लोक लेखा समिति क्या है लोक लेखा समिति के कार्य?

विशिष्ट प्रयोजनों के लिए धन पर मतदान करने के संसद के अधिकार का तब तक कोई अर्थ नहीं अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति है जब तक उसे यह निश्चित करने का अधिकार न हो कि संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि का कार्यपालिका द्वारा उन्हीं प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है जिनके लिए संसद ने उन्हें स्वीकृति किया है। यह तभी निश्चय हो सकता है जब सार्वजनिक लेखाओं का निरीक्षण किसी स्वतंत्र अधिकारी-लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक-द्वारा किया जाये; और तदन्तर उसके प्रतिवेदन की जांच संसद की एक विशेष समिति द्वारा की जाती है जिसे लोक लेखा समिति कहते हैं।

संसद की समिति का निर्माण इस दृष्टि से श्रेयस्कर है कि -
  1. संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रतिवेदन का विशद् परीक्षण कर सके; 
  2. चूँकि परीक्षण एक विशिष्ट प्रकार का होता है, अत: वह एक समिति द्वारा ही किया जाना चाहिए; 
  3. समिति द्वारा परीक्षण होने पर ही वह निर्दलीय होता है, जबकि सदन द्वारा निर्दलीयता अथवा निष्पक्षता संभव नहीं है।
पिछले पैराग्राफ में प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि यह कार्य एक संसदीय समिति को सौंप दिया जाना चाहिए कि सार्वजनिक व्यय स्वीकृति के अनुसार ही किया गया है। लेकिन ऐसी समिति की स्थापना का विचार विलम्ब से आया है। ब्रिटिश संसद ने विनियोजनों को स्वीकार करने का अधिकार 1688 की क्रांति से प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसे यह निश्चित करने का अधिकार कि उस द्रव्य का व्यय किस प्रकार किया जाता है, केवल 1861 में ही मिला है, जब लोकसभा ने लोक लोक लेखाओं की समिति का निर्माण किया था। 

“ब्रिटेन की लोक लेखा समिति अपनी सम्पूर्ण वित्तीय प्रशासन व्यवस्था के अनेक पहलुओं में से एक दिलचस्प पहलू है... और इसी व्यवस्था को श्रेय भी है जिसने शनै:-शनै: जड़ पकड़ का लोक व्यय पर वास्तविक नियंत्रण कर रखा है।” 

भारत में केन्द्र में लोक लेखा समिति की सर्वप्रथम स्थापना 1921 के मॉण्टफोर्ड सुधारों के फलस्वरूप 1923 में हुई थी। “अपने आरम्भ से ही केन्द्रीय लोक लेखा समिति सार्वजनिक व्यय के विधायी नियंत्रण की एक व्यापक शक्ति बन गयी थी। इसके संगठन संबंधी तथा इसकी सत्ता की सीमाओं के बावजूद इसने सरकार पर सार्वजनिक धन के व्यय में मितव्ययिता के संबंध में दबाव डाला है।” केन्द्रीय सरकार के विभागों को सर्वप्रथम अपने व्यय के औचित्य को सिद्ध करने के लिए बाध्य किया गया। लेकिन यह निकाय वास्तव में संसदीय समिति नहीं थी। वित्त सदस्य ही इसका सभापति होता था, और वित्त विभाग ही समिति के सचिवालय की व्यवस्था करता था।

1950 में संविधान लागू होने के साथ ही इस समिति में से सरकारी तत्व हट गये हैं, और यह समिति सच्ची संसदीय समिति बन गयी है। आरम्भ में इसमें 15 सदस्य थे जो सब लोकसभा के ही सदस्य होते थे। 1953 में इसके सदस्यों की संख्या बढ़कर 22 हो गयी। यह वृद्धि राज्यसभा को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गयी थी। इस समिति में उच्च सदन के सदस्यों का सम्मिलित किया जाना ब्रिटिश परम्परा के विपरीत है, क्योंकि वहां लोक लेखा समिति में लॉर्ड सभा का कोई सदस्य नहीं होता। संविधान के अनुच्छेद 151 के अन्तर्गत लोक लेखा तथा लेखा परीक्षा संबंधी प्रतिवेदन संसद के दोनों ही सदनों के समक्ष रखे जाते हैं। इस प्रकार, लोकसभा के ही ढंग पर राज्यसभा को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वह लोक लेखाओं के परीक्षण के लिए अपनी निजी लोक लेखा समिति गठित कर ले।

