जॉन स्टुअर्ट मिल का जीवन परिचय, महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

जॉन स्टुअर्ट मिल का जीवन परिचय

उपयोगितावाद के अन्तिम प्रबल समर्थक जॉन स्टुअर्ट मिल का जन्म 20 मई, सन् 1806 ई0 को लन्दन में हुआ। वह अपने पिता जेम्स मिल (1773-1836) की प्रथम सन्तान था। उसके पिता स्वयं उपयोगितावादी सुधारक होने के नाते उसे उपयोगितावादी शिक्षा देना चाहते थे। जॉन स्टुअर्ट मिल स्वयं भी एक प्रतिभाशाली बालक था। उसने मात्र 3 वर्ष की आयु में ही ग्रीक तथा 8 वर्ष की आयु में लैटिन भाषा सीख ली थी। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उसके पिता जेम्स मिल ने उसे अपने निर्देशन व अनुशासन में रखा। उसने अपने पिता के मार्ग-दर्शन में ही जेनोफोन, हेरोडोटस, आइसोक्रेटस, प्लेटो, होमर, थ्यूसीडाइटस, अरिस्टोफेन्स, डेमोन्सथेनीज, अरस्तू, एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि के ग्रन्थों का गहन एवं तर्कपूर्ण अध्ययन किया। वह एक एकान्तप्रिय एवं अध्ययन प्रेमी विचारक था। वह किसी से मिलना नहीं चाहता था, इसलिए उसे मानसिक तनाव ने घेर लिया। इसलिए उसके पिता ने उसे 1820 में फ्रांस भेज दिया ताकि वह स्वास्थ्य लाभ पा सके। वहाँ उसने बेन्थम के छोटे भाई सैमुअल बेन्थम के पास रहकर प्राकृतिक सौन्दर्य का भरपूर आनन्द उठाया। इससे उसे मानसिक तनावों से मुक्ति मिली और वह वापिस आकर इंगलैण्ड में रहकर अध्ययन में जुट गया।

वापिस लौटकर जॉट स्टुअर्ट मिल ने बेन्थम की पुस्तक ‘कानून के सिद्धान्त’ का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उसने प्रसिद्ध विधि-वेता जॉन ऑस्टिन से कानून की शिक्षा प्राप्त की। वह मात्र 16 वर्ष की आयु में ही एक प्रौढ़ विद्वान् बन चुका था। 1823 में उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी में क्लर्क की नौकरी मिल गई और वह इस पद पर 1858 तक कार्यरत रहा। यहाँ रहकर उसे शासन सम्बन्धी समस्याओं का गहरा अनुभव प्राप्त हुआ। 1826 में उसके जीवन में कठोर बौद्धिक अनुशासन के कारण मानसिक संकट पैदा हो गया। इस दौरान उसने वड्र्सवर्थ एवं कॉलरिज की कविताएँ पढ़ीं। इससे उसके स्वभाव व चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। अब उसके अन्दर एक नवीन मानव का जन्म हुआ। इसके बाद 1831 में उसका परिचय श्रीमती हैरियट टेलर नामक सम्भ्रान्त महिला से हुआ। उसकी मित्रता ने उसके मानसिक तनाव को दूर कर दिया। दोनों की प्रगाढ़ मित्रता टेलर के पति की मृत्यु के पश्चात् 1851 में परिणय-सूत्र में बदल गई। इसके बाद दोनों ने पारस्परिक सहयोग से रचनाएँ लिखीं। 

मिल ने स्वयं कहा है- “श्रीमती टेलर बुद्धि और प्रतिभा की साकार प्रतिमा थी।” उसने अपने जीवन के शेष वर्ष अपनी पत्नी की मृत्यु (1858 ई0) के बाद ‘एविग्वान’ नामक नगर में अपनी पत्नी की कब्र के पास बिताए। 1865 में वह वेस्टमिंस्टर निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य चुना गया। 1866 से 1868 तक भी वह संसद सदस्य रहा। इस दौरान उसने आयरलैण्ड में भूमि-सुधार, किसानों की स्थिति, महिला-मताधिकार, बौद्धिक कार्यकारियों की स्थिति, श्रमिक वर्ग के हितों आदि के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। लेकिन वह जन-नायक नहीं बन सका। ग्लैडस्टन ने कहा है- “राजनीतिज्ञ के रूप में उसके असफल होने का कारण उसके आगे बढ़े हुए विचारों की अपेक्षा उसकी समझ-बूझ एवं व्यवहार की कमियाँ थीं।” लेकिन इस कथन में पूर्ण सच्चाई नहीं है। मिल एक असाधारण, श्रेष्ठ एवं संत कोटि का विचारक था। उसमें बौद्धिक प्रतिभा, आन्दोलनकारी क्षमता, संवेदनशील हृदय, स्नेही प्रवृत्ति एवं स्वतन्त्रता के प्रति अथाह प्रेम का सुन्दर समन्वय था। स्वयं ग्लैडस्टन ने स्वीकार किया है- “जब जॉन बोलता था तो मुझे यह अनुभूति होती थी कि मैं एक सन्त की वाणी सुन रहा हूँ।” 1873 में उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई और उसे उसकी पत्नी की कब्र में ही दफना दिया गया।

जॉन स्टुअर्ट मिल की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

जॉन स्टुअर्ट मिल एक तर्कशील व बुद्धिमान लेखक था। उसने अपनी प्रतिभा के ‘राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, अध्ययनशास्त्र, आचारशास्त्र तथा न्यायशास्त्र आदि विषयों में जौहर दिखाए। उसकी रचनाओं पर उसके पिता जेम्स व बेन्थम का प्रभाव परिलक्षित होता है। उसकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है :- (i) उसके जीवनकाल की रचनाएँ (ii) उसकी मृत्यु के बाद की रचनाएँ। प्रथम कोटि की रचनाओं में रचनाएँ शामिल हैं:-
  1. सिस्टम ऑफ लॉजिक (System of Logic, 1843)
  2. दि प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी (The Principles of Political Economy, 1848)
  3. ऑन लिबर्टी (On Liberty, 1859)
  4. थॉटस ऑन पार्लियामेण्टरी रिफोर्म (Thoughts on Parliamentary Reform 1859)
  5. कंसीडरेशन ऑफ रिप्रेजैण्टेटिव गवर्नमेंट (Consideration on Representative Government, 1860)
  6. यूटिलिटेरियनिज्म (Utilitarianism, 1863)
  7. दि सब्जेक्शन ऑफ विमैन (The Subjection of Women, 1869)
उसके जीवनकाल में ये रचनाएँ ही लिखी गई। परन्तु उसकी मृत्यु के बाद भी उसके शुभचिन्तकों ने उसकी रचनाओं को प्रकाशित करवाया। उसकी मृत्यु के बाद (1873 ईo) की रचनाएँ हैं :-
  1. आटोबॉयोग्राफी (Autobiography, 1873)
  2. एसेज ऑन रिलीजन (Essays on Religion, 1874)
  3. लैटरस (Letters, 1910)
मिल की रचनाएँ उसकी बहुमुखी प्रतिभा को साकार करने वाले प्रतिबिम्ब हैं। उसकी रचनाएँ उसके व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली तथा जीवन के सत्य पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली जीवन गाथाएँ हैं।

जॉन स्टुअर्ट मिल की अध्ययन की पद्धति

जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘सिस्टम ऑफ लॉजिक’ (System of Logic) में समाजशास्त्रें के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति’ (Scientific Method) के बारे में चर्चा की हैं उसका कहना था कि समाजशास्त्र की पद्धतियों को भी प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों की तरह ही कठोर बनाना चाहिए। उसने अपने अध्ययन में चार तरह की पद्धतियों का वर्णन किया है। उसकी प्रमुख पद्धतियाँ हैं :-

ऐतिहासिक पद्धति 

में किसी भी वस्तु अथवा विचार के उद्भव और विकास के इतिहास का अध्ययन किया जाता है। मिल का मानना है कि ऐतिहासिक पद्धति आगमनात्मक होती है। वह मानव व समाज को परिवर्तनशील मानकर उसके परिवर्तनों का इस विधि से अध्ययन करना चाहता है। उसका मानना है कि किसी विशिष्ट समय में सामाजिक परिस्थितियाँ ही समाज का स्वरूप निर्धारित करती है। परन्तु कई बार ऐतिहासिक तथ्य और घटनाएँ कालांतर में सामान्यकृत हो जाते हैं। इससे इस विधि की सत्यता व विश्वसनीयता कम हो जाती है।

प्रयोगात्मक पद्धति 

किसी विशिष्ट अनुभव पर आधारित होती है। इसको रासायनिक पद्धति भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत रसायनशास्त्री की तरह समाजशास्त्र के विद्वान् विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों को मिलाकर सामान्य सिद्धान्त के निर्माण के प्रयास करते हैं। मिल की धारणा है कि सामाजिक परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं। किसी एक घटना को दूसरी घटना से जोड़ना तर्कसंगत नहीं हो सकता। इसलिए यह पद्धति भी राजनीतिशास्त्र के अध्ययन के लिए उपयोगी नहीं हो सकती।

ज्यामितीय विधि 

भी पूर्व कतिपय नियमों पर आधारित होती है। नियमों को परिवर्तनशील समाज में लागू करना कठिन कार्य है। इससे समाज की वास्तविक घटनाओं की व्याख्या करना असम्भव होता है। समाजशास्त्र में पूर्व निर्धारित नियमों के अभाव में इसे लागू नहीं किया जा सकता।

निगमनात्मक पद्धति 

निगमनात्मक पद्धति में निगमन तथा आगमन दोनों का सम्मिश्रण होता है। इसे भौतिक पद्धति भी कहा जाता है। इस पद्धति में किसी एक या कुछ मौलिक मान्यताओं से नहीं, अपितु अनेक पूर्वकथित तथ्यों से निगमन की प्रक्रिया शुरू की जाती है। प्रत्येक कार्य को कारण का परिणाम मानकर समाज की घटनाओं का अध्ययन किया जाता है। इसमें तथ्यों का निरीक्षण, परीक्षण व परीक्षण से प्राप्त परिणामों का सामान्यीकरण करके सिद्धान्तों की रचना की जाती है। उन सिद्धान्तों को विशेष परिस्थितियों में दोबारा परीक्षण करके निश्चित रूप प्रदान किया जाता है।
इस प्रकार जॉन स्टुअर्ट मिल ने अध्ययन की चार पद्धतियों पर विस्तृत चर्चा करके आगमनात्मक (Inductive) तथा निगमनात्मक (Deductive) का मिश्रित रूप स्वीकार किया है। उसने कहा है कि समाजशास्त्रें में रायायनिक व ज्यामितीय विधियों का प्रयोग नहीं हो सकता। उसने अपने अध्ययन में आगमनात्मक तरीके द्वारा उपलब्ध तथ्यों की निगमनात्मक प्रयोग करके ऐतिहासिक व भौतिक पद्धतियों को मिला दिया है। उसकी अध्ययन पद्धति में तीन बातें प्रमुख हैं :-
  1. अनुभव के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों व घटनाओं से सामान्य सिद्धान्त की खोज करना।
  2. अनुभव द्वारा उपलब्ध तथ्यों का निगमनात्मक प्रयोग करना।
  3. अनुभव के द्वारा तथ्यों की सत्यता को प्रमाणित करना।
उसके द्वारा आगमनात्मक तथा निगमनात्मक पद्धति को मिलाना विरोधाभास पैदा करता है। इसलिए उसकी अध्ययन पद्धति को आलोचना का भी शिकार होना पड़ा है। लेकिन सेबाइन ने कहा है कि- “सामाजिक विज्ञानों को आगमनात्मक व निगमनात्मक दोनों पद्धतियों की जरूरत है।” इसलिए जॉन स्टुअर्ट मिल की पद्धति को समाजशास्त्री पद्धति भी कहा जाता है। यह पद्धति आगमनात्मक व निगमनात्मक दोनों पद्धतियों को सामंजस्यपूर्ण प्रयोग पर आधारित है।

मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए संशोधन

मिल के समय में बेन्थम के उपयोगितावाद की बहुत अधिक आलोचना हो रही थी। आलोचक विद्वानों का आरोप था कि यह कोरे भौतिक एवं ऐन्द्रिय सुख पर आधारित है। कई लेखकों ने इसे सूअर-दर्शन (Pig Philosophy) कहकर आलोचना की है। लेकिन जॉन स्टुअर्ट मिल बेन्थम के सच्चे शिष्य होने के नाते उसकी आलोचनाओं को सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए वे इसके बचाव में आगे आए और उपयोगितावाद के ऊपर लगाए गए आरोपों को मुक्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। लेकिन मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद का अन्धाधुन्ध अनुसरण करने की बजाय उसे कुछ परिवर्तनों के साथ पेश किया। उसने बेन्थम के भौतिकवाद के स्थान पर नैतिकता, अन्त:करण और स्वतन्त्रता पर बल दिया। परन्तु बेन्थम के उपयोगितावाद के बचाव व संशोधन में वह इतना आगे निकल गया कि वह अपने वास्तविक मार्ग से लगभग हट सा गया। इसलिए अनेक विद्वानों ने कहा है कि “जो कुछ मिल ने लिखा है, उसका बेन्थम के उपयोगितावाद से कुछ लेना-देना नहीं है। उसने स्वयं भी कहा है कि- “मैं पीटर हूँ जिसने अपना गुरु नकार दिया है।” उसके द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए संशोधन हैं :-

सुखमापक गणनाविधि में संशोधन 

मिल का कहना है कि इस विधि से सुख की मात्रा का आकलन निष्पक्ष रूप से नहीं किया जा सकता। सुख को वस्तुगत दृष्टि से नहीं मापा जा सकता। सुख एक आत्मपरक अनुभूति है जिसे सम्बन्धित व्यक्ति ही अनुभव कर सकता है। उसके अनुसार सुख का तात्पर्य केवल इन्द्रिय-सुख ही नहीं, बल्कि मानसिक एवं नैतिक सुख से भी होता है। इस आधार पर मिल ने सुखमापक गणना विधि को मूर्खतापूर्ण बताया है। उसका कहना है कि सुख की गणना दो सुख देने वाली वस्तुओं की प्रगाढ़ता की तुलना करके ही ज्ञात की जा सकती है। इसके लिए समुचित अनुभव का होना आवश्यक है। दोनों वस्तुओं के समुचित अनुभव के बिना सुख का पता नहीं लगाया जा सकता। इस प्रकार सुखमापक गणनाविधि (Felicific Calculus) हास्यास्पद व उपयोगितावाद के दुर्ग में एक दरार है।

सुखों में गुणात्मक अन्तर 

मिल के अनुसार विभिन्न प्रकार के सुखों में अन्तर होता है। मिल ने बेन्थम के मात्रात्मक भेद का खण्डन करते हुए कहा है कि विभिन्न सुखों में गुणात्मक भेद भी होता है। उसका कहना है कि “कुछ सुख मात्रा में कम होने पर भी इसलिए प्राप्त करने योग्य होते हैं कि वे श्रेष्ठ और उत्कृष्ट कोटि के होते हैं।” जिन व्यक्तियों ने उच्चतर तथा निम्नतर दोनों प्रकार के सुखों का अनुभव हो, वे निम्नतर की तुलना में उच्चतर सुख को प्राथमिकता देते हैं। बेन्थम के इस कथन से कि- “यदि सुख की मात्रा समान हो तो पुश्पिन (एक खेल) भी इतना ही श्रेष्ठ है जितना काव्यपाठ” - मिल सहमत नहीं है। इस सन्दर्भ में उसका कहना है कि- “एक सन्तुष्ट सूअर की तुलना में एक असन्तुष्ट मनुष्य होना अच्छा है, एक असन्तुष्ट सुकरात होना एक सन्तुष्ट मूर्ख से अच्छा है और यदि सूअर और मूर्ख उससे सहमत नहीं हैं तो उसका कारण यह है कि वे केवल अपने पक्ष को ही जानते हैं।” इस आधार पर मिल ने सुखों के गुणात्मक अन्तर को स्पष्ट किया है। उसका यह सिद्धान्त अधिक सन्तोषप्रद, सत्य और अनभवानुकूल प्रतीत होता है। इस प्रकार मिल के गुणात्मक अन्तर को स्वीकार करने का तात्पर्य यह होगा कि जीवन का लक्ष्य उपयोगिता न होकर श्रेष्ठतम सुख की प्राप्ति करना होता है।

अन्य व्यक्तियों का सुख 

बेन्थम के अनुसार मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है जो सदैव अपने हित को ही पूरा करने में लगा रहता है। उसमें दूसरों के सुख-दु:ख को समझने की योग्यता नहीं है। परन्तु मिल ने बेन्थम के इस विचार का खण्डन करते हुए कहा है कि मनुष्य केवल स्वार्थी ही नहीं, परमार्थी भी होता है। उसमें अपने सुख की इच्छा के साथ-साथ दूसरे के सुख के लिए त्याग करने की माखा भी विद्यमान रहती है। मिल का कहना है- “अपना सुख बिलकुल त्यागकर दूसरों के सुख का ध्यान रखना संसार की वर्तमान अपूर्ण व्यवस्था की दशा में वह सर्वश्रेष्ठ गुण है जो मनुष्य में पाया जाता है।” मिल के अनुसार सुख की प्राप्ति का सीधा प्रयास करना व्यर्थ है। उसका मानना है कि सुख की प्राप्ति तभी सम्भव है जब इसके लिए सीधा प्रयास न किया जाए। उसके अनुसार वे व्यक्ति सुखी हैं जो स्वयं की तुलना में दूसरों पर अपने विचार केन्द्रित करते हैं। इस तरह मिल ने बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन का खण्डन किया है।

इतिहास व परम्पराओं को महत्त्व 

बेन्थम ने इतिहास व परम्पराओं की घोर उपेक्षा की थी। उसने कहा था कि उसके सर्वव्यापी उपयोगिता के सिद्धान्त पर आधारित सिद्धान्त सार्वदेशिक (Universal) महत्त्व के हैं। उसका कहना था कि उसके द्वारा तैयार किए गए कानून व शासन प्रणालियाँ संसार के किसी भी हिस्से में समान रूप से लागू किए जा सकते हैं। मिल ने बेन्थम की इस धारणा का खण्डन करते हुए कहा कि प्रत्येक देश और जाति का अपना इतिहास व परम्पराएँ अलग होती हैं। इतिहास व परम्परा का विकास उस देश की परिस्थितियों के अनुसार ही होता है। इसलिए प्रत्येक देश की शासन प्रणाली वहाँ की परम्पराओं व इतिहास से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। बेन्थम द्वारा इतिहास व परम्परा का तिरस्कार करना वहाँ की जन-भावनाओं का तिरस्कार करना है। ये उस शासन प्रणाली के शाश्वत मूल्य होते हैं जिनसे शासन प्रणालियाँ स्थायित्व का गुण प्राप्त करती हैं। इससे निष्कर्ष निकलता है कि अलग-अलग देशों में अलग-अलग शासन प्रणालियाँ ही पाई जाती हैं। उसका कहना था कि जिस देश में असमानता अधिक हो वहाँ लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। उसने इसे भारत के लिए अनुपयुक्त शासन प्रणाली बताया है। इसलिए मिल ने इस संशोधन द्वारा इतिहास व परम्परा के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।

राजनीतिक बनाम नैतिक सिद्धान्त 

बेन्थम का विचार था कि राज्य के प्रति व्यक्तियों की निष्ठा स्वार्थपूर्ण कारणों पर आधारित है। राज्य का आदेश मानने के पीछे उनकी कोई नैतिक बाध्यता नहीं है। राज्य अपने नागरिकों का सुख बढ़ाने तथा पीड़ा कम करने के लिए ही अस्तित्व में रहता है। बेन्थम ने इस बात पर बल दिया है कि- “विधि निर्माता एवं शासक वर्ग सामाजिक नीतियों के निर्धारण तथा विधि-निर्माण में सुख के सिद्धान्त का प्रयोग करें।” इसके विपरीत मिल ने बेन्थम के उपयोगितावादी सिद्धान्त में परिवर्तन करते हुए कहा- “मनुष्य के राज्य के प्रति कुछ सार्वजनिक कर्त्तव्य तथा दायित्व होते हैं जिनकी उपयोगितावादी सिद्धान्त के द्वारा व्याख्या करना असम्भव है। व्यक्ति के आन्तरिक मनोवेग जिसे अन्त:करण कहा जाता है, हमें नैतिक तौर पर राज्य के प्रति बाध्य बना देता है।” मिल ने कहा है कि अन्त:करण अन्य लोगों के सुख में वृद्धि तथा दूसरों के दु:खों का ह्रास चाहता है। मिल ने ईसा मसीह का उदाहरण देकर बेन्थम के उपयोगितावाद को नैतिक आधार पर प्रदान करने का प्रयास किया है। इस प्रकार बेन्थम का ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त’ मिल के दर्शन में नैतिक आधार में परिवर्तित हो गया है।

व्यक्ति की स्वतन्त्रता को महत्त्व

मिल ने बेन्थम के स्वतन्त्रता सिद्धान्त में भी संशोधन किया है। बेन्थम ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता की तुलना में व्यक्ति के सुख को प्राथमिकता दी है। उसके अनुसार मनुष्य परतन्त्र होकर भी सुख को प्राप्त कर सकता है। परन्तु मिल ने स्वतन्त्रता को विशेष महत्त्व देते हुए इसे उपयोगिता के सिद्धान्त की अग्रगामिनी माना है। मिल के अनुसार स्वतन्त्रता का अपना विशेष महत्त्व है और यह स्वयं एक साध्य है। उपयोगिता की प्राप्ति के लिए यह साधन नहीं हो सकती। बेन्थम के विपरीत मिल ने स्वतन्त्रता के नैतिक महत्त्व को स्वीकार किया है। उसका कहना है कि इससे व्यक्ति का आत्मिक विकास होता है। मिल ने स्वतन्त्रता को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में स्वीकार किया है। मिल के अनुसार स्वतन्त्रता उपयोगिता से बड़ी साध्य है।

मनुष्य के जीवन व राज्य का लक्ष्य 

बेन्थम के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य उपयोगिता है। उसके अनुसार मनुष्य का चरम लक्ष्य आत्मानुभूति न होकर सुख की प्राप्ति एवं दु:ख का निवारण है। इसके विपरीत मिल के अनुसार जीवन का लक्ष्य अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाना है। उसका कहना है कि व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जो उसके व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाता हो। उसने अच्छे जीवन को सुखमय जीवन से श्रेष्ठ माना है। उसके अनुसार नैतिकता सुख से महान् है। उसने बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन में नैतिक सिद्धान्तों का समावेश करके महान् परिवर्तन ला दिया है। उसके अनुसार राष्ज्य का उद्देश्य सुख की वृद्धि करना न होकर व्यक्तियों के सद्गुणों का विकास करना है।

राज्य का आधार व कार्य 

बेन्थम ने राज्य को व्यक्तिगत हित पर आधारित माना है। उसका मानना है कि राज्य की उत्पत्ति व्यक्तिगत हितों को पूरा करने के लिए होती है। लेकिन मिल ने राज्य को व्यक्तिगत हित की बजाय व्यक्ति की इच्छा पर आधारित माना है। उसके अनुसार इच्छा संख्या का नहीं बल्कि गुण का प्रतीक है। जो इच्छा राजनीतिक संस्थाओं का निर्माण करती है, वही आगे चलकर विश्वास का रूप लेती है। इसलिए जिस व्यक्ति का अपना विश्वास होता है, वह सामाजिक शक्ति में उन सैंकड़ों व्यक्तियों के बराबर होता है, जिनकी भावना व्यक्तिगत हित से लदी होती है। मिल ने कहा है कि व्यक्ति की इच्छा और उसके व्यक्तित्व के अभाव में राज्य पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए व्यक्तिगत हित की अपेक्षा व्यक्ति की इच्छा ही राज्य का आधार होती है। इसी प्रकार बेन्थम के अनुसार राज्य के कार्य निषेधात्मक हैं जबकि मिल के अनुसार राज्य व्यक्ति के विकास मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करता है तथा उसके जीवन को सुखमय बनाता है। बेन्थम का राज्य केवल अधिकतम सुख पाने में व्यक्तियों के रास्ते में आने वाली रुकावटों को ही दूर कर सकता था। लेकिन मिल ने चाहा है कि राज्य के कार्य सकारात्मक होने चाहिएं जो सार्वजनिक कल्याण के लिए जरूरी हैं। इस प्रकार मिल ने बेन्थम के राज्य के नकारात्मक कार्यों को सकारात्मक कार्यों में बदल दिया।

