न्यायिक स्वरूप वाली नहीं होती। ऐसी समितियाँ प्राय: लीपा-पोती के अलावा और कुछ नहीं करतीं तथा वे मंत्रालयों के कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने के प्रसास में लगी रहती हैं।
लोक लेखा समिति सरकारी विभागों तथा विभिन्न निगम मंडलों के काम-काज के बारे में लेखा परीक्षक के प्रतिवेदन के आधार पर सिफारिशें करती हैं, उससे काम-काज को अधिक सुचारू करने के अलावा भ्रष्टाचार, अपव्यय और नौकरशाही के अनियन्त्रित तरीकों पर रोक लग सकती है। लेकिन अफसोस यह है कि सरकार इस बारे में ध्यान नहीं देती और न ही प्रतिवेदनों पर कार्यवाही करती है। इसके कारण मनमानी चलती है और सरकारी धन के व्यय के प्रति कोई गंभीर नहीं होता।
यद्यपि समिति के पास अपनी सिफारिशें लागू करवाने की कोई सत्ता नहीं होती तथापि इस अर्थ में उसकी सेवाएं महत्वपूर्ण हैं कि वह प्रशासन के दोषों को जनता के समक्ष प्रकट करती है तथा अधिकारियों को इस बात के लिए सचेष्ट रखती है कि उनकी लापरवाही अथवा भ्रष्ट आचरण की सूक्ष्म जांच करने वाली वैधानिक इकाई निरन्तर उनके कार्यों पर नजर रखे रहती है। इसके अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति अतिरिक्त इस समिति के मंच पर प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति मंच पर एकत्रित होकर जिस उच्च स्तर पर विचार-विमर्श करते हैं, उससे पूरे वित्तीय प्रशासन तंत्र में सतत् सुधार तथा निखार की संभावनाएँ बलवती बनती हैं। इस दृष्टि से लोक लेखा समिति को संसदीय वित्त नियंत्रण का एक सशक्त माध्यम माना जा सकता है। इसमें विशेषज्ञ भले ही न हों, उसके विचार-विमर्श में चाहे राजनीतिक रंगत ही क्यों न दिखायी दे तथापि यह संसदीय तंत्र का एक ऐसा अंग है जो प्रशासन तंत्र को आर्थिक कुशलता की ओर अग्रसर करने के लिए दिशा स्तम्भ की भूमिका निरन्तर निभाती रहती है।
“लोक लेखा समिति में यद्यापि सभी दलों के सदस्य होते हैं किन्तु इस समिति ने सदा एक मत से प्रतिवेदन प्रस्तुत किए हैं तथा सभी मामलों पर निष्पक्षता से विचार किया है।” “समिति द्वारा व्यय तथा प्रशासनिक त्रुटियों की जाँच पड़ताल का काफी प्रभाव पड़ता है तथा इससे सरकारी विभागों में अकार्यकुशलता, लापरवाही जैसे दोष नहीं आ पाते। सरकारी धनराशि को खर्च करते समय प्रशासन सावधानी बरतता है तथा प्रशासनिक कार्यवाही में कार्यकुशलता बनी रहती है।”
अनुमान समिति या प्राक्कलन समिति
ब्रिटेन में 1912 से कोई 20 से 30 सदस्यों की एक अनुमान समिति कार्य करती रही है जबकि भारत में 1937 में श्री एस- सत्यमूर्ति ने केन्द्रीय विधान मंडल में एक अल्पकालीन सूचना के माध्यम से इस समिति की स्थापना की मांग की थी। लेकिन इस समिति की स्थापना स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात 10 अप्रैल, 1950 को ही करना संभव हो सका। इस समिति की स्थापना की घोषणा करते हुए तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष श्री मावलंकर ने कहा था कि भारतीय संविधान की धारा 116 के प्रावधान के अनुसार, “कार्यपालिका के व्यय पर सदन के बेहतर नियंत्रण के लिए अनुमान समिति की स्थापना की आवश्यकता महसूस की जाती थी। इसलिए निम्न समिति की समिति के समान एक स्वतंत्र समिति की स्थापना की जा रही है।”इस घोषणा के साथ प्रारम्भ में लोकसभा के 25 सदस्यों की एक समिति चुनी गयी किन्तु 1956 से इसकी सदस्य संख्या 30 कर दी गयी। यहाँ यह याद रखना उचित होगा कि अनुमान समिति में वास्तव में स्थायी वित्त समिति की प्रतिस्थापक समिति अथवा उसी का सुधरा रूप नहीं है। ये दोनों समितियाँ 1952 तक साथ-साथ काम करती रहीं। किन्तु 1952 में स्थायी वित्त तथा स्थायी सलाहकार समितियों को समाप्त कर दिया गया है।
