महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार / सिद्धांत

गांधी जी के राजनीतिक विचार
महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू

भारतीय राजनीतिक चिन्तन में महात्मा गांधी का एक अति महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा गांधी का दर्शन बहुमुखी है। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र को स्पर्श किया है। यद्यपि उनके विचार प्लेटो, अरस्तु, हॉब्स व लॉक आदि राजनीतिक विचारकों की तरह क्रमबद्ध नहीं है, लेकिन फिर भी अनेक विद्वान उन्हें एक उच्चकोटि का राजनीतिक विचारक मानते हैं। उन्होंने महात्मा महात्मा बुद्ध व सुकरात की तरह जीवन भर सत्य की खोज में समय व्यतीत किया तथा सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर आधारित राजनीति के व्यावहारिक पहलू पर जोर दिया। 

उनके विचारों में क्रमबद्धता न होने के कारण अनेक विचारकों ने उन्हें एक राजनीतिक विचारक मानने से इन्कार किया है। लेकिन आज भी उनके राजनीतिक विचारों को अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। 

उनके दर्शन को, ‘गांधीवाद’ आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इससे उनके राजनीतिक विचारक होने में कोई सन्देह शेष नहीं रह जाता है। सत्य तो यह है कि उनके द्वारा राजनीतिक जीवन में प्रयोग किए सिद्धांत को ही उनकी राजनीतिक विचारधारा है और वे स्वयं एक उच्च कोटि के राजनीतिक विचारक हैं। 

महात्मा गांधी का जीवन परिचय

गाँधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई. को सौराष्ट्र के काठियावाड़ के पोरबन्दर नामक नगर में हुआ । उनके पिता करमचन्द गाँधी रियासत के दीवान थे । बालक मोहनदास के जीवन पर उनकी माता पुतलीबाई का अधिक प्रभाव था, यही कारण है कि वे एक आदर्शवादी, मानवतावादी, आध्यात्मवादी तथा कर्मवादी थे । उनमें अपूर्व समन्वयात्मक शक्ति थी । उनका विवाह 13 वर्ष की आयु में कस्तूरबा से हो गया था । वे हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 19 वर्ष की आयु में बैरिस्टरी (वकालत) की पढ़ाई करने इंग्लैण्ड गये। सन् 1887 से सन् 1891 तक वे बड़े संयम से इंग्लैण्ड में रहे और सन् 1891 में वे बैरिस्टर बनकर भारत लौट आए । शुरू में उन्होंने राजकोट में वकालत प्रारम्भ की कुछ समय बाद वे वकालत करने बम्बई चले गये परन्तु वहाँ कोई विशेष सफलता नहीं मिली । यहीं उनका सम्पर्क एक धन-सम्पन्न मुस्लिम व्यापारी से हुआ जिसका दक्षिण अफ्रीका में व्यापार-व्यवसाय फैला हुआ था। उस व्यापारी के विशेष आग्रह पर उसकी फर्म के मुकदमों की पैरवी के लिये व्यापार संस्थान के कानूनी सलाहकार के रूप में सन् 1893 में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका चले गये । 

महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार

महात्मा गांधी के राजनीतिक विचारों का वर्णन उनके राजनीतिक विचारों को इन शीर्षकों के अन्तर्गत बांटा जा सकता है-
  1. राजनीति का आध्यात्मीकरण 
  2. महात्मा गांधी के अहिंसा का सिद्धांत
  3. महात्मा गांधी के साध्य और साधनों का सिद्धांत
  4. महात्मा गांधी के सत्याग्रह का सिद्धांत
  5. महात्मा गांधी के राज्य का सिद्धांत
  6. महात्मा गांधी के सर्वोदय  का सिद्धांत

राजनीति का आध्यात्मीकरण

महात्मा गांधी की सबसे बड़ी महत्वपूर्ण व मौलिक देन राजनीति का आध्यात्मीकरण करना है। महात्मा गांधी राजनीतिज्ञ से पहले एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने राजनीति और धर्म के बीच एक अटूट रिश्ता कायम किया और राजनीति को धर्म पर आधारित करके नि:स्वार्थ लोक सेवा तथा नैतिकता के विकास का साधन बनाय। उनकी दृष्टि में धर्महीन राजनीति की कल्पना करना सबसे बड़ा पाप था। महात्मा गांधी ने राजनीति के प्रचलित अर्थ को नकारते हुए इसे नया रूप दिया। इसलिए वे राजनीतिक विचारक न होकर जीवन के कलाकार व धर्म के उपासक थे। उनके जीवन का उद्देश्य किसी राजनीतिवाद का प्रतिपादन करना नहीं था, बल्कि आत्मदर्शन, ईश्वर का साक्षात्कार एवं मोक्ष था। इसलिए उन्होंने धर्म को मानव जीवन की धुरी बनाया और उसे राजनीति के साथ अटूट रिश्ते के रूप में जोड़ दिया।

उन्होंने छल-कपट पूर्ण राजनीति की निन्दा करते हुए इसे सर्प की संज्ञा दी है। उनका मानना है कि धर्म के बिना इस राजनीति का कोई प्रयोजन नहीं है। यह प्राणी मात्र के लिए सुख का सच्चा साधन कदापि नहीं हो सकती। इसलिए उन्होंने राजनीति के विकृत रूप को मिटाने के लिए उसका आध्यात्मीकरण किया है। महात्मा गांधी से पहले राजनीति धर्म और नैतिकता के सभी नियमों को ताक पर रखने वाले धूर्त, चालाक, अवसरवादी, विवेकशून्य राजनीतिज्ञों का रंगमच मानी जाती थी। आम आदमी की दृष्टि में दूसरों को मूर्ख बनाना तथा धोखा देना ही राजनीति थी। महात्मा गांधीने राजनीति को सत्य और अहिंसा पर आधारित करके इसमें उच्च नैतिकता और धार्मिकता की भावना का समावेश किया। 

उन्होंने राजनीति के विकृत रूप के बारे में लिखा है-’’मैं जिन धार्मिक व्यक्तियों से मिला हूं, उनमें से अधिकांश छिपे वेश में राजनीतिज्ञ हैं। किन्तु राजनीतिज्ञ का चोला धारण करने वाला मैं अपने हृदय से एक धार्मिक व्यक्ति हूं।’’ उन्होंने राजनीति के विकृत रूप अर्थात् धर्महीन राजनीति के बारे में आगे कहा है-’’यदि मैं राजनीति में भाग लेता हूं, तो इसका कारण यही है कि राजनीति हम सबको सर्प के समान घेरे हुए हैं, जिससे कोई चाहे कितनी ही चेष्टा करे, बाहर नहीं निकल सकता, मैं उस सर्प से युद्ध करना चाहता हूं। मैं राजनीति में धर्म का समावेश करना चाहता हूं’’ इससे स्पष्ट है कि गांधी जी ने राजनीति में हिस्सा, उसे जनसेवा का साधन बनाने के लिए ही लिया। उन्होंने जीवन भर राजनीति में ऐसे प्रयोग किए, जो जन-कल्याण को बढ़ावा देने वाले थे। 

गांधी जी का मानना था कि धर्म समाज के प्रत्येक पक्ष सम्बन्धित हैं। इसी तरह राजनीति भी प्रत्येक क्रिया-कलाप को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य प्रभावित करती है। यदि इन दोनों का मेल कर दिया जाए तो इनसे बढ़कर जन कल्याण का साधन अन्य दूसरा कोई नहीं हो सकता। इसलिए वे धर्म से अलग राजनीति का कोई महत्व नहीं मानते थे। उन्होंने लिखा है-’’मेरे लिए धर्म के बिना राजनीति का कोई अस्तित्व नहीं है। राजनीति धर्म के अन्तर्गत है। धर्म से विमुख राजनीति मृत्यु का फन्दा है, क्योंकि यह आत्मा को मार देती हे।’’ गांधी जी का कहना है कि जो लागे कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है, वे धर्म का अर्थ ही नहीं जानते। गांधी जी के अनुसार धर्म से राजनीति को अलग करना मानवता की हत्या करने के समान है जो धार्मिक रुचि रखते हों तथा जिनमें सत्य तथा ईश्वर की खेाज करने की लगन हो। इसी कारण से गाधीं जी ने राजनीति में प्रवेश किया और आजीवन सत्य और ईश्वर की खोज में लगे रहे।

गांधी जी एक महान कर्मयोगी थे। उनका राजनीति का आध्यात्मीकरण करने के पीछे मूल कारण नैतिकता के दोहरे मापदण्डों को समाप्त करना था। उनकी दृष्टि में राजनीति धर्म और नैतिकता की एक शाखा थी, इसीलिए उन्होंने राजनीति में प्रवेश का अर्थ सत्य और न्याय की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना माना। इसी कारण गांधी जी ने राजनीति व धर्म को स्वीकार किया। उनका मानना था कि आज तक भारत के पिछड़ने का कारण राजनीति से धर्म को पृथक रखना ही था, उनका मानना था कि प्रत्येक आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक कार्य किसी न किसी रूप से धर्म से जुड़ा हुआ है। गांधी जी ने लिखा है-’’सारी मानव जाति से अभिन्नता ही मेरा धर्म है और मेरी राजनीतिक गतिविधि, उस धर्म पर आचरण करने का ढंग, मनुष्य की गतिविधियों के क्षेत्र को आज विभाजित नहीं किया जा सकता और न ही सामाजिक, आर्थिक एवं शुद्ध आर्थिक कार्यों को एक-दूसरे से विभक्त करने वाली स्पष्ट सीमा रेखाएं ही खींची जा सकती है।’’ इस प्रकार गांधी जी ने राजनीति व धर्म को एक सिक्के के दो पहलू मानकर, राजनीति का आध्यात्मीकरण किया। उनकी दृष्टि में धर्म और राजनीति के बीच वही सम्बन्ध है जो शरीर और आत्मा में होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गांधी जी ने राजनीति का आध्यात्मीकरा सिद्धांततौर पर ही नहीं किया बल्कि उसे व्यावहारिक स्तर पर भी लागू किया उन्होंने अपने धार्मिक विश्वासों-आस्तिकता, अद्वैत की कल्पना, समस्त जगत में एक सत्ता का होना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि को राजनीतिक क्षेत्र में लागू करके राजनीति का आध्यात्मीकरण किया हैं प्रत्येक मनुष्य के जीवन का लक्ष्य धर्म और राजनीति से जुड़ा हुआ है। इसलिए उन्होंने सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों का समावेश राजनीति में करके उसे नया रूप दिया है अर्थात् गांधी जी का यही सबसे महान कार्य है कि उन्होंने सत्य और अहिंसा के प्रयोगों से राजनीति का आध्यात्मीकरण किया है।

महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा पर विचार

अहिंसा का विचार भारतीय दर्शन का प्रमुख तत्व रहा है। महाभारत, वेद, उपनिषद आदि में अहिंसा को ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म में अहिंसा का विशेष महत्व है। गांधी जी ने ‘अहिंसा के सिद्धांत’ को प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रन्थों, बाईबल के प्रवचनों तथा टॉल्स्टॉय की रचना-‘The Kingdom of God is within You’ से ग्रहण किया है। परन्तु गांधी जी ने इस सिद्धांत को एक व्यावहारिक रूप दिया है। गांधी जी ने इस सिद्धांत का प्रयोग देश को शांतिमय तरीके से स्वराज्य तक पहुंचाने के लिए किया है। इसलिए गांधी जी की महानता इसी विचार के कारण है।

गांधी जी का यह व्यावहारिक अनुभव रहा कि अहिंसा हिंसा से अधिक शक्तिशाली होती है। अहिंसा ही प्रेम और आदर की जननी है। यह समानता के सिद्धांत को भी जन्म देती है। यह बुराई को अच्छाई से जीतने का गुण रखती है। सत्य रूपी साध्य की खोज अहिंसा रूपी साधन से ही हो सकती है। इसलिए यह सत्याग्रह का मूल मन्त्र है। सत्य सर्वोच्च कानून और अहिंसा सर्वोच्च कर्त्तव्य होता है। सत्य की तरह अहिंसा की शक्ति भी असीम होती है। जिस प्रकार हिंसा पशु जगत का नियम है, अहिंसा मानव जाति का मूल आधार है।

अहिंसा का अर्थ –

गांधी जी के अनुसार अहिंसा से तात्पर्य किसी को न मारने से नहीं है। उन्होंने अहिंसा शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग िया है। उन्होंने अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा है-’’सृष्टि के सब प्राणियों को मन, वाणी और कर्म से किसी भी प्रकार की कोई हानि न पहुंचाई जाए।’’ गांधी जी ने अहिंसा को आत्मिक तथा दैवीय शक्ति माना है। उनके अनुसार अहिंसा निषेद्यात्मक विचार न होकर एक सकारात्मक विचार है। जहां इसका तात्पर्य किसी दूसरे को नुकसान न पहुंचाना है, वहां दूसरों का भला करना भी इसका लक्षण है।

अहिंसा का ऐतिहासिक आधार – 

गांधी जी ने अहिंसा का समर्थन ऐतिहासिक आधार पर किया है। उनका कहना है कि आज तक का मानव इतिहास संघर्षों का इतिहास न होकर अहिंसा का इतिहास है। मनुष्य आदिम काल में तो नरभक्षी था। परन्तु ऐसा करना उसकी मजबूरी थी। जब उसने मनुष्य का मांस खाना अनुचित समझा तो वह पशुओं का मांस खाने लगा। कुछ समय बाद उसने आखेट करे पेट पालने की पद्धति को छोड़ दिया। जब उसने खेती करके अपना पेट पालने की कला सीख लो तो वह खानाबदोश जीवन छोड़कर एक ही स्थान पर रहने लगा। अब वह पशुओं को मारने के स्थान पर उन्हें पालने लग गया। इससे गांव, नगर एवं राष्ट्र अस्तित्व में आए। इससे स्पष्ट है कि हिंसा का प्रयोग निरन्तर घट रहा था और अहिंसा का बढ़ रहा था। इसी कारण मानव जाति का भी विकास हुआ है। 