आर्थिक क्षेत्र में राज्य-हस्तक्षेप का समर्थन 

बेन्थम ने व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्राप्त करने के लिए उनको अधिक आर्थिक स्वतन्त्रता प्रदान करने का समर्थन किया है। उसका मानना है कि इससे व्यक्ति की प्रसन्नता में वृद्धि होगी और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक प्रसन्नता में भी आनुपातिक वृद्धि होगी। इस प्रकार बेन्थम ने अहस्तक्षेप की नीति समर्थन किया है। इसके विपरीत मिल का मानना है कि इससे सार्वजनिक कल्याण का मार्ग अवरुद्ध होता है। कारखानों तथा भूसम्पत्ति पर अमीर लोगों के एकाधिकार से बहुसंख्यकों के सर्वांगीण विकास में बाधा पहुँचती है। इसलिए व्यक्ति का आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकार शोषण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। इसलिए समाज में आर्थिक असमानता पाई जाती है। ऐसे समाज में राज्य का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह सार्वजनिक कल्याण के लिए आर्थिक असमानता के दोषों को दूर करने के लिए कानून बनाए। इस प्रकार मिल के आर्थिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप का पूर्ण समर्थन किया है।

समाज को महत्त्व 

बेन्थम के अनुसार समाज एक कृत्रिम संस्था है। मिल के अनुसार समाज एक स्वाभाविक संस्था है। उसका विश्वास है कि स्वस्थ सामाजिक वातावरण में ही व्यक्तियों का सार्वजनिक कल्याण सम्भव है। उसके अनुसार नैतिकता का सामाजिक उद्देश्य होता है। इसी प्रकार समाज का भी आध्यात्मिक तथ्य होता है और वह है - समाज के समस्त लोगों का आध्यात्मिक कल्याण। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सार्वजनिक सुख की कामना व उसकी प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए।

मतदान प्रणाली 

बेन्थम ने गुप्त मतदान प्रणाली का समर्थन किया है, जबकि मिल ने खुले मतदान का समर्थन किया है।

मताधिकार 

बेन्थम ने सबको मताधिकार प्रदान करने की बात कही है। लेकिन मिल ने इसका खण्डन करते हएु शिक्षित, ज्ञानी, उत्तरदायी व बुद्धिमान लोगों को ही मताधिकार प्राप्त करने की बात कही है। उसका कहना है कि मतादाता इतना विवेकशील तो अवश्य होना चाहिए जो उचित व अनुचित में स्पष्ट भेद कर सके।

स्त्री-मताधिकार 

बेन्थम इसका कही उल्लेख नही किया है जबकि मिल ने स्त्री-मताधिकार का जारे दार समथर्न किया है।

प्रजातन्त्र पर विचार 

बेन्थम ने प्रजातन्त्र को हर परिस्थिति में उपयुक्त माना है, जबकि मिल ने इसे केवल उस समाज में ही सफल माना है, जहाँ के व्यक्तियों का चरित्र उत्कृष्ट हो। उसने भिन्न-भिन्न समाजों के लिए अलग-अलग शासन प्रणालियों का समर्थन किया है।
इस प्रकार निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद में महत्त्वपूर्ण संशोधन किए हैं। लेकिन वह उपयोगितावाद की रक्षा करते समय इतनी दूर चला गया कि इससे बेन्थम का उपयोगितावाद ही लुप्त हो गया। उसने स्वयं को उपयोगितावाद का व्याख्याता बताकर किसी नवीन सिद्धान्त का संस्थापक होने के पद से वंचित कर लिया। इसलिए सेबाइन ने कहा है कि- “मिल की सामान्य स्थिति यह है कि उसने पुराने उपयोगितावादी सिद्धान्त का एक अत्यन्त अमूर्त वर्णन किया परन्तु सिद्धान्त को ऐसे समय शुरू किया कि अन्त में पुराना सिद्धान्त तो समाप्त हो गया, किन्तु उसके स्थान पर किसी नवीन सिद्धान्त की स्थापना नहीं हुई।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए परिवर्तनों से जो नया सिद्धान्त उभरा है, वह उपयोगितावाद के स्थान पर एक अन्तर्वर्ती (Transitional) दर्शन है। उसके प्रयासों से इसमें उपयोगितावाद का अंश नाममात्र ही रह गया है। इसलिए मिल को अनेक आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है।

आलोचनाएँ

  1. बेन्थम के उपयोगितावाद में मिल द्वारा किए गए परिवर्तनों के कारण उसकी निम्न आधारों पर आलोचना हुई है :- मिल ने सुख के गुणात्मक पहलू पर जोर दिया है, लेकिन वह यह भूल जाता है कि सुख को मात्रा व गुण को मापा नहीं जा सकता। इसलिए उसकी सुखमापक गणना विधि (Felicific Calculus) सही नहीं है। यह केवल एक भ्रमजाल व मिथ्या प्रयास है।
  2. मिल का स्वतन्त्रता का सिद्धान्त भी दोषपूर्ण है। वह अधिकारों की कोई बात नहीं करता। इसलिए समानता और अधिकारों के अभाव में उसका स्वतन्त्रता का विचार दोषपूर्ण है। उसकी इस धारणा के कारण उसे ‘खोखली स्वतन्त्रता का पैगम्बर’ कहा जाता है।
  3. मिल ने सीमित मताधिकार का समर्थन करके लोकतन्त्र की आधारशिला पर ही प्रहार किया है। वह प्रजातन्त्र का समर्थक होने के बावजूद भी धनी व शिक्षित लोगों के लिए ही मताधिकार की बात करता है। यह प्रजातन्त्रीय भावनाओं के खिलाफ है।
  4. उसका सुखवादी दृष्टिकोण अतार्किक है। वह कहता है कि व्यक्तिगत कल्याण सार्वजनिक कल्याण में वृद्धि करता है। उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का सुख मनुष्य के अपने लिए श्रेष्ठ है, इसलिए सार्वजनिक सुख भी समाज के सभी व्यक्तियों के लिए श्रेष्ठ है। लेकिन वह यह सिद्ध नहीं कर सका कि सार्वजनिक कल्याण से व्यक्तिगत कल्याण की भी वृद्धि होती है।
  5. मिल का राज्य द्वारा हस्तक्षेप का सिद्धान्त संदिग्ध व अस्पष्ट है। उसने अहस्तक्षेप के सिद्धान्त पर आधारित बेन्थम के राज्य की निन्दा तो की है परन्तु यह स्पष्ट करने में असफल रह गया है कि अहस्तक्षेप की नीति का त्याग करने पर राज्य में संघों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए वह संघों के रचनात्मक महत्त्व पर कुछ भी कहने में असफल रहा है।
  6. आलोचकों का कहना है कि मिल के उपयोगितावादी दर्शन में मौलिकता का गुण नहीं है। उनका कहना है कि मिल ने बेन्थम के ही सिद्धान्तों को तोड़-मरोड़कर पेश किया है। इसमें नया कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिल के दर्शन में सामंजस्य तथा तार्किक संगति का पूर्ण अभाव है। इसमें मौलिकता का गुण भी नहीं है। यह सिद्धान्त विवादग्रस्त, असंगत, अस्पष्ट व भ्रान्त है। इसका कोई व्यावहारिक महत्त्व भी नहीं है। फिर भी मिल का महत्त्व इस बात में है कि उसने बेन्थम के उपयोगितावाद को और अधिक उदार और मानवीय बनाया है। उसने बेन्थम के उपयोगितावाद की अपर्याप्तता व उसकी अपूर्णता को दूर करने का प्रयास किया है। अनेक आलोचनाओं के बावजूद हमें यह मानना ही पड़ेगा कि सभी उपयोगितावादियों में मिल का ही सिद्धान्त सबसे अधिक बोधगम्य, स्वीकार्य और सन्तोषजनक है। उसने बेन्थम के उपयोगितावाद को आधुनिक बनाने का सफल प्रयास किया है। इसलिए उनका उपयोगितावादी दर्शन राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक महत्त्ववपूर्ण स्थान रखता है।

जॉन स्टुअर्ट मिल के स्वतंत्रता संबंधी विचार

जॉन स्टुअर्ट मिल के स्वतंत्रता संबंधी विचार उनके राजनीतिक चिन्तन को एक महत्त्वपूर्ण व अमूल्य देन है। मिल द्वारा लिखा गया ग्रन्थ ‘आन लिबर्टी’ (On L:iberty) उसके स्वतन्त्रता विषयक विचारों का विस्तृत लेखा है। इस पुस्तक में उसने स्वतन्त्रता के स्वरूप एवं महत्त्व पर व्यापक रूप में चर्चा की है। उसकी इस पुस्तक की तुलना मिल्टन की ‘एरोपेजिटिका’ (Aeropagitiaca) से की जाती है। इस पुस्तक में स्वतन्त्रता के मूल्यों को सर्वसमर्थित मिल की भावना के कारण उसे स्वतन्त्रता के उपासकों की श्रेणी में अभूतपूर्व स्थान प्राप्त हुआ है। इस पुस्तक में धारा-प्रवाह भाषा और तार्किक शैली का भरपूर प्रयोग हुआ है। यह पुस्तक सभी तरह के निरंकुशवाद के विरुद्ध एक मुखर आवाज है। इसलिए इस पुस्तक को एक सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाता है और मिल को एक सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक चिन्तक।

स्वतन्त्रता पर निबन्ध लिखने की प्रेरणा

इस रचना के प्रतिपादन के पीछे मिल के प्रमुख प्रेरणा-स्रोत - व्यक्तिगत अनुभव एवं समकालीन राजनीतिक वातावरण हैं। मिल का विश्वास था कि स्वतन्त्रता के द्वारा ही व्यक्ति के मस्तिष्क और आत्मा का विकास हो सकता है। इससे ही सामाजिक कल्याण में वृद्धि हो सकती है। सामाजिक प्रगति व्यक्ति की मौलिक रचनात्मक प्रतिभा पर निर्भर करती है। उसने देखा कि इंगलैण्ड की आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। राजय के कार्यक्षेत्र का विस्तार हो रहा था। बेन्थमवाद से उत्प्रेरित राज्य प्रजा पर अपना कानूनी शिकंजा कसता जा रहा था। व्यक्ति की स्वतन्त्रता कम हो रही थी। विधि-निर्माता संसद जीवन के किसी भी क्षेत्र में कानून बना सकता था। संसद ही सर्वोच्च थी। उसे भय था कि बहुमत का प्रतीक संसद अल्पसंख्यकों का शोषण करेंगे। उन पर जनमत का कानून थोपा जाएगा। इसलिए मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद के स्थान पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (Individual Freedom) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसने अपनी रचना 'Essay on Liberty' में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की पूरी व्याख्या प्रस्तुत की।

स्वतन्त्रता की परिभाषा

मिल ने अपने स्वतन्त्रता-सिद्धान्त में इसको दो प्रकार से परिभाषित किया है। प्रथम परिभाषा के अनुसार व्यक्ति अपने मन व शरीर का अकेला स्वामी है अर्थात् ‘व्यक्ति की स्वयं पर प्रभुता’ है। इस परिभाषा के अनुसार व्यक्ति के कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। मिल ने कहा है- “अपने आप पर, अपने कार्यों पर तथा अपने विचारों पर व्यक्ति अपना स्वयं सम्प्रभु है।” मिल का कहना है कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास स्वतन्त्र वातावरण में ही सम्भव है। उसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति का कार्य दूसरों के लिए हानिकर नहीं है तो उस पर प्रतिबन्ध लगाना न्यायसंगत नहीं है। यह परिभाषा व्यक्ति के आत्मपरक कार्यों के सम्बन्ध में पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में है। यह परिभाषा उपयोगिता के स्थान पर आत्म विकास पर जोर देती है। दूसरी परिभाषा के अनुसार व्यक्ति उन कार्यों को नहीं कर सकता जिनसे दूसरों के हित को हानि पहुँचती हो। मिल का कहना है कि - “व्यक्ति को उस कार्य को करने की स्वतन्त्रता है जिसको वह करना चाहता है किन्तु वह नदी में डूबने की स्वतन्त्रता नहीं रख सकता।” व्यक्ति केवल वही कार्य कर सकता है जिससे दूसरों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता हो। इस परिभाषा के अनुसार व्यक्ति को सकारात्मक कार्य करने के अधिकार प्राप्त हैं। यदि व्यक्ति कोई अनुचित कार्य करता है तो समाज या राज्य को उसे रोकने का अधिकार है। यह परिभाषा अन्यपरक कार्यों से सम्बन्धित है। इस प्रकार मिल का स्वतन्त्रता से तात्पर्य करने योग्य कार्यों से है तथा न करने योग्य कार्यों पर रोक से है।

