जेरेमी बेंथम का जीवन परिचय एवं बेंथम की प्रमुख रचनाएँ

जेरेमी बेंथम का जीवन परिचय

जेरेमी बेंथम का जन्म 15 फरवरी 1748 ई0 को लन्दन के एक प्रतिष्ठित वकील परिवार में हुआ। उसने 13 वर्ष की आयु में मैट्रिक तथा 15 वर्ष की आयु में 1763 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। उसके बाद उसने ‘लिंकन्स इन’ में कानून का अध्ययन किया और वहाँ से कानून का अध्ययन करने के पश्चात् उसने वकालत करना शुरू कर दिया। वकालत के पेशे से उसको अनुभव हुआ कि इंगलैण्ड के कानून में भारी त्रुटियाँ हैं। यदि ये त्रुटियाँ इंगलैण्ड के कानून में रहेंगी तो न्याय-व्यवस्था निरर्थक रहेगी। उसने महसूस किया कि कानून भंग करने वाले दण्ड से आसानी से बच जाते थे और निरपराध दण्ड पाते थे। उसने इंगलैंड के कानून के समस्त दोषों को दूर करने के प्रयास शुरू कर दिए। 

जेरेमी बेंथम ने 1776 में अपनी पुस्तक 'Fragments on Government' प्रकाशित करके इंगलैण्ड की राजनीति में तहलका मचा दिया। इस पुस्तक में बलेकस्टोन द्वारा प्रतिपादन इंगलिश कानून की टीकाओं में प्रतिपादित सिद्धान्तों की आलोचना की गई। इसके बाद कानून विशेषज्ञों ने बेंथम के सुझावों के अनुसार ही इंगलैंड की कानून व न्याय व्यवस्था में परिवर्तन व सुधार करने शुरू कर दिए। इसके पश्चात भी बेंथम प्रतिदिन कुछ न कुछ लिखता रहा। उसकी ख्याति को देखकर उसके पिता ने उसके लिए एक सौ पौण्ड की वार्षिक आय की व्यवस्था कर दी ताकि वह आर्थिक चिन्ता से मुक्त होकर अपना लेखन कार्य करता रहे। उसने नीतिशास्त्र, कानून, तर्कशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दण्डशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों का गहरा ज्ञान था। उसने इन क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाए और एक विशाल राजनीतिक चिन्तन को जन्म दिया। 

1789 में उसकी रचना ‘नैतिकता और विधान निर्माण के सिद्धान्त’ का प्रकाशन हुआ। इससे उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। 1792 में फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने उसे ‘फ्रेंच नागरिक’ की सम्मानजनक पदवी प्रदान की। इसी वर्ष उसके पिता की मृत्यु हो गई। विरासत में मिले धन से उसकी आर्थिक स्थिति अधिक सुदृढ़ हो गई और उसने अपने जीवन का शेष समय लन्दन स्थित अपने भवन 'Hermitage' में बिताया। यहीं पर उसने एक उग्र-सुधारवादी के रूप में अपना कार्य किया। उसने अपने उपयोगितावादी दर्शन को इसी भवन में परिपक्व किया। 6 जून 1832 को 84 वर्ष की आयु में उसका इसी स्थान पर निधन हो गया।

जेरेमी बेंथम की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

जेरेमी बेंथम निर्बाध रूप से लिखने वाला एक महान् विचारक था। उसने तर्कशास्त्र, कानून, दण्डशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विविध क्षेत्रें में अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाए। उसकी अधिकतर रचनाएँ अपूर्ण हैं। उसका सम्पूर्ण लेखन कार्य 148 सन्दूकों में पाण्डुलिपियों के रूप में लन्दन विश्वविद्यालय और ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित रखा हुआ है। जेरेमी बेंथम की प्रमुख रचनाएँ हैं :-

1. फ्रेगमेण्टस ऑन गवर्नमेंट : यह पुस्तक 1776 ई0 में प्रकाशित हुई। यह बेंथम की प्रथम पुस्तक है। इस पुस्तक में बेंथम ने ब्लैकस्टोन की कानूनी टीकाओं पर तीव्र प्रहार किए हैं। 

इस पुस्तक ने इंगलैण्ड के न्यायिक क्षेत्रें में हलचल मचा दी और इससे बेंथम का सम्मान बढ़ा। इस पुस्तक में बेंथम ने तत्कालीन इंगलैण्ड की न्याय-व्यवस्था के दोषों व उन्हें दूर करने के उपायों का वर्णन किया है।