अनुमान समिति का संगठन एवं स्वरूप
लोक लेखा की भांति अनुमान समिति भी लोकसभा की ही समिति है जिसके सदस्य एकल संक्रमणीय पद्धति के आधार पर प्रतिवर्ष चुने जाते हैं। इस समिति में लोकसभा के 30 सदस्य होते हैं। लोक लेखा समिति और सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति के समान राज्य सभा के सदस्य इसके साथ सहयोजित नहीं किए जाते। इस समिति में भी राजनीतिक दलों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिलता है। समिति के सदस्यों का चुनाव पूर्व के वर्ष की समिति के अध्यक्ष के प्रस्ताव के आधार पर लोकसभा द्वारा किया जाता है। प्रत्येक वर्ष मई माह में समिति का कार्यकाल प्रारम्भ होता है तथा अगले वर्ष 30 अप्रैल को समाप्त हो जाता है। 1956-57 से प्रचलित परम्परा के अनुरूप प्रतिवर्ष समिति के एक-तिहाई सदस्य नये चुने जाते हैं तथा बाकी दो-तिहाई अगले वर्ष के लिए पुन: चुन लिए जाते हैं। इस परम्परा से अनुभवी सदस्यों के अनुभव का इस समिति को निरन्तर लाभ मिलता रहता है।समिति का अध्यक्ष लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा मानोनीत किया जाता है किन्तु यदि लोकसभा का उपाध्यक्ष इस समिति में चुना जाता है तो फिर यही समिति का अध्यक्ष भी चुना जाता है। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल का कोई वरिष्ठ सदस्य इस पद पर चुना जाता है और व्यवहार में लोकसभा अध्यक्ष के स्थान पर सत्तारूढ़ दल के संसदीय बोर्ड अथवा संसदीय मामलों के मंत्री से दिशा-निर्देशित होता है। भारत में अनुमान समिति के अध्यक्ष की आंख प्राय: मंत्री पद पर लगी रहती है और इस कारण उसके व्यवहार में निष्पक्ष दृष्टिकोण का अभाव पाए जाने की संभावना रहती है।
अनुमान समिति के कार्य एवं अधिकार
अनुमान समिति के नाम से ऐसा लगता है, मानो बजट अनुमानों से कोई इसका सीधा वास्ता हो। किन्तु इसके विपरीत, अनुमान समिति सरकारी व्यय में मित्तव्ययिता लाने के लिए रचनात्मक सुझाव देने वाली एक सतत् संस्था के रूप में अधिक महत्वपूर्ण रही है। इसका कार्य सामान्य वित्तीय प्रक्रिया से बाहर है अर्थात् बजट प्रावधानों पर संसदीय मतदान के पूर्व इस समिति के द्वारा बजट अनुमानों की जाँच नहीं की जाती।संसदीय कार्यवाही नियमन नियम संख्या 310 से 312 में अनुमान समिति के कार्यक्षेत्र का विवेचन किया जाता है। पूर्व में इस समिति को बतलाना होता था कि “अनुमानों को निर्धारित करने की नीति को ध्यान में रखते हुए इनमें क्या मितव्ययिताएं लागू की जा सकती है?” किन्तु अक्टूबर, 1956 में किए गए व्यापक संशोधनों के बाद इस समिति का कार्यक्षेत्र काफी व्यापक कर दिया गया है। नए प्रावधानों के अनुसार समिति को यह प्रतिवेदन देना होता है कि “सरकारी नीति संगतता के आधार पर तैयार किए गए अनुमानों में क्या मितव्ययिताएं संगठनात्मक सुधार, कुशलता या प्रशासनिक सुधार लागू किए जा सकते हैं, प्रशासन में मितव्ययिता तथा कुशलता लाने के लिए क्या नीति विकल्प हो सकते हैं तथा यह जांच करना कि किस हद तक नीति के अनुरूप तैयार किए गए अनुमानों के लिए मौद्रिक प्रावधान सही ढंग से किए गए हैं।” इस संशोधित कार्य-प्रणाली नियमन के अनुसार अनुमान समिति के कार्यों का सार निम्नांकित शीर्षों में दिखाया जा सकता है :