स्वतन्त्रता के दार्शनिक आधार

मिल ने अपने स्वतन्त्रता के सिद्धान्त का समर्थन दो प्रकार के दार्शनिक आधारों पर किया है। पहला व्यक्ति ही दृष्टि से है तथा दूसरा समाज की दृष्टि से। मिल का मानना है कि व्यक्ति का उद्देश्य अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास है जो कि स्वतन्त्र वातावरण में ही सम्भव हो सकता है। यदि व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्रदान न की जाए तो उसके जीवन का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना बहुत जरूरी है। दूसरे दार्शनिक आधार के समर्थन में मिल ने कहा है कि मानव समाज की प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि सभी व्यक्तियों को विकास के अवसर प्रदान किए जाएँ ताकि वे अपना सर्वांगीण विकास कर सकें। मिल का मानना है कि समाज का विकास विशेष व्यक्तियों के कारण होता है। ये व्यक्ति कला, विज्ञान साहित्य आदि क्षेत्रें में नवीनता लाने का सतत प्रयास करते रहते हैं। परन्तु समाज में रूढ़िवादियों की संख्या अधिक होने के कारण परिवर्तन में बाधा पहुँचती है। इससे समाज के उत्थान का मार्ग अवरुद्ध होता है। रूढ़िवादी व्यक्ति ही परम्परागत विचारों और जीवन-पद्धतियों को उत्कृष्ट व आदर्श मानते हैं, नवीन विचारों व प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं। वे नवीन विचारधाराओं के प्रवर्तकों को सनकी समझते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं। लेकिन मिल का मानना है कि समाज की प्रगति इन्हीं पागल, सनकी व दीवाने व्यक्तियों के कारण होती है। जेम्सवाट, जार्ज स्टीवन्सन, कार्लमाक्र्स, लेनिन आदि सनकी व्यक्ति ही थे जिन्होंने रूढ़िवादी विचारों का खण्डन किया। रूढ़िवादी समाज ऐसे व्यक्तियों का दमन करता है। इससे समाज के विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए समाज के निर्बाध विकास और उन्नति के लिए इन नवीन विचारकों को अपने विकास के समुचित अवसर दिए जाएं। इस प्रकार मिल ने व्यक्ति व समाज के विकास के लिए स्वतन्त्रता को आवश्यक माना है।

स्वतन्त्रता के प्रकार

मिल के अनुसार स्वतन्त्रता के दो प्रकार हैं :-(i) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता (Freedom of Thought and Expression) (ii) कार्यों की स्वतन्त्रता (Freedom of Action)

विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता 

मिल का मानना है कि व्यक्ति को विचार व अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए ताकि व्यक्ति और समाज दोनों का सम्पूर्ण विकास हो सके। समाज में परिवर्तन का आधार स्वतन्त्र विचार एवं स्वतन्त्र अभिव्यक्ति ही होते हैं। इनके अभाव में समाज की प्रगति रुक जाती है। समाज की प्रगति के लिए वह सनकी व्यक्तियों की भी पूरी स्वतन्त्रता देने का पक्षधर है। लेकिन उसने मानसिक रूप से विकलांग, पिछड़ी जातियों व बच्चों को स्वतन्त्रता देने का विरोध किया है, क्योंकि इन पर दूसरों के विवेक का प्रभुत्व रहता है। उसका कहना है कि यदि स्वतन्त्र विचार उत्पन्न न हो तो समाज शीघ्र ही अपरिवर्तनशील व रूढ़िवादी हो जाता है। उसके अनुसार किसी व्यक्ति के विचारों पर प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार न तो समाज को है और न ही किसी व्यक्ति को। ऐसा प्रतिबन्ध व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर है। मिल ने कहा है- “यदि एक व्यक्ति को छोड़कर सारी मानव जाति का मत एक हो तो भी मानव जाति को उस एक व्यक्ति को बलपूर्वक चुप करने का कोई अधिकार नहीं है। जैसे यदि उस एक व्यक्ति के पास शक्ति होती है, तो उसे मानव जाति को चुप कराने का अधिकार नहीं होता।” मिल ने अपने विचार के पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किए हैं।

विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्ष में तर्क

  1. मिल का विश्वास है कि प्रत्येक समाज की कुछ धारणाएँ व परम्पराएँ होती हैं। उनका एकमात्र आधार समाज का विश्वास होता है। व्यक्ति को ऐसे विश्वास पर आधारित परम्पराओं व धारणाओं के प्रति उन्मुक्त विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। यदि उसे स्वतन्त्रता से वंचित किया जाएगा तो नई विचारधारा का प्रचार नहीं होगा। ऐसा न होना समाज के लिए घातक होता है। अक्सर यह सम्भव हो सकता है कि प्राचीन विचारधारा की जगह नवीन विचारधारा सत्य हो। मिल ने कहा है कि- “यदि केवल एक व्यक्ति को छोड़कर समूची मानव-जाति एक विचार को मानने वाली हो तो भी मानव जाति के लिए यह न्यायसंगत नहीं है कि वह विरोधी मत रखने वाले व्यक्ति का दमन करे या वह एक व्यक्ति शक्ति सम्पन्न होने पर मानव-जाति के विचार का दमन करे।” मिल के इतिहास को साक्षी बनाकर सुकरात और ईसा के ऐतिहासिक दृष्टान्तों के द्वारा इस बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इन दोनों की उपेक्षा करके तत्कालीन समाज ने नवीन सत्यों का दमन किया है। मिल ने कहा है- “मानव जाति को बार-बार यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि किसी जमाने में यूनान में सुकरात नाम का एक व्यक्ति था जिसके विचारों तथा तत्कालीन समाज के प्रचलित कानूनों के मध्य एक संघर्ष हुआ था। उसके विरोधी किन्तु सत्य विचारों के बावजूद भी उसे ही मृत्युदण्ड दिया था।” इसी तरह ईसा मसीह का उदाहरण देते हुए वह कहता है- “मानव जाति को बार-बार यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि येरूशलम से जीसस क्राइस्ट को समाज ने सूली पर चढ़ा दिया था, क्योंकि वह समाज द्वारा मान्य विचारों के प्रतिकूल विचार व्यक्त करता था। परन्तु इतिहास साक्षी है कि उसके विचार समाज के विचारों की तुलना में अधिक अच्छे थे।” इसलिए सत्य का रूप निखारने के लिए उसका दमन करना न्यायसंगत नहीं है। यदि ईसा और सुकरात का दमन न किया जाता तो समाज को आधुनिक बनाने वाली परिस्थितियाँ पहले ही उत्पन्न हो जातीं। इसलिए यदि सामाजिक प्रगति की इच्छा रखनी है तो सत्य को पुष्ट करने के लिए विचारों एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए, उसका दमन समाज की प्रगति रोकता है।
  2. सत्य के दमन का भ्रम : विचारों की स्वतन्त्रता न देने का एक दुष्परिणाम सत्य का दमन है। इसका अर्थ समाज की उपयोगिता का दमन करना है। जब हम कानूनी दण्डविधान द्वारा या सार्वजनिक निन्दा द्वारा किसी के विचार को दबाते हैं तो यह सम्भव है कि हम सत्य का दमन कर रहे हैं। मिल का कहना है कि यह विचार भ्रान्तिपूर्ण है कि जिस बात को बहुमत मानता हो वह सत्य हो। उसने गैलिलियो के विचार का उदाहरण दिया है। गैलिलियो के विचार में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। लेकिन तत्कालीन समाज के अधिकांश व्यक्तियों के मत में सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। इस विषय में समाज द्वारा प्रचलित नियम व मान्यताएँ असत्य हो सकते हैं। इन विचारों के स्थान पर सत्य को स्थापन करने वाले व्यक्तियों के विचारों के प्रयत्नों को महत्त्व न देना समाज की प्रगति को रोकता है। इसलिए इन सत्य विचारों को पूरा महत्त्व प्रदान करना चाहिए।
  3. परस्पर विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति : सत्य को समुचित रूप में स्पष्ट करने के लिए विचार की स्वाधीनता आवश्यक है। वाद-विवाद से सत्य का स्वरूप निखरता है। यह स्वाभाविक ही है कि एक ही समय एक विषय पर अनेक मत होते हैं जो परस्पर विरोधी हो सकते हैं। हर मत के समर्थकों की दृष्टि में उनका अपना मत सम्पूर्ण सत्य और दूसरों का मत अर्द्ध सत्य या असत्य होता है। विरोधी विचारों का उत्तर देने के लिए उसे तर्क पर कसना आवश्यक हो जाता है। इससे सत्य का ज्ञान प्राप्त होता है। अन्धविश्वास समाज की प्रगति के लिए घातक होते हैं। अत: स्वतन्त्र विचार तथा तर्क द्वारा सत्य को सुदृढ़ बनाया जा सकता है। मिल का विश्वास है कि वही विचार सत्य का रूप धारण करता है जो तर्क रूपी संघर्ष में विजय प्राप्त करता है। अत: राज्य को विचार और भाषण की स्वतन्त्रता देनी चाहिए।
  4. सत्य के विभिन्न पहलू होते हैैं : मिल का मानना है कि सत्य किसी एक व्यक्ति की धरोहर नहीं है। सत्य का रूप विराट है और उसके अनेक पहलू हैं। सत्य की खोज में मनुष्य की स्थिति अन्धों जैसी होती है। हम सत्य के समग्र रूप का दर्शन नहीं कर सकते, किन्तु अपने अनुभव के आधार पर आंशिक रूप को ही पूर्ण समझने का आग्रह करते हैं। अत: सत्य के वास्तविक रूप को समझने के लिए उसे जितने अधिक दृष्टिकोणों से देखने की व्यक्तियों को स्वतन्त्रता प्रदान की जाएगी, हम उतना ही सत्य को अधिक अच्छे रूप में समझने में समर्थ होंगे। ये विभिन्न दृष्टिकोण एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक ही हैं। इनको समझनेके लिए व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए।
  5. विचारों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध हानिकारक होता है : मिल का मानना है कि सत्य की खोज एक निरन्तर प्रक्रिया है। विचारों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध से न केवल इस खोज में विघ्न पड़ता है, अपितु इस पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे व्यक्ति का बौद्धिक, मानसिक एवं चारित्रिक विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है। विचारों की स्वतन्त्रता से समाज की प्रगति तथा व्यक्ति के नैतिक चरित्र का विकास होता है। इसलिए विचारों की स्वतन्त्रता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए लाभदायक है।
इस प्रकार उपर्युक्त तर्कों के आधार पर मिल ने विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध का खण्डन किया है। उसने विचारों की स्वतन्त्रता को मानव जाति की प्रगति का आधार बताया है।

कार्यों की स्वतन्त्रता 

मिल का कहना है कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तभी सार्थक है जब व्यक्ति को कार्य करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाए। स्वतन्त्र कार्य के अभाव में स्वतन्त्र चिन्तन की तुलना ऐसे पक्षी से की जा सकती है जो उड़ना तो चाहता है लेकिन उसके पर कुतर दिये गये हों। मिल का मानना है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास तभी सम्भव है जब व्यक्ति को कार्यों की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। कार्यों की स्वतन्त्रता सामाजिक जीवन की प्रगति के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी व्यक्तिगत जीवन के लिए। मिल का कहना है- “सम्पूर्ण मानव जाति के विकास के लिए जिस प्रकार विचारों की स्वतन्त्रता लाभदायक है; उसी प्रकार जब तक दूसरों को हानि नहीं पहुँचती हो तब तक विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न रूपों से कार्य करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए जिससे वे अपने चरित्रों का विकास विभिन्न रूपों से कर सकें।” कार्यों की स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में मिल ने कार्यों को दो भागों में बाँटा है :- (i) स्व-विषयक कार्य (Self-ragarding Action) (ii) पर-विषयक कार्य (Other-regarding Action)