यदि कार्ल माक्र्स की संघर्ष की अवधारणा सत्य होती तो संसार न जाने कब का नष्ट हो गया होता। यद्यपि हिंसा को संसार से पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता है। यह कभी-कभी अपना रौद्र रूप दिखा देती है। आज जितने हिंसा के साधनों का विकास हो रहा है, अहिंसा के साधनों का भी उतना ही विकास हो रहा है। अत: मानव समाज निरन्तर अहिंसा की तरफ जा रहा है।

अहिंसा के रूप –

गांधी जी के अनुसार अहिंसा के दो रूप हैं-
  1. नकारात्मक अहिंसा (Negative Non - Violence)
  2. सकारात्मक अहिंसा (Positve Non - Violence)
नकारात्मक अहिंसा का अर्थ है कि व्यक्ति को वे कार्य नहीं करने चाहिए जो सत्य पर आधारित नहीं हैं। इसमें किसी प्राणी को काम, क्रोध, विद्वेष की भावना के वशीभूत होकर हिंसा न पहुंचाना शामिल हैं।

सकारात्मक अहिंसा का अर्थ अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध उदासीन बने रहना नहीं, बल्कि उसका सक्रिय किन्तु शांतिपूर्ण विरोध करना है। इसका अर्थ है-दूसरों के प्रति प्रेम भावना तथा उदारता का दृष्टिकोण रखना। यद्यपि गांधी जी अंग्रेजों की नीतियों का विरोध करते थे, लेकिन उनके मन में अंग्रजों के प्रति घृणा नहीं थी। गांधी जी ऐसे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने अहिंसा को व्यापक अर्थ देकर उसका प्रयोग राजनीतिक हथियार के रूप में किया, इस सम्बन्ध में उन्होंने सकारात्मक अहिंसा के प्रयोग पर जोर दिया।

अहिंसा के तत्व –

गांधी जी का कहना था कि अहिंसा के अन्दर सार्वभौमिकता का गुण पाया जाता है। इसमें करुण की भावना का भी समावेश होता है। इसमें अहिंसावादी अपने प्रतिद्वन्द्वी के अनुचित कार्यों का विरोध शान्तिपूर्ण तरीके से करता है। इसके चार मूल तत्व हैं।

1. प्रेम - जिस तरह हिंसा का आधार विद्वेष होता है, उसी तरह अहिंसा का आधार प्रेम है। अहिंसावादी एक पिता की तरह अपने बुरे मित्र से भी प्रेम रखता है। जिस तरह पिता का यही प्रयास रहता हे कि बुरा पुत्र बुरे काम करने छोड़ दे, उसी तरह अहिंसावादी व्यक्ति का भी यही प्रयास रहता है कि शत्रु भी बुराई छोड़ दे। अहिंसावादी व्यक्ति स्वयं कष्ट सहकर भी प्रेम के ब्रह्मशास्त्र से शत्रु का दिल जीतने का प्रयास करता है और उसे बुराई छोड़ने के लिए प्रेरित करता है। अर्थात् अहिंसावादी व्यक्ति बुराई से घृणा करता है, बुराई करने वाले से नहीं।

2. धैर्य - एक अहिंसावादी व्यक्ति कभी धैर्य नहीं छोड़ता। उसे यह विश्वास रहता है कि अहिंसा का ब्रह्मस्त्र कभी असफल नहीं हो सकता। भारी विफलताएं मिलने पर भी वह धैर्य नहीं छोड़ता और धैर्यपूर्वक अपने पथ पर अडिग रहता है। इसलिए धैर्य अहिंसा का मूलाधार है।

3. अन्याय का विरोमा - अहिंसा निष्क्रियता, अकर्मण्यता का उदासीनता नहीं, बल्कि अन्याय या बुराई का प्रतिरोध करते रहना है। एक अहिंसावादी व्यक्ति सदैव बुराईयां खोजकर उनको समाप्त करने की दिशा में अग्रसर रहता है। वह कभी हिंसा का प्रयोग नहीं करता। महात्मा गांधी ने कहा है-’’अन्यायी के सामने झुकना या संसार की बुराई से मुंह फेरना अहिंसा नहीं है। अहिंसा तो अन्याय, अत्याचार व बुराईयों को खेाजकर उनसे संघर्ष करते रहना है।’’ एक अहिंसावादी व्यक्ति अन्याय व अत्याचार का सक्रिय परन्तु शान्तिपूर्ण विरोध करता है। इसके लिए वह हर दु:ख सहन करता है।

4. वीरता - गांधी जी का कहना है कि अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का मानसिक दृष्टि से भी सबल होना जरूरी है। अहिंसा कायरों का शस्त्र न होकर, वीरों का शस्त्र होती है। यह सबल, साहसी व बलवान व्यक्तियों का गुण है। अन्धकार और प्रकाश की तरह कायरता और अहिंसा में विरोध है। अहिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति शक्तिशाली होते हुए भी कभी बल प्रयोग की नहीं सोच सकता। जो दण्ड देने की शक्ति होते हुए भी क्षमादान दे, वहीं अहिंसावादी हो सकता है। निर्बल व कायर की क्षमा कभी अहिंसा नहीं हो सकती। अहिंसा में विश्वास रखने वाला आत्म-बल रूपी शास्त्र पर ही भरोसा करता है, उसे बल प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती। उसकी आत्मा का बल ही उसका सबसे बड़ा हथियार है।

अहिंसा के नियम –

महात्मा गांधी ने अहिंसा के पांच नियम बताए हैं-
  1. अहिंसा में पूर्ण आत्मशुद्धि निहित है।
  2. अहिंसा की शक्ति हिंसा करने वाले व्यक्ति के विचार की अपेक्षा उसकी सामथ्र्य के ठीक अनुपात में होती है।
  3. अहिंसा, हिंसा से श्रेष्ठतर है।
  4. अहिंसा में हार कभी नहीं होती।
  5. अहिंसा का परम उद्देश्य अवश्यम्भावी विजय है।

अहिंसा के पक्ष में तर्क –

महात्मा गांधी ने ऐतिहासिक आधार पर अहिंसा को औचित्य पूर्ण ठहराया है। उनका कहना है कि अहिंसा, हिंसा से हर प्रकार से श्रेष्ठ है। उन्होंने हिंसा का समर्थन इन तर्कों के आधार पर किया है-
  1. अहिंसा का नियम हिंसा के नियम से श्रेष्ठ एवं उच्चतर है तथा मानव-जगत का सर्वोच्च नियम है।
  2. यह एक आत्मिक शक्ति है जिसका प्रयोग सभी कर सकते हैं।
  3. यह स्वत: क्रियाशील होती है। इसके लिए हमें शारीरिक बल के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती।
  4. अहिंसा का आत्मबल शत्रु पर अचेतन, अज्ञात एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है और यह शस्त्र बल की तुलना में अधिक बलशाली होती है।
  5. हिंसा की विफलता तथा अहिंसा की सफलता निश्चित है, क्योंकि अहिंसा प्रेम पर आधारित होती है। घृणा, घृणा को जन्म देती है, प्यार, प्यार को।
इस प्रकार गांधी जीने अहिंसा को हिंसा से अधिक प्रभावशाली माना है। उनका कहना है कि मनुष्य निरन्तर अहिंसा की तरफ अग्रसर है। अहिंसा की शक्ति एक आत्मिक शक्ति है। ंिहंसात्मक लड़ाई तो नौजवान ही लड़ सकते हैं, लेकिन अहिंसा की लड़ाई प्रत्येक कमजोर व्यक्ति भी लड़ सकता है, बशर्ते वह कायर न हो। यह प्रेम पर आधारित होने के कारण भयंकर जंगली जानवरों को भी वश में करने की योग्यता रखती है। शस्त्र बल की कार्यवाही का परिणाम तात्कालिक होता है, किन्तु अहिंसा के शस्त्र का परिणाम अप्रत्यक्ष व स्थायी होता है। घृणा से प्राप्त वस्तु कभी स्थायी परिणाम नहीं दे सकती। 

महात्मा गांधी ने कहा है-’’आग आग से नहीं, पानी से शान्त होती है।’’ अहिंसा कुछ देर के लिए तो असफल हो सकती है, लेकिन यह स्थाई रूप से असफल नहीं हो सकती। बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान अहिंसा के द्वारा किया जा सकता है। इसलिए यह परमाणु बम से अधिक शक्तिशाली होती है। इसमें सार्वभौमिकता का गुण होता है। यह किसी जाति विशेष की धरोहर नहीं होती। गांधी जी ने लिखा है-’’यह आत्मा का गुण है, सबके लिए है, सब जगहों के लिए है, सब समय के लिए है।’’

अहिंसा के सिद्धांत के अपवाद –

महात्मा गांधी अहिंसा के प्रबल समर्थक होते हुए भी कुछ आधारों पर हिंसा को उचित ठहराते हैं। गांधी जी का कहना है कि जीवन निर्वाह के लिए की गई हिंसा पाप नहीं होती। यद्यपि गाय का दूध बछड़े के लिए होता है, लेकिन यदि वह किसी रोगी को ठीक करता है तो बछड़े का हक छीनना कोई हिंसा नहीं हे। आमदखोर जानवरों को मारना कोई हिंसा नहीं है। यदि कुत्ता पागल हो जाए तो उसको मारना ही ठीक है। यदि कोई रोगी जब इस अवस्था में हो कि उसका ठीक होना असम्भव हो जाए तो उसके प्राण लेना कोई पाप नहीं है। गांधी जी ने स्वयं अपने आश्रमों के मरणासन्न बछड़े को जहर देकर मार दिया था। गांधी जी का कहना है कि ऐसा उपाय तभी करना चाहिए, जब कोई अन्य उपाय शेष न रह जाए। इस प्रकार का हिंसापूर्ण कार्य हिंसा न होकर दयापूर्वक किया गया अहिंसक कार्य ही होता है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसा अकर्मणयता का सिद्धांत नहीं है। यह कर्मठता और गतिशीलता का दर्शन है। यह सत्य के लिए शाश्वत् संघर्ष है जो युगों से चलता आ रहा है। इस प्रकार गांधी जी ने कल्पना की बजाय अहिंसा के व्यावहारिक पहलू पर ही जोर दिया है। उन्होंने अहिंसा के अस्त्र का प्रयोग सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए किया है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गांधी जी मानवता के सच्चे पुजारी थे। उनके अनुसार अहिंसा केवल एक दर्शन ही नहीं है बल्कि एक कार्य पद्धति है, हृदय परिवर्तन का साधन है। उन्होंने अपना अहिंसा का सिद्धांत जीवन के हर क्षेत्र में लागू किया है। उन्होंने इस मानव हृदय की दिव्य ज्योति माना है जो राख से ढक तो सकती है, लेकिन कभी बुझ नहीं सकती। हिंसा में भी अहिंसा का सिद्धांत काम करता है। अहिंसा एक शाश्वत् विचार है, जिसका महत्व कभी कम नहीं हो सकता। इतना होने के बावजूद भी गांधी जी के इस सिद्धांत की कुछ आलोचनाएं हुई हैं।

अहिंसा के सिद्धांत की आलोचनाएं -

महात्मा गांधी के अहिंसा सम्बन्धी विचारों की आलोचना के प्रमुख आधार हैं-
  1. अप्रासांगिकता - आलोचकों का कहना है कि गांधी जी का अहिंसा का सिद्धांत परमाणु युग में प्रासांगिक नहीं हो सकता, राष्ट्रीय सम्प्रभुसत्ता व सीमाओं की रक्षा सशस्त्र सेनाओं के बिना नहीं हो सकती। आत्मा की शक्ति से ही शत्रु का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। अहिंसा और सत्य राष्ट्रीय सम्प्रभुता की रक्षा की कोई गारन्टी नहीं दे सकते। अत: अहिंसा का सिद्धांत आधुनिक युग में अप्रासांगिक है।
  2. काल्पनिक - गांधी जी अहिंसा के समर्थक थे और इसी के आधार पर उन्होंने स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी, इस बात में कम सच्चाई नजर आती है। स्वतन्त्रता के लिए किया गया संघर्ष हिंसा के अनेक प्रकरणों से भरा हुआ है। स्वयं गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में चौरा-चौरी कांड ने कई जानें ले ली थी। यह सिद्धांत सन्तों व महापुरुषों का सिद्धांत तो हो सकता है, साधारण लोगों के लिए नहीं। आधुनिक समाज अहिंसा की बजाय हिंसा पर आधारित होता जा रहा है। आज के समय में जितने अपराध बढ़ रहे हैं, उतने पहले नहीं थे, इसलिए गांधी जी द्वारा यह बात कहना कि व्यक्ति निरन्तर अहिंसा के रास्ते पर चल रहा है, कपोल मात्र प्रतीत होती है।
  3. अहिंसा और सत्य पर्यायवाची नहीं है। सत्य को अहिंसा के अतिरिक्त अन्य विधियों से भी प्राप्त किया जा सकता है। सत्य किसी देश, काल व सीमाओं से बंधा हुआ नहीं है।
  4. गांधी जी का यह कथन ठीक है कि अहिंसा हिन्दू धर्म का आधार है। लेकिन हिन्दू धर्म में अनेक युद्धों का समर्थन भी किया है। रामायण व महाभारत में अनेक नैतिक युद्धों का वर्णन मिलता है। इसलिए यह कहना उचित होगा कि हिन्दू धर्म में हिंसा तथा अहिंसा दोनों के लिए जगह है।
  5. गांधी जी द्वारा अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर विश्व समस्याओं को हल करने की बात अवास्तविक व काल्पनिक हैं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में समस्याओं का हल कुटनीति करती है, अहिंसा नहीं।
लेकिन उपरोक्त आलोचनओं के बाद यह नहीं समझ लेना चाहिए कि गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत का कोई महत्व नहीं है। अहिंसा के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने में गांधी जी ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यदि कहीं पर यह सिद्धांत असफल रहा तो गांधी जी ने इसके लिए स्वयं को दोषी माना। गांधी जी ने इस सिद्धांत के बल पर आध्यात्मिक मूल्यों को नष्ट करने वाले भौतिकवाद व हिंसा का विरोध किया और परमाणु युग में भी मानवता के लिए शांति का आधार पेश किया। यदि हम गांधी जी के इस सिद्धांत को अपना लें तो विश्व की अधिकांश समस्याएं स्वत: ही हल हो जाएंगी और समाज की प्रगति का नया साधन मानवता की वेदना का नाश करेगा। 

