भारत में गरीबी के कारण, गरीबी हटाने के लिए मुख्य रूप से इन उपाय को अपनाना श्रेयस्कर होगा

भारत में गरीबी के क्या कारण हैं

जब समाज का एक भाग न्यूनतम जीवन स्तर से भी नीचे जीवन यापन के लिए विवश होते है तो यह स्थिति गरीबी की स्थिति कहलाती है। विश्व के सभी देशों में गरीबी को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। आय के स्तर पर विचार किए बिना यदि किसी परिवार में इस आधारिक सुविधाओं की कमी रहती है तो उस परिवार को गरीब माना जाता है।

गरीबी की परिभाषा

1. विद्वानो ने गरीबी को निम्न प्रकार परिभाषित किया है- राउन्ट्री ने लिखा है कि “गरीबी जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये किये गये न्यूनतम व्यय से सम्बन्धित है, जिसमें भोजन, कपड़ा, मकान, घर का किराया, ईंधन आदि सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमत शामिल है।”

2. डैमियन किल्लेन ने गरीबी की स्थिति को बहुत स्पष्ट रूप में व्यक्त किया है। इनके अनुसार गरीबी भूख है, गरीबी बीमार होना है और डाॅक्टर को न दिखा पाने की विवषता है। यह स्कूल में न जा पाने और निरक्षर रह जाने का नाम है।

3. प्रो0 अर्मत्य सेन के अनुसार, गरीबी निरपेक्ष वंचित की तुलना में सापेक्षिक अभाव को बताती है। सेन का मानना है कि सामान्यतः भुखमरी गरीबी को ही दर्शाती है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि व्यापक रूप में गरीबी होने पर भुखमरी भी गम्भीर अवस्था में हो।

बाईसब्रान्ड के अनुसार गरीबी मुख्यतः अपर्याप्त भोजन, कपड़ा और रहने की समस्या से सम्बन्धित है।

गरीबी का माप

विश्व बैंक गरीबी का अनुमान लगाने के लिए गरीबी रेखा का अनुमान लगाता है। विश्व बैंक 2011 की कीमत के अनुसार गरीबी रेखा के $ 1.90 प्रति दिन मान कर चलता है। जिस व्यक्ति को खर्च करने के लिए प्रतिदिन $ 1.90 नहीं मिलते है उसको गरीब माना जाता है परन्तु हमारे पास गरीबी की कई सारी अवधारणा है। अर्थशास्त्री पूर्ण निर्धनता की बात करने है। पूर्ण निर्धनता में वे सभी लोग है जिनकी न्यूनतम जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही है उनकी संख्या जानने के लिए लोगों की कुल संख्या ली जाती है जो वास्तविक आय के न्यूनतम स्तर से नीचे रह रहे है। ये लोग किसी भी शहर या देश में होते है।

गरीबी के कारण

1. व्यक्तिगत कारण- गरीबी के कारणों में एक कारण व्यक्तिगत कारण है। व्यक्तिगत कारण से तात्पर्य परिवार के कुछ व्यक्तिगत कारण जैसे- परिवार मुखिया का कुछ गंभीर बीमारियों से ग्रसित होना जो कि परिवार की आर्थिक स्थिति की और अधिक स्तर पर गिरा देता है क्योंकि जो भी पैसा कमाया जाता है वह उसकी बीमारी पर खर्च हो जाने के कारण बच्चों के पालन-पोषण तथा उनके आहार पर ध्यान नहीं दिया जा पाता है जिससे बच्चों का विकास प्रभावित होता है। 

2. जैविक कारक- जैविक कारकों में जन्म दर पर नियंत्रण की कमी, बढ़ती हुई सदस्य संख्या आदि कारणों से पूरा परिवार गरीबी की समस्या से लड़ता है परिवार का पालन-पोषण करने के लिए पूरे परिवार को मजदूरी के काम पर जाना पड़ता है। 