मिल का कहना है कि ऐसे कार्य जिनका प्रभाव करने वाले पर ही पड़ता है, दूसरों पर नहीं पड़ता, स्वविवेक के अन्तर्गत आते हैं। खाना, पीना, सोना, नहाना आदि स्व-विषयक कार्य हैं। शराब पीना व जुआ खेलना भी इस श्रेणी में आते हैं। ऐसे कार्य जो दूसरे व्यक्तियों पर अपना प्रभाव डालते हैं, पर-विषयक कार्यों के अन्तर्गत आते हैं। इन्हें सामाजिक कार्य भी कहा जाता है। चोरी करना, शोर मचाना, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना, शान्ति भंग करना आदि कार्य इस श्रेणी में आते हैं।

मिल का कहना है कि आत्म-विषयक या स्व-कार्यों के सम्बन्ध में व्यक्ति को पूर्ण स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। इसमें राज्य का हस्तक्षेप ठीक नहीं है। उसने कहा है कि व्यक्ति का आहार, वेशभूषा, रहन-सहन समाज में प्रचलित पद्धति से भिन्न हो तो भी उसको पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। परन्तु यदि उसके कार्यों से समाज को हानि पहुँचती हो तो उस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। यदि एक व्यक्ति शराब पीकर झगड़ा करता है तो उस पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। मिल का कहना है कि “किसी व्यक्ति को अपने आपको दूसरों के लिए दु:खदायी नहीं बनाना चाहिए।” मिल ने कार्य करने के क्षेत्र में व्यक्ति को अधिक से अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करने का समर्थन किया है।

कार्यो की स्वतन्त्रता के पक्ष में तर्क

मिल ने कार्य की स्वतन्त्रता का समर्थन तीन तर्कों के आधार पर किया है :-
  1. मिल ने वैयक्तिक अनुभव द्वारा चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व के विकास की बात स्वीकार की है। उसने एक शराबी का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि एक शराबी शराब पीना दो तरीकों से छोड़ सकता है। प्रथम यदि सरकार शराबबन्दी कानून बनाकर लागू कर दे। दूसरा वह स्वयं समझ जाए कि इससे उसका व उसके परिवार का अहित हो रहा है। इनमें से उसका अनुभव पर आधारित शराब छोड़ने का निर्णय ही अधिक उत्कृष्ट है। जब व्यक्ति आत्मसंघर्ष द्वारा बुराई का त्याग करता है तो उससे उसके चरित्र का निर्माण होता है। इसलिए व्यक्ति को अन्य नागरिकों को हानि न पहुँचाने वाले कार्यों को करने की अधिक से अधिक स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
  2. मिल ने मनुष्यों को सामाजिक रीति-रिवाजों और परम्पराओं से मुक्त करने का समर्थन इसलिए किया है कि वे सामाजिक विकास में बाधा डालते हैं। इसलिए व्यक्तित्व के विकास के लिए राज्य द्वारा व्यक्ति को कार्यों की पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए।
  3. व्यक्तियों को पूर्ण स्वतन्त्रता देने का एक प्रबल तर्क नवीनता और आविष्कार का है। मिल का कहना है कि जनता प्राय: लकीर की फकीर होती है। समाज का विकास नवीन आविष्कारों के कारण होता है। इसलिए व्यक्तियों को नवीन परीक्षण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता देनी चाहिए। समाज की उन्नति स्वतन्त्रतापूर्ण वातावरण में ही सम्भव है।

स्वतन्त्रता पर सीमाएँ

मिल ने इस बात को स्वीकार किया है कि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित किया जा सकता है। मिल के अनुसार ये परिस्थितियाँ हो सकती हैं :-
  1. स्वतन्त्रता का दुरुपयोग : यदि किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता से दूसरे व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कोई हानि पहुँचने की सम्भावना हो तो इस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति चोरी करता है तो उसे इस कार्य से रोका जा सकता है, क्योंकि इससे दूसरे को हानि होती है और चोरी करने वाले का स्वयं का भी नैतिक पतन होता है। इसी तरह यदि मदिरा पीकर कोई व्यक्ति दंगा करता है तो उस पर प्रतिबन्ध लगाना उचित है। अत: राज्य को सामाजिक प्रगति की दृष्टि से अहितकर कार्यों में ही हस्तक्षेप करना चाहिए।
  2. राज्य व समाज की सुरक्षा : जब राज्य व समाज की सुरक्षा को कोई खतरा हो तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ अंश प्रतिबन्धित किया जा सकता है। राज्य पर आक्रमण के समय सभी नागरिकों से अनिवार्य सैनिक सेवा की व्यवस्था की माँग की जा सकती है। यदि किसी नगर में चोरी का भय हो तेा राज्य नागरिकों को पहरा देने के लिए कह सकता है, किन्तु ऐसे प्रतिबन्ध विशेष परिस्थितियों में ही लगाए जाने चाहिएं।
  3. कर्त्तव्यपालन से विमुखता : यदि कोई व्यक्ति अपने कर्त्तव्य के प्रति विमुख हो जाए तो उसकी स्वतन्त्रता पर रोक लगाई जा सकती है। यदि कोई पुलिस कर्मचारी अपनी ड्यूटी के समय पर मदिरापान करके जनता को परेशान करता है तो राज्य उसके इस स्व-कार्य पर पर-कार्य समझकर प्रतिबन्ध लगा सकता है, क्योंकि इससे शान्ति भंग होती है। इसलिए कोई व्यक्ति स्व-कार्य की आड़ में दूसरों के हित में बाधा नहीं पहुँचा सकता।
  4. स्व-अहित की दृष्टि से किए गए कार्यों पर : यदि कोई व्यक्ति आत्म-हत्या का प्रयास करता है तो उसे समाज के द्वारा रोका जा सकता है, क्योंकि आत्म-हत्या करना एक पाप है। यह सामाजिक मानदण्डों के विरुद्ध है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति टूटे हुए पुल को पार करना चाहे तो राज्य उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसे पुल पार करने से रोक सकता है।

स्वतन्त्रता-सिद्धान्त के अपवाद

मिल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों के अपवाद हैं :-
  1. पिछड़ा़ वर्ग : मिल का मानना है कि इस वर्ग में शिक्षाका अभाव और मानसिक अपरिपक्वता होती है। इसलिए इस वर्ग के उत्थान के लिए राज्य को कार्यशील होना चाहिए। जब तक वे अन्य वर्गों के समान न हो जाएँ उनकी स्वतन्त्रता में लगातार वृद्धि करते रहना चाहिए। जब तक वे पिछड़े रहें, उनको उक्त स्वतन्त्रताएँ प्रदान नहीं की जानी चाहिएं।
  2. नाबालिग : मिल का कहना है कि अव्यस्क व्यक्ति मानसिक तौर पर विकसित नहीं होते। उन्हें दूसरों के विवेक पर ही कार्य करने पड़ते हैं। दूसरों के विवेक पर आश्रित रहने के कारण वे स्वतन्त्रता का सदुपयोग नहीं कर सकते। इसलिए उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जा सकती।
  3. मानसिक रूप से विकलांग : मिल मानसिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को भी स्वतन्त्रता देने का विरोध करता है। उसका कहना है कि इन व्यक्तियों में अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। इसलिए ये समाज-अहित के कार्य कर सकते हैं। अत: इनको स्वतन्त्रता प्रदान नहीं करनी चाहिए।
  4. दुश्चरित्र व्यक्ति : मिल दुश्चरित्र व्यक्तियों की स्वतन्त्रता प्रदान करने के विरुद्ध हैं। उनका मानना है कि इस तरह के व्यक्ति समाज की प्रगति में बाधक होते हैं। यदि इन्हें हर तरह की स्वतन्त्रता प्रदान की जाए तो ये समाज में विघटन को ही बढ़ावा देते हैं, विकास को नहीं।