2. एन इण्ट्रोडक्शन टू दि प्रिन्सिपल्स ऑफ मारल्स एण्ड लेजिस्लेशन : इस पुस्तक का प्रकाशन 1789 ई0 में हुआ। इस पुस्तक में उपयोगितावाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। यह बेंथम की सर्वोत्तम रचना है।

इन दो पुस्तकों के अतिरिक्त भी बेंथम ने कुछ अन्य रचनाएँ भी लिखीं जो हैं :-
  1. डिसकोर्सेज आन सिविल एण्ड पेनल लेजिस्लेशन (Discourses on Civil and Penal Legislation, 1802)
  2. प्रिन्सिपल्स ऑफ इण्टरनेशनल लॉ (Principles of International Law)
  3. ए थ्योरी ऑफ पनिशमेण्ट एण्ड रिवाड्र्स (A Theory of Punishment and Rewards, 1811)
  4. ए ट्रीएटाईज ऑन ज्यूडिशियल एवीडेंस (A treatise on Judicial Evidence, 1813)
  5. दॉ बुक ऑफ फैलेसीज (The Book of Fallacies, 1824)
  6. कॉन्सटीट्यूशनल कोड ;Constituttional Code, 1830)

बेंथम  की अध्ययन पद्धति

बेंथम ने अपने चिन्तन में प्रयोगात्मक पद्धति का अनुसरण किया है। उसके उपयोगितावाद का सम्बन्ध जीवन के व्यावहारिक मूल्यों से है। इसलिए उसने वास्तविक जगत् के मनुष्यों के व्यवहार को जानने के लिए अनुभवमूलक पद्धति का ही सहारा लिया है। बेंथम ने निरीक्षण, प्रमाण और अनुभव के आधार पर ही वास्तविक तथ्यों को जानने का प्रयास किया है। वह किसी वस्तु को कल्पना के आधार पर स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है। उसका विश्वास है कि निरीक्षण-परीक्षण एवं अनुभव पर आधारित परिणाम के अनुसार ही सत्य या असत्य की पहचान हो सकती है। वह प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता की कसौटी पर रखता है। यदि कोई वस्तु उपयोगिता की दृष्टि से निरर्थक है, तो वह त्याज्य है। उपयोगिता की धारणा मूलत: प्रयोगात्मक है। बेंथम उस अनुभव में विश्वास करता है जो वास्तविक तथ्यों से उत्पन्न होता है और जिसका प्रयोग व्यावहारिक जगत् में किया जा सकता है। 

उसका मानना है कि अनुभव ही ज्ञान का स्रोत है और सत्यता की कसौटी है। यदि किसी तथ्य के बारे में कोई सन्देह होता है तो उसका समाधान अनुभव के द्वारा ही किया जा सकता है। इस प्रकार अनुभव विचारों का अन्तिम स्रोत भी है। इसके अतिरिक्त बेंथम ने तथ्यों की बौद्धिक व्याख्या एवं वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए इन्द्रिय संसर्ग का होना भी अनिवार्य माना है। इन्द्रिय संसर्ग से संवेदना उत्पन्न होती है और संवेदना से विचार उत्पन्न होते हैं। यही संसर्ग अनुभव को प्रभावित करता रहता है। इस प्रकार बेंथम की पद्धति संसर्ग, निरीक्षण, अनुभव और प्रमाण पर आधारित होने के कारण आगमनात्मक, अनुभवात्मक, विश्लेषणात्मक व विवेचनात्मक है। बेंथम की प्रयोगात्मक पद्धति उसकी महत्त्वपूर्ण देन है।

जेरेमी बेंथम के सुधार

अनेक लेखकों ने बेंथम को एक राजनीतिक दार्शनिक की बजाए एक महान् सुधारवादी विचारक माना है। उसने तत्कालीन इंगलैण्ड की न्याय-व्यवस्था, जेलखानों, विधि, शासन-प्रणाली, शिक्षा-पद्धति, धार्मिक व्यवस्था आदि में जो सुधार किए, उन पर ही आगामी सुधारों की प्रक्रिया आश्रित हो गई। उनके सुधारवादी विचारों के सुझावों से ही सारे संसार में सुधारों की लहर चल पड़ी। बेंथम के प्रमुख सुधारवादी विचार हैं :-