3. शिक्षा- परिवार के मुखिया का अशिक्षित होना गरीबी को बढ़ावा देने का मुख्य कारण है क्योंकि अशिक्षित होने के कारण उन्हें उनकी मेहनत का पूरा मेहनताना नहीं मिल पाता है और जो उनके मालिक होते हैं वे उन्हें ज्यादा पैसे पर रखकर उन्हें कम पैसे देते हैं जिससे उसके पूरे परिवार का भरण-पोषण ठीक से नहीं हो पाता है। पैसे की कमी के कारण गरीब परिवार के बच्चों को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिलता है। गरीब माता-पिता आर्थिक रूप से इतने पिछड़े होते हैं कि वे अपने बच्चों को शिक्षा देने में सक्षम नहीं होते है। दूसरी बात यह है कि वे अपने बच्चों को पैसे कमाने के लालच से मजदूरी करने में लगा देते हैं। 

4. आर्थिक कारक- निर्धनता और गरीबी का मूल कारण आर्थिक असमानता है। भारत में औद्योगीकरण का अभाव, कृषि क्षेत्र में उन्नति की कमी, कृषकों में खेती के नवीन तरीकों की उपेक्षा, शिक्षा के अभाव में सरकारी या गैर-सरकारी नौकरी के अवसरों का अभाव आदि कारणों से आर्थिक स्थितियों और खराब हो गयी है। 

5. सामाजिक कारक- गरीबी के सामाजिक कारणों में जाति व्यवस्था, वर्ग-व्यवस्था, धार्मिक विष्वास आदि मुख्य हैं। जाति व्यवस्था के कठोर विश्वास के कारण कुछ लोग अपना परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर दूसरे लाभप्रद व्यवसाय को अपनाने के लिए तैयार नहीं है उनकी सोच आज भी बहुत पुरानी है जिसके कारण उनकों और उनके परिवार के बाकी सदस्यों को परेषानीयांे का सामना करना पड़ रहा है और परिवार की गरीबी से बालकों का बाल्यकाल ज्यादा प्रभावित हो रहा है जिस उम्र में उनकों खेलना-कूदना चाहिए उस उम्र में वे बाल-मजदूरी जैसे कार्यों में संलग्न है जिन हाथों में काॅपी-किताब होना चाहिए वे परिवार के बाकी सदस्यों की तरह पैसा कमाकर घर में मदद कर रहे हैं। इन सबसे बालकों का विकास रूक जाता हैं।

भारत में गरीबी के आर्थिक कारण

भारत में गरीबी के आर्थिक कारण भारत में गरीबी की विद्यमानता हेतु प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं।

1. राष्ट्रीय उत्पाद का निम्न स्तर (Low Level of National Product) :- भारत का कुल राष्ट्रीय उत्पाद जनसंख्या की तुलना में काफी कम है इस कारण देश के नागरिकों की प्रतिव्यक्ति आय का स्तर अत्यन्त निम्न है। भारत का शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन 2000-2001 में उसी वर्ष की कीमतों के आधार पर 16,79,982 करोड़ रुपये था तथा प्रतिव्यक्ति आय केवल 16,047 रुपये थी, इस दृष्टि से भारत जो यू.एन.ओ. द्वारा निर्धारित बहुत अधिक निर्धन देशों की कसौटी में आता है।

2. विकास की कम दर :- भारत की पंचवष्र्ाीय योजनाओं में विकास की दर बहुत कम रही है। योजनाओं की अवधि में विकास की दर 4.1 प्रतिशत रही है। इसके विपरीत जनसंख्या 1.8 प्रतिशत की दर से बढत्र रही है। अतएव जनसंख्या वृद्धि दर की तुलना में विकास की दर बहुत कम बढ़ रही है। विकास की दर में कम वृद्धि होने के फलस्वरूप निर्धनता को दूर नहीं किया जा सकता है।