आलोचनाएँ

मिल के स्वतन्त्रता मिल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार निस्सन्देह राजनीतिक दर्शन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अनेक आलोचनाओं का शिकार हुए हैं। अनेक विद्वानों ने विभिन्न दार्शनिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोणों से उसकी आलोचना की है। बार्कर, लिंडसे, सेबाइन, डेविडसन आदि आलोचकों ने उसके विचारों को अमान्य व अनुपयुक्त बताया है। बार्कर ने उसे ‘रिक्त स्वतन्त्रता’ तथा ‘अपूर्ण व्यक्ति का मसीहा’ कहा है। उसके स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों की आलोचना के आधार हैं:-
  1. समानता का अभाव : मिल ने स्वतन्त्रता पर तो जोर दिया है, लेकिन समानता की उपेक्षा की है। स्वतन्त्रता की सार्थकता के लिए समानता आवश्यक है। इसके अभाव में स्वतन्त्रता को स्थायित्व प्रदान नहीं किया जा सकता।
  2. सीमित दृष्टिकाण् : मिल ने पिछड़े वर्ग, बच्चों, मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को अपनी स्वतन्त्रता की परिधि से बाहर रखा है। ऐसा करने से इनका विकास का मार्ग रुक जाएगा और समाज की आमधारा से कट जाएँगे।
  3. अधिकारों का अभाव : मिल ने केवल स्वतन्त्रता पर तो जोर दिया है लेकिन अधिकारों की उपेक्षा की है। स्वतन्त्रता के अर्थपूर्ण प्रयोग के लिए अधिकारों का होना आवश्यक है। स्वतन्त्रता और अधिकार एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं। बार्कर के अनुसार- “अधिकारों के बारे में मिल के पास कोई स्पष्ट दर्शन नहीं था, जिसके आधार पर स्वतन्त्रता की धारणा को कोई यथार्थ रूप प्राप्त होता।” अधिकारों के अभाव में व्यक्ति सच्ची स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं कर सकता।
  4. व्यक्ति अपने हितों का श्रेष्ठ निर्णायक नहीं : मिल की यह मान्यता है कि व्यक्ति अपने हित का स्वयं निर्णायक होता है। किन्तु आधुनिक जटिल आर्थिक समाज में एक सामान्य व्यक्ति अपने हितों को सही रूप में नहीं समझ सकता। इसके लिए उसे दूसरों की मदद की आवश्यकता पड़ती है।
  5. अवैज्ञानिकता : मिल ने कहा है कि व्यक्ति अपने मन और शरीर का स्वामी है। इस धारणा को वैज्ञानिक आधार पर सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। सत्य तो यह है कि व्यक्ति स्वाथ्र्ाी और अज्ञानी है। वह अपना स्वामी न होकर अपनी प्रकृति का दास हैं
  6. अल्पमत को बहुमुमुमत से अधिक महत्त्व : मिल ने बहुमत की निरंकुशता की तुलना में अल्पमत को अधिक महत्त्व दिया है। उसने बहुमत को गलत धारणाओं के आधार पर स्वेच्छाचारी मानने की भूल की है। बहुमत सदा आततायी नहीं होता। आधुनिक युग में बहुमत का शासन सर्वश्रेष्ठ है।
  7. कार्य-स्वतन्त्रता का भ्रामक विभाजन : मिल द्वारा कार्य करने की स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में व्यक्ति के कार्यों को स्व-विषयक (Self-regarding) तथा पर-विषयक (Othe-regarding) में बाँटना भ्रान्तिपूर्ण और असम्भव है। व्यवहार में व्यक्ति के कार्यों में ऐसा भेद नहीं किया जा सकता। मिल के अनुसार शराब पीना स्व-विषयक कार्य है क्योंकि इससे पीने वाले पर ही प्रभाव पड़ता है। किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उसका प्रभाव समाज के दूसरे व्यक्तियों पर भी पड़ता है। ऐसा कोई भी स्व-विषयक कार्य नहीं होता जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में दूसरों पर न पड़ता हो। इसलिए मिल के स्वकार्य पर पर-कार्य सम्बन्धी विचार दोषपूर्ण हैं।
  8. सनकी व्यक्तियों की स्वतन्त्रता : मिल ने सनकी व्यक्तियों को भी पूरी स्वतन्त्रता देने का समर्थन किया हैं उसका मानना है कि ये व्यक्ति ही समाज की प्रगति का मार्ग खोलते हैं। इसलिए वह इन व्यक्तियों में सुकरात व ईसा मसीह का रूप देखता है। सत्य तो यह है कि सभी सनकी व्यक्ति सुकरात या ईसा मसीह नहीं हो सकते। सनकीपन चरित्र की दुर्बलता का प्रतीक होता है, न कि उत्कृष्टता का। सनकी व्यक्ति प्राय: मनोविज्ञान के प्रयोगों से विकृत मानसिकता वाले ही सिद्ध हुए हैं। इसलिए इन्हें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करना समाज व राज्य दोनों के लिए अहितकर है। 
  9. खोखली आरै नकारात्मक स्वतन्त्रता : बाकर्र ने मिल को ‘खोखली स्वतन्त्रता का पगैम्बर’ कहा है। उसके पास अधिकारों के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट दर्शन नहीं था। मिल ने ‘बन्धनों के अभाव’ को स्वतन्त्रता का नाम दिया है। दूसरी तरफ वह राज्य के हस्तक्षेप का भी समर्थन करता है।
  10. विरोधाभास : मिल एक तरफ तो कहता है कि व्यक्ति अपने शरीर और विचार का एकमात्र स्वामी है और इसलिए उसे किसी भी मनचाहे कार्य को करने की पूरी स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। वहीं दूसरी तरफ वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर सामाजिक नियन्त्रण का पक्ष लेता है। इससे पहले विचार का विरोध होता है।
  11. वाद-विवाद की पवित्रता : मिल का कहना है कि सत्य की खोज के लिए वाद-विवाद जरूरी होते हैं। लेकिन सत्य तो यह है कि वाद-विवाद में भाग लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थवश ऐसा करता है। प्रत्येक संगठन तथा राजनीतिक दल, समचार-पत्र, श्रमिक संगठन आदि वाद-विवाद के माध्यम से अपने हितों की रक्षा करते हैं, न कि सत्य की खोज। सत्य की खोज वाद-विवाद द्वारा नहीं, अपितु चिन्तन के द्वारा की जा सकती है। महात्मा गांधी, ईसा, सुकरात, गौतम बुद्ध आदि महापुरुषों ने चिन्तन एवं आत्मानुभूति के द्वारा ही सत्य की खोज की, न कि वाद-विवाद द्वारा।
मिल के स्वतन्त्रता विषयक विचारों की चतुर्दिक आलोचना हुई। बार्कर ने उसे ‘खोखली स्वतन्त्रता का मसीहा’ कहा। बेवर, मैक्सी, लिंडसे आदि विद्वानों ने उसे ‘निरंकुश स्वतन्त्रता का प्रतिपादक’ बताया। लेकिन इससे मिल का महत्त्व कम नहीं हुआ है। आज राज्य व्यक्ति के सम्पूर्ण कार्यों का नियमन करता है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक राज्य का नियन्त्रण होता है। मिल की स्वतन्त्रता की पुकार मानव व्यक्तित्व की गरिमा की रक्षा के लिए एक अमोघ अस्त्र प्रतीत होती है। मिल का कथन आज भी सत्य है कि स्वतन्त्रता के वातावरण में ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास सम्भव है। मिल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार राजनीतिक दर्शन के इतिहास में उसकी शाश्वत व अमूल्य देन हैं। मैक्सी ने कहा है कि- “मिल ने वही उत्कृष्टता प्राप्त की है, जो मिल्टन, स्पिनोजा, वाल्टेयर, रूसो, पेन, जैफरसन के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के विचारों से प्राप्त हुई है।”

जॉन स्टुअर्ट मिल के प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था पर विचार

जॉन स्टुअर्ट मिल के प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था पर पर अपने विचार अपनी पुस्तक ‘प्रतिनिधि शासन’ (Representative Government) में व्यक्त किए हैं। मिल ने शासन की उस प्रणाली को ही श्रेष्ठ माना है जो नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये और जनसाधारण को अधिकारों और कर्त्तव्यों का ज्ञान कराने में सक्षम हो। उसकी दृष्टि में राज्य का लक्ष्य व्यक्ति की शक्तियों का अधिकतम विकास करना है और वही शासन प्रणाली श्रेष्ठ होती है जो इनका अधिकतम विकास करे। उसके अनुसार श्रेष्ठ शासन की प्रथम विशेषता यह है कि “वह जनता के गुणों और बुद्धि का विकास करने वाली हो। शासन की उत्तमता की प्रथम कसौटी यह जाँचना है कि वह नागरिकों में मानसिक एवं नैतिक गुणों का कहाँ तक संचार करती है, उनके चारित्रिक एवं बौद्धिक विकास के लिए कितना प्रयास करती है।” इसी प्रकार मिल ने आगे कहा है कि “आदर्श की दृष्टि से सर्वोत्तम सरकार वह है जिसमें प्रभुसत्ता समुदाय के समूचे व्यक्तियों में निहित है, प्रत्येक नागरिक को न केवल इस अन्तिम प्रभुसत्ता का प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है, अपितु सार्वजनिक कार्यों में व्यक्तिगत रूप से भाग लेने का अधिकार प्राप्त है।” मिल का कहना है कि जहाँ शासन की बागडोर एक ही व्यक्ति या विशेष वर्ग के लोगों के हाथ में होती है, वहाँ बहुमत के हितों की रक्षा कर पाना सम्भव नहीं है। उसके अनुसार प्रजातन्त्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें सभी के हित सुरक्षित करने का समान अवसर प्राप्त होते हैं। इसमें व्यक्ति अपने हितों के साथ-साथ दूसरों के हितों का भी ध्यान रखता है।

मिल ने प्रजातन्त्र को शासन सर्वश्रेष्ठ प्रणाली मानते हुए उसे अन्य शासन प्रणालियों से अलग माना है। उसके अनुसार आधुनिक युग में प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की बजाय अप्रत्यक्ष या प्रतिनिधि लोकतन्त्र ही सर्वोत्तम शासन है। मनुष्य इस शासन को अच्छा या बुरा बना सकते हैं। उसने बेन्थम के विपरीत यह कहा है कि प्रजातन्त्र सभी देशों के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। यह जहाँ भी सम्भव हो, उपयोगी व सर्वोत्तम होता है। मिल ने प्रजातन्त्र या प्रतिनिधि शासन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि- “प्रतिनिधि शासन या सरकार का अर्थ है कि सम्पूर्ण नागरिक या उनके अधिकतर भाग समय-समय पर स्वयं द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा शासन चलाते हैं और शासन की सत्ता जिसे प्रत्येक शासन में रहना अनिवार्य है, अपने नियन्त्रण में रखते हैं।” अर्थात् इसमें जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा शासन की सर्वोच्च शक्ति पर नियन्त्रण रखा जाता है। उसने कहा है कि इस शासन प्रणाली में सभी लोगों को शासन में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है। इससे उनके व्यक्तित्व का विकास होता है। इसलिए यह शासन-प्रणाली सबसे अच्छी होती है।

प्रजातन्त्र के पक्ष में तर्क

मिल ने प्रतिनिधि शासन का समर्थन कई आधारों पर किया है। इससे उसके प्रजातांत्रिक होने के विचार को बल मिलता है। ये तर्क हैं
  1. किसी मनुष्य के अधिकार और हित प्रजातन्त्र में ही सम्भव हैं।
  2. प्रजातन्त्र के द्वारा ही लोगों का कल्याण हो सकता है। इसमें सभी की समानता व स्वतन्त्रता सुरक्षित रह सकती है।
  3. इसमें सभी व्यक्तियों के बौद्धिक और नैतिक विकास की सम्भावना अधिक रहती है।
  4. यह प्रणाली मनुष्यों में सहयोग और आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति जगाती है।
  5. यह लोगों में देश-प्रेम की भावना पैदा करता है। इससे राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है।
  6. इसमें स्त्री-पुरुष सभी वयस्कों को समान मताधिकार प्राप्त होता है।
मिल का मानना है कि अन्य सभी शासन-प्रणालियाँ विशेष वर्गों के स्वार्थ-सिद्धि का साधन होती हैं। लोकतन्त्र ही एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें सभी वर्गों के हित सुरक्षित रहते हैं। लेकिन यह प्रणाली सभी के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती। जिन व्यक्तियों में सार्वजनिक कर्त्तव्यों का पालन करने की उपयुक्त भावना और चरित्र न हो तो उनके लिए यह व्यवस्था हितकर नहीं हो सकती। इस प्रकार मिल ने बेन्थम के लोकतन्त्र सम्बन्धी विचारों से भिन्न लोकतन्त्र को परिस्थितियों के आधार पर श्रेष्ठ माना है।

प्रजातन्त्र के प्रकार

मिल ने अपनी पुस्तक ‘प्रतिनिधि शासन’ (Representative Government) में प्रजातन्त्र के दो रूपों ‘नकली प्रजातन्त्र‘ (False Democracy) तथा ‘असली प्रजातन्त्र‘ (True Democracy) का वर्णन किया है। उसने कहा है कि असली प्रजातन्त्र गुणों पर आधारित होता है, जबकि नकली प्रजातन्त्र संख्या पर आधारित होता है। उसने गुणों पर आधारित असली प्रजातन्त्र (True Democracy) का ही पक्ष लिया है। लेकिन दोनों प्रजातन्त्र के रूपों को मिलाकर (संख्या तथा गुण) विशुद्ध लोकतन्त्र के निर्माण का प्रयास भी किया है।

प्रतिनिधि शासन का सिद्धान्त

मिल के अनुसार- “प्रतिनिधि सरकार व शासन वह व्यवस्था है, जिसमें सम्पूर्ण जन-समुदाय या उसका अधिकांश अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा अन्तिम नियन्त्रण-शक्ति का प्रयोग करता है।” उसने प्रतिनिधि शासन के लिए तीन शर्तें निर्धारित की हैं। जो सरकार इन तीन शर्तों को पूरा करती हो, प्रतिनिधि सरकार है।
  1. वे लोग जिनके लिए ऐसी सरकार का निर्माण किया जाए, जो ऐसी सरकार को स्वीकार करने के इच्छुक हों या इतने अनिच्छुक न हों कि इसकी स्थापना में बाधाएँ पैदा करें।
  2. ऐसी सरकार के स्थायित्व के लिए जो कुछ भी करना आवश्यक हो वह सब करने के लिए इच्छुक और योग्य हो।
  3. ऐसी सरकार के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ऐसे लोगों में जो कुछ सरकार चाहे वह करने के लिए तत्पर और योग्य हों। शासन की जो आवश्यक शर्तें हों वे उन्हें पूरा करने के लिए तैयार हों।

सरकार के कार्य

मिल ने प्रतिनिधि सरकार के कार्य निर्धारित किए हैं :-
  1. सरकार को व्यक्तियों के विकास के लिए उपर्युक्त वातावरण का निर्माण करना चाहिए।
  2. सरकार द्वारा कानूनों का निर्माण कम से कम होना चाहिए क्योंकि कानून व्यक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करते हैं।
  3. सरकार को आपत्तिजनक कार्यों की समीक्षा करके उनके औचित्य को सिद्ध करना चाहिए।
  4. उसे विश्वासघाती शासक-गणों को पदच्युत करके उनके उत्तराधिकारियों को नियुक्त करना चाहिए।
  5. उसे बुरे कार्यों की निन्दा करनी चाहिए अर्थात् बचना चाहिए।
  6. लोगों को राजनीतिक शिक्षा देनी चाहिए।
  7. उसे जनकल्याण के कार्यों पर नियन्त्रण रखना चाहिए।