- सरकारी नीति के अनुरूप तैयार किए गए अनुमानों में मितव्ययिता लाने के उपाय-प्रशासनिक तथा संगठनात्मक-सुझाव;
- संसद के समक्ष बजट अनुमानों के प्रस्तुतीकरण को बेहतर ढंग विकसित करने के लिए सुझाव देना;
- कुशलता तथा मितव्ययिता के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये वैकल्पिक नीतियों को सुझाव देना; तथा
- अनुमानों में सन्निहित नीति के अनुरूप मौद्रिक प्रावधानों के औचित्य की जांच।
अनुमान समिति की कार्य-प्रणाली
प्रतिवर्ष समिति द्वारा कुछेक मंत्रालयों को अपने विशिष्ट अध्ययन के लिए चुन लिया जाता है तथा जुलाई माह से जांच कार्यवाही प्रारम्भ कर दी जाती है। मंत्रालयों के चुनाव का दिशा-निर्देशन करते हुए 1958 में लोकसभा अध्यक्ष ने कहा था कि, “प्रत्येक लोकसभा के जीवन-काल में, जहां तक संभव हो, हर मंत्रालय के महत्वपूर्ण बजट अनुमानों की जांच का एक दौर पूरा किया जाना चाहिए।” अपनी इच्छा के चयन किए गए मंत्रालयों/विभागों के बजट अनुमानों की जांच के अलावा भी लोकसभा अध्यक्ष द्वारा सुझाए किसी और विषय को भी बीच में ही अध्ययन के लिए समिति द्वारा चुना जा सकता है। विषयों के चयन के पश्चात् समिति छोटे-छोटे अध्ययन दलों में बंटकर अलग-अलग विभागों की जांच का कार्य काफी सूक्ष्मता से प्रारम्भ करती है। अपनी जांच तथा अध्ययन के लिए वह निम्न स्रोतो से सामग्री एकत्रित कर सकती है -- प्रशासनिक स्रोत,
- प्रकाशित सामग्री,
- निजी संस्थाएं,
- अध्ययन दल भेजकर,
- सरकारी गवाही द्वारा,
- मौखिक गवाही द्वारा,
- गैर-सरकारी गवाही द्वारा।
अपनी बैठकों में विभागीय अधिकारियों से स्पष्टीकरण प्राप्त करने के अलावा संबंधित मंत्रालयों अथवा विभागों को समिति द्वारा तैयार कर भिजवायी गयी प्रश्नावली भी भरकर भेजनी होती है। इस परिपत्र में अपने विभाग के लिए तैयार किए गए अनुमानों के संदर्भ में मुख्यतया निम्न सूचनाएं देनी पड़ती हैं :
- मंत्रालय तथा उससे जुड़े एवं नीचे के कार्यालयों का संगठन तथा कार्य;
- उन आधारों का विस्तृत ब्यौरा, जिन पर अनुमान की तैयारी निर्भर करती हो;
- मंत्रालय का कोई प्रतिवेदन जो अपने कार्यों के बारे में जारी किया हो;
- मंत्रालय में कार्य की मात्रा जो वित्तीय अनुमानों की अवधि में पूरी की जानी है तथा पिछले तीन वर्षों का तुलनात्मक विवरण;
- योजनाएं जो मंत्रालय प्रारम्भ करने या क्रियान्वयन करने जा रहा हो;
- पिछले तीन वर्षों के दौरान का वर्तमान अनुमानों में शामिल उप-शीर्षवार वास्तविक खर्च का ब्यौरा;
- वर्तमान वर्ष तथा पिछले वर्ष के खर्च ब्यौरे में अन्तर के कारण।
अनुमान समिति का प्रतिवेदन