3. कीमतों मे वृद्धि (Increase in Prices) :- भारत में द्वितीय पंचवष्र्ाीय योजना के आंरभ से ही कीमतों में जो बढ़ने की प्रवृति आरम्भ हुई है वह अभी तक जारी है। इस तीव्र गति में होने वाली कीमत वृद्धि का देश की निर्धन जनता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके फलस्वरूप निर्धनता का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

4. जनसंख्या का अधिक दबाव (Heavy Pressure of Population) : भारत में जनसंख्या अत्यन्त द्रुतगति से बढ़ रही है भारत में जनंसख्या का आकार न केवल बड़ा है वरन् इसमें तेजी से वृद्धि हो रही हे। इस वृद्धि के कारण पिछले कई वर्षो से मृत्यु दर का कम हो जाना पर जन्म दर का लगभग स्थिर रहना है। जनसंख्या की वृद्धि की यह दर, जो 1941-51 से 1.0 प्रतिशत थी, बढ़कर 1981-91 में 2.1 प्रतिशत हो गई है। जनसंख्या 2000-2001 में बढ़कर 102.70 करोड़ हो गई, जबकि 1991 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या 84.63 करोड़ थी। जनसंख्या का यह दबाव विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा रही। भारत में जनसंख्या इस गति से बढ़ रही है कि कुल उत्पादन बढ़ने पर प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में अधिक धन नहीं हो पाता, जिससे जीवन-स्तर ऊंचा नहीं हो पाता। प्रतिव्यक्ति भूमि भी कम होकर 0.13 हैक्टेयर रह गई है।

5. निरन्तर रहने वाली बेरोजगारी (Chronic Unemployment and Under Employment) :- भारत में बेरोजगारी के विभिन्न प्रकारों प्रच्छन्न अल्प रोजगार, मौसमी आदि में प्रत्येक प्रकार की बेरोजगारी पाई जाती है। जनसंख्या के निरन्तर बढ़ने से यहां चिरकालीन बेरोजगारी व अर्द्धबेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो गई हैं। भारत में शिक्षित बेरोजगारी से भी बढ़कर कृषि में अदृश्य बेरोजगारी की समस्या है। बेरोजगारी की समस्या निर्धनता का मुख्य कारण है। भारत में 2000-2001 में लगभग 90 लाख व्यक्ति बेरोजगार थे। बेरोजगारी के कारण राष्ट्र की श्रमशक्ति का उत्पादक कार्यों में पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता है। इसके अतिरिक्त कार्यशील जनसंख्या पर आश्रितों की संख्या भी बढ़ रही है। इससे आप तथा उपभोग का स्तर भी कम हो रहा है।

6. पूंजी की अपर्याप्तता (Capital Deficiency) - यद्यपि पूंजी का सभी कार्यों में महत्व होता है किन्तु उद्योग, परिवहन, सिंचाई तथा विकास के अन्य साधनों की स्थापना में पूंजी का विशेष स्थान होता है। इसलिए किसी देश के आर्थिक पिछड़ेपन का मुख्य कारण वहां पर पूंजी का अभाव हुआ करता है। भारत में भी ऐसी स्थिति विद्यमान है। भारत में लोगों की बचत का स्तर अत्यन्त निम्न है।

7. कुशल श्रम व तकनीकी ज्ञान की कमी (Lack of Skilled Labour and Technical Knowledge) :- भारत में औद्योगिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण (Training) का भी उचित प्रबंध नहीं है। इस अभाव में जनसंख्या का आकार अधिक होने के कारण श्रम की पूर्ति तो बहुत अधिक है परन्तु व प्रशिक्षित श्रम का अभाव है

8. योग्य व निपुण उद्यमकर्र्त्ताओंं का अभाव (Paucity of Able and Efficient Enterpreneurs) - अल्प-विकसित देशों में औद्योगिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में साहस और कल्पना शक्ति रखने वाले, जोखिम उठाने की योग्यता रखने वाले तथा अपने कार्य में दक्ष, निपुण एवं चतुर उद्यमकर्त्ताओं का अभाव होता है भारत में भी ऐसे उद्यमकर्त्ताओं का नितान्त अभाव है। फलस्वरूप, देश में मुख्यत: उन्हीं उद्योगों का विकास हो सका है जिनमें बहुत कम जोखिम है।