सच्चे प्रजातन्त्र के लिए सुझाव

मिल का विश्वास है कि सभी परिस्थितियों में प्रजातन्त्र सफल नहीं हो सकता। प्रजातन्त्र वहीं सफल हो सकता है, जहाँ नागरिकों में पारस्परिक सिष्णुता, राजनीतिक परिपक्वता, राष्ट्रीय एकता एवं उत्तरदायित्व की भावना हो। लेकिन प्रजातन्त्र सर्वथा दोषमुक्त नहीं होता। इसमें बहुत निरंकुश बन सकता है। शासक जन विरोधी नीतियाँ बनाकर उन्हें जनता पर थोंप सकते हैं। सामाजिक दबाव भी मानवीय गुणों को नष्ट कर सकता है। मिल प्रजातन्त्र के सभी दोषों से परिचित था। इसलिए उसने प्रजातन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए कुछ दोषों को दूर करने के सुझाव दिए हैं। उसके महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं :-
  1. बहुल मतदान: मिल ने समानता के सिद्धान्त पर आधारित ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के सिद्धान्त को एक बुराई माना है। समाज में गुणी व्यक्ति निकृष्ट व्यक्तियों से ज्यादा महत्त्व रखते हैं। अत: उन्हें अधिक वोट देने का अधिकार मिलना चाहिए। उसके अनुसार राज्य की रक्षा बुद्धि और चरित्र से ही हो सकती है। इसलिए उसने प्रजातन्त्र को सच्चे अर्थ में प्रजातन्त्र बनाने के लिए योग्य एवं शिक्षित व्यक्तियों को अशिक्षित एवं मूढ़ व्यक्तियों की तुलना में अधिक महत्त्व दिया है। उसने अल्पसंख्यकों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व के साथ-साथ बहुमत के योग्य, शिक्षित एवं पक्षपात रहित विधायकों की आवश्यकता पर भी जोर दिया है। उसने वयस्क मताधिकार का समर्थन किया है। मिल के अनुसार- “बुद्धिमान, गुणी एवं शिक्षित नागरिकों को बुद्धिहीन, गुणहीन एवं अशिक्षित नागरिकों से अधिक मत देने का अधिकार होना चाहिए।” उसका विश्वास है कि बुद्धिमान, चरित्रवान एवं शिक्षित व्यक्तियों द्वारा ही प्रजातन्त्र की रक्षा की जा सकती है।
  2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व : मिल ने लोकतन्त्रात्मक प्रतिनिधि शासन का सबसे बड़ा दोष बहुमत का अत्याचार और अल्पसंख्यकों की घोर उपेक्षा को माना है। इसलिए अल्पसंख्यकों को बहुमत के अत्याचार से मुक्त रखने के लिए साधारण बहुमत के स्थान पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त का समर्थन किया है। उसका कहना है कि साधारण बहुमत प्रणाली में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की कभी आशा नहीं की जा सकती। उनके प्रतिनिधित्व के अभाव में उनके हित असुरक्षित रहते हैं। आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा अल्पसंख्यकों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। उसने इस प्रणाली की उपयोगिता पर विचार करते हुए कहा है कि- “अल्पमत भी बहुमत के समान अधिकार रखते हैं और अल्पमतों की बात देश के शासन संचालन के सम्बन्ध में नहीं सुनी जाती है तो जनतन्त्र की स्थिति को स्वस्थ या सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता।” इसलिए जनतन्त्र के दोषों को दूर करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था होनी आवश्यक है।
  3. शैक्षिक योग्यता : मिल ने बहुसंख्यकों के शासन को अज्ञानी व निरक्षर लोगों का शासन माना है। उसका कहना है कि देश में अधिकतर संख्या ऐसे लोगों की ही होती है। यदि वोटरों की योग्यता और गुणों को बढ़ाने का प्रयास न किया जाए तो लोकतन्त्र में अल्पबुद्धि और कम योग्यता वाले व्यक्ति ही हावी हो जाएंगे। लोकतन्त्र को सफल बनाने के लिए ऐसे व्यक्तियों को मताधिकार से वंचित कर देना चाहिए। उसने निरक्षर व्यक्तियों को वोट देने के अधिकार का विरोध करते हुए कहा है कि- “मैं इस बात को पूर्ण रूप से अस्वीकार करता हूँ कि जो व्यक्ति पढ़ने-लिखने में और गणित के सामान्य सवाल हल करने में समर्थ नहीं है, उसे मतदान में हिस्सा न लेने दिया जाए।” उसने विधायकों के सम्बन्ध में भी ऐसे बुद्धिमान, शिक्षित तथा प्रबुद्ध व्यक्तियों की आवश्यकता पर बल दिया है, जिन्हें विशिष्ट ज्ञान हो, जो विधायक का अर्थ जानते हों और जिनकी राज्य निष्पक्ष तथा तर्क-सम्मत हो। इस प्रकार लोकतन्त्र को सच्चा व सुदृढ़ बनाने के लिए नागरिक व प्रतिनिधियों का शिक्षित होना जरूरी है।
  4. सम्पत्ति की योग्यता : मिल ने सम्पत्ति की योग्यता को भी उतना ही महत्त्व दिया है जितना शैक्षिक योग्यता को। उसका विचार है कि सम्पत्ति रखने वाले व्यक्ति के पास सम्पत्ति न रखने वाले व्यक्ति की तुलना में उत्तरदायित्व की भावना अधिक होती है। मिल ने कहा है- “यह महत्त्वपूर्ण बात है कि जो सभा कर लगाती है, वह केवल उन्हीं लोगों की होनी चाहिए जो इन करों का भार सहन करते हों। यदि कर न देने वालों को दूसरों पर कर लगाने का अधिकार दिया गया तो वे व्यक्ति आर्थिक मामलों में खूब खर्च करने वाले तथा कोई बचत न करने वाले होंगे।” इस प्रकार के लोगों के हाथ में कर लगाने की शक्ति देना स्वतन्त्रता के मौलिक सिद्धान्त को चुनौती देना होगा। इसलिए कर लगाने का अधिकार उन्हीं व्यक्तियों को मिलना चाहिए जो स्वयं कर अदा करते हों।
  5. खुला मतदान : मिल के समय में गुप्त मतदान प्रणाली का बोलबाला था। गुप्त मतदान के समर्थकों का मत था कि इससे भ्रष्टाचार कम होता है। लेकिन मिल का मानना है कि गुप्त मतदान से व्यक्ति की स्वार्थमयी प्रवृत्तियों का विकास होता है। उसका मानना है कि मतदान का अधिकार सार्वजनिक कर्त्तव्य है। इसलिए उसने मतदान को लोकतान्त्रिक दायित्व मानते हुए खुले मतदान का समर्थन किया है। उसका कहना है कि मतदान एक पवित्र धरोहर है। इसलिए इसका प्रयोग खूब सोच-समझकर और सामान्य हित की भावना को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए। यदि गुप्त मतदान प्रणाली के दोषों को दूर करना हो तो नागरिकों को किसी अन्य आधार पर मत का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  6. विधि-निर्माण: मिल का मानना है कि विधि-निर्माण का कार्य योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों के हाथ में ही होना चाहिए। यह कार्य विधान-सभा का नहीं है। इस कार्य के लिए विधि-आयोग को करना चाहिए और इसके सदस्य सिविल सर्विस के व्यक्ति होने चाहिएं। इन कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखने व उन्हें पद से हटाने का अधिकार विधान-सभा के पास हो सकता है। कानूनों को पास करने का कार्य विधानसभा का हो सकता है। इस व्यवस्था द्वारा मिल ने शासन के कार्यों का संचालन योग्य व्यक्तियों द्वारा तथा कानून बनाने का अधिकार भी इन्हीं व्यक्तियों के हाथों में सौंपने का समर्थन किया है। इस प्रकार मिल ने श्रेष्ठ शासन में प्रजातन्त्र और कार्यकुशलता के बीच समन्वय स्थापित करने का समर्थन किया है। उसने लोकतन्त्र के स्वरूप को विशुद्ध बनाने का प्रयास किया है।
  7. द्वितीय सदन : मिल ने द्वितीय सदन की स्थापना का समर्थन किया है। उसने इसकी स्थापना हित-प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त के आधार पर करने का प्रयास किया है। उसका मानना है कि इससे निम्न सदन की निरंकुशता पर रोक लगती है। इस सदन के सदस्य बुद्धिमान, शिक्षित, सभ्य और राजनीति में निपुण होते हैं। ये व्यक्ति निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर सार्वजनिक हित में कार्य करते हैं। ये निम्न सदन द्वारा पारित विधियों में सुधार लाते हैं। अत: यह सदन लोकतन्त्र की नींव को मजबूत आधार प्रदान करता है।
  8. वेतन और भत्ता निषेध् : मिल का मानना है कि यदि संसद सदस्यों को वेतन और भत्ते दिए गए तो लोग आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए संसद सदस्य बनने का प्रयास करने लग जाएँगे। संसद में असक्षम व अयोग्य व्यक्तियों का प्रवेश शुरू हो जाएगा। लोगों की निष्काम सेवा की भावना संसद सदस्यों से दूर हो जाएगी। संसद महत्त्वाकांक्षी लोगों का अखाड़ा बन जाएगी। इसलिए मिल ने संसद सदस्यों के लिए वेतन व भत्तों की व्यवस्था से इंकार किया है।
  9. चुनाव पद्धति : मिल का कहना है कि बौद्धिक दृष्टि से योगय व्यक्तियों को ही चुनाव लड़ने का अधिकार मिलना चाहिए। अच्छे लेखक या सामाजिक कार्यकर्ता तथा किसी दल के सदस्य न होने पर भी ख्याति प्राप्त व्यक्तियों को चुनाव में चुन लिया जाना चाहिए। चुनाव पूरे राज्य में एक साथ ही कराए जाने चाहिएं। चुनावों का खर्च उम्मीदवार पर नहीं डालना चाहिए। उसका मत है कि मतों की केवल गिनती ही नहीं, बल्कि उनका वजन भी होना चाहिए। 
  10. महिला मताधिकार : मिल ने महिला मताधिकार का पूरा समर्थन किया है। उसका कहना है कि न्याय की माँग है कि महिलाओं और पुरुषों दोनों पर शासन केवल पुरुष द्वारा ही संचालित नहीं होना चाहिए। उसका मानना है कि यदि महिलाओं पर से पुरुषों का स्वामित्व समाप्त कर दिया जाए तो वे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए उसने कहा है- “मैं राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में लिंग-भेद को उसी प्रकार सर्वथा अनुचित मानता हूँ जिस प्रकार बालों के रंग को। यदि दोनों में कोई भेद हो भी तो महिलाओं को पुरुष की अपेक्षा अधिक अधिकारों की आवश्यकता है, क्योंकि वे शारीरिक दृष्टि से अबला है और अपनी रक्षा के लिए कानून तथा समाज पर ही आश्रित है।” इस तरह मिल ने महिला मताधिकार व महिला शिक्षा का जोरदार समर्थन करके इंगलैण्ड में महिलाओं के सुधार की वकालत की है।
उपर्युक्त तर्कों से यह सिद्ध हो जाता है कि मिल अपने समय के असन्तुष्ट लोकतन्त्रवादी विचारक थे। उन्होंने तत्कालीन शासन-व्यवस्था में जो बुराइयाँ देखीं, उनसे वे काफी असन्तुष्ट थे। उन सभी बुराइयों को दूर करने के लिए ही उसने अपने सुधारवादी सुझाव प्रस् किए। उसने लोकतन्त्र की रक्षा के जो उपाय बताए, उनसे उसके महत्त्व में और अधिक वृद्धि हुई। उसके सुझावों को अनेक देशों में अपनाया गया। इसलिए उसके सुझाव शाश्वत मूल्यों पर आधारित माने जा सकते हैं। उसके विचारों का महत्त्व आज भी है।