महात्मा गांधी का महत्व इसी बात में है कि उसने हिंसा के युग में भी अहिंसा की बात की है। शांति के विचार का समर्थन करने वाले विचारकों में गांधी जी का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है। उनका अहिंसा का सिद्धांत भारतीय राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक अति महत्वपूर्ण व शाश्वत् विचार है इसलिए इसका महत्व कदापि कम नहीं हो सकता। हिंसा के विचार की तरह गांधी जी का अहिंसा का विचार भी अमर है।

महात्मा गांधी के साध्य और साधन सम्बन्धी विचार

गांधी जी स्वभाव से ही एक धार्मिक व्यक्ति थे, उनका मानना था कि अच्छे साध्य (उद्देश्य) की प्राप्ति के लिए अच्छे साधन का होना आवश्यक है। उनकी विचारधारा मैक्यावली, कार्ल माक्र्स, लेनिन, मुसोलिनी तथा हिटलर से पूर्णतया अलग थी। वे शक्ति राजनीति के घोर विरोधी थे, उनका मानना था कि हिंसा या शक्ति पर आधारित राजनीतिक व्यक्तिगत हितों की तो पोषक हो सकती है, सामाजिक कल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती। उन्होंने भारत को स्वतन्त्रता दिलाने जैसे साध्य की प्राप्ति अहिंसा रूपी शांतिमय साधन द्वारा ही की। उनका विचार था कि अच्छे साध्य की प्राप्ति अच्छे साधन के बिना नहीं हो सकती, इसलिए साधनों की पवित्रता पर ध्यान रखना चाहिए। गलत साधन कभी भी अच्छे साध्य का आधार नहीं बन सकते। अच्छा साधन ही अच्छा साध्य प्राप्त कर सकती है।

साध्य और साधन सम्बन्धी प्रचलित मत

इस सिद्धांत के बारे में दो धारणाओं का प्रचलन है। प्रथम धारणा यथार्थवादी है और दूसरी आदर्शवादी है। गांधी जी ने यथार्थवादी धारणा पर जोर दिया है। यथार्थवादी धारणा का प्रतिपादन भौतिकवादियों, साम्यवादियों, फासीवादियों एवं व्यावहारिकवािदयों ने किया है। इसमें मैक्यावली, माक्र्स, लेनिन, मुसोलिनी तथा हिटलर जैसे विचारक शामिल हैं। इनके अनुसार साध्य (लक्ष्य) ही सर्वोपरि है, वे साध्य की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के साधन को अपनाने के पक्ष में हैं। मैक्यावली का कहना है कि-’’उद्देश्य ही साधनों की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है।’’ इसलिए इन विचारकों ने हिंसात्मक साधनों पर ज्यादा जोर दिया। गांधी जी हिंसा के घोर विरोधी थे। इसलिए उन्होंने भारतीय वेद शास्त्रों में वर्णित रीति के अनुसार शुद्ध साधनों का अनुस्वरण करने पर जोर दिया। उनका साध्य और साधन की पवित्रता में गहरा विश्वास था, उनका कहना था कि बुरे साधन के कारण अच्छा साध्य भी नष्ट हो जाता है। 

गांधी जी ने साधन और साध्य की तुलना बीज और फल से करते हुए कहा कि जिस प्रकार के बीज होंगे, उसी प्रकार का फल आएगा। इस प्रकार यदि साधन (बीज) अच्छा नहीं होगा तो साध्य (फल) भी अच्छा नहीं हो सकता। इसलिए गांधी जी ने साध्य की बजाय साधनों पर अधिक जोर दिया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इसका व्यावहारिक प्रयोग करके दिखाया।

साध्य और साधन सम्बन्धी विचार - 

गांधी जी के साध्य और साधन सम्बन्धी विचारों का अध्ययन इन शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. साधनों की पवित्रता पर जोर – गांधी जी का मानना था कि अच्छे साधन की प्राप्ति के लिए साधनों का पवित्र होना जरूरी है। उन्होंने इस बात का खण्डन किया है कि अच्छे साध्य की प्राप्ति हिंसा द्वारा भी की जासकती है। साधनों की पवित्रता ही साध्यों की वैधता सिद्ध कर देती है। गांधी जी का विश्वास था कि हम बुरे साधनों द्वारा तो बुरे साध्यों की ही प्राप्ति कर सकते हैं। बुरे साधन द्वारा प्राप्त साध्य की वैधता कुछ समय बाद स्वत: ही समाप्त हो जाती है। असहयोग आन्दोलन के दौरान भड़की हिंसा से गांधी जी ने दु:खी होकर यह आन्दोलन वापिस ले लिया था। गांधी जी बुरे साधन द्वारा स्वतन्त्रता जैसे अच्छे साध्य की प्राप्ति नहीं चाहते थे। वे किसी भी अवस्था में साधनों को अपवित्र नहीं बनाना चाहते थे। 

उन्होंने साधनों की पवित्रता पर जोर देते हुए कहा है-’’मैं जानता हूं कि यदि हम साधनों का ध्यान रखें तो साध्य की प्राप्ति विश्वसनीय हो जाती है। मैं यह भी महसूस करता हूं कि साध्य-प्राप्ति में हमारी प्रगति हमारे साधनों की पवित्रता के पूर्ण अनुपात में होगी।’’ इस प्रकार गांधी जी किसी भी कीमत पर साधनों की पवित्रता बनाए रखने के पक्ष में थे। वे गन्दे तथा अनैतिक साधनों द्वारा स्वतन्त्रता जैसे अच्छे व पवित्र साध्य की प्राप्ति नहीं चाहते थे।

2. साध्यों की पवित्रता पर जोर – गांधी जी ने साधनों की पवित्रता के साथ-साथ साध्यों की पवित्रता पर भी जोर दिया है। उनका कहना है कि साधनों के पवित्र और न्यायपूर्ण होने से ही काम नहीं चल सकता। इसके लिए तो स्वयं साध्य भी पवित्र होना चाहिए। उनका मानना था कि व्यक्ति का साधनों पर तो नियन्त्रण होता है, साध्य पर नहीं। इसलिए व्यक्ति को साधनों की पवित्रता बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि साध्य को वैध बनाया जा सके। इसी से साधनों की शुद्धता का पता चल जाता है। अनैतिक साधन नैतिक साध्य को भी अपवित्र सिद्ध कर देते हैं। इसलिए व्यक्ति को पवित्र साध्य के लिए ही पवित्र साधनों द्वारा प्रयास करना चाहिए।

3. साध्य और साधन परिवर्तनशील है – गांधी जी का विचार है कि कोई भी साध्य या साधन स्थाई नहीं होता। इनकी प्रकृति परिवर्तनशील होती है, साध्य साधन का रूप ले सकता है और साधन साय का। इसलिए कोई भी साध्य अन्तिम नहीं होता। इनकी परिवर्तनशील प्रवृत्ति के कारण ही समाज का विकास होता है। स्वतन्त्रता से पूर्व जो साध्य था, वह आज साधन है। आज साध्य सर्वपक्षीय विकास है। कल यही साध्य साधन का रूप ग्रहण कर सकता है। स्वतन्त्रता से पहले राष्ट्रीय आन्दोलन में लोगों को शामिल करना एक साध्य था, जो आज साधन बन चुका है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि साध्य और साधन परिवर्तनशील हैं और इसी से समाज की धारा आगे बढ़ती है।

4. साध्य और साधन की एकता पर जोर – गांधी जी के अनुसार साधन साध्य का ही अभिन्न अंग है। इसे साध्य से अनग नहीं किया जा सकता। इन दोनों में आंगिक एकता पाई जाती है। ये भिन्न-भिन्न इकाईयां न होकर एक ही समग्र के दो भाग हैं। ये दोनों पर्यायवाची हैं। ये एक दूसरे का स्थान लेने की योग्यता रखते हैं। साध्य प्रयुक्त साधनों का ही प्रतिफल है। व्यक्ति साध्य व साधनों में उचित सामंजस्य रख सकता है। अच्छे साध्य की प्राप्ति बुरे साधन से नहीं हो सकती। अच्छे साधन ही अच्छे साध्य की कसौटी है। गांधी जी ने लिखा है-’’मेरे लिए साधनों का जानना ही पर्याप्त है। मेरे जीवन दर्शन में साध्य और साधन पर्यायवाची हैं। लोग कहते हैं कि साधन तो साधन है। मैं कहता हूं कि साधन ही सब कुछ है। जैसा साधन वैसा साध्य। दोनों के बीच एक-दूसरे को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है। वास्तव में ईश्वर ने हमें साधनों पर नियन्त्रण दिया है, साध्यों पर नहीं।’’ गांधी जी ने उन व्यक्तियों के तर्क का खण्डन किया है जो यह कहते हैं कि साध्य और साधनों में कोई सम्बन्ध नहीं है।

गांधी जी का कहना है कि इसी भूल के कारण धार्मिक व्यक्तियों से भी अपराध हुए हैं। यह तर्क तो ऐसा है कि गन्दी घास-फूस लगाकर फल पैदा कर सकते हैं। यदि मैं समुद्र को पार करना चाहता हूं तो मैं जहाज द्वारा ही कर सकता हूं। यदि मैं इसके लिए गाड़ी का प्रयोग करूं, तो गाड़ी और मैं दोनों धरातल पर पहूंच जाएंगे। बबूल का पेड़ बोने से उस पर आम के फल कभी नहीं लग सकते। आम का फल प्राप्त करने के लिए आम का पेड़ ही लगाना पड़ता है। जैसे बीज होता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस तरह गांधी जी ने साध्य और साधन की आंगिक एकता पर बल दिया है।

5. नैतिक नियमों में विश्वास – गांधी जी नैतिकता के महान समर्थक थे। उनका आत्मबल पर गहरा विश्वास था। उनका कहना था कि सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यों के पीछे मनुष्य का शुद्ध और पवित्र भाव होना चाहिए। आत्मा के विपरीत किया गया कार्य राजनीतिक क्षेत्र में भी ठीक नहीं हो सकता। देश भक्ति के नाम पर नैतिक नियमों को त्याग कर देश हित की रक्षा करना औचित्यपूर्ण कभी नहीं हो सकता। प्रत्येक राजनैतिक कार्य के पीछे नैतिक भावना का होना अति आवश्यक है। जो कार्य नैतिक रूप से उचित है, राजनीतिक रूप से भी वही उचित हो सकता है। उन्होंने कहा है-’’यदि हम साधनों की परवाह करते हैं तो हम शीघ्र ही साध्य की ओर पहुंच जाएंगे। जहां साधन पवित्र होते हैं, वहां ईश्वर भी अपनी शुभकामनाओं सहित मौजूद होता है।’’ इस प्रकार गांधी जी साधनों का प्रयोग करते समय उसे नैतिकता की कसौटी पर परखने का सुझाव देते थे।

साध्य को प्राप्त करने के साधन 

गांधी जी ने साधन को प्राप्त करने के उचित साधनों की चर्चा इस तरह से की है:-

1. सत्य – गांधी जी के अनुसार सत्य साध्य प्राप्ति का प्रमुख साधन है। उनके अनुसार धर्म और ईश्वर सत्य है। सत्य की खोज आत्मा के द्वारा ही सम्भव हो सकती है और उद्देश्य (साध्य) की प्राप्ति हो सकती है। सत्य एक वृक्ष की तरह है जिसको जितना पोषित किया जाता है, वह उतना ही अधिक फल देता है।

2. अहिंसा – गांधी जी का मत था कि एक अच्छे साध्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा रूपी साधन का प्रयोग आवश्यक है। उन्होंने अपने पूरे जीवन अहिंसा पर ही बल दिया। उन्होंने अहिंसा को एक ऐसी शक्ति माना, जिसके द्वारा सत्य की खोज की जा सकती है। सत्य और अहिंसा एक दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा को अपनाना हिंसा से भी अधिक कठिन कार्य है, क्योंकि इसको अपनाने वाले व्यक्ति के लिए आत्मशुद्धि, त्याग, आत्मबल, बलिदान, सत्य, धैर्य आदि गुणों की आवश्यकता होती है।

3. सत्याग्रह – गांधी जी ने सत्याग्रह को भी साध्य प्राप्ति का प्रभावशाली साधन माना है। उनके अनुसार सत्याग्रह से हिंसा मुक्त समाज की रचना की जा सकती है। सत्य और अहिंसा पर आधारित अपनी आत्मिक शक्ति के प्रयोग से न्याय व सत्य के लिए लड़ना सत्याग्रह है अर्थात् अन्याय, अत्याचार व शोषण के खिलाफ उत्तम शक्ति का प्रयोग करना सत्याग्रह है। सत्याग्रही के लिए सहनशीलता, सद्चरित्र, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा त्याग व धैर्य आदि गुणों का होना जरूरी है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति सच्चा व सफल सत्याग्रही नहीं हो सकता।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी जी का साध्य और साधन का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। गांधी जी ने साध्य और साधन दोनों को पवित्रता या नैतिकता पर आधारित करके एक महान कार्य किया है। उनका राजनीति का आध्यात्मीकरण करने का विचार भी इसी से प्रेरित है। उन्होंने अपने इस सिद्धांत को न केवल सिद्धांत तक ही सीमित रखा बल्कि इसे व्यावहारिक रूप भी दिया है। 