9. उचित औद्योगीकरण का अभाव (Lack of Proper Industrialisation) - औद्योगिक दृष्टि से भारत अभी बहुत पिछड़ा हुआ है। भारत की गिनती पिछड़े हुए राष्ट्रों में की जाती है। यह इस तथ्य से प्रमाणित हो जाता है कि आज भी बड़े स्तर के उद्योगों में भारत की कुल कार्यशील जनसंख्या का केवल 3 प्रतिशत भाग ही लगा हुआ है। यद्यपि उपभोक्ता वस्तु उद्योग जैसे साबुन, कपड़ा, चीनी, चमड़ा, तेल आदि उद्योगों का काफी सीमा तक विकास सम्भव हुआ है किन्तु पूंजीगत एवं उत्पादक वस्तुओं के उद्योगों का विकास अभी तक समुचित प्रकार से नहीं हो पाया है। इसके लिए आज भी भारत को विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है।

10. पुरानी सामाजिक संस्थाए (Outdated Social Institutions) - भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल सामाजिक आधार आज तक भी पुरानी सामाजिक संस्थाएं तथा रूढ़ियां हैं। यह वर्तमान समय के अनुकूल नहीं है। ये संस्थाएं हैं - जातिप्रथा, संयुक्त परिवार प्रथा और उत्तराधिकार के नियम आदि। ये सभी भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से होने वाले परिवर्तनों में बाधा उपस्थित करते हैं।

11. प्राकृतिक साधनों का उचित प्रयोग न होना (No Proper Use of Natural Resources) - भारत प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि की दृष्टि से अत्यन्त ही सम्पन्न देश हैं। यहां लोहा, कोयला, मैगजीन, अभ्रक जैसे बहुमूल्य खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं तथा सम्पूर्ण वर्ष बहने वाली नदियां विद्युत शक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन हैं। भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है जो भिन्न-भिन्न किस्म की फसलें उपजा सकती हैं तथा मानव शक्ति भी अन्य देशों से बहुत अधिक हैं। परन्तु इन सब साधनों का हमारे देश में ठीक प्रकार से प्रयोग नहीं हुआ है।

12. आधारिक संरचना के समुुन्नत साधनों का अभाव (Lack of Well Developed Infrastructure) - भारत के विशाल क्षेत्र के अनुसार यहां यातायात एवं संदेशवाहन के साधनों का समुचित विकास नहीं हो सका है। सड़क और रेल यातायात के समुचित रूप से उन्नत न होने के कारण कृषि विपणन दोषपूर्ण है। उद्योगों में समय पर कच्चा माल नहीं पहुंच पाता तथा उत्पादित वस्तुओं का सही वितरण नहीं हो पाता।\

13. जनसंख्या में तेजी से वृद्धि (Rapid Increase in Population) - भारत की जनसंख्या का आकार बड़ा है साथ ही इसमें बहुत तेजी से वृद्धि होती जा रही है। इसके कारण राष्ट्र की कुल आय में वृद्धि के बावजूद भी प्रतिव्यक्ति आय एवं उपभोग के स्तर में कोई खास वृद्धि नहीं हो पा रही है।

14. सामाजिक कारण (Social Factors) - अशिक्षा, अज्ञानता, भाग्यवाद, पुरातनपंथी, पिछडे़-विरोधी ढाँचे, विचारों, मान्यताओं एवं परम्पराओं के कारण भी देश को विकास पथ अनेक बाधाओं से झुझना पड़ा है। इसके अतिरिक्त सरकार की कराधान और व्यय नीतियों का भी धनवान और गरीब के बीच के अंतराल को पटाने में ठीक प्रकार से अपनी उपयुक्त भूमिका का निर्वाह नहीं किया जा सकता है।