लोक लेखा समिति संसद का ऐसा निकाय है जो प्रति वर्ष निर्वाचित किया जाता है। इसका निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत (single transfcrable vote) द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होता है, जिससे समिति में मुख्य राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके और उसके सदस्यों की संख्या संसद में उनकी अपनी राजनीतिक दलीय शक्ति के अनुपात में हो। समिति का सभापति 1967 तक शासक दल का होता था। यह ब्रिटिश प्रणाली के विरुद्ध था। ब्रिटेन में विरोधी दल का कोई प्रतिष्ठित सदस्य इस स्थान को ग्रहण करता है। भारतीय संसद के विरोधी दल को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। भारत में विरोधी दलों को इस अधिकार के अभाव का कारण यह है कि यहां स्पष्ट विरोधी दल का अभाव है। 

1969 से यह परम्परा पड़ी है कि विरोधी दल का ही कोई नेता लोक लेखा समिति का सभापति होता है। एम.आर. मसानी विरोधी दल के प्रथम नेता थे जो इस समिति के सभापति मनोनीत किये गये थे। लेकिन दो अवसरों पर ही केवल विरोधी दल के सदस्य अध्यक्ष चुने गये हैं।

लोक लेखा समिति के कार्य

इसके संबंध में समिति को पूर्णतः संतुष्ट कर लेना चाहिए :
  1. लेखाओं में जिन राशियों का भुगतान दिखाया गया है वे राशियां उस सेवा या प्रयोजन हेतु, जिसमें उनका प्रयोग किया गया है या जिसके लिए वे प्रभूत की गयी हैं, वैध रूप से प्राप्य या प्रयुक्त की जा सकने योग्य थीं :
  2. व्यय नियंत्रण करने वाली सत्ता के अनुरूप है; तथा
  3. प्रत्येक पुनर्विनियोजन (reappropriation) का अधिकार उचित सत्ता द्वारा निर्मित नियमों के अनुसार है या नहीं?

लोक लेखा समिति के कर्तव्य

  1. लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन के संदर्भ में उन सभी लेखा विवरणों का परीक्षण करना जिसमें राज्य उपक्रमों, व्यापार तथा निर्माण करने वाली योजनाओं तथा परियोजनाओं की आय तथा व्यय का उल्लेख किया गया हो। साथ ही, उनके ऐसे संतुलन-विवरणों (balance sheets), लाभ के विवरणों तथा हानि के लेखों का भी निरीक्षण कराना जिन्हें तैयार करना राष्ट्रपति आवश्यक समझते हों या तो किसी विशेष उपक्रम, व्यापारिक संस्था या परियोजना की वित्त-व्यवस्था को विनियमित करने वाले सांविधिक नियमों के प्रावधानों के अन्तर्गत बनाये गये हों।
  2. उन स्वायत तथा अर्द्ध-स्वायत निकायों के आय-व्यय के लेखा विवरणों की परीक्षा करना, जिनका लेखा-परीक्षण भारत के लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक द्वारा या राष्ट्रपति के निर्देशों या संसद द्वारा पारित किसी नियम के अन्तर्गत करना संभव हुआ हो।
  3. लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन पर अवस्था में विचार करना, जब राष्ट्रपति ने किन्हीं प्राप्तियों की लेखा परीक्षा करने या भंडारों तथा स्कान्धों (stocks) के लेखाओं का परीक्षण करने की आज्ञा दी हो।
लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन को आधार मानकर समिति इन कार्यों को सम्पन्न करती है। एक मंत्रालय के पश्चात् दूसरे मंत्रालय के प्रतिवेदनों की जांच की जाती है, और सचिवगण लेखा परीक्षण में उठाये गये प्रश्नों को स्पष्ट करने हेतु साक्षी के रूप में उपस्थित होने के लिए बाध्य होते हैं। इस प्रकार समिति स्वयं अपने निष्कर्ष तक पहुंचने तथा अपनी सिफारिशों को अन्तिम रूप देने की क्षमता रखती है। लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक की सेवाएं लोक लेखा समिति को स्थायी रूप से प्राप्त रहती हैं। 