गांधी जी का यह कथन-’’यदि साधन अपवित्र है, तो पवित्र से पवित्र साध्य को भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।’’ विश्व को एक महान सन्देश है। यदि गांधी जी इस बात को स्वीकार लिया जाए तो यह निश्चित है कि विश्व की अधिकांश समस्याओं का समाधान स्वत: ही हो जाएगा। आज के आणविक युग में विश्व में जो अराजकता व भय का वातावरण है, उसका कारण विभिन्न देशों द्वारा साध्यों व साधनों का गलत चुनाव है। गांधी जी का यह सिद्धांत साध्य व साधनों की पवित्रता अपनाने पर जोर देकर इसी समस्या का समाधान करता हुआ प्रतीत होता है। निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि साध्य और साधन का सिद्धांत गांधी जी की एक महत्वपूर्ण व शाश्वत देन है।

सत्याग्रह पर महात्मा गांधी के विचार / सत्याग्रह का सिद्धांत

महात्मा गांधी ने अपने अहिंसा के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने के लिए जिस उपाय का प्रयोग किया, वह सत्याग्रह है। उनका यह सिद्धांत सत्य की अवधारणा पर आधारित है। सत्य के प्रबल समर्थक होने के नाते गांधी जी का मानना था कि सत्य के मार्ग पर चलकर ही व्यक्ति पूर्ण विकास का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। गांधी जी ने सत्याग्रह का प्रथम प्रयोग दक्षिणी अफ्रीका में किया। इसे वहां पर निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया। लेकिन गांधी जी ने इस बात को स्पष्ट किया कि सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध अलग-अलग है। सत्याग्रह शुद्ध अहिंसक साधनों पर आधारित तकनीक है। इसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। सत्य इसका आधार है। इसमें आत्मबल रूपी शस्त्र का ही प्रयोग किया जाता है। यह एक आदर्श है, कर्म योग का एक व्यावहारिक दर्शन है और एक क्रियाशील अवधारणा है।

दार्शनिक आधार –

गांधी जी ने ‘शक्तिशाली की विजय’ के जैविक सिद्धांत तथा हॉब्स के विचार-’प्रत्येक एक-दूसरे के सिरुद्ध संघर्षरत रहता है’ का खण्डन किया है। गांधी जी मानव स्वभाव का वर्णन करते हुए कहता है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही अहिंसा प्रेमी रहा है। वह पारस्परिक सहायता व सहयोग में विश्वास करता हैं वह वेद-शास्त्रों के मार्ग का अनुसरण करता है। कोई भी व्यक्ति या शासक कितना निर्दयी क्यों न हो, उसमें भी मनुष्यता, करुणा, परोपकार तथा दया की भावना अवश्य पाई जाती है। सत्याग्रह द्वारा अत्याचारी मनुष्य की सोई हुई आत्मा को जगाया जा सकता है। एक समय ऐसा आता है, जब अत्याचारी की आत्मा अवश्य जागृत होती है। बुराई को बुराई से कभी दूर नहीं किया जा सकता। प्रेम से ही अत्याचारी व अन्यायी पर काबू पाया जा सकता है। घृणा, घृणा को जन्म देती है। मानव के दु:खों का कारण घृणा है। असत्य का सामना सत्य से करके ही मानवता को सुख प्रदान किया जा सकता है। 

गांधी जी का यह सिद्धांत इस बात में विश्वास करता है-’’हम सब एक-दूसरे के सदस्य हैं’’ मनुष्य को ईश्वर के सभी व्यक्तियों की भलाई करनी चाहिए। सबकी भलाई में ही उसकी भलाई निहित है और उसके साथ कभी अच्छा नहीं हो सकता। इसलिए व्यक्ति को बुराई दूर करने के लिए अच्छाई का ही मार्ग अपनाना चाहिए। हिंसा, युद्ध, कुटिल राजनीति कभी भी शांति का साधन हीं हो सकते। अहिंसा, प्यार और सत्य ही समस्याओं के समाधान के स्थाई उपाय हैं यही सत्याग्रह के सिद्धांत का सन्देश है और मानवता के सुख का आधार है।

सत्याग्रह का अर्थ

साधारण शब्दों में सत्याग्रह-सत्य + आग्रह दो शब्दों के मेल से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-सत्य पर आरुढ़ रहकर बुराई का विरोध करना। यह असत्य का विरोध है व हर अवस्था में सत्य को पकड़े रहना है। हिंसा, भय और मृत्यु इसे विचलित नहीं कर सकते। यह सत्य के लिए एक तपस्या है। गांधी जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ में इसे ‘आत्मा का बल’ भी कहा है।

सत्याग्रह का अर्थ है-’’सत्य पर आग्रह करते हुए अत्याचारी का प्रतिरोध करना, उसके सामने सिर न झुकाना तथा उसकी बात को न मानना।’’ यह आत्मबल का शारीरिक बल अथवा पशुबल के साथ संघर्ष है। यह सभी प्रकार के अन्याय और शोषण के विरुद्ध आत्मा की शक्तिका प्रयोग है। इसका उद्देश्य विरोधी को दबाना नहीं है, बल्कि उसका हृदय परिवर्तन करना है। इस प्रकार सत्याग्रह विरोधी का हृदय परिवर्तन करने की कार्यवाही है। इसके लिए हिंसात्मक साधनों या किसी प्रकार के दबाव का प्रयोग वर्जित होता है।

गांधी जी ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है-’’सत्याग्रह से अभिप्राय विरोधी को पीड़ा या कष्ट देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट सहकर सत्य पर डटे रहना अथवा सत्य की रक्षा करना है।’’ दूसरे शब्दों में कह सकते हैं-’’सत्याग्रह रक्षा है, यह रक्षा विरोधियों को कष्ट देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट सहकर की जाती है। यह सच्चाई के लिए तपस्या के अतिरिक्त कुछ नहीं है।’ जी0एन0 धवन के अनुसार-’’सत्याग्रह अहिंसक साधनों द्वारा सत्यपूर्ण लक्ष्यों के लिए निरन्तर प्रयत्न है।’’ वी0पी0 वर्मा के अनुसार-’’सत्याग्रह का अर्थ अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध शुद्ध आत्म-शक्ति का प्रयोग है।’’ कृष्णलाल श्री धारणी ने इसे ‘अहिंसक कार्यवाही’ कहा हे। एन0 के बोस ने इसे ‘अहिंसक तरीकों द्वारा युद्ध का संचालन करने का तरीका’ कहा है। साधारण रूप में यह ‘सत्य के लिए तपस्या’ है।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सत्याग्रह सब प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध विशुद्ध आत्मबल का प्रयोग है, जिसमें हिंसा का प्रयोग लेशमात्र भी नहीं होता। इससे विरोधी का हृदय परिवर्तन इस तरह से किया जाता है कि दूसरा स्वत: ही सत्याग्रह के नियमों में विश्वास करने लगता है। राजनीतिक शब्दावली में इसे अपनी बात शांतिपूर्ण तरीके से मनवाने का शांतिपूर्ण शस्त्र भी कहा जा सकता है।

सत्याग्रह की विशेषताएं

गांधी जी ने ‘यंग इण्डिया’ और ‘हरिजन’ पत्रिकाओं में सत्याग्रह सम्बन्धी अपने विचार प्रस्तुत किए। उनके आधारों पर सत्याग्रह की विशेषताएं हैं:-

1. सत्याग्रह आत्म-बल का प्रयोग है – गांधी जी का कहना है कि सत्याग्रह में पाश्विक या शारीरिक बल की बजाय आत्म-बल का ही प्रयोग किया जाता है। आत्म-शक्ति शारीरिक शक्ति से अधिक शक्तिशाली होती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही अत्याचारी व अन्यायी क्यों न हो, उसे भी आत्मबल से जीता जा सकता है। सत्याग्रह आत्म-बल रूपी शस्त्र से विरोधी का हृदय परिवर्तन करने का प्रयास करता है। वह बुराई को अच्छाई से, क्रोध को प्यार से, असत्य को सत्य से तथा हिंसा को अहिंसा से जीतने पर बल देता है। सत्याग्रह आत्म-बल पर आधारित नैतिक शस्त्र होने के नाते अधिक प्रभावशाली होता है। सच्चा सत्याग्रही अपने विरोधी को कष्ट देने की बजाय प्यार से उसे अच्छे-बुरे का भेद कराकर उसे न्याय की ओर प्रेरित करता है। इस तरह यह आत्म-बल द्वारा अत्याचारी के हृदय परिवर्तन की प्रक्रिया है।

2. स्वयं कष्ट सहना सत्याग्रह का अनिवार्य भाग है – गांधी जी का मानना है कि सत्याग्रह में सत्याग्रही स्वयं कष्ट सहकर दूसरों का हृदय जीत सकता है। सत्याग्रह का यह आवश्यक नियम है कि एक सच्चा सत्याग्रही स्वयं कष्ट उठाए, दूसरों को कष्ट न दे। स्वयं कष्ट भोगना तथा अन्याय का विरोध करना ही सत्याग्रह है। सत्याग्रह स्वार्थ पर आधारित नहीं होता। सत्याग्रही परमार्थ हेतु स्वयं कष्ट उठाकर सत्य व न्याय की रक्षा करता है। सच्चा सत्याग्रही वही होता है जो समस्त दु:खों को स्वयं सहे और समस्त सुखों को प्राणीमात्र की भलाई के लिए अर्पित कर दे। सत्याग्रही पर जितने अधिक दु:ख आते हैं, वह जितने अधिक दु:ख सहता है, उसी से वह पूर्णता की तरफ अग्रसर होता है। जिस तरह सोना आग में तपकर कुन्दन बनता है, उसी तरह अधिक से अधिक कष्टों के माध्यम से गुजरकर सच्चा सत्याग्रही तैयार होता है। यही सत्याग्रह का अटल व शाश्वत् नियम है। दु:खों से ही सुखों का जन्म होता है। कोई भी देश दु:खों के बिना सुख नहीं भोग सकता। भारत ने कष्ट सहकर की स्वतन्त्रता का आनन्द उठाया है। आत्मपीड़न ही सत्याग्रह के सिद्धांत का आधार है। जो कष्ट सहता है या आत्मपीड़न से गुजरता है, वही सुखों को भोगता है। इससे उसकी आत्मा पवित्र होती है। जनता उसके पक्ष में होकर उसी को औचित्यपूर्ण ठहराती है।

3. सत्याग्रह विरोधी के हृदय को विवेक तथा अपील से बदलता है – सत्याग्रह में विरोधी को अपनी बात मनवाने के लिए किसी भय या दण्ड का प्रयोग वर्जित होता है। सत्याग्रह विवेक पर आधारित होता है। सत्याग्रही अन्यायी या अत्याचारी के हृदय को किसी कष्ट या दण्ड का भय दिखाकर नहीं बदलता, बल्कि उसक तर्क-बुद्धि के आधार पर हृदय परिवर्तन के लिए तैयार करता है। एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि विरोधी व्यक्ति स्वयं यह अनुभव करता है कि वह गलत या अनुचित कार्य कर रहा है। वह स्वयं तर्क-बुद्धि के अनुसार अन्याय व अत्याचार का रास्ता छोड़कर न्याय की तरफ अग्रसर होने लगता है।

4. सत्याग्रह में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं – गांधी जी का मानना है कि हिंसा को हिंसा से नहीं जीता जा सकता। प्रेम ही एक ऐसी वस्तु है जो पाश्विक बल को भी काबु कर सकती है। हिंसा से समाज में अराजकता पैदा होती है। अन्याय और अत्याचार कम होने की बजाय तेजी से बढ़ने लगते हैं। इसलिए अहिंसा ही एक ऐसा उपाय है जो समाज में व्याप्त हिंसा का नामोनिशान मिटा सकता है। गांधी जी ने कहा है-’’अहिंसा मनुष्य के पास परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र है।’’ अत: सत्याग्रह में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है।

5. सत्याग्रह प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है – गांधी जी का कहना है कि सत्याग्रह व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसकी उत्पत्ति राज्य से न होकर, आत्मा से हुई है। यह अधिकार होने के साथ-साथ एक कर्त्तव्य भी है। यदि कोई भी शासक या सरकार जन-कल्याण की उपेक्षा करने लग जाए या अन्यायी अत्याचारी हो जाए तो उसका विरोध करना प्रजा का परम कर्त्तव्य बन जाता है। लेकिन विरोध हर परिस्थिति में अहिंसात्मक ही होना चाहिए।

6. सत्याग्रह का सार्वभौमिक प्रयोग – गांधी जी का मानना है कि सत्याग्रह जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सभी क्षेत्रों में निर्बाध रूप से किया जा सकता है। इस प्रकार इसमें सार्वभौमिकता का गुण भी विद्यमान है।

7. सत्याग्रह में खुला व्यवहार – गांधी जी कहना है कि सत्याग्रह में कुछ भी गुप्त नहीं रखा जाना चाहिए। सत्याग्रही का प्रत्येक कार्य जन समर्थक होना चाहिए। छिपाकर किया गया कार्य अविश्वास को जन्म देता है। इससे सत्याग्रह का उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। गांधी जी ने कहा है-’’जितने खुले रूप से आप बात करोगे उतने ही आप सत्यपूर्ण होंगे।’’ इसमें छल-कपट, धोखा, बेईमानी आदि का समावेश नहीं होना चाहिए। इसी पर सत्याग्रह की सफलता निर्भर करती है।