आलोचनाएँ

तर्कपूर्ण और बौद्धिकता के गुण पर आधारित होते हुए भी मिल के शासन-सम्बन्धी विचारों की व्यावहारिक आधार पर अनेक आलोचनाएँ हुई हैं। उसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं :-
  1. यदि मिल के मतदाता की योग्यता का मापदण्ड लागू किया जाए तो भारत जैसे बड़े देश में कुछ ही प्रतिशत लोगों को यह अधिकार प्राप्त होगा क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को इतिहास, भूगोल और गणित की जानकारी हो। अत: इस सिद्धान्त को लागू करना न्यायसंगत नहीं हो सकता।
  2. मिल का बहुल मतदान का सिद्धान्त भी व्यवहार में लागू नहीं हो सकता क्योंकि राजनीतिक योग्यता का कोई औचित्यपूर्ण आधार तलाशना कठिन कार्य होता है।
  3. मिल ने संसद सदस्यों के लिए वेतन और भत्तों का निषेध किया है। इससे अमीर-व्यक्ति ही संसद सदस्य बनेंगे। गरीब व्यक्ति या मध्यम वर्ग के व्यक्ति प्रतिनिधि बनना नहीं चाहेंगे। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि आर्थिक कारणों से भी व्यक्ति राजनीतिक कार्यकलापों में भाग लेते हैं। मनुष्य सदैव धन सम्पत्ति में वृद्धि करना चाहता है।
  4. मिल का यह विचार कि मतों की गणना के साथ-साथ उनका वजन भी किया जाए, बड़ा उचित प्रतीत होता है। परन्तु ऐसा तभी सम्भव है जब जनता का नैतिक स्तर ऊँचा हो। लोगों में स्वार्थ की भावना के रहते इसे लागू करन कठिन कार्य है।
  5. मिल ने मतदाता के लिए शैक्षिक योग्यता को आवश्यक माना है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करती है। परन्तु व्यावहारिक अनुभव का भी विशेष महत्त्व है। सूरदास व कबीर के पास कोई शैक्षणिक योग्यताएँ न होने पर भी उनके ज्ञान के आगे संसार नतमस्तक होता है।
  6. मिल ने आनुपातिक प्रतिनिधित्व का समर्थन किया है। इससे किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने के कारण स्थायी सरकार की स्थापना कर पाना असम्भव है।
  7. मिल का खुले मतदान का समर्थन करना सामाजिक द्वेष को जन्म देता है। इसको अपनाने से समाज में सामाजिक सद्भाव समाप्त हो सकता है। इससे प्रजातन्त्र आतंकवादी ओर वर्गतन्त्रीय व्यवस्था का रूप ले सकता है।
  8. मिल की आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से प्रत्येक दल को कुछ न कुछ सीटें अवश्य प्राप्त हो जाती हैं। इससे राजनीतिक दलों में अनावश्यक वृद्धि होती है। असीमित राजनीतक दल राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देते हैं।
  9. मिल ने संसद के कार्यों को सीमित करके उसे वाद-विवाद का केन्द्र बना देना उचित नहीं है। इससे संसद का कानून बनाने और प्रशासन करने के अधिकारों में कमी आती है।
  10. मिल का यह सिद्धान्त प्रजातन्त्र की भावना के विपरीत है कि धनी व्यक्तियों को तो अनेक मत का अधिकार दे दिया जाए और अशिक्षितों को एक वोट का अधिकार भी प्राप्त न रहे। मिल ने लोकतन्त्र के आधार ‘समानता के सिद्धान्त’ पर ही कुठाराघात कर दिया है। अत: मिल का यह सिद्धान्त अप्रजातान्त्रिक है।
इन आलोचनाओं के बावजूद भी मिल को लोकतन्त्र का सशक्त समर्थक और वफादार सेवक माना जाता है। उसने प्रतिनिधियों के व्यक्तिगत चरित्र पर बल देकर प्रजातन्त्र को जो आध्यात्मिक आधार प्रदान करने का प्रयास किया है, वह आधुनिक राजनीतिक वातावरण में मुख्य माँग है। उसने मानव-कल्याण की भावना पर आधारित लोकतन्त्र को सच्चा लोकतन्त्र माना है। उसने लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाने के लिए जो सुझाव दिए हैं, वे आज भी प्रासंगिक हैं। उसने प्रजातन्त्रीय और प्रशासनिक दक्षता के तत्त्वों का समन्वय करने का जो सुझाव दिया है, वह उसकी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचायक है। उसके द्वारा महिला मताधिकार का समर्थन भी नितान्त औचित्यपूर्ण है। उसके विचारों का महत्त्व शाश्वत है।

जॉन स्टुअर्ट मिल का योगदान

राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में जॉन स्टुअर्ट मिल को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। उसने आक्सफोर्ड से पढ़कर निकलने वाले प्रत्येक बुद्धिजीवी को कुछ न कुछ अवश्य प्रभावित किया। राजनीतक शास्त्र के जगत् में उसकी प्रशंसा के साथ-साथ कुछ आलोचना भी हुई है। मिल की आलोचना से उसका महत्त्व कम नहीं हुआ। उसकी रचना 'Political Economy' ने प्रो0 मार्शल को अत्यधिक प्रभावित किया। उसकी रचना 'On Liberty' को राजनीतिक दर्शन के इतिहास में स्वतन्त्रता का प्रथम प्रकाश स्तम्भ माना जाता है। प्रो0 बाल ने कहा है कि- “मिल एक न्यायशास्त्री, अर्थशास्त्री तथा राजनीतिक दार्शनिक के रूप में अपने समय का अवतार है।” मिल के योगदान को निम्न क्षेत्रें में देखा जा सकता है :-

उदारवादी विचारक के रूप में 

मिल अपने राजनीतिक चिन्तन के कारण सबसे श्रेष्ठ और महान् उदारवादियों में गिने जाते हैं। उसके विचार में राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए है। उसकी ‘विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन में उसे एक श्रेष्ठ उदारवादी विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करती है। उसे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का सबसे प्रबल समर्थक माना जाता है। उसने कहा कि हमें मनुष्य के प्रति गौरव का भावन रखना चाहिए। उसके उदाहरण को चार प्रकार से समझा जा सकता है :-
  1. उसने उपयोगितावादी सिद्धान्त में नैतिक भावना का मिश्रण कर उसे काण्ट के समान ही मानव-व्यक्तित्व को मान्यता दी और और नैतिक उत्तरदायित्व से उसका सम्बन्ध स्पष्ट किया।
  2. उसने सामाजिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता को स्वयं में अच्छा बताया।
  3. स्वतन्त्र समाज में उदारवादी राज्य का कार्य नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक है।
  4. स्वतन्त्रता केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक सामाजिक अच्छाई भी है। विचार के दमन से समाज को भी हानि पहुँचती है। मिल ने कहा है कि श्रेष्ठ समाज वह है जो स्वतन्त्रता की अनुमति देता है और विकास के विभिन्न अवसर प्रदान करता है।
इस प्रकार इन चार बातों से मिल का उदारवादी विचारक होने की धारणा को बल मिलता है। मिल ने कहा है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता का विनाश करने से राज्य अधिक श्रेष्ठ नहीं बन सकता। राज्य का अस्तित्व तो व्यक्ति के विकास पर ही निर्भर करता है। राज्य व्यक्तियों के कल्याण का साधन मात्र है।

समाज सुधारक के रूप में 

समाज सुधारक की दृष्टि से मिल का अपूर्व योगदान है। उसने महिला मुक्ति के समर्थन में जोरदार आवाज उठाई। उसने महिला मताधिकार का समर्थन किया। उसने कहा कि यदि महिलाओं पर से पुरुषों का स्वामित्व समाप्त कर दिया जाए तो उन्हें सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उपयोगी बनाया जा सकता है। इसलिए उसने महिलाओं की समानता, शिक्षा और राजनीतिक अधिकारों का समर्थन किया।

लोकतन्त्र के उपचारक के रूप में 

मिल लोकतन्त्र के अतिक्रमणों व दुरुपयोगों से भली-भाँति परिचित थे। उसने लोकतन्त्र तथा प्रतिनिधि शासन प्रणाली पर विचार करते हुए लोकतन्त्र को एक सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली स्वीकार किया है। उसने लोकतन्त्र के गुणों के साथ-साथ उसके दोषों पर भी विचार करके उनको दूर करने के सुझाव प्रस् किए हैं। उसने अल्पमत की बहुमत की निरंकुशता से रक्षा का उपाय सुझाया जो आज भी उचित है। उसने नागरिकों की अज्ञानता तथा उदासीनता को लोकतन्त्र की सबसे बड़ी कमजोरी बताया। उसने जनता के हित को प्रभावी बनाने के लिए प्रौढ़ मताधिकार का पक्ष लिया। उसने लोकतन्त्र के दोषों को दूर करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व, द्वितीय सदन, शैक्षिक योग्यता जैसे सुझाव दिए। वेपर का कथन उचित है कि- “मिल प्रजातन्त्र की बुराइयों से प्रजातन्त्र की रक्षा चाहता था।”

स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थक

मिल ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का समथर्न करके स्वयं को राजनीतिक दार्शनिक व चिन्तकों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर लिया। उसके ‘विचार एवं अभिव्यक्ति’ की स्वतन्त्रता के बारे में विचारों ने उसको राजनीतिक दर्शन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया है। उसकी रचना श्व्द स्पइमतजलश् विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के समर्थन में सम्पूर्ण राजनीतिक दर्शन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उसे इस दृष्टि से रूसो, पेन, जैफर्सन आदि की श्रेणी में रखा जाता है।

पद्धतिशास्त्र की दृष्टि से

पद्धतिशास्त्र के क्षेत्र में मिल ने गहरा चिन्तन एवं अध्ययन किया। उसने बेन्थम के अनुभववाद और अपने पिता जेम्स मिल के बुद्धिवाद के विपरीत ऐतिहासिक या प्रतिलोम निगमनात्मक पद्धति को प्रश्रय देकर पद्धतिशास्त्र के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उसने आगमनात्मक तथा निगमनात्मक दोनों पद्धतियों के समन्वय रूप को सामाजिक विज्ञानों के लिए आवश्यक माना है।

उपयोगितावादी के रूप में 

मिल ने बेन्थम तथा अपने पिता जेम्स मिल के उपयोगितावादी दर्शन को नया रूप प्रदान किया है। उसने बेन्थम के उपयोगितावाद को ‘सूअर दर्शन’ (Pig Philosophy) की संज्ञा से मुक्त किया है। उसने इसे मानवीय रूप प्रदान किया है। उसने समाज-सुधार को वैधानिक प्रक्रिया माना है। मिल ही पहला उपयोगितावादी था जिसने यह स्पष्ट अनुभव किया कि समाज के बिना न तो कोई सभ्यता हो सकती है और न ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सम्भव है। उसका उपयोगितावाद नैतिकता और आध्यात्मिकता पर आधारित है। उसका उपयोगितावादी दर्शन पूर्ववर्ती सभी उपयोगितावादियों के दर्शन से महान् है। उसने बेन्थम के उपयोगितावाद को बुद्धिवादी दर्शन के आधार पर परिमार्जित किया है।

राज्य का उद्देश्य व कार्य 

मिल ने राज्य का उद्देश्य जन-कल्याण बताकर सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य के युग में हलचल पैदा कर दी है। मिल का जन-कल्याण का सिद्धान्त व्यक्तिवाद के लिए एक रक्षा-कवच से कम नहीं आंका जा सकता। उसने लोक-कल्याण पर जोर देकर समाजवाद का मार्ग प्रशस्त किया है। उसने राज्य के सकारात्मक कार्यों पर जोर दिया है। उसने कहा है कि सुअवसर उत्पन्न करने में तथा मानव को मानवोचित जीवन व्यतीत करने के लिए उपर्युक्त परिस्थितियाँ पैदा करने में राज्य को बहुत बड़ी सकारात्मक भूमिका निभानी पड़ती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिल ने निर्जीव व निष्प्रभ उपयोगितावादियों के विचारों को मानवीय पुट प्रदान किया। उसने उपयोगितावादी सिद्धान्तों को नई दिशा प्रदान की। उसने उपयोगितावादको आधुनिक रूप प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने लोकतन्त्र को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए उपर्युक्त सुझाव भी प्रस् किए। उसके द्वारा स्त्री-जाति की मुक्ति व मताधिकार, आनुपातिक प्रतिनिधित्व, उदारवाद, व्यक्तिवाद, स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया जाना उसको राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाता है। उसका सम्पूर्ण विचार-दर्शन जन-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। इसलिए उसका महत्त्व शाश्वत व अमूल्य है। सम्पूर्ण राजनीतिक चिन्तन का इतिहास उसका ऋणी है।

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