गरीबी को दूर करने के उपाय 

निर्धनता या गरीबी एक बहुआयामी समस्या है जिसका समाधान सरल एवं सहज नहीं हैं। सच में तो गरीबी को पूरी तरह से दूर करना असम्भव सा है। लेकिन निर्धनता को कम किया जा सकता है। गरीबी हटाने के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित उपाय को अपनाना श्रेयस्कर होगा:

1. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण- बढ़ती हुई परिवार की संख्या के कारण परिवार की आर्थिक हालत बहुत खराब हो जाती है यदि इस पर नियंत्रण हो जाये तो परिवार की स्थिति को सुधारा भी जा सकता है। 

2. रोजगार के अवसर में वृद्धि- निर्धनता का एक मुख्य कारण रोजगार के अवसर की कमी है। यदि रोजगारों के अवसर में वृद्धि की जायें तो लोगों के जीवन स्तर में सुधार आयेगा और उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी जिससे वे अपने बच्चों की बुनियादी अवष्यकताओं पूरी कर पायेंगे जिससे बालक विकास में वृद्धि होगी।

3. व्यक्तिगत एवं सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन- भारत में परम्परागत रूप से अलग -अलग धर्म एवं जाति के लोग रहते हैं और उनके अलग-अलग व्यक्तिगत एवं सामाजिक मूल्य निर्धारित होते हैं। जैसे- बाह्यण जाति के लिए निम्न जाति के लोगों से सेवा कराना, श्रमिक का काम कराना। इसी प्रकार निम्न जाति के लोगों को उच्च कार्य वर्णित थे। इन सभी मूल्यों में परिवर्तन आवश्यक है। इनमें परिवर्तन होने से लोगों के सामाजिक मूल्य ऊँचे उठते हैं जिनसे इनका जीवन स्तर उच्च होता है।

4. शिक्षा- शिक्षा किसी बात की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है शिक्षा से व्यक्ति की सोच विकसित होती है और वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं लेकिन अशिक्षित लोगों का हमेशा शोषण होता रहा है। इसलिए यदि गरीब लोग शिक्षित होंगे तो कोई भी उनका शोषण नहीं कर पायेगा और जो वो मेहनत करते हैं तो उन्हें उनका पूरा भुगतान मिलेगा जिससे वे अपने बच्चों को सुख-सुविधा दे पायेंगे और शिक्षित होने से माता-पिता गरीब होने के बावजूद भी अपने बच्चों को शिक्षित कर उन्हें समाज में स्थान दिला पायेंगे।

2. आय का पुनर्वितरण - आय और धन के वितरण की असमानता गरीबी को स्थायी बना देती है। यह नागरिकों की कार्यकुशलता को भी विपरीत रूप से प्रभावित करती है। जब देश की अर्थव्यवस्था का ढांचा इस प्रकार का हो कि विकास के प्रयत्नों के कारण बढ़ी हुई आय को अमीर लोग ही हड़प जाते हों तो विकास के सारे प्रयत्न ही बेकार हो जाते हैं। ऐसी स्थिति मे गरीबी घटने की बजाय और अधिक बढ़ जाती है। भारत में बहुत कुछ हद तक ऐसा ही हो रहा है। अत: यहां गरीबी उन्मूलन के लिए आय इस प्रकार पुनर्वितरण कराना आवश्यक है जिससे गरीब वर्ग की आय व उपभोग का स्तर ऊंचा उठ सके। इसके लिए राष्ट्रीय साधन, सम्पत्ति एवं आय के प्रवाह को अमीरों से गरीबों की ओर मोड़ना होगा।