वस्तुत: यह अधिकारी तो इस समिति का सच्चा मार्गदर्शक है। वह परीक्षण की रूपरेखा प्रस्तावित करता है। वह उन प्रश्नों को भी सुलझाता है जिनकी सरकारी साक्षियों-सचिवों-से स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है। सचमुच, उसके तथा समिति के पारस्परिक संबंध निकटतम तथा घनिष्टतम होते हैं। 

वस्तुत: वह समिति की कार्य करने वाली भुजा है। यह उसका मार्गदर्शक, दार्शनिक तथा मित्र है।’ वह तथा समिति आवश्यक रूप से पूरक-कार्य सम्पन्न करते हैं। अशोक चन्दा ने जो भारत के लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक रहे थे, यह कहा अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति कि “समिति की प्रभावशीलता उस पूर्णता पर आधारित होती है जिस पूर्णता के साथ लेखा-परीक्षक का कार्य संचालित किया गया है। 
इसी प्रकार, लेखा-परीक्षण की आलोचना का मूल्य उस समर्थन पर निर्भर करता है जो समिति से प्राप्त होता है। इन दोनों प्राधिकारियों के कार्य ही परस्पर संबंधित नहीं होते बल्कि उनके संबंध कुछ मात्रा में अन्योन्याश्रित भी होते हैं।”

समिति यह पता लगाने के लिए कि संसद द्वारा स्वीकृत धन सरकार द्वारा उसी मद में उपयोग किया गया है, लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन की जांच करती है। ‘मांग के क्षेत्राधीन’ (within the scope of the demand) वाक्यांश का अर्थ निम्नवत् है :
  1. सार्वजनिक व्यय संसदीय पूर्वानुमोदन के अभाव में संसद द्वारा स्वीकृत विनियोजनों से अधिक नहीं होना चाहिए।
  2. किसी मांग के अन्तर्गत जिन वस्तुओं पर व्यय किया गया है, उन्हें औचित्यपूर्ण होना चाहिए।
  3. अनुदान उसी प्रयोजन के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए जिसके लिए संसद द्वारा उसका अनुमोदन किया गया हो।
समिति इस बात की भी समीक्षा करती है कि अनुमान किस प्रकार बनाये जाते हैं जिससे “मतों की संख्या कम करने की प्रवृति को रोका जा सके या बड़ी धनराशि के प्रावधानों को सम्मिलित किया जा सके; क्योंकि यह माना जाता है कि इस प्रकार के अनुमानों पर संसदीय नियंत्रण कम हो जाता है।” समिति लेखे की भी जांच करती है ताकि विभाग के अतिव्यय पर नियंत्रण किया जा सके।

यह समिति व्यक्तियों, कागजों तथा अभिलेखों को तलब कर सकती है, और इसके निष्कर्ष प्रतिवेदन के रूप में संसद के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। सूक्ष्म निरीक्षण हेतु समिति आजकल अध्ययन समूहों का गठन भी करती है। इनका संबंध प्रतिरक्षा, रेलवे आदि विशिष्ट विभागों से होता है। ये अध्ययन समूह अपना प्रतिवेदन समिति के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। समिति के अर्थ को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए लेखा-नियंत्रक तथा महालेखापरीक्षक अन्तरिम प्रतिवेदन भी देता है। समिति उन पर विचार करती है। सदन के समक्ष प्रस्तुत अन्तिम प्रतिवेदन के संदर्भ में ही वह सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करती है। समिति के कार्य की यह कहकर आलोचना की जाती है कि जब तक समिति सार्वजनिक लेखाओं की पुनरीक्षा करती है, मामले पुराने पड़ जाते हैं। उक्त व्यवस्था इस आलोचना को निस्सार कर देती है। समिति की सिफारिशों की अधिसमय या परम्परा के कारण सरकार द्वारा स्वीकार किया जाता है। फिर भी,यदि सरकार समझती है कि अमुक सिफारिश किन्हीं कारणों से स्वीकार नहीं है तो वह उस सिफारिश के पुनर्विचार के लिए प्रार्थना कर सकती है। इस प्रकार बहुत से मामले आपसी चर्चा तथा विचारों के आदान-प्रदान से तय हो जाते हैं।