1. न्याय व्यवस्था में सुधार

बेंथम ने तत्कालीन इंगलैण्ड की न्याय-व्यवस्था को दोषपूर्ण मानते हुए उसमें वांछित सुधारों का सुझाव दिया है। उसने महंगी व जटिल न्याय-व्यवस्था की कटु आलोचना की है। उसने तत्कालीन इंगलैण्ड की अदालतों की कार्य-विधि को आसान बनाने व उसकी कार्यक्षमता बढ़ाने के सुझाव दिए हैं। उसके प्रमुख सुझाव हैं -
  1. किसी मुकद्दमे का निर्णण एक ही न्यायधीश के द्वारा ही होना चाहिए, तीन या चार न्यायधीशों द्वारा नहीं। उसका मत है कि अधिक संख्या से उत्तरदायित्व में कमी आती है। पूर्ण उत्तरदायित्व की भावना केवल एक न्यायधीश में ही हो सकती है। अनेक न्यायधीशों में परस्पर मतभेद की सम्भावना होने के कारण न्याय निरपेक्ष नहीं रह जाता है। अत: पूर्ण न्याय की प्राप्ति के लिए न्यायधीशों की संख्या सीमित होनी चाहिए।
  2. प्रत्येक व्यक्ति को अपना वकील स्वयं बनना चाहिए ताकि वह मध्यस्थ की औपचारिक कार्यवाही से बच सके।
  3. न्याय-व्यवस्था में दक्षता, निपुणता और निष्पक्षता लाने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायधीशों की नियुक्ति योग्यता, गुण और प्रशिक्षण के आधार पर होनी चाहिए, वंश या कुल के आधार पर नहीं। इससे न्याय-व्यवस्था में अज्ञान व पक्षपात को बढ़ावा मिलता है।
  4. मुकद्दमे का निर्णय कठोर नियमों के अनुसार न करके न्यायिक विवेक (Judicial Discretion) के अनुसार किया जाना चाहिए।
  5. न्याय-व्यवस्था सस्ती होनी चाहिए।
  6. न्याय शीघ्र मिलना चाहिए।
  7. न्यायिक प्रक्रिया में ज्यूरी पद्धति का प्रयोग करना चाहिए ताकि न्यायधीशों की निरंकुशता को रोका जा सके।
  8. न्याय-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए कानूनों की भाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए।
  9. प्रत्येक न्यायालय का क्षेत्रधिकार अलग-अलग होना चाहिए ताकि अतिक्रमण को रोका जा सके।
  10. जनमत की अभिव्यक्ति के लिए न्याय-व्यवस्था में प्रेक्षक नियुक्त किए जाने चाहिएं।

2. जेल-व्यवस्था में सुधार 

बेंथम के समय में जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उन्हें अन्धेरी कोठरियों व तहखानों में रखा जाता था। उन्हें गन्दा भोजन दिया जाता था। बालक और वयस्क अपराधियों को एक साथर रखा जाता था। जेल अपराधियों व अपराधों का अखाड़ा मात्र थे। जेल में जाने के बाद वहाँ से बाहर आने वाला प्रत्येक अपराधी भयानक व कुख्यात अपराधी की संज्ञा प्राप्त कर लेता था। इस व्यवस्था से दु:खी होकर बेंथम ने इंगलैण्ड की जेल व्यवस्था मेंसुधारों का सुझाव दिया :-
  1. जेल में ही अपराधियों को औद्योगिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे बाहर आकर समाज की आमधारा से जुड़ जाएँ।
  2. उसने ‘गोलाकार कारावास’ (Panopticon) के निर्माण का सुझाव दिया ताकि उसमें रहकर कैदी ईमानदार और परिश्रमी बन सकें। उसने इस योजना के तहत अर्ध-चन्द्राकार इमारतें बनाने का सुझाव दिया ताकि जेल की अधिकारी अपने निवास स्थान से इन इमारतों पर नजर रख सके।
  3. अपराधियों को आत्मिक उत्थान हेतु नैतिक व धार्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए ताकि वे जेल से बाहर जाने पर अच्छे नागरिक साबित हों।
  4. कारावास से मुक्त होने पर उनके लिए उस समय तक नौकरी देने की व्यवस्था की जाए जब तक वे समाज की अभिन्न धारा से न जुड़ जाएँ।
आगे चलकर जेलों में जो भी सुधार हुए उन पर बेंथम का ही व्यापक प्रभाव पड़ा।