3. विकास की ऊंची दर - गरीबी उन्मूलन के लिए आय का पुनर्वितरण, जनसंख्या नियन्त्रण आदि उपायों का महत्व है, किन्तु इनकी कुछ सीमाएं हैं। अत: यह आवश्यक है कि गरीबी के स्थायी उपचार हेतु आर्थिक विकास की दर बढ़ाने पर ही सर्वाधिक ध्यान देना होगा। यद्यपि आय के पुनर्वितरण के द्वारा वर्तमान वस्तुओं आपस में बंटवारा तो सम्भव है। किन्तु देश की वस्तुओं के कुल भंडारों में वृद्धि करने के लिए तो उत्पादन में वृद्धि करनी होगी। अत: भारत में गरीबी-उन्मूलन की दृष्टि से तीव्र आर्थिक विकास सर्वप्रथम अनिवार्य शर्त हैं तीव्र आर्थिक विकास के लिए हमें उत्पादकता एवं कार्यकुशलता बढ़ाने, तकनीकी ज्ञान के स्तर में सुधार लाने, देश के मानवीय व प्राकृतिक साधनों का पूरा-पूरा उपयोग करने जैसे उपाय करने होंगे।

4. कृषि का विकास - भारत मूल रूप से एक कृषि प्रधान देश है और भारत की खेती पिछड़ी हुई है। भारत में गरीबों का काफी बड़ा भाग कृषि क्षेत्र में ही पाया जाता है। अत: कृषि के विकास पर ध्यान देना प्रथम प्राथमिकता होना चाहिए। भूमिहीन किसानों व सीमान्त किसानों की स्थिति में सुधार लाने हेतु विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी को दूर करने के लिए भूमि का पुनर्वितरण भी काफी उपयोगी उपाय है।

5. कुटीर व लघु उद्योगों का विकास - भारत में बेरोजगार लोगों को रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से कुटीर व लघु उद्योगों का विकास किया जाना आवश्यक है। इससे न केवल बेरोजगार गरीब लोगों को काम मिलेगा वरन् आय व असमानता भी घटेगी। 

6. सामाजिक भागीदारी - यदि गरीब लोग विकास के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी प्रारम्भ कर दे तो गरीबी को दूर किया जाना सरल हो जाएगा। इसके लिए गरीबों को स्वयं को गरीबी-उन्मूलन और आर्थिक विकास के कार्यक्रमों में शामिल करना होगा। इस कार्य में पंचायती राज संस्थानों, स्वैच्छिक संगठनों और स्व-सहायता समूहों की भागीदारी को बढ़ाना आवश्यक होगा।

7. छिपी हई बेरोजगारी की समाप्ति और रोजगार में वृद्धि - निर्धनता दूर करने के लिए रोजगार, अर्द्ध रोजगार तथा छिपी हुई बेरोजगारी को दूर करने के लिए विशेष प्रयत्न किये जाने आवश्यक हैं। ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने के अधिक अवसर हैं उनका पूरा लाभ उठाना चाहिए। कृषि का विकास करके भूमि पर एक से अधिक फसल उगाने के फलस्वरूप अर्द्ध बेरोजगारी तथा छिपी बेरोजगारी को कम किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्र में कुटीर उद्योग, निर्माण आदि के कार्यों का विकास किया जाना चाहिए। शहरों में लघु उद्योग, यातायात आदि का अधिक विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा की प्रणाली में परिवर्तन करके शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार प्रदान किया जाना चाहिए। 

8. उत्पादन की तकनीकों में परिवर्तन - प्रो. गुन्नर मिर्डेल के अनुसार भारत के लिए पश्चिमी पूंजी प्रधान तकनीक अपनाई जानी चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में इस प्रकार का तकनीकी विकास करना चाहिए जिससे श्रम का पूरा उपयेाग हो सके। वास्तव में, भारत के लिए मध्यम तकनीकें, जो श्रम प्रधान तथा पूंजी प्रधान तकनीकों के मध्य का मार्ग हैं, अपनाई जानी चाहिए। इसके फलस्वरूप रोजगार की मात्रा बढे़गी तथा निर्धनता को दूर किया जा सकेगा।