8. अच्छे साध्य और अच्छे साधन – गांधी जी का मानना है कि सत्याग्रह में प्रयुक्त सभी साधन भी साध्य के अनुकूल ही होने चाहिए। यदि सत्याग्रह का लक्ष्य (साध्य) उचित है तो उसे प्राप्त करने में अच्छे साधनों का प्रयोग अपरिहार्य है। अच्छा साध्य अच्छे साधनों से ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि सत्याग्रह सामाजिक हित के लक्ष्य (साध्य) को ध्यान में रखकर किया जाता है तो उसे अच्छे साधनों द्वारा सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। यदि साध्य ही गलत है तो अच्छे साधन भी असफल सिद्ध होते हैं।

9. सत्याग्रह सामाजिक हित के लिए किया जाता है – गांधी जी के दर्शन में व्यक्तिगत हित की बजाय सामाजिक हित को प्राथमिकता दी गई है। गांधी जी का कहना है कि कोई भी सत्याग्रही आन्दोलन तभी सफल हो सकता है, जब वह सामाजिक हित की दृष्टि से किया जाए। स्वार्थ की भावना से किया गया सत्याग्रह सदैव निष्फल रहता है। जो बात न्याय व सत्य के विपरीत हो उसको सत्याग्रह से जीतना कठिन होता है। इसलिए गांधी जी ने सत्याग्रह का प्रयोग व्यक्तिगत हित की बजाय सामाजिक हित के लिए करने का समर्थन किया है।

सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में अन्तर

जब गांधी जी ने सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका में अपना सत्याग्रह आरम्भ किया तो उसे निष्क्रिय प्रतिरोध का नाम दिया गया। लेकिन गांधी जी ने इस भ्रान्ति का जल्दी ही निवारण करके इन दोनों को अलग-अलग बताया। आम आदमी प्राय: इन दोनों को एक ही मान बैठता है। क्योंकि ये दोनों अत्याचार व अन्याय का सामना करने व उन्हें समाप्त करने के साधन हैं। इन दोनों का उद्देश्य भी विधमान व्यवस्था में सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन लाना होता है। लेकिन फिर भी दोनों में व्यापक अन्तर है। गांधी जी ने एक स्थान पर लिखा है-’’सत्याग्रह और निष्क्रिय प्रतिरोध में उतना ही अन्तर है जितना उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में। निष्क्रिय प्रतिरोध दुर्बलों का अस्त्र है और यह स्वार्थ सिद्धि के लिए जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग की आकांक्षा रखता है। परन्तु सत्याग्रह बलवानों का अस्त्र है और इसे स्वीकार करने वालों को किसी भी अवस्था में या रूप में बल-प्रयोग की आज्ञा नहीं है।’’ इस आधार पर निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह में अन्तर हो सकते हैं-
  1. निष्क्रिय प्रतिरोध एक राजनैतिक शस्त्र है जबकि सत्याग्रह एक नैतिक अस्त्र है।
  2. निष्क्रिय प्रतिरोध दुर्बल का शस्त्र है जबकि सत्याग्रह वीरों का अस्त्र है।
  3. निष्क्रिय प्रतिरोध में शत्रु या विरोधी को तंग करने की भावना पर बल दिया जाता है, लेकिन सत्याग्रह में सत्यागही सारे कष्ट स्वयं ही लेता है।
  4. निष्क्रिय प्रतिरोध में विरोधी का हृदय परिवर्तन करने या अपनी बात को मनवाने के लिए हिंसा या संघर्ष का सहारा लिया जाता है, जबकि सत्याग्रह में प्रेम और धैर्यपूर्वक आत्म-बल के आधार पर विरोधी का हृदय परिवर्तन किया जाता है।
  5. निष्क्रिय प्रतिरोध हिंसा व घृणा पर आधारित होता है, जबकि सत्याग्रह प्रेम व अहिंसा पर आधारित होता है।
  6. सत्याग्रह एक सार्वभौमिक अस्त्र है। इसका प्रयोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है। निष्क्रिय प्रतिरोध प्राय: शत्रु पक्ष या अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी के विरुद्ध ही किया जाता है।
  7. सत्याग्रह रचनात्मक कार्यों की ओर उन्मुख होता है, जबकि निष्क्रिय प्रतिरोध का अपना कोई रचनात्मक दृष्टिकोण नहीं है।
इस तरह कहा जा सकता है कि सत्यागह बलवान का शस्त्र है। इसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता है, यह सदैव सत्य व अहिंसा पर ही आधारित होता है, जबकि निष्क्रिय प्रतिरोध हिंसात्मक कार्यवाहियों पर आधारित होता है। यह कायरों का शस्त्र है। इसमें आत्मबल की बजाय शारीरिक बल का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रेम जैसी भावना के लिए कोई स्थान नहीं होता है। गांधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान निष्क्रिय प्रतिरोध और सत्याग्रह में व्यापक अन्तर करके दिखाया, उनका हर आन्दोलन और हर कदम पूर्णतया अहिंसात्मक रहा।

सत्याग्रह के तरीके –

महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के साधन या तरीके बताए हैं-

1. बातचीत द्वारा समझौता – गांधी जी का मानना था कि किसी भी प्रकार की सामाजिक या राजनीतिक समस्या के समाधान के लिए सर्वप्रथम समझौतेका प्रयास करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर किसी मध्यस्थ की मदद भी लेनी चाहिए। विरोधी पक्ष को उसकी गलती का अहसास कराने का प्रयास करना चाहिए। समझौते की शर्तें मानने योग्य होनी चाहिए। विरोधी पर अनुचित दबाव डालकर समझौते का प्रयास नहीं करना चाहिए। गांधी जी का कहना था-’’जिस प्रकार सत्याग्रही संघर्ष के लिए सदैव तैयार रहता है, उसी तरह उसे शान्ति के लिए तैयार रहना चाहिए।’’

2. असहयोग – गांधी जी का मानना था कि किसी भी देश का शासन उसकी सैनिक शक्ति पर नहीं, बल्कि जनता के सक्रिय सहयोग पर आधारित होता है। यदि सरकार को जनता का सहयोग प्राप्त न हो तो सरकार ज्यादा दिन तक नहीं चल सकती। इसलिए यदि कोई सरकार या संस्था अन्याय व अत्याचार करती है तो उसकी नीतियों व कानूनों को मानना बन्द कर देना चाहिए। जिस प्रकार प्रजा की सेवा करना सरकार या शासक का धर्म है, उसी प्रकार शासक की आज्ञा का पालन करना जनता का धर्म होता हे। सहयोग, त्याग एक न्यायपूर्ण धार्मिक सिद्धांत है। सरकार के अत्याचारी होने पर उसको असहयोग देना जनता को शाश्वत् धर्म है। इसमें किसी भी रूप में हिंसक उपायों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 

गांधी जी ने जब 1920 में असहयोग आन्दोलन चलाया तो वकीलों ने अदालतों का, जनता ने विदेशी माल का, विद्यार्थियों ने कक्षाओं का, सार्वजनिक समारोहों का तथा उपाधियों की वापसी जैसे कार्य किए। गांधी जी ने इस कार्यक्रम को पूर्णतया अहिंसा पर आधारित रखा।

3. हड़ताल – गांधी जी ने हड़ताल को भी सत्याग्रह का आवश्यक व प्रभावशाली शस्त्र माना है। गांधी जी ने कहा था कि हड़ताल उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। इसके पीछे कोई ठोस कारण होना चाहिए। अनुचित कारणों से की गई हड़ताल न तो कभी सफल होती है और न ही उसे जन समर्थन मिल पाता है। हड़ताल कानूनी दायरे में रहकर ही की जानी चाहिए। हड़ताल से आशय किसी अन्याय का प्रतिकार करने के लिए समस्त गतिविधियों को बन्द करना है। ताकि सरकार तथा जनता का ध्यान उस अन्याय की तरफ आकृष्ट हो जिसके कारण हड़ताल की जा रही है। हड़ताल अन्याय के विरुद्ध की जा रही होती है। इसलिए हड़ताल के दौरान कोई हिंसात्मक कार्यवाही नहीं होनी चाहिए। हड़ताल करने के लिए किसी पर कोई दबाव या प्रलोभन न देना चाहिए। हड़ताल बार-बार न की जानी चाहिए। इससे इसका महत्व कम हो जाता है। जनता को अनावश्यक परेशानी पैदा होती है। इस तरह गांधी जी ने हड़ताल को विशुद्ध रूप से अहिंसात्मक कार्यवाही पर आधारित रखने का विचार दिया है।

4. उपवास – गांधी जी ने उपवास को भी सत्याग्रह का महत्वपूर्ण साधन बताया है। गांधी जी के अनुसार-’’उपवास अहिंसा के शस्त्रागार में सबसे अधिक प्रभावशाली व फलदायक शस्त्र है।’’ इसके दो उद्देश्य आत्म-शुद्धि तथा असत्य व अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार है। यह सबसे कठिनतम अस्त्र है। यह अस्त्र सरकार को कमजोर करता है, जनता की आत्म-शक्ति में वृद्धि करता है तथा विरोधी पक्ष की सद्मार्ग की ओर लौटने के लिए प्रेरित करता है। इसमें विरोधी को कष्ट देने की बजाय स्वयं कष्ट सहना पड़ता है। इस अस्त्र का प्रयोग करने के लिए किसी शारीरिक शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। जिस व्यक्ति को अपने आत्म-बल पर भरोसा है वही इसका सफल प्रयोग कर सकता है। गांधी जी ने उपवास को व्यापक अर्थ में स्पष्ट करते हुए कहा है-’’उपसास आत्मा की शुद्धि के लिए केवल अन्न ग्रहण न करना नहीं है, बल्कि मन के सभी विकारों को मुक्त करना या होना है। इसलिए गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन के दौरान चौरा-चौरी घटना से दु:खी होकर असहयोग आन्दोलन को बन्द कराने के लिए 5 दिन का उपवास रखा था।

5. सवनिय अवज्ञा – सविनय अवज्ञा को गांधी जी ने सबसे अधिक प्रभावशाली अस्त्र माना है जिसका उद्देश्य अनैतिक नियमों को तोड़ना है। यह असहयोग की अन्तिम अवस्था है। गांधी जी का कहना है कि विनयपूर्वक सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों को मानने का अर्थ है-स्वयं अन्याय में सांझेदार बनना, यदि कोई सत्याग्रही शासक का आज्ञाकारी रहता है तो उसका असहयोग निरर्थक है। इसलिए एक सभ्य पुरुष को अन्यायी शासन का अपने सम्पूर्ण आत्म-बल से विरोध करना चाहिए। इसका प्रयोग हृदय से आदरपूर्ण और संयत् होना चाहिए। अवज्ञा का कार्य पूर्ण रूप से अहिंसक होना चाहिए। 1930 में गांधी जी ने अहिंसक तरीके से नमक कानून भंग किया था। यह गांधी जी का ‘सविनय अवज्ञा’ का सफल प्रयोग था।

6. धरना – गांधी जी के अनुसार धरना एक वैध और उपयोगी साधन है। इसका उद्देश्य भी नैतिक है। यह जन-शिक्षा का माध्यम भी है, इसलिए यह मनुष्य के अधिकारों की प्राप्ति के लिए बहुत जरूरी है। यह बुराई या अन्याय के विरुद्ध मित्रता की चेतनावनी है। गांधी जी ने कहा है-’’अहिंसक धरना देने वाले का यह कर्त्तव्य है कि वह जनमत को जगाए, उपयुक्त वातावरण तैयार करे, सामने वाले को चेतावनी दे और उसे हृदय परिवर्तन द्वारा वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराए।’’ गांधी जी ने धरने की शर्तें बताई हैं-
  1. धरना पूर्ण रूप से शांत होना चाहिए।
  2. इसमें धमकी का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए।
  3. इसमें अनुचित दबाव नहीं डालना चाहिए।
  4. इसमें विवेकपूर्ण प्रार्थना और पत्रिकाएं बांटने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होना चाहिए। इस प्रकार गांधी जी ने विशुद्ध अहिंसात्मक उपायों का सहारा लेकर ही धरने पर बैठने व उसे सफल बनाने का सुझाव दिया है।
7. सामाजिक बहिष्कार – गांधी जी ने कहा है कि जो व्यक्ति समाज हित के विपरीत आचरण करें और जनमत की अवहेलना करे तो उसका सार्वजनिक रूप से बहिष्कार कर देना चाहिए। इस प्रकार का तरीका सरकारी चम्मचों का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन यह सारी कार्यवाही पूर्ण से अहिंसक पर होनी चाहिए। 

8. आर्थिक बहिष्कार – जब कोई व्यवसायी या व्यापारी अत्याचारी हो जाए, मजदूर वर्ग व किसान वर्ग के हितों की अनदेखी करने लगे तो उसके सामान का प्रयोग करना बन्द कर देना चाहिए। गांधी जी ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए इस साधन का प्रयोग भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान किया था। 

9. हिजरत – इसका अर्थ है-देश छोड़कर चले जाना। गांधी जी ने कहा हे कि जब शासक या सरकार इतनी अधिक अन्यायी व अत्याचारी हो जाए कि उसके अत्याचारों को सहन करना जनता के वश की बात न रहे तो जनता को वह राज्य छोड़ देना चाहिए और कहीं ओर चले जाना चाहिए। हजरत मुहम्मद पर जब धाम्रिक कट्टरपंिथ्यों ने मक्का में अत्याचार किए तो वे मक्का छोड़कर मदीना चले गए थे। गांधी जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ में भी काठियावाड़ की रियासत एक ऐसा ही उदाहरण दिया है। जब काठियावाड़ की रियासत पर राजा ने अत्याचार इतने अधिक किए कि उनको सहन करना जनता के वश में नही रहा तो जनता ने वहां से पलायन करना शुरू कर दिया था। राजा ने इससे घबराकर उन पर अत्याचार न करने की प्रतीज्ञा की और प्रजाजन वापिस लौटने लगे। गांधी जी ने कहा है कि इस प्रकार का उपाय अन्तिम साधन के रूप में ही अपनाना चाहिए अर्थात् जब जनता के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीना मुश्किल हो जाए तो तभी इसका प्रयोग करना चाहिए।