3. दण्ड-व्यवस्था में सुधार 

बेंथम ने दण्ड-विधान के क्षेत्र में भी अपने उपयोगिता के सिद्धान्त को लागू करके उस समय में प्रचलित दण्ड-व्यवस्था के अनेक दोषों पर विचार किया है। उस समय छोटे-छोटे अपराधों के लिए अमानवीय व कठोर दण्ड दिया जाता था। बेंथम ने महसूस किया कि छोटे से अपराध के लिए कठोर सजा देने से अपराधों में वृद्धि होती है। दण्ड का लक्ष्य समाज में अपराधों को रोकना होना चाहिए। इसलिए उसने दण्ड-व्यवस्था में कुछ सुधारों के उपाय सुझाए हैं।
  1. दण्ड समान भाव से देना चाहिए ताकि अपराधी को अनावश्यक पीड़ा उत्पन्न न हो। अर्थात् समान अपराध के लिए समान दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।
  2. अपराधी को दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। उसका मानना था कि दण्ड की निश्चितता अपराधों को रोकती है।
  3. दण्ड की पीड़ा अपराध की बुराई से थोड़ी ही अधिक होनी चाहिए ताकि अपराध की पुनरावृत्ति न हो।
  4. अपराधों का वर्गीकरण किया जाना चाहिए।
  5. दण्ड का उद्देश्य अपराधी को सुधारना होना चाहिए।
  6. दण्ड का स्वरूप अपराधी की आयु व लिंग के आधार पर निर्धारित होना चाहिए।
  7. दण्ड देने से पहले अपराधी की मानसिक स्थिति व अपराध के कारणों पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए।
  8. कानून द्वारा दण्ड को कम करने या क्षमा करने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।
इस प्रकार बेंथम ने अपने दण्ड विधान में सुधारों को प्रतिरोध सिद्धान्त (Deterrent Theory) तथा सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative Theory) के मिश्रण से तैयार किया है। उसके द्वारा सुझाए गए उपाय आज भी प्रासंगिक हैं। उसके सुझावों को आगे चलकर अनेक देशों ने स्वीकार किया है।

4. कानून-व्यवस्था में सुधार

बेंथम ने अपने समय के कानून को अव्यावहारिक व अनुपयोगी मानते हुए उसकी आलोचना की है। उसने महसूस किया कि सभी कानून गरीबों को दबाने वाले हैं और अमीरों का पोषण करने वाले हैं। उसने तत्कालीन कानून-व्यवस्था में सुधारों के सुझाव दिए :-
  1. कानूनों का संहिताकरण (Codification) किया जाना चाहिए ताकि उनके मध्य क्रमबद्धता कायम की जा सके। इसके लिए कानूनों को विभिन्न श्रेणियों व वर्गों में बाँटा जाना चाहिए।
  2. सरकार को कानून की अनभिज्ञता को दूर करने के लिए अपने नागरिकों को अनिवार्य शिक्षा के माध्यम से प्रशिक्षित करना चाहिए। इसके लिए सरकार को सस्ते मूल्यों पर पुस्तकें जनता तक पहुँचानी चाहिएं।
  3. कानून की भाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए ताकि आम व्यक्ति भी उसको समझ सके। कानून में प्रयुक्त होने वाले कठिन शब्दों का सरलीकरण किया जाना चाहिए।
  4. कानून जनता के हित को ध्यान में रखकर ही बनाए जाने चाहिएं।
इस प्रकार बेंथम ने कानून को ऐसा बनाने का सुझाव दिया जिससे व्यक्तियों के सुखों में वृद्धि हो।

5. शासन व्यवस्था में सुधार 

बेंथम ने सरकार या शासन का उद्देश्य अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम सुख को प्रदान करना माना है। उसने सभी शासन-प्रणालियों में गणतन्त्रीय शासन-प्रणाली का ही समर्थन किया है। लेकिन उसने तत्कालीन ब्रिटिश -पद्धति को अपूर्ण मानकर उसमें कुछ सुधारों की योजना प्रस्तुत की है।
  1. उसने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का समर्थन किया है। उसने इसके लिए थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा होना भी आवश्यक बताया है। उस समय संसद का सदस्य चुनने का अधिकार कम ही व्यक्तियों को प्राप्त था।
  2. उसने संसद के चुनाव प्रतिवर्ष समय पर कराने का सुझाव दिया है। इससे सदस्य क्रियाशील होंगे व निर्वाचकों को उनकी योग्यता परखने का अवसर प्राप्त होगा।
  3. उसने गुप्त मतदान प्रणाली का समर्थन किया है। इससे निष्पक्ष चुनावों को बढ़ावा मिलेगा।
  4. उसने संसद के उपरि सदन को समाप्त करने का भी सुझाव दिया है ताकि इसके अनावश्यक हस्तक्षेप का निम्न सदन पर दुष्प्रभाव न पड़ सके। 
उसने राजतन्त्र को समाप्त करके गणतन्त्रीय शासन प्रणाली अपनाने का सुझाव दिया है। उसका सोचना है कि गणतन्त्रीय शासन-प्रणाली ही लोकहित में कार्य करेगी। इससे जनता की स्वतन्त्रता सुरक्षित रहेगी। उसका गणतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थन करना राजतन्त्र की आलोचना को दर्शाता है। उसके सुझावों को आज अनेक लोकतन्त्रीय देशों में अपनाया जा चुका है। आज इंगलैण्ड में उपरि सदन का महत्त्व गौण हो चुका है। इससे बेंथम की राजनीतिक दूरदर्शिता का पता चलता है।

