कार्य संतुष्टि क्या है ? कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले घटक अथवा तत्त्व

कार्यसंतोष से आशय व्यक्ति की अपने कार्य एवं कार्य से सम्बन्धित परिस्थितियों सम्बन्धी विभिन्न अभिवृत्तियों के परिणाम से लिया जाता है। वास्तव में कार्य संतोष शब्द का उपयोग व्यावहारिक विज्ञान उन्मुख शोधकर्त्ता व्यक्ति की कार्य सम्बन्धी मानसिक वृत्ति एवं कार्य निष्पादन के सम्बन्ध को स्थापित करने के रूप में करते है। व्यक्ति अपने कार्य एवं परिस्थितियों के सम्बन्ध में कैसा अनुभव करता है। यही कार्य संतुष्टि कही जाती है। यह पाया गया है कि कुछ कार्य अवस्थायें अन्य कार्य अवस्थाओं की तुलना में अधिक कार्य संतोष प्रदान करती है। 

प्रबन्धकों का कामिकों के प्रति व्यवहार एवं दृष्टिकोण, पर्यवेक्षण की रीति, कार्य स्थान, उपलब्ध सुविधायें आदि सामान्यत: कर्मचारी के कार्य के प्रति व्यवहार को प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप कर्मचारी संतुष्टि अथवा अंसतुष्टि अनुभव करता है। 

सामान्यत: जब कर्मचारी अपने कार्य से सन्तुष्ट होता है तो वह अधिक उत्पादन एवं कार्यक्षमता द्वारा इस संतुष्टि को प्रकट करता है। किन्तु आवश्यक रूप में संतुष्टि कार्य निष्पादन की बढ़ोत्तरी के रूप में प्रकट हो यह आवश्यक नहीं है। किन्तु कार्य संतुष्टि तथा कार्य निष्पादन में प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होते हुए भी कर्मचारी द्वारा संतोष का अनुभव अन्य प्रकार से भी लाभकारी हो सकता है। प्रबन्धकों के विचार से संतुष्ट कर्मचारी असंतुष्ट कर्मचारी से कहीं अधिक लाभदायक होता है।

सन्तोष एवं असन्तोष

सन्तोष तथा असन्तोष शब्दों की व्याख्या एक दूसरे की विपरीत अवस्था के लिए नहीं की जा सकती। यह कहना प्राय: कठिन है कि एक व्यक्ति जो संतुष्ट है, संतुष्टि के चरम स्तर तक पहुंच गया है। कोई व्यक्ति एक ही समय संतुष्ट तथा असंसुष्ट हो सकता है। मनुष्य की इच्छायें अनन्त होती हैं और असंतुष्ट इच्छाओं का विद्यमान होना इस बात का द्योतक नहीं है कि वर्तमान परिस्थितियेां में यह कार्य संतुष्टि अनुभव नहीं करता। किन्तु दूसरी ओर संतुष्टि के साथ नवीन इच्छाओं के जन्म से वह असंतुष्टि भी अनुभव करता रहता है। 

मेयर (Maier) के अनुसार मनुष्य की असंतुष्टि का कारण संतुष्टि के स्रोतों का अभाव नहीं होता अपितु उसका प्रमाण इन तीन बातों के संयुक्त प्रभाव में प्राप्त होता है-
  1. इच्छाओं की संतुष्टि
  2. इच्छाओं की संतुष्टि की असफलता तथा
  3. असंतोष के स्रोत।
मनुष्य पर इन तीन बातों का निरन्तर प्रभाव पड़ता है और परिणाम बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जिसे पदोन्नति का लाभ मिला है परन्तु असंतुष्टि अनुभव करने लग सकता है यदि उसे इस बात का पता चले कि उसी के समान योग्य व्यक्ति को उससे अधिक पदोन्नति प्राप्त हुई है। परिणामस्वरूप यह कहा जा सकता है कि कार्य संतुष्टि एक विषम विचारधारा है जो मानवीय इच्छाओं, अभिप्रेरणाओं एवं उसकी मानसिक अवस्था से सम्बन्धित है। मानवीय इच्छायें, अभिप्ररेणाओं का सम्बन्ध कार्य संतुष्टि से होते हुए भी यह कार्य संतुंष्टि का पर्याय नहीं है। संतोष और असंतोष का सम्बन्ध कार्य स्तर से भी नहीं जोड़ा जा सकता, यद्यपि अनेक विद्वान इस प्रकार का सह-सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते है। 

इसका कारण मास्लो (Maslow) की आवश्यकता क्रमबद्धता का सम्बन्ध कार्य संतुष्टि से स्थापित किया जाता है। यह अवश्य है कि पद स्तर व्यक्ति को मास्लो द्वारा दी गई उच्चतर आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिक अवसर प्रदान करता है और सम्भवत: इसके फलस्वरूप उच्च स्तर पर कार्य करने वाले व्यक्ति अधिक कार्य सन्तोष अनुभव करें। किन्तु कार्य संतोष मात्रा आवश्यकता अभिधारणा नहीं है।

कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले घटक अथवा तत्त्व

कार्य संतुष्टि को अनेक तत्त्व प्रभावित करते हैं। इन तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है (1) व्यक्तिगत तत्त्व, तथा (2) कार्य सम्बन्धी तत्त्व। हम यहां इन तत्त्वों पर विस्तार से विचार करेंगे।

1. कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले व्यक्तिगत तत्त्व

मनुष्य की अनेक व्यक्तिगत विशेषताओं का प्रभाव कार्य संतोष पर पड़ता है। लिंग, भेद, आयु, स्वास्थ्य, बुद्धि एवं कार्य संतोष में निश्चित सहसम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। कार्य संतोष पर प्रभाव डालने वाले व्यक्तिगत तत्त्व हैं-
  1. लिंग भेद (Sex) . कार्य संतुष्टि सम्बन्धी अनुसंधानों से यह प्रकट हुआ है कि िस्त्रायां पुरुषों की अपेक्षा अधिक कार्य संतोष अनुभव करती हैं। सामान्यत: िस्त्रायों की इच्छाऐं एवं महत्वाकांक्षायें पुरुषों की अपेक्षा कम होती हैं, फलस्वरूप असंतोष का स्तर शीघ्र ही नहीं आता।
  2. आय (Age) . आयु के साथ संतुष्टि का स्तर भी प्राय: बदलता रहता है। अधिक आयु के व्यक्तियों द्वारा परिस्थितियों से समायोजन कर लेने के फलस्वरूप यह परिणाम प्रकट होता है और वे कार्य से अधिक संतुष्टि अनुभव करने लगते हैं। किन्तु कभी-कभी अधिक आयु के कर्मचारी अधिक असन्तुष्ट भी देखे जाते है। विकास के अवसरों का अभाव, कार्यकुशलता में कमी के कारण, महत्व में कमी एंव वेतन की स्थिरता आदि अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं जो बड़ी आयु के कर्मचारियों में असन्तोष को जन्म दे सकते हैं।
  3. बुद्धि (Intelligence) . कार्य संतुष्टि एंव बुद्धि में कोई विशेष सम्बन्ध पाये जाने के प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं। किन्तु कर्मचारी की वृद्धि का स्तर उसके कार्य की प्रकृति के संदर्भ में कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि उत्पन्न कर सकता है। उदाहरण के लिए ऐसे व्यक्ति जो अधिक बुद्धिमान हैं चुनौतियों से भरे कार्य करने में अधिक संतुष्टि प्राप्त करते हैं।
  4. अनुभव (Experience) . अनुभव का संतुष्टि से बड़ा ही विचित्रा सम्बन्ध है। प्राय: देखा जाता है कि नया कर्मचारी अनुभव के अभाव में अपने कार्य से सन्तुष्ट रहता है। किन्तु यह अवस्था अधिक समय तक नहीं रहती। शनै: शनै: ऐसा कर्मचारी अपनी वर्तमान अवस्था से असन्तुष्ट होने लगता है और अनुभव बढ़ने के साथ-साथ, उसे यह लगने लगता हैं कि उसका वेतन एवं कार्य अवस्थायें उसके अनुभव के अनुरूप नहीं है। परिणामत: संतुष्टि का स्तर ऊंचा हो जाता है।
  5. मनोवृत्ति (Mentality) . मनोवृत्ति और संतुष्टि में भी सहसम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। अनेक व्यक्ति परिस्थितियों से समझौता नहीं कर पाते और उनकी यह मनोवृत्ति उनके सन्तोष का कारण बनी रहती है। इस प्रकार जो कर्मचारी अपने व्यक्तिगत जीवन में असन्तुष्ट रहता है कार्य की अनुकूलतम परिस्थितियों में भी असंतुष्टि के कारण खोजता रहता है।

2. कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कार्य सम्बन्धी तत्त्व -

कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कार्य सम्बन्धी तत्त्व है-
  1. पारिश्रमिक (Remuneration) . प्रबन्धक सामान्यत: कार्य संतुष्टि के विषय में पारिश्रमिक की मात्रा के महत्व को आंकने में अतिशयोक्ति से काम लेते हैं। प्रत्येक कर्मचारी की यह इच्छा रहती है कि उसकी योग्यता, परिश्रम एवं उत्तरदायित्व के अनुसार उसे परिश्रमिक दिया जाए। किन्तु व्यवहार में कर्मचारी अपनी वर्तमान पारिश्रमिक की मात्रा से सन्तुष्ट नहीं देखे जाते।
  2. सुरक्षा एवं स्थायित्व (Security and stability) . कर्मचारी वर्ग कार्य की सुरक्षा को विशेष महत्व देते हैं। कार्य सुरक्षा अथवा स्थिरता कर्मचारी में संतुष्टि की भावना उत्पन्न कर देती है। अनुभव यह बताता है कि स्थाई कर्मचारी सामान्यत: सुरक्षा के आश्वासन के कारण अपने कार्य से अधिक संतुष्टि अनुभव करता है।
  3. मान्यता (Recognition) . कर्मचारी के मन में निष्पादन एवं उपलब्धि की भावना सदैव बनी रहती है। कर्मचारी अपने कार्य को आत्मगौरव का प्रश्न मानता है और उसे पूरा करके सम्मानित होने के लिए लालायित रहता हैं कार्य को भली-भांति पूरा करके गौरव की अनुभूति कार्य संतुष्टि प्रदान करती है।
  4. कार्य की दशायें (Working conditions) . सामान्यत: यह बात देखने में आई है कि कार्य के घन्टे तथा कार्य दशायें कार्य संतुष्टि उत्पन्न करते है। किन्तु सदैव ही ऐसा नहीं होता। कर्मचारी कार्य के घन्टों एवं भौतिक वातावरण को एक आवश्यकता मानकर सहज ही स्वीकार करता है और संतुष्टि के लिए इससे कुछ अधिक की कामना करता है।
  5. अपेक्षायें (Expectations) . कर्मचारी एवं नियोक्ता दोनों ही एक दूसरे में कुछ व्यवहार सम्बन्धी अपेक्षायें रखते हैं। कार्य की मात्रा एवं कार्याविधि के अतिरिक्त यह अपेक्षायें अधिकतर उत्तरदायित्व एवं सुविधाओं सम्बन्धी होती हैं। उदाहरण के लिए कर्मचारी यह अपेक्षा करता है कि नियोक्ता अपने व्यवहार में कटु नहीं होगा, सहानुभूतिपूर्ण बना रहेगा आदि। कर्मचारी की ऐसी अपेक्षाएं नितान्त काल्पनिक भी हो सकती हैं और इस अवस्था में असंतुष्टि के स्तर का अनुमान लगाना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
  6. पर्यवेक्षण (Supervision) . प्रभावी पर्यवेक्षण भी कर्मचारियों को अपने कार्य से संतुष्टि करने में सहायक होता है। पर्यवेक्षण स्वभाव एवं व्यवहार के कार्य पर प्रभाव सम्बन्धी निष्कर्ष हार्थोन प्रयोगों द्वारा काफी स्पष्ट हुए है। वस्तुत: कर्मचारी का प्रबन्ध वर्ग से सम्बन्ध निकटतम पर्यवेक्षक के द्वारा ही होता है और पर्यवेक्षक अपने मित्रातापूर्ण व्यवहार से कार्य का एक अनुकूल वातावरण स्थापित कर सकता है जो कर्मचारियों के लिए अत्यन्त उत्साहवर्द्धक हो।

कार्य संतुष्टि एवं कार्य निष्पादन

कार्य-संतुष्टि एवं कार्य निष्पादन के सहसम्बन्ध का व्यापक अध्ययन किया गया है। इन अध्ययनों के प्रकाश में यह तथ्य सामने आया है कि इन दोनों के बीच बहुत स्पष्ट सकारात्मक सम्बन्ध नहीं है। कर्मचारी कार्य के सम्बन्ध में कैसा अनुभव करता है इसका प्रभाव उसके द्वारा कार्य के लिये किये प्रयत्नों पर पड़ना आवश्यक नहीं है। कार्य निष्पादन का कारण कर्मचारी पर पड़ने वाले अनेक दबाव भी हो सकते है। उदाहरण के लिए जब एक कार्य को करना किसी व्यक्ति के द्वारा स्वीकार किया गया है तो वह उसको पूरा करने के लिए बाध्य होता है और संतुष्टि अथवा असंतुष्टि का इससे सम्बन्ध जोड़ना निरर्थक है। यह स्थिति लगभग स्कूल अथवा कॉलेज में पढ़ने वाले सामान्य  विद्यार्थी की स्थिति के समान है। सामान्य  विद्यार्थी का लक्ष्य मात्रा कक्षा पास करना होता है और यह बाध्यता उसे पढ़ने को मजबूर करती है। पास प्रतिशत द्वारा यह अनुमान लगाना कठिन होगा कि सामान्य  विद्यार्थी अध्ययन विधि से असंतुष्ट के अतिरिक्त सामाजिक स्वीकृति के आधीन निष्पादन की मात्रा सीमित भी हो जाती है।

कार्य निष्पादन के सभी सूत्रा यथा उत्पादकता, दुर्घटना दर, अनुपस्थिति दर, कर्मचारी आवर्तन आदि कार्य संतुष्टि से प्रभावित हो सकते हैं, किन्तु कार्य असंतुष्टि के परिणामस्वरूप यह नकारात्मक रूप में प्रभावित होंगे ही इस निष्कर्ष पर पहुंचना भ्रामक ही होगा। फिर भी सामान्य परिस्थितियों में कार्य संतुष्टि, संस्थान के लिए लाभकारी है और इसके लिए अनुकूल वातावरण की स्थापना की जानी चाहिए। कार्य संतुष्टि से कर्मचारी का मनोबल ऊंचा होता है और इसका लाभ संस्थान द्वारा उठाया जा सकता है। अत: कार्य संतुष्टि कार्मिक एवं संगठन दोनों के विकास हेतु एक अपरिहार्य स्थिति है। क्योंकि असंतुष्ट कार्मिक संगठन विकास के राह का प्रथम अवरोध सिद्ध होता है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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