सर्वप्रथम समिति के उप-समूहों (Sub-groups) या अध्ययन दलों द्वारा विचार-विमर्श तथा एकत्रित सामग्री के अध्ययन के आधार पर कुछ खास बिन्दु अपनी ओर से प्रतिवेदन में शामिल करवाने के उद्देश्य से तैयार किए जाते हैं। सभी समूहों के द्वारा उभारे गए बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में सचिवालय द्वारा समिति की ओर से प्रतिवेदन तैयार किया जाता है तथा अध्यक्ष की स्वीकृति के लिए पेश किया जाता है। अध्यक्ष की स्वीकृति के पश्चात् प्रतिवेदन को तथ्यात्मक पुष्टि हेतु संबंधित विभाग या मंत्रालय को गोपनीय बनाए रखते हुए भेजा जाता है। मंत्रालय से पुष्टि होने के बाद समिति का प्रतिवेदन मुख्यतया तीन भागों में विभाजित कर अन्तिम रूप से तैयार कर लिया जाता है:- मितव्ययिता लागू करने हेतु सुझाव;
- संगठनात्मक तथा कार्यात्मक सुधार हेतु सुझाव;
- अन्य सुझाव।
अनुमान समिति के कार्यों की समीक्षा
भारत में अनुमान समिति का कार्य बहुत व्यापक है। जहां एक ओर उसने केन्द्रीय सचिवालय अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति विभागों के पुनर्गठन के लिए (दूसरी रिपोर्ट) अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया, वहां दूसरी तरफ दामोदर घाटी योजना, हीराकुण्ड योजना, भाखड़ा नांगल योजना तथा ककरापारा योजना जैसे बहु-उद्देशीय योजनाओं के कार्य संचालन में प्रशासनिक कमियों को उजागर करने में महती भूमिका निभाती है। (116वां प्रतिवेदन)। प्रथम 7 वर्षों में समिति द्वारा 57 प्रतिवेदन लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत किए गए।समिति ने अपने 26वें प्रतिवेदन में सुरक्षा मंत्रालय तथा सुरक्षा सेना के प्रमुख कार्यालय के मध्य त्वरित निर्णय प्रक्रिया लागू करने का सुझाव दिया जो कालान्तर में अत्यधिक उपयोगी साबित हुआ। सुरक्षा सेना मंत्रालयों को अधिक अधिकार देने की समिति की पैरवी वस्तुत: एक रचनात्मक दिशा-निर्देशन का प्रतीक मानी जा सकती है। इसके अलावा समिति ने भारतीय नियोजन में बढ़ते गैर-योजना व्यय को कम करने, नागरिक पायलटों के प्रशिक्षण तथा रोजगार, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की कार्मिक सेवा नीतियों जैसे अनेक छोटे-बड़े मुद्दों पर अपने विचार दिए हैं। चाहे विदेशी विनिमय के सदुपयोग का सवाल हो या ग्रामीण गृह निर्माण योजना को प्रभावशाली बनाने की समस्या हो या किसी विशिष्ट शोध संस्थान को सुदृढ़ करने की पेचदगी हो, अनुमान समिति निरन्तर अपने गहन अध्ययन के आधार पर महत्वपूर्ण सुझाव देती रही है।
द्वितीय लोकसभा के समय समिति का सबसे महत्वपूर्ण किन्तु विवादास्पद प्रतिवेदन ‘योजना आयोग’ के बाबत था। समिति ने योजना आयोग को एक सलाहकार संस्था के रूप में मानकर उसमें अनावश्यक रूप से मंत्रियों की नियुक्ति का विरोध किया। इस संस्था को योजना मूल्यांकन तथा निर्माण के पूर्णकालीन कार्य में लगाए रखने के लिए यह जरूरी है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इसका विशिष्ट आस्तित्व बना रहे। यद्यपि प्रारम्भ में सरकार ने नाराज होकर 33 में से केवल 7 सिफारिशें मानी, किन्तु समिति के इस प्रतिवेदन से भारतीय नियोजन को एक नयी दिशा मिली इसमें कोई शक नहीं है।