6. शिक्षा में सुधार

बेंथम ने मनुष्य जाति के उत्थान के लिए शिक्षा को आवश्यक माना है। उसका मानना है कि शिक्षा व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि करती है और आनन्द में भी वृद्धि करती है। इसलिए उसने तत्कालीन शिक्षा योजना को समाज के लिए अनुपयोगी बतलाया। उसने कहा कि यह शिक्षा-पद्धति अमीरों के एकाधिकार के रूप में उनके हितों का ही पोषण करती है। अत: इसे जनतान्त्रिक बनाने के लिए इसमें कुछ परिवर्तन करने जरूरी हैं। उसने शिक्षा में सुधार किए :-
  1. उसने मतदान के लिए पढ़ने की योग्यता को आवश्यक माना।
  2. उसे जेल में रहने वाले अपराधियों की औद्योगिक व नैतिक शिक्षा पर जोर दिया।
  3. उसने निर्धन वर्ग के छात्रों के लिए विषेष रूप से शिक्षा पर बल दिया। इसके लिए उसने अपने शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव में दो प्रकार की शिक्षा-व्यवस्थाओं का सुझाव दिया। एक निर्धन वर्ग के लिए तथा दूसरी मध्यम तथा समृद्ध वर्ग के बच्चों के लिए।
  4. उसने शिक्षा में बौद्धिक विकास के विषयों के अध्ययन पर बल दिया।
  5. अपने छात्रों के लिए जीवन में उपयोगी तथा लाभदायक विषयों के अध्ययन पर जोर दिया।
  6. उसने छात्रों की नैसर्गिक क्षमता या स्वाभाविक रुचि के अनुसार ही शिक्षा प्रदान करने का समर्थन किया।
  7.  उसने उच्च वर्ग के लिए अलग शिक्षा पद्धति का सुझाव दिया। इसे 'Monitorial System' कहा जाता है।
बेंथम के समय में सार्वजनिक शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। सत्तारूढ़ वर्ग को भय था कि यदि गरीब वर्ग शिक्षित हो गया तो वह उनकी सत्ता को चुनौती देकर उखाड़ फेंकेगा। इससे सरकारी खर्च में भी वृद्धि होगी। इसके बावजूद भी बेंथम ने शिक्षा सुधारों की योजना प्रस् की जो आगे चलकर इंगलैण्ड की शिक्षा योजना का आधार बनी। अमेरिका, कनाडा तथा अन्य प्रगतिशील देशों ने भी बेंथम के ही सुझावों को स्वीकार करके उसके महत्त्व को बढ़ाया है। अत: आधुनिक समय में शिक्षा-प्रणाली बेंथम की बहुत ऋणी है। बेंथम के शाश्वत महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

7. अन्य सुधार

बेंथम ने उपर्युक्त सुधारों के अतिरिक्त भी सुधार प्रस् किए हैं। उसने अहस्तक्षेप की नीति का समर्थन किया है। उसने उपनिवेशों को आर्थिक हित के लाभदायक नहीं माना है। उसने स्वतन्त्र व्यापार नीति का समर्थन किया है। उसने धर्म के क्षेत्र में चर्च की कटु आलोचना की है। वह चर्च को एक ऐसी संस्था बनाने का सुझाव देता है जो मनुष्य मात्र का हित पूरा करने में सक्षम हो। उसने गरीबों की भलाई के लिए (Poor Law) बनाने का सुझाव दिया है। उसने स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में भी अपनी योजनाएँ प्रस्तुत की हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिस पर बेंथम ने अपने सुधारवादी विचार प्रस्तुत न किए हों। 

अत: बेंथम को राजनीतिक दार्शनिक की अपेक्षा एक सुधारवादी विचारक मानना सर्वथा सही है।

1 Comments

Previous Post Next Post