सत्याग्रही के आवश्यक नियम –

महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के कुछ नियम भी बताएं हैं। ये नियम अपनाने वाले व्यक्ति ही सच्चा सत्याग्रही होता है। ये नियम हैं-
  1. सत्याग्रही के मन में बदले की भावना नहीं होनी चाहिए।
  2. सत्याग्रही को क्रोध नहीं करना चाहिए।
  3. सत्याग्रही को सभी प्रकार के कष्ट और अपमान सहने के लिए तैयार रहना चाहिए।
  4. सत्याग्रही के मन में विरोधी के प्रति कोई घृणा या हिंसा का भाव नहीं होना चाहिए।
  5. सत्याग्रही को पवित्र जीवन बिताना चाहिए।
  6. सत्याग्रही को शान्तिपूर्वक व अहिंसात्मक रूप से सत्याग्रह करना चाहिए।
  7. सत्याग्रही को आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए।
  8. सत्याग्रही को सत्य व न्याय की पहचान होनी चाहिए।
  9. सत्याग्रही का बल कष्ट सहन करने में है।
  10. सत्याग्रह का आधार केवल त्याग और तपस्या है।
  11. सत्याग्रह को विनयी व दयावान होना चाहिए।
  12. सत्याग्रह को किसी डर के आगे झुकना नहीं चाहिए अर्थात् वह निर्भयी होना चाहिए।
  13. सत्याग्रही को धर्म का ज्ञान होना चाहिए।
  14. सत्याग्रही की आत्मा पवित्र होनी चाहिए। क्योंकि सत्याग्रह का मूलमन्त्र अन्र्तात्मा की पवित्रता है।
  15. सत्याग्रह के लिए मृत्यु, मोक्ष और जेल स्वतन्त्रता का द्वार है।
  16. सत्याग्रही को किसी भी प्रकार के अन्याय व अत्याचार के आगे नहीं झुकना चाहिए।
  17. सत्याग्रह में पराजय के लिए कोई स्थान नहीं है।
  18. सत्याग्रही सत्ता का इच्छुक नहीं होता।
  19. सत्याग्रही संख्या पर नहीं, आत्मा में विश्वास करने वाला होना चाहिए।
  20. सत्याग्रही में अहंकार की भावना नहीं होना चहिए।
  21. सत्यागही को समझौतावादी होना चाहिए।
  22. सत्याग्रही को ईश्वर में अटूट विश्वास होना चाहिए।
  23. सत्याग्रह सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किया जाना चाहिए।
  24.  सत्याग्रही में आत्म-अवलोकन का गुण होना चाहिए।
  25. सत्याग्रही को अनुशासनप्रिय होना चाहिए।
इस प्रकार गांधी जी ने सत्याग्रह की सफलता के लिए जो नियम बताए हैं, उन पर चलकर ही कोई भी व्यक्ति सच्चा सत्याग्रही बन सकता है। गांधी जी ने कहा है कि सत्याग्रह का रास्ता बड़े सोच विचार के बाद ही अपनाना चाहिए। इस रास्ते पर आ जाने पर बिना उद्देश्य प्राप्त किए वापिस लौटना सत्याग्रही के आचरण के विरुद्ध होता है। इसलिए सत्याग्रही को चाहे कितने ही कष्ट उठाने पड़े, सत्याग्रह से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।

आलोचना

यद्यपि गांधी जी का सत्याग्रह का सिद्धांत भारतीय राजनीतिक चिन्तन में काफी महत्वपूर्ण सिद्धांत है। लम्बे समय से इसका प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता रहा है। लेकिन व्यावहारिक रूप में यह सिद्धांत कम ही सफल रहा है और बहुत ही कम व्यक्तियों ने सत्याग्रही बनने का प्रयास किया है। इसलिए यह कोरा आदर्शवाद ही बनकर रह गया है। अनक विद्वानों जैसे आर्थर मोर ने इसे ‘मानसिक पीड़ा;‘ सी0एम0 केस ने इसे ‘जबरन उत्पीड़न’ (coercive suffering) कहकर इसकी आलोचना की है। इसे राजनीतिक दबाव की संज्ञा भी दी जाती है। आलोचकों का कहना है कि इस सिद्धान्त का हर परिस्थिति व हर क्षेत्र में प्रयोग असम्भव है। जहां न्याय एवं मानवता के प्रति आदर है वहां तो सत्याग्रह का प्रयोग हो सकता है लेकिन निरंकुश शासनों में इसका प्रयोग और उसकी सफलता पूर्णता संदिग्ध है। आज कोई भी देश अहिंसक साधनों के सहारे नागरिकों की स्वतन्त्रता व सुरक्षा खतरे में नहीं डाल सकता। आज परमाणु युग में सत्याग्रह का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। एक देश की सीमाओं में तो इसको कुछ सफलता मिल भी सकती है, सीमाओं से बाहर इसकी सफलता की आशा न के बराबर है। इसलिए यह सिद्धांत आधुनिक समय में अव्यावहारिक व असंगत है। 

महात्मा गांधी ने स्वयं कहा था कि सत्याग्रह बड़ा भयानक शस्त्र है, इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करना चाहिए। लेकिन इन आलोचनाओं की बावजूद भी यह कहा जा सकता है कि इस सिद्धांत की सफलता प्रयोगकर्त्ता पर निर्भर करती हैं गांधी जी ने इस सिद्धांत का सफल प्रयोग करके दिखाया था। यदि आज व्यक्तिगत स्वार्थों को तिलांजलि दे दी जाए तो इस सिद्धांत का आज भी सफल प्रयोग किया जा सकता है। अत: सत्याग्रह का सिद्धांत गांधी जी एक महत्वपूर्ण व शाश्वत् देन है।

महात्मा गांधी के राज्य का सिद्धांत

राज्य के बारे में गांधी जी की धारणा मूलत: अराजकतावादी है। गांधी जी ने राज्य को एक आवश्यक बुराई माना है, उन्होंने दार्शनिक आधार पर राज्य को व्यक्तितव विकास में बाधा मानकर उसका विरोध किया है। गांधी जी का कहना है कि राज्य दण्ड और कानून का भय दिखाकर स्यक्ति से अपनी बात मनवा लेता है। इससे हिंसा व पाश्विक बल को बढ़ावा मिलता है और नैतिकता का मार्ग अवरुद्ध होता है। इसलिए राज्य को एक आवश्यक बुराई के रूप में न्यूनतम कार्यक्षेत्र में रहना चाहिए। उसे व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक स्वतन्त्र व स्वावलम्बी बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके। गांधी जी राज्य को समाप्त करने के पक्ष में अपने मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि शासन व्यवस्था चाहे कितनी भी लोकतान्त्रिक हो, फिर भी उसकी जड़ में सदैव हिंसा रहती है, वह गरीबों का शोषण करता है और पूंजीपति वर्ग के हितों का पोषक होता है। यह पुलिस, न्यायालय, सेना आदि के माध्यम से व्यक्तियों पर अपनी इच्छा थोपता है। इससे नैतिक मूल्यों को आघात पहुंंचता है। राज्य की आज्ञा का मनुष्य के नैतिक कार्यों से कोई सम्बन्ध न होने के कारण व्यक्तित्व का विकास भी रूक जाता है। इसलिए हिंसा और पाश्विक शक्ति पर आधारित होने के कारण राज्य एक आत्मा रहित मशीन है जो मानव जाति को सर्वाधिक हानि पहुंचाती है।

गांधी जी ने लिखा है-’’राज्य हिंसा का धनीभूत और संगठित रूप है। एक व्यक्ति में आत्मा होती है, किन्तु राज्य आत्मा रहित यन्त्र मात्र है। यह हिंसा पर जीवित रहता है और इसे हिंसा से कभी अलग नहीं किया जा सकता।’’ इसलिए कोई भी ऐसा कार्य जो व्यक्ति की इच्छा से परे होता है, अनैतिक होता है। हिंसा व भय के वातावरण में किया गया प्रत्येक कार्य सदैव अनैतिक ही होता है। इसलिए गांधी जी ने राज्य की शक्ति को भय की दृष्टि से देखा है और उसे व्यक्तित्व के विकास में सबसे बड़ी बाधा मानकर उसे समाप्त करने का विचार प्रस्तुत किया है। इसी कारण अनेक विचारकों ने गांधी जी को एक अराजकतावादी विचारक कहा है।

गांधी जी ने राज्य के स्थान पर एक ऐसे आदर्श समाज या राज्यविहीन लोकतन्त्र (Stateless Democracy) की स्थापना का विचार पेश किया है। इसे राम राज्य की कल्पना भी कहा जा सकता है। गांधी जी ने इसे स्वयं स्वराज्य की संज्ञा दी है और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य’ में इस आदर्श राज्य का व्यावहारिक ढांचा पेश किया है। गांधी जी ने अहिंसा को आदर्श समाज की स्थापना का आवश्यक तत्व मानकर, उस पर ही अपने आदर्श समाज की स्थापना की कल्पना की है। उन्होंने अहिंसात्मक समाज में सरकार का स्वरूप लोगों पर ही छोड़ने बी बात स्वीकार की है। उन्होंने 11 फरवरी 1939 को ‘हरिजन’ पत्रिका में लिखा था कि-’’अहिंसा पर आधारित समाज में सरकार की रूप-रेखा क्या होगी, मैं जान-बूझकर इसका वर्णन नहीं कर रहा हूं-जब समाज अहिंसा के नियम के अनुसार स्वयं बन जाएगा तो उसका रूप आज के समाज से पूर्ण रूप से भिन्न होगा।’’ इससे स्पष्ट है कि गांधी जी ने अपने आदर्श समाज या राम राज्य की कोई निश्चित रूप-रेखा प्रस्तुत नहीं की। उसने कल्पना मात्र के आधार पर ही रामराज्य का ढांचा पेश किया है, जिसके आधार पर उनके आदर्श समाज या रामराज्य की विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है-

1. व्यक्ति साध्य और राज्य साधन है – गांधी जी का मानना था कि राज्य अपने आप में कोई साध्य नहीं है, बल्कि व्यक्तियों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी परिस्थितियों को उत्कृष्ट बनाने सहायता देने का साधन है। राज्य व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति राज्य के लिए नहीं है। राज्य का प्रधान कार्य सभी व्यक्तियों के हित का सम्पादन करना है। इसका उद्देश्य (साध्य) सर्वोदय अर्थात् सभी का कल्याण है। वह किसी वर्ग विशेष के हितों का प्रतिनिधि नहीं हो सकता है। यदि राज्य अपने अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो उसके विरोध का अधिकार सत्याग्रही व्यक्ति को होता है। इस प्रकार गांधी जी ने आदर्श समाज में राज्य को व्यक्ति के विकास का साधन माना है ताकि राज्य की निरंकुशता पर रोक लगाई जा सके।

2. विकेन्द्रीकरण – गांधी जी राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में शक्ति और धन के केन्द्रीकरण को सारी बुराईयों की जड़ मानते थे। इसलिए उन्होंने आदर्श समाज में विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया है। उनके मतानुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन मनुष्य जाति के लिए अभिशाप है। इसी से व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का, एक देश द्वारा दूसरे देश का शोषण हो रहा है। इससे हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। भौतिक पाश्चात्य सभ्यता की बुराईयों भी इसी व्यवस्था के कारण फेली हुई है। इसलिए विकेन्द्रीकरण द्वारा कुटीर उद्योगों का विकेन्द्रीकरण किया जाए। राष्ट्रीय महत्व के उद्योगों को केन्द्रीकरण व्यवस्था पर ही आधारित रहना चाहिए। केवल आम लोगों के हितों के पोषक उद्योग ही विकेन्द्रीकरण के तहत शामिल किए जाने चाहिएं। इसी तरह राजनीतिक क्षेत्र में शक्तियों का विभाजन होने के कारण शक्ति व सत्ता विशेष वर्ग तक ही सिमटकर रह जाती है। जिस प्रकार उद्योगों में मुट्ठी भर पूंजीपति जनता का आर्थिक शोषण करते हैं, उसी तरह राजनीतिक क्षेत्र में भी मुट्ठी भर नेता जनता का शोषण कर रहे हैं इसलिए राजनीतिक विकन्द्रीकरण द्वारा पंचायतों को अधिक शक्तियां प्रदान की जानी चाहिएं ताकि आम व्यक्ति भी शासन में भागीदार बन सकें। 

3. न्याय – गांधी जी का मानना था कि न्याय व्यवस्था एक स्तर पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि जनता को न्याय पाने में कोई कठिनाई न हो। न्यायलयों को सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए ताकि स्वस्थ न्यायपालिका प्रणाली का विकास हो। लोगों को आपसी समस्याएं पंच निर्णय (Arbitration) द्वारा ही हल करने के प्रयास करना चाहिए। दीवानी झगड़ों में पंच निर्णय ही अपनाना चाहिए। भ्रष्टाचार अथवा कानून के दुरुपयोग के मामलों में ही न्यायलयों का सहारा लिया जाए। छोटे-छोटे झगड़ों के लिए न्यायलय का सहारा न लिया जाए ताकि समय व धन का अपव्यय न हो। गांधी जी ने कहा है-’’वकील होने चाहिए, परन्तु उनकी फीस निश्चित व कम होनी चाहिए। उनके सामने सेवा का आदर्श होना चाहिए, न कि धन कमाने का।’’ उन्होंने आगे कहा है-’’न्याय व्यवस्था को सस्ती बनाना चाहिए। दीवानी मुकद्दमों को छोड़कर अन्य मामलों में ही कोर्ट का सहारा लेना चाहिए। बीच वाले न्यायलयों को समाप्त कर देना चाहिए और न्याय प्रक्रिया सरल बनाई जाए।’’ इस तरह गांधी जी ने न्याय प्रक्रिया को सरल व सस्ती बनाने का विचार प्रस्तुत किया है।