लोक लेखा समिति का संबंध ऐसे लेन-देनों तथा हानियों से होता है जो हो चुके होते हैं। यह लोक लेखाओं की शव-परीक्षा (Post-mortem) के समान है। फिर भी समिति के प्रतिवेदन मार्गदर्शन तथा चेतावनी के रूप में महत्व रखते हैं। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष के शब्दों में, “यह प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऐसा भी है जो इस बात की जांच या समीक्षा करेगा कि क्या किया गया है, तथा यह कार्यपालिका के शैथिल्य या लापरवाही पर बहुत बड़ा प्रतिबंध लगाती है। यह परीक्षण यदि उचित ढंग से किया जाये तो प्रशासन में सामान्य क्षमता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। समिति की जांच भावी अनुमानों तथा भावी नीतियों दोनों के लिए ही मार्गदर्शक के रूप में योग देती है।” यह स्मरणीय है कि लोक लेखा समिति निष्पादकीय निकाय नहीं है क्योंकि इसे कोई निष्पादकीय अधिकार नहीं दिये गये हैं। इसका कार्य केवल लोक-व्यय की पुनरीक्षा तक ही सीमित है। यह सामान्य आशा है कि समिति सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण के लिए एक प्रभावशाली शक्ति सिद्ध होगी।

लोक लेखा समिति के अधिकार

लोक लेखा समिति के कार्यों की शुरूआत भारत के महालेखापरीक्षक के प्रतिवेदन को प्राप्त करने के साथ होती है। प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के पश्चात् समिति की अनौपचारिक बैठक में महालेखापरीक्षक समिति को अपने प्रतिवेदन में उठाये गये मुख्य मुद्दों की पृष्ठभूमि तथा इनमें अन्तर्निहित गंभीर अनियमितताओं बाबत पूरी जानकारी देता है। यह समिति को विचारणीय बिन्दुओं की संक्षिप्त सूची बनाने तथा विभागों एवं मंत्रालयों के अधिकारियों के स्पष्टीकरण चाहने के लिए संभावित तर्क श्रृंखला के संदर्भ में भी अपनी राय बतलाता है। स्वयं ए.जी. अथवा उसका प्रतिनिधि समिति की बैठक के समय उपस्थित रहता है जब समिति द्वारा विभागीय अधिकारियों से जवाब तलब किया जाता है।

भारतीय संसदीय कार्यवाही नियम 143 के तहत महालेखापरीक्षक से प्राप्त जानकारी की पृष्ठभूमि में लोक लेखा समिति के कार्यों को निम्नवत् निरूपित किया गया है :
  1. भारत सरकार के विनियोजन लेखों का सूक्ष्म निरीक्षण करना;
  2. क्या व्यय उसी अधिकारी द्वारा किया गया है जो उसके लिए अधिकृत है?
  3. लेखों में दिखायी गई राशि को क्या वैध रूप से प्राप्त किया गया है तथा क्या उसे उन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए खर्च किया गया है जिनके लिए संसद ने अपने विनियोजन अधिनियम में स्वीकृति दे रखी है ;
इन आधारभूत कार्यों के अलावा लोक लेखा समिति का यह भी कर्तव्य है कि वह,
  1. विभिन्न सरकारी निगमों, उत्पादक संस्थानों तथा योजनाओं (Projects) के आय-व्यय के ब्यौरे तथा उनसे संबंधित महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन में दर्शायी टिप्पणियों की जांच करे ;
  2. तैयार किए गये प्रतिवेदन पर विचार करना तथा
  3. संसद अथवा राष्ट्रपति के आदेशों के अनुसार किसी स्वतंत्र निकाय अथवा निगम (Autonomous Bureau of Corportion) के लेखों के लिए महालेखापरीक्षक द्वारा तैयार अंकेक्षण प्रतिवेदनों की पृष्ठभूमि में इन इकाइयों के आय-व्यय लेखों की जांच करना
इन कर्तव्यों के निर्वाह के अलावा नियम संख्या 308(4) के अन्तर्गत समिति को किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि से किसी वित्तीय वर्ष में अधिक राशि खर्च किए जाने की स्थिति की जांच की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी है। नियमों में यह प्रावधान है कि समिति किसी भी ऐसे लेखों की जांच कर सकती है जो संसद के समक्ष प्रस्तुत किए गए हों। इस व्यवस्था के कारण समिति का कार्य-क्षेत्र काफी व्यापक हो जाता है फलत: वह राज्य निगमों दामोदर घाटी निगम, बन्दरगाह, न्यास, चाय बोर्ड, केन्द्रीय वैज्ञानिक तथा औद्योगिक शोध संस्थान जैसी संस्थाओं के लेखों की जांच कार्य कर अपना मन्तव्य सदन के समक्ष प्रस्तुत कर सकती है। समिति प्रत्येक लेखे पर विचार करते समय विभागीय अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगती है, यदि उसे कहीं अपव्यय अथवा हानि दिखायी दे और इसी दौरान वह प्रशासनिक संयत्र के कार्य-संचालन रीति की समीक्षा करके सुधार के आवश्यक सुझाव भी देती है। यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि पी.ए.सी. प्रत्येक मंत्रालय अथवा विभाग के लेखों की जांच करती है। नीति संबंधी परामर्श मुद्दों पर वह अपनी राय नहीं देती।