9. पिछड़े क्षेत्रों पर विशेष ध्यान - भारत में कुछ क्षेत्र जैसे उड़ीसा, नागालैंड, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में आज भी निर्धनों का अनुपात दूसरे प्रदेशों से अधिक है। सरकार को पिछड़े इलाकों में विशेष सुविधायें प्रदान करनी चाहिए जिससे निजी पूंजी उन प्रदेशों में निवेश किया जाना सम्भव हो सकें। इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्रों का भी विकास किया जाना चाहिए।

10. न्यूनतम आवश्यकताओं की सन्तुष्टि - सरकार को निर्धनों की न्यूनतम आवश्यकताओं जैसे पीने का पानी, प्राथमिक चिकित्सा, प्राथमिक शिक्षा आदि को सन्तुष्ट करने के प्रयत्न करने चाहिए। इसके लिए यदि सरकार को अधिक से अधिक राशि व्यय करनी पडे़ तो कोई बुराई नहीं है।

11. निर्धनों की उत्पादकता में वृद्धि - डॉ. वी.के.आर.वी.राव के अनुसार निर्धनता को दूर करने के लिए निर्धनों की आर्थिक उत्पादकता को बढ़ाना आवश्यक है। निर्धनों को स्वयं सतर्क होकर रोजगार की अवस्था को प्राप्त करने के प्रयत्न करने चाहिए। सरकार को इसके लिए सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों में अधिक निवेश करना चाहिए। निर्धन वर्ग को रोजगार विन्मुख प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए तथा उनकी उत्पादकता बढ़ाने के प्रयत्न किये जाने चाहिए।

गरीबी दूर करने के नीतिगत उपाय

गरीबी को खत्म करने के उपायों पर चर्चा करेगें। गरीबी को खत्म करने या कम करने के उपाय हो सकते है।

1. सम्पत्ति का पूनः वितरण - अल्प विकसित देशों में सम्पत्ति और आय का असमान वितरण पाया जाता है। इन देशों में 20 प्रतिशत से कम लोगों के पास 50 प्रतिशत कुल राष्ट्रीय आय का भाग होता है। इसका कारण यह है कि सम्पति का ज्यादातर भाग इन 20 प्रतिशत लोगो के पास ही है। मानवीय पूंजी भी इन 20 प्रतिशत लोगों के पास शिक्षा और स्वास्थ्य के रूप में होती है। निर्धनता को मिटाने के लिए सम्पति का विकेन्द्रीयकरण होना चाहिए। आय और सम्पति के असमान वितरण को कम करना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधारों को लागू करना चाहिए। शहरी क्षेत्रों में छोटे कारोबारियाों को कम ब्याज दरों पर साख को उपलब्ध कराना चाहिए। इससे वे अपने व्यापार का प्रसार कर सकते है। असमान वितरण केवल भौतिक साधनों का ही न होकर मानवीय पूंजी का भी होता है। मानवीय पूंजी शिक्षा और स्वास्थ्य का भी अल्पविकसित देशों में असमान वितरण होता है। इसको भी कम करने का प्रयत्न करना चाहिए।

2. फलनात्मक वितरण में परिवर्तन - श्रम की कीमत तुलनात्मक रूप से पूंजी की कीमत से कम होनी चाहिए। ऐसा होने से असमानताएं कम होती है। यह प्रबंधकों को इस योग्य बनाती है कि पूंजी के स्ािान पर श्रम का प्रयोग कर सके। ऐसा करने से रोजगार का स्तर बढने लगता है। ऐसा होने से रोजगार का स्तर बढता है। निर्धनता कम हो जाती है। श्रम संगठन मजदूरी को अपने संगठन द्वारा मजदूरी को बाजार प्रणाली से तय मजदूरी से ऊपर निर्धारित करवा देते है जबकि पूंजी की कीमत कम तय होती है। ऐसा होने से श्रम के स्ािान पर पूंजी का प्रयोग ज्यादा मात्रा में होने लगता है। इस प्रकार सरकार को इस अपूर्णता को खत्म करवाना चाहिए और श्रम की कीमत या मजदूरी वहां तय होनी चाहिए जहां पर बाजार की मांग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा मजदूरी तय होती है।