4. पुलिस और जेलें – गांधी जी का मानना था कि समाज में समाज विरोधी तत्व अवश्य होते हैं। उन पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस की आवश्यकता पड़ती है। गांधी जी ने पुलिस व्यवस्था को पूर्णतया नए सिरे से कायम करते हुए कहा है-’’यह पुलिस वर्तमान पुलिस-पद्धति से बिल्कुल भिन्न होगी। इस पुलिस दल के सदस्य वे व्यक्ति ही होंगे जो अहिंसा में विश्वास रखते होंगे। वे जनता के स्वामी न होकर उनके सेवक होंगे। जनता उन्हें हर प्रकार का सहयोग प्रदान करेंगी तथा इस तरह आपसी सहयोग से वह सदैव कम हेने वाले उपद्रवों का आसानी से मुकाबला कर सकेंगे। पुलिस के पास कुछ न कुछ हथियार भी होंगे, किन्तु उनका प्रयोग यथासम्भव बहुत ही कम किया जाएगा। पुलिस के सदस्य सुधारक होंगे और उनका कार्य चोर-डाकूओं तक ही सीमित होगा।’’ इस प्रकार गांधी जी समाज के विघटनकारी तत्वों से निपटने के लिए ही पुलिस की व्यवस्था का समर्थन किया है ताकि आम आदमी निर्भय होकर अपना जीवन जी सके और उसे अपने जान-माल की हानि की कोई चिन्ता न रहे। गांधी जी ने अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस को कुछ हद तक हिंसा करने की भी छूट दी है। पुलिस कानून व व्यवस्था कायम रखने के लिए आंसू गैस का प्रयोग कर सकती है। गांधी जी ने जेलों को भी अहिंसक बनाने का सुझाव दिया है। उनका कहना है कि जेलों को भी सुधारात्मक संस्थाओं का रूप देना चाहिए ताकि अपराधी जलों में कुछ काम-धन्धा सीखकर बाहर जाने पर स्वयं अपनी रोजी-रोटी कमा सकें और दोबारा कोई अपराध न करें।

 गांधी जी ने आगे कहा है-’’समस्त अपराधियों को रोगी मानकर उनका इलाज करना चाहिए और जेलों को इस वर्ग के रोगियों के इलाज और निरोगता का अस्पताल समझना चाहिए। जेल कर्मचारियों का व्यवहार अस्पताल के डॉक्टरों और नर्सों जैसा होना चाहिए तथा कैदियों को महसूस होना चाहिए कि कर्मचारी उनके दोस्त हैं, दुश्मन नहीं।’’ इस तरह जेलों को अस्पताल समझकर कैदियों के रहने से उनकी अपराध प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी और भारतवर्ष जैसे निर्धन देश का चिकित्सा पर किया जाने वाला खर्च भी बच जाएगा। इसके लिए जेल अधिकारियों को अपराध के कारणों का पता लगाकर, उन्हें दूर करना होगा ताकि दोबारा अपराध की प्रवृत्ति जन्म न ले।

5. प्रतिनिधित्व और चुनाव – यद्यपि गांधी जी निर्वाचन और प्रतिनिधित्व के विरोधी नहीं थे लेकिन उसके प्रचलित स्वरूप के विरुद्ध थे। निर्वाचन द्वारा जनता यह समझती है कि उनका अपना शासन है लेकिन इससे शोषण की प्रवृत्ति का जन्म होता है। उन्होंने ‘यंग इण्डिया’ में लिखा है-’’स्वराज्य से मेरा अभिप्राय उस भारत से है, जिसमें शासन जनता की स्वीकृति से हो, जिसका निश्चय वयस्क जनसंख्या के सर्वाधिक बहुमत के द्वारा हो, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, वहीं जन्म लेने वाले हों अथवा वहां आकर बसने वाले हों, जिन्होंने शारीरिक श्रम के द्वारा राज्य की सेवा में योगदान दिया हो तथा जिन्होंने मतदाताओं की सूची में अपना नाम शामिल करवा लिया हो।’’ मताधिकार के बारे में गांधी जी ने कहा है कि वयस्क मताधिकार के लिए आवश्यक योग्यता सम्पत्ति या पद नहीं, बल्कि शारीरिक श्रम होना चाहिए। गांव का शासन ग्राम पंचायतों के हाथ में ही होना चाहिए और इसमें प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली को अपनाया जाए। प्रत्येक 18 वर्ष के ऊपर के स्त्री-पुरुष को वोट का अधिकार हो, जिला प्रशासन के अधिकारी पंचायतों के माध्यम से ही प्राप्त हो। प्रांतीय शासन का चुनाव जिला अधिकारियों द्वारा किया जाए और प्रांतीय अधिकारी देश के राष्ट्रपति का चुरपव करें। इस तरह गांधी जी ने गांव में तो प्रत्यक्ष शासन प्रणाली का समर्थन किया है, लेकिन आगे के स्तरों पर अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली का ही समर्थन किया है।

6. बहुमत का शासन – गांधी जी का मानना था कि आधुनिक समाज में बहुमत का शासन है। लोकतन्त्र को सफल बना सकता है। प्रतिनिधि शासन अल्पमत पर आधारित होने के कारण बहुमत का शोषण करता है। परन्तु गांधी जी का यह उद्देश्य कभी नहीं रहा कि बहुमत अल्पमत का शोषण करे। उनका कहना था कि बहुमत तथा अल्पमत दोनों को खुले दिमाग से कार्य करना चाहिए। उन्हें आत्म-परीक्षण द्वारा अपने कार्यों को जांचना चाहिए। उसी के आधार पर निर्णय देना चाहिए। इससे बहुमत के अत्याचार व अल्पमत के शोषण दोनों से मुक्ति मिलेगी। उन्होंने अन्त:करण के विषयों के बहुमत के कानून के लिए कोई स्थान नहीं रखा है। उन्होंने लिखा है-’’बहुमत के शासन में एक संकुचित व्यवहार सामने आता है, परन्तु इस बात की परवाह न करते हुए कि बहुमत के निर्णय कैसे हैं, सदा ही उनके सामने झुकना गुलामी है। प्रजातन्त्र एक ऐसा राज्य नहीं है जिसमें भेड़ों की तरह कार्य करें।’’ इस प्रकार गांधी जी ने बहुमत के शासन का समर्थन भी किया हे, लेकिन उसे अल्पमत पर अत्याचार न करने का आग्रह भी किया है।

7. अधिकार और कर्त्तव्य – गांधी जी ने नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं का पूर्ण समर्थन किया है। लेकिन उन्होंने अधिकारोंकी अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया है। उनके अनुसार मनुष्य का सबसे बड़ा अधिकार कर्त्तव्यों का पालन करना ही है। कर्त्तव्य पालन के बिना अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता। उन्होंने कर्त्तव्य के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है-’’अधिकार का सच्चा स्रोत कर्त्तव्य है। यदि हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं तो अधिकारों को ढूंढना कठिन नहीं होगा। यदि हम कर्त्तव्यों का पालन किए बिना अधिकारों के पीछे भागते हैं, तो वह उसी प्रकार दूर भाग जाएंगे, जैसे कि दलदल में उत्पन्न होने वाला जगमगाता हुआ प्रकाश, जितना ही अधिक हम उसका पीछा करते हैं, उतना ही आगे वह भाग खड़ा होता है।’’ इस तरह गांधी जी ने आदर्श समाज में अधिकारों की तुलना में कर्त्तव्यों पर अधिक जोर दिया है।

8. धर्म-निरपेक्ष समाज – गांधी जी के अनुसार धर्म आत्मा की वस्तु है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के अन्त:करण से होता है। इसलिए व्यक्ति को धार्मिक मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए। इसी कारण गांधी जी ने अपने रामराज्य की कल्पना में प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करने का समर्थन किया है। उन्होंने लिखा है-’’धर्म व्यक्ति का निजी मामला है इसलिए समाज की कोई भी सस्था व्यक्ति के धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेगी। इसके अतिरिक्त राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे।’’ इस प्रकार गांधी जी ने धर्म-निरपेक्षता की वकालत की है।

9. वर्ण-व्यवस्था – गांधी जी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में नया भाव भरने का प्रयास किया है। वे अपने आदर्श राज्य की कल्पना में प्राचीन वर्ण-व्यवस्था को धर्म, जाति, लिंग आदि पर आधारित होने के कारण अन्यायपूर्ण मानते हैं। गांधी जी ने कहा है दलित का विकास ही पूरे राष्ट्र का विकास है, इसलिए उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने परम्परागत व्यवसायों में ही दक्ष होना चाहिए। जब समाज में सारे कार्य समान स्तर के होंगे तो कड़ी प्रतिस्पर्धा और अराजकता का वातावरण समाप्त हो जाएगा और प्रत्येक पेशा सम्मान का स्थान प्राप्त करेगा। गांधी जी ने लिखा है-’’मेरा विश्वास है कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति कुछ स्वाभाविक प्रवृत्तियां लेकर जन्म लेता है। वह अपनी जन्मजात सीमाओं को लांघ नहीं सकता। आज अशोभनीय प्रतिस्पर्धा का कारण वर्ण धर्म का पतीत व तिरस्कृत होना है। यदि आज व्यक्ति को यह गारन्टी दे दी जाए कि उसे श्रम का उचित फल मिलेगा और वह अपने पड़ोसी के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगा, तो तभी एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हो सकती है जब उसे वर्ण-धम्र को भली भांति समझा दिया जाए अर्थात् सीमाओं को मानते हुए वर्ण-धम्र में ऊंच-नीच का भेद-भाव समाप्त कर दिया जाए।’’ लोग अपना कार्य गुजारा करने के लिए ही करेंगे, न कि धन इकट्ठा करने के लिए करेंगे। इसके लिए गांधी जी ने उचित शिक्षा का प्रबन्ध करने का सुझाव दिया है। लेकिन इस सिद्धांत का यह दोष है कि जो व्यक्ति जिस वर्ण में है, वह सदा के लिए उसी वर्ण में रहेगा। इससे प्रतिभावान व्यक्तियों को अपनी प्रतिभा अपने वर्ण विशेष से हटकर दिखाने का मौका नहीं मिल सकेगा।

10. ट्रस्टीशिप-व्यवस्था – गांधी जी का कहना है कि वर्तमान समय में आर्थिक विषमता का कारण धनी वर्ग द्वारा आवश्यकता से अधिक धन तथा वस्तुओं का संग्रह करना है। इससे एक तरफ तो धन का अपव्यय बढ़ता है और दूसरी तरफ समाज में आपसी कटुता तथा घृणा का भाव बढ़ता है। इसलिए इन दोषों को दूर करने अर्थात् आर्थिक विषमता को समाप्त करने के लिए मनुष्य को आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं करना चाहिए। इसके लिए उनहोंने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत पेश किया है इससे अभिप्राय यह है कि धनी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं से अधिक किसी वस्तु का स्वामी स्वयं को न मानकर, समाज की धरोहर के रूप में उस वस्तु को मान्यता दें और स्वयं को उसका संरक्षक समझें। गांधी जी ने साम्यवादियों की तरह हिंसा द्वारा धनी लोगों की सम्पत्ति छीनने का विरोध किया है। इसके समाज में कटुता तथा घृणा का वातावरण पैदा होगा। इसलिए गांधी जी ने इसके लिए अहिंसक मार्ग चुना है। गांधी जी ने लिखा है-’’मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि राज्य ने पूंजीवाद को हिंसा के द्वारा दबाने की कोशिश की तो वह खुद ही हिंसा के जाल में फंस जाएगा और फिर कभी अहिंसा का विकास नहीं कर सकेगा। इसलिए मैं ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को तरजीह देता हूं।’’ 

गांधी जी का कहना है कि इस सिद्धांत के अनुसार लोगों को स्वेच्छापूर्वक समझाना चाहिए कि वे अपने धन की आवश्यक मात्रा अपने पास रखकर शेष मात्र समाज की भलाई के लिए लगा दें। इसके आंधी जी का तात्पर्य यह था कि प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा धनिकों द्वारा इस सिद्धांत को अपनाने पर ही उपलब्ध हो सकेगी। जब धनिक अपने अधिक धन को ऐसे उद्योग धन्धों में लगाएंगे जिनसे साधारण जनता को रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे तो असमानता काफी हद तक कम हो जाएगी। गांधी जी ने कहा है कि समाज से पूर्ण असमानता न तो समाप्त हुई और न हो सकती है। इसे एक सीमा तक कम अवश्य किया जा सकता है।