सन् 1959 में रेलवे बोर्ड ने समिति से नीति संबंधी परामर्श चाहा था तो पी.ए.सी. के अध्यक्ष ने जवाब दिया कि,”हम नीति निर्धारक संस्था नहीं है। हम केवल लेखों की जांच करने वाली संस्था हैं... नीति निर्णय तो सरकारी स्तर पर ही लिए जाने चाहिए।”अध्यक्ष के इस मन्तव्य से स्पष्ट होता है कि लोक लेखा समिति अपने अधिकार-क्षेत्र में रहकर कार्य करना अधिक तर्कसंगत मानती है, ताकि उसके लिए दलीय हितों के ऊपर उठकर कार्य करना संभव हो सके।

लोक लेखा समिति की कार्य प्रक्रिया

अपने गठन के पश्चात् समिति अपनी कार्यवाही की रूपरेखा तैयार कर सभी मंत्रालयों को तथा विभागों को सूचित कर देती है, ताकि उनके प्रतिनिधि नियत तिथि को समिति तथा महालेखा परीक्षक के समक्ष अपना स्पष्टीकरण देने को पूर्ण तैयारी के साथ उपस्थित हो सकें। आवश्यकतानुसार लोक लेखा समिति अपने को छोटे-छोटे कार्य समूहों में विभाजित करके अलग-अलग विभागों के लेखों की जांच व निरीक्षण का कार्य भी करती है। लेकिन विभागीय अधिकारियों की सुनवाई किसी अलग कार्य दल द्वारा नहीं की जा सकती है। यह तो कार्यदल द्वारा तैयार प्रतिवेदन के परिप्रेक्ष्य में पूरी समिति के समक्ष ही होती है।

आवश्यकता पड़ने पर समिति अपने सदस्यों के एक छोटे से अध्ययन दल को किसी योजना (Project) अथवा निगम के मौके पर निरीक्षण के लिए भेज सकती है।

समिति को यह पूरा अधिकार है कि वह अपनी जांच से संबंधित किसी दस्तावेज अथवा परिपत्र को मंगवाये अथवा किसी व्यक्ति को बुलवाये (यदि राष्ट्रीय सुरक्षा को इससे कोई खतरा उत्पन्न न हो।) अनुमान समिति, सार्वजनिक लेखा समिति एवं सार्वजनिक उद्यम समिति संसदीय लोकतंत्र व्यवस्था में लोक लेखा समिति एक ऐसा मंच है जहां सरकारी अधिकारी तथा लोक प्रतिनिधि आमने-सामने बैठकर विचार-विमर्श करते हैं तथा सचिव स्तर के अधिकारियों को विभिन्न राजनीतिक दलों के यदा-कदा गुस्सैल सदस्यों के प्रश्नों के विनम्रता से उत्तर देने की अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है। यदि वे अपने स्पष्टीकरण से समिति को संतुष्ट नहीं कर पाते हैं तो हार कर यह आश्वासन देना पड़ता है कि भविष्य में लोक व्यय में अपव्यय अथवा ऐसी किसी भी त्रृटि को टालने का प्रयास किया जाएगा। इस मौखिक स्पष्टीकरणों के साथ लिखित स्पष्टीकरण भी लिए जाते हैं तथा समिति की पूरी कार्यवाही का ब्यौरा शब्दश: रखा जाता है।

लोक लेखा समिति के कार्यों का मूल्यांकन

लोक लेखा समिति ने अपनी सिफारिशों को लागू कराने बाबत प्रक्रिया को नियमबद्ध कर रखा है। आन्तरिक कार्य नियम 27 में कहा गया है कि, “लोक सभा सचिवालय की लोक लेखा समिति शाखा द्वारा एक पूर्ण विवरण (Up-to-date Statement) रखा जाएगा जिसमें लोक लेखा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों द्वारा उठाये गये अथवा संभावित कदमों का ब्यौरा हो... तथा कमेटी की अगली बैठक के कम से कम एक सप्ताह पूर्व सभी सदस्यों में वितरित करने की व्यवस्था करें।”