वर्ष 1950-51 में अनुमान समिति ने भारत सरकार के सचिवालय और विभागों के पुनर्गठन के बारे में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। वर्ष 1953-54 में समिति ने प्रशासनिक, वित्तीय तथा अन्य सुधारों संबंधी प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। वर्ष 1962-63 में समिति ने सुझाव दिया था कि विद्युत चालित करघा उद्योग के विकास के लिए एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता है। वर्ष 1967- 68 में ‘विदेशी मुद्रा’ संबंधित प्रतिवेदन में समिति ने विदेशी मुद्रा की गंभीर स्थिति के कारण योजना आयोग, वित्त मंत्रालय, वाणिज्य एवं औद्योगिक विकास मंत्रालय के बीच तालमेल की कमी बताया। 1965-66 में समिति ने कहा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को उन विश्वविद्यालयों को अनुदान देने में सख्ती बरतनी चाहिए, जो आयोग की अनुमति के बिना स्थापित किए गए हैं। 1972-73 के अपने प्रतिवेदन में सरकारी क्षेत्र के उर्वरक कारखानों द्वारा अधिष्ठापित क्षमता से कम उत्पादन करने के लिए उनकी आलोचना करते हुए समिति ने इच्छा व्यक्त की कि सरकार को इसके कारणों का पता लगाना चाहिए।
लोक व्यय पर संसदीय नियन्त्रण के व्यापक लक्ष्य की पूर्ति के लिए अनुमान समिति द्वारा किए गए इन महत्वपूर्ण प्रयासों के बावजूद भी यह समिति कतिपय रचनात्मक आलोचनाओं से स्वयं को नहीं बचा पायी है। भारत के भूतपूर्व नियंत्रक तथा महा लेखापरीक्षक श्री अशोक चन्दा ने समिति की निम्न आधारों पर आलोचना की है :
- समिति द्वारा प्राय: संगठनात्मक सुधार तथा कार्यों के पुनर्वितरण के लिए सुझाव दिए जाते हैं जिनका प्रचार महत्व अधिक होता है। सरकार ऐसी अधिकांश सिफारिशों को अस्वीकृत करने को मजबूर होती है जिससे सरकार तथा समिति दोनों की इज्जत को ठेस पहुंचती है।
- चूँकि समिति सरकारी नीतियों के मूल्यांकन तथा विभागीय पुनर्गठन के बाबत मुद्दों पर अपनी शक्ति खर्च करने लगी है, फलत: अनुमानों की जांच का उसका प्रमुख कार्य पृष्ठभूमि में रह गया लगता है।
- समिति के कार्य करने का ढंग तथ्यों को खेजने की मंशा के अनुरूप नहीं है। “समिति संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित कांगे्रस की समितियों के अनुरूप व्यवहार को ग्रहण करती जा रही है और तथ्यान्वेषी तंत्र के स्थान पर छिद्रान्वेषी तंत्र बनती जा रही है।”
- समिति स्वयं को उस भूमिका की ओर ले जा रही है जो वास्तव में संवैधानिक तौर पर लोकसभा को प्राप्त है।
इन अलोचनाओं में सत्य का अंश होते हुए भी यह कहना उचित होगा कि समिति निरन्तर मितव्ययिता बरतने योग्य क्षेत्रों की खोजबीन में लगी रहती हैं। यह अपने जांच प्रतिवेदनों के माध्यम से संसद तथा आम जनता को सरकारी क्रियाकलापों से संबद्ध महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध कराती है। कभी-कभी ये सूचनाएं व्यापक जनमत को जाग्रत करने का इतना महत्वपूर्ण कार्य करती हैं कि सरकार को समिति की सिफारिशों के समक्ष झुकना पड़ता है। एन- जोन्सन समिति की महत्ता की चर्चा करते हुए ठीक ही कहते हैं कि, “यद्यपि खुले रूप में उपेक्षित होने के बावजूद भी अनुमान समिति के कार्य सरकारी क्रियाकलापों को स्पष्ट करने तथा उन्हें आम चर्चा का विषय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यह वास्तव में एक स्थायी महत्व का राजनीतिक कार्य माना जा सकता है।”
यह समिति एक और मंच उपलब्ध कराती है जहां प्रशासक तथा लोक प्रतिनिधि मिलकर जनतंत्रीय शासन प्रणाली में लोक सत्ता की प्रभुता के सिद्धान्त की की महत्ता को मूर्त रूप प्रदान करते हैं और इसी अर्थ में अनुमान समिति संसदीय शासन व्यवस्था का प्रभावशाली वित्त नियंत्रण तंत्र मानी जाती है। यह संतोष की बात है कि सरकार ने समिति की 70 से 80 प्रतिशत सिफारिशें स्वीकार की हैं।