3. संरचनात्मक सुधार - अल्पविकसित देशों का आर्थिक और सामाजिक ढांचा कुछ ऐसा होता है कि जिस कारण गरीबी और आय की असमानताएं विद्यमान होती है। गरीबी को दूर करने के लिए इस आर्थिक ढांचे को बदलने की आवश्यकता होती है। गरीबी को दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार को लागु करना चाहिए। भूमि सुधार करने से असमानता पर गहरी चोट लगती है। ऐसा होने से असमानता कम होती है और साथ में गरीबी भी कम होती है। क्योंकि गरीब लोगों को परिसंपति मिलती है जिसके कारण उनकी आय प्राप्ति की संभावना बढ जाती है।

4. मुद्रास्फीति पर नियंत्रण - कीमतों में बढोतरी का सबसे ज्यादा प्रभाव गरीबों पर पडता है। मुद्रास्फीति आय और संपत्ति की विषमताओं को बढा देती है। जबकि अल्पविकसित देशों में पहले से ही ज्यादा विषमताएं होती है और मुद्रास्फीति इस अन्तराल को और बढा देती है। कोई भी कार्यक्रम अल्पविकसित देशों में जब तक लागू नही हो सकता जब तक की कीमतों में वृद्धि को ना रोका जाएं। 

5. सामाजिक तथा आर्थिक अपराधों पर रोक -  अल्पविकसित देशों में भ्रष्टाचार और अपराध ज्यादा होता है। भ्रष्टाचार और अपराध जैसी गैर - कानूनी क्रियाओं का जड से खत्म करना चाहिए। कालाधन, कर की चोरी जैसे गतिविधियों के खिलाफ कदम उठाने चाहिए। 

6. मध्यम वर्ग को राहत - कीमतों में लगातार वृद्धि का निश्चित आय वाले वर्गो को कष्ट उठाना पडता है। उनको कीमतों में हुई वृद्धि की भरपाई के लिए विभिन्न प्रकार की राहत देनी चाहिए। जैसे की उनको आय कर में छूट देनी चाहिए, पुस्तक बैंक की स्ािापना आदि काफी सारे कदम उठाने चाहिए।

7. कर नीति - गरीबों की आय को बढाने के लिए विलासित की वस्तुओं पर कर, आरोही प्रत्यक्ष करों का लगाकर, अमीर वर्ग से धन सरकार अपने खजाने में लेकर यह धन गरीबों में निःशुल्क शिक्षा, मुद्रा का सीधा हस्तान्तरण इत्यादि कार्यक्रम के द्वारा गरीब लोगों के जीवन स्तर को उठाना चाहिए। परन्तु वास्तविकता में आरोही कर दांचा केवल प्रत्यक्ष कर प्रणाली में ही संभव हो सकता है। जबकि अप्रत्यक्ष कर प्रणाली आरोही न होकर अधोगामी। इसका अर्थ यह है कि अप्रत्यक्ष करों का प्रभाव अमीर वर्ग की तुलना में गरीब वर्ग पर ज्यादा पडता है। इसलिए अप्रत्यक्ष कर प्रणाली भी अधोगामी न होकर बल्कि आरोही ही होनी चाहिए। इस प्रकार की नीतियों को कठोरता के साथ लागु करना चाहिए।

8. प्रत्यक्ष हस्तान्तरण भुगतान - आय की असमानता घटाने और गरीबी को कम करने के लिए आर्थिक सहायता प्रत्यक्ष रूप से होनी चाहिए। काम के बदले अनाज योजना प्रत्यक्ष हस्तान्तरण भुगतान का ही एक रूप है। इसमें श्रमिकों को निर्माण कार्यो जैसे तालाब निर्माण आदि में लगाना चाहिए। इस प्रकार के कार्यो में कई बार लागते ऊंची होती है और श्रमिकों की निपूणता कम होती है।

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