यद्यपि सरकार के लिए समिति की हर सिफारिश मानना अनिवार्य नहीं है किन्तु व्यवहार में सरकार ऐसा प्रयास करती है कि समिति की अधिकाधिक सिफारिशों का क्रियान्वित करे। मोटे तौर पर समिति की सिफारिशें तीन शीर्षों में विभाजित की जा सकती है :

1. प्रशासनिक मामलों में लोक लेखा समिति की सिफारिशेंं - प्रशासकों के अधिकार तथा उन्हें उपयोग करने की स्वतंत्रता एवं नियमों की अवमानना से होने वाली आर्थिक क्षति के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को दंडित करने से संबंधित अनेक अनुशंसाए  (Recommendatoins) लोक लेखा समिति द्वारा अपने विभिन्न प्रतिवेदनों में की गयी हैं।

2. वित्तीय प्रशासन से संबंधित मुद्दों पर सुझाव देना - जैसे समय पर लेखा तथा प्रतिवेदन प्रस्तुत करना, बजट तथा अति-व्यय (Over expenditure) पर नियंत्रण, बिना संसदीय स्वीकृति के वित्तीय वर्ष में नयी योजनाएं प्रारम्भ करने की परिपाटी, समय-समय पर विभिन्न विभागों तथा लेखा-अधिकारियों द्वारा तैयार किए गये लेखों में समन्वय, बिना अनुमान किए योजनाओं पर व्यय करने की प्रवृति, राज्यों को दिए जाने वाले अनुदानों में अनियमितता, योजना प्रावधानों के अनुरूप विभिन्न योजनाएं पूरी न हो पाना, अंकेक्षण व्यवस्था का विस्तार कर आन्तरिक तथा प्रशासनिक अंकेक्षण प्रारम्भ करना, आदि मामलों पर समिति अपने सुझाव देती रहती है।

अन्य सामान्य मामलों में समिति सरकार के विभिन्न ठेकेदारी शर्तों, भण्डारण (Stores), कार्यशालाओं (Workshops) तथा सुरक्षा कारखानों में पायी जाने वाली अनियमितताओं की ओर भी सरकार का ध्यान आकर्षित करती रही है।
लोक लेखा समिति की छानबीन का सम्बन्ध पूर्ण हुये लेन-देन तथा की गयी हानि से होता है। यह लोक लेखाओं की शव-परीक्षा जैसी करता है। तथापि, समिति जो कुछ पाती है वह मार्ग दर्शन तथा चेतावनी के रूप में मूल्य रखता है। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष के शब्दों में, “यही मालूम होता है कि कोई व्यक्ति ऐसा भी है जो इस बात की परिनिरीक्षा करेगा कि क्या किया गया है, कार्यपालिका की ढील-ढाल या लापरवाही पर एक बहुत बड़ी रोक लगाती है। वह परीक्षा, यदि उचित रीति से कार्यान्वित की जाये तो प्रशासन को सामान्य कुशलता के मार्ग पर ले जाती है। समिति की जांच भावी अनुमानों तथा भावी नीतियों-दोनों के लिए मार्ग दर्शन के रूप में लाभकारी हो सकती है।” यह स्मरण रखना उचित होगा कि लोक लेखा समिति कोई निष्पादकीय निकाय नहीं है। इसे कोई निष्पादकीय अधिकार नहीं दिये गये हैं और इसका कार्य केवल लोक व्यय की परिनिरीक्षा तक ही सीमित है। यह आशा की जा सकती है कि समिति सार्वजनिक व्यय के नियंत्रण के कार्य में एक प्रभावशाली शक्ति सिद्ध होगी। फिर भी सरकारी उपेक्षा की नियमित पुनरावृत्ति एवं परिवर्तनशीलता यह सुझाते हैं कि लोक लेखा समिति के विचार-विवेचनों का मूल्य सीमित ही है। 

आस्टिन चेम्बरलेन के अनुसार, “यह न्यायधीशों की एक समिति है, जो अपने कार्य के समय सभी दलीय विचारधाराओं को एक ओर रख देती है।”

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