11. अहिंसात्मक समाज – गांधी जी ने अपने आदर्श राज्य या रामराज्य की कल्पना में आदर्श समाज का चित्रण किया है। गांधी जी का कहना है कि आदर्श समाज पारस्परिक सहयोग पर आधारित ग्रामों का समुदाय होगा। इसका निर्माण अनेक ग्राम पंचायतों को मिलाकर होगा प्रत्येक व्यक्ति समाज की रक्षा तथा कल्याण के लिए तत्पर रहेगा। राज्य की शक्ति पंचायतों में केन्द्रित होगी। समाज विकास के सारे कार्य पंचायतों के हाथ में होंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता व गुण धर्म के अनुसार कार्य करेगा। आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति समाज की होगी। रोटी और श्रम का सिद्धांत लागू होगा। कमाने वाले को ही खाने का अधिकार होगा। राज्य का उद्देश्य सर्वांगीण विकास होगा। व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध सत्य और अहिंसा पर आधारित होंगे, समाज में कुटीर उद्योगों में काम करने वालों का सम्मान बढ़ेगा। कोई काम छोटा नहीं माना जाएगा, समान मजदूरी का नियम सामाजिक विषमाताओं को कम करेगा। इस प्रकार के समाज वाला राज्य एक पवित्र राज्य होगा जहां शोषण और दबाव का नामोनिशान नहीं रहेगा।
इस प्रकार गांधी जी ने रामराज्य की कल्पना के बारे में विस्तार से अपने विचार प्रस्तुत किए। लेकिन गांधी जी कोरे कल्पनावादी नहीं थे। वे एक व्यावहारिक विचारक, सन्त और राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने एक आदर्श राज्य की कल्पना अवश्य की है, लेकिन उस तक पहुंचने का मार्ग कठिन बताया है। उन्होंने स्वयं लिखा है-’’इस प्रकार का अहिंसक समाज एक ऐसा प्रेरणा देने वाला आदर्श है, जिसको निकट भविष्य में व्यवहार में लाना कठिन काम है।’’ इसको व्यावहारिक धरातल पर लाने के लिए आत्म संयम व अनुशासन की बहुत अधिक आवश्यकता है इसलिए राज्य-विहीन समाज की कल्पना यथार्थ में लागू करना सम्भव नहीं है। लेकिन गांधी जी ने कहा है कि ऐसा निकट भविष्य में असम्भव होने के बावजूद भी धीरे-धीरे समाज का आविर्भाव इस सीमा तक हो सकता है कि जो सबके लिए कल्याणकारी होगा। इस प्रकार रामराज्य में राज्य अनावश्यक होते हुए भी कुछ सीमा तक अस्तित्व में रहेगा, जब समाज से पूर्ण अराजकता व विषमता की समाप्ति हो जाएगी तो राज्य की भी स्वयं समाप्ति हो जाएगी और गांधी जी का रामराज्य का स्वप्न साकार होगा।

राज्य के सिद्धांत का मूल्यांकन

गांधी जी का रामराज्य या आदर्श राज्य का स्वप्न देखने में तो सुन्दर लगता है। यदि इसे व्यवहार में लागू कर दिया जाए तो बहुत अच्छा है। लेकिन इसको व्यावहारिक रूप में लागू करने में कुछ कठिनाईयां हैं-
  1. गांधी जी द्वारा कुटीर उद्योग धन्धों का सिद्धांत राष्ट्रीय प्रगति को अवरुद्ध करता है। आज विदेशी व्यापार इन उद्योगों की बजाय भारी पैमाने के उद्योगों पर आधारित है।
  2. गांधी जी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अव्यावहारिक व असंगत है। एक तरफ तो गांधी जी उद्योगों के केन्द्रीकरण को आर्थिक विषमता का कारण मानते थे और दूसरी तरफ पूंजीपतियों द्वारा अधिक पूंजी या धन का प्रयोग नए उद्योग लगाने के लिए करने के लिए प्रेरणा देते हैं। कोई भी उद्योगपति अपने परिश्रम से कमाए गए धन का प्रयोग समाज हित के कार्यों में करना क्यों पसंद करेगा।
  3. गांधी जी ने प्रतिनिधि लोकतन्त्र की आलोचना तो की है लेकिन शुद्ध लोकतन्त्र की स्थापना के लिए व्यक्तियों में गुण पैदा करने का उपाय नहीं बताया है।
  4. गांधी जी की वर्ण-व्यवस्था आधुनिक ढंग में प्रासांगिक नहीं हो सकती। आज ग्रामीण क्षेत्र में जांति-पांति के बन्धन ढीले होते जा रहे हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति वही कार्य करने लगे, जो उसके पूर्वजों ने किया है, तो सामाजिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।
  5. गांधी जी ने व्यक्ति के जीवन के नैतिक पक्ष को ही उजागर किया है, उसने भौतिक पक्ष की अवहेलना की है।
  6. गांधी जी का रामराज्य एक कल्पना मात्र ही है, इसे व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सकता। आज राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां इसके प्रतिकूल हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि गांधी जी का आदर्श राज्य सभी सिद्धांत अव्यावहारिक व असंगत है तथा मात्र कपोल कल्पना है। लेकिन यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को नैतिक मापदण्डों के अनुसार ढालने का प्रयास करे तो समूचे समाज से शोषण व अन्याय की समाप्ति सम्भव हो सकती है। यदि गांधी जी की तरह सत्य, अहिंसा तथा प्रेम के गुणों को सामाजिक व्यवहार का आधार बना लिया जाए तो समाज में जो व्यापक परिवर्तन देखने को मिलेंगे, उनमें से पहला होगा-आदर्श समाज की स्थापना या रामराज्य की स्थापना। इससे समाज का स्वरूप आध्यात्मिक लोकतन्त्र पर आधारित होगा और भ्रष्टाचार जैसे तत्व स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे। 

गांधी जी ने कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने का जो विचार दिया है, उसे ग्रामीण समुदाय का सर्वांगीण विकास होगा। इससे सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में गहरे परिवर्तन होंगे। सामाजिक विषमता एक कल्पना की वस्तु बनकर रह जाएगी। राज्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करने वाला साधन बनकर कार्य करेगा और आदर्शवादी समाज की अन्तिम अवस्था में उसका स्वत: लोप हो जाएगा।

महात्मा गांधी के सर्वोदय संबंधी विचार

सत्य व अहंसा की साक्षात मूर्ति महात्मा गांधी भारत के ही नहीं, बल्कि सारे संसार के व्यक्ति थे। उनके हृदय में समस्त मानव जाति के प्रति असीम श्रद्धा का भाव था। वे एक ऐसे कर्मयोगी थे जो कथनी और करनी को बराबर महत्व देते थे। वे किसी एक धर्म, जाति, देश व समुदाय के कल्याण के पक्षपाती न होकर सम्पूर्ण विश्व में मानव जाति के कल्याण व उत्थान का स्वप्न देखते थे। उनकी यह दूरदश्र्ाी सोच थी कि भारत के स्वतन्त्र होने पर भरतीय समाज की सामाजिक व आर्थिक बुराईयों का अन्त करना उनकी प्राथमिकता होगी। भारतीय स्वतन्त्रता का स्वप्न तो गांधी जी के जीवनकाल में साकार हो गया लेकिन सम्पूर्ण जाति का कल्याणकरने की उनकी इच्छा अधूरी रह गई।

सर्वोदय के विचार का जन्म

‘सर्वे भवन्तु सुखनि:’ भारतीय दर्शन का आधार है। इसी बात में सर्वोदय का विचार छिपा हुआ है। भारतीय चिन्तकों ने सर्वदा वर्ग विशेष के कल्याण की बात न करके सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की बात कही है, गांधी जी के मन में यह विचार रस्किन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Unto this Last’ पढ़ने के बाद आया और उसने अपने मन में सब के कल्याण की बात बिठा ली। गांधी जी ने स्वयं स्वीकार किया है-’’अन्टु दिस लास्ट’ पुस्तक पढ़कर मैं जितना अधिक प्रभावित हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ। जब मैंने ट्रेन में यह पुस्तक सारी पढ़ ली तो घर गया तो मुझे नींद नहीं आई और मैंने इसके विचार जीवन में धारण करने का मन बनाया।’’ इससे स्पष्ट है कि गांधी जी के मन में सर्वोदय के विचार का जन्म रस्किन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Unto this Last’ का परिणाम है। रस्किन की इस पुस्तक का उद्देश्य अथवा सार सब का कल्याण है। इसी तरह गांधी जी ने अपने जीवन में सब का कल्याण करने की बात जिसे सर्वोदय का नाम दिया जाता है।

सर्वोदय का अर्थ

सर्वोदय की अवधारणा गांधी जी ने रस्किन से ली है। रस्किन के दर्शन का मुख्य उद्देश्य सबका उदय है। इसी तरह गांधी जी ने ‘सर्वोदय’ शब्द का प्रयोग भी समाज के हर वर्ग के कल्याण के लिए किया है। सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ है-सबका उदय। गांधी जी साम्यवादियों के उस विचार का खण्डन किया है, जो निर्धन वर्ग का कल्याण करने की बात करता है। इस दृष्टि से गांधी जी की सर्वोदय की अवधारणा अन्य सभी विचारकों से महान है। गांधी जी का ध्येय अमीर और गरीब दोनों का कल्याण करना है। विनोबा जी ने गांधी जी के ‘सर्वोदय’ के बारे में कहा है-’’सर्वोदय समाज कुछ लोगों का या बहुत लोगों का या अधिकांश लोगों का उदय नहीं चाहता। हम ऊंचे, नीचे, सबल-निर्बल, विद्वान-मूर्ख सभी के हित से ही सन्तुष्ट हो सकते हैं।’’ धनी लोगों के उत्थान पर बोलते हुए विनोबा जी ने कहा है-’’धनी लोग पहले ही गिरे हुए हैं, और निर्धन कभी उठे ही नहीं हैं। इसलिए धनी वर्ग को नैतिक या आध्यात्मिक दृष्टि से ऊपर उठाना है ताकि वे आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का समाज के शोषित वर्गों के लिए परित्याग कर सकें।’’ समस्त विश्व में सबका उदय सर्वोदय का सर्वोच्च आदर्श है। इस प्रकार गांधी जी की विचारधारा के अनुसार सर्वोदय समाज के हर वर्ग का उदय का विचार है। यह गतिशील धारणा है जो किसी वर्ग, जाति, देश तक ही सीमित नहीं है। यह सार्वभौमिक व सार्वकालिक अवधारणा के रूप में समस्त विश्व का कल्याण चाहती है।

सर्वोदय के आधार

गांधी जी का कहना है कि यदि हम जीवन में कुछ बातें अपना लें तो सबको समान अवसर प्राप्त हो सकते हैं अर्थात् सबका कल्याण हो सकता है। लेकिन किसी व्यक्ति को दबाव डालकर सर्वोदय की विचारधारा से जोड़ना अन्याय है। सर्वोदय का विचार स्वत: प्रेरित होता है। इसी से सर्वोदय का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। सर्वोदय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रमुख आधार हैं-

1. इन्द्रिय निग्रह - गांधी जी ने सदैव आत्म-संयम पर जोर दिया। उनका विचार था कि यदि व्यक्ति स्वयं अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखे या संयमपूर्वक जीवन बिताए तो समाज के अनेक दोष दूर हो सकते हैं। विनोबा जी ने गांधी जी के विचार का समर्थन करते हुए कहा है-’’सर्वोदय विचार में मुख्य बात यह है कि हमें अपने मन को वश में रखना चाहिए, इन्द्रियों को काबू में रखना चाहिए।’’

2. नए समाज की रचना - गांधी जी का मानना था कि वर्तमान समाज अन्यायपूर्ण सम्बन्धों पर आधारित है। समाज तरह-तरह के सामाजिक व आर्थिक दोष हैं। व्यक्तियों के हित परस्पर विरोधी हैं। यदि इन दोषों को दूर किया जाए या शोषणमुक्त समाज की जगह शोषणयुक्त नए समाज की रचना कर दी जाए तो सवो्रदय का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है।

3. विश्व समाज की स्थापना - गांधी जी का मानना था कि वर्तमान समय में प्रत्येक देश और प्रत्येक व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर कार्य कर रहे हैं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष व विरोध है। यदि एक विश्व समाज की स्थापना का प्रयास किया जाए तो सर्वोदय का लक्ष्य प्रभावी हो सकता है।

4. राज्य की समाप्ति - गांधी जी का विचार था कि राज्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास में सबसे बड़ी बाधा है। यह विभिन्न वर्गों व समुदायों में वर्ग-भेद को बढ़ावा देता है। यदि राज्य को समाप्त कर दिया जाए तो शोषण मुक्त समाज क्या रामराज्य की स्थापना हो सकती है। इस विचार द्वारा गांधी जी अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति की निन्दा की है। गांधी जी का मानना है कि राज्य इस प्रकार की नीतियों के सहारे अपना अस्तित्व बनाए हुए है। इससे समाज के हितों को गहरा आघात पहुंचता है। समाज में विरोधी गुटों का जन्म होता है और विघटन को बढ़ावा मिलता है। राज्य व सरकार की समाप्ति से ही सर्वोदय का विचार प्रभावी हो सकता है।

सर्वोदय की विचारधारा की विशेषताएं

गांधी जी के सर्वोदय के विचार का अध्ययन करने पर इनकी विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है-

1. स्वराज्य प्राप्ति का सामान - गांधी जी स्वराज्य प्राप्ति के लिए सर्वोदय को प्रमुख साधन माना है। उनका कहना है कि सत्य, प्रेम, दया, अहिंसा, व्रत, सच्ची लगन और नि:स्वार्थ भावना से सर्वोदय समाज का जन्म होगा और इसी से स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

2. ग्राम स्वावलम्बन - गांधी जी का कहना है कि सर्वोदय विचारधारा का मूल लक्ष्य आत्मनिर्भर ग्रामों की स्थापना करना है। गांव में कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देकर लाखों को रोजी-रोटी की प्राप्ति होगी। कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए ग्रामीण स्तर पर ही प्रयास तेज किए जाएंगे। गांधी जी ने कहा है-’’सर्वोदय समाज आपसी सहयोग पर आधारित पंचायतों का संघ होगा। पंचायतें हर तरह से सक्षम व शक्तिशाली होगी।’’ गांधी जी ने आगे कहा है कि ‘‘सर्वोदय समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपना पुश्तैनी धन्धा अपनाएगा और इससे अनुचित प्रतियोगिता का अन्त होगा।’’ इस तरह गांधी जी ने गांवों को स्वावलम्बी व विकास के रास्ते पर लाने के लिए सर्वोदय का विचार पेश किया है।

3. विकेन्द्रीकरण पर बल - गांधी जी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। इसके लिए वे आर्थिक व राजनीतिक सर्वोदय का विचार विकेन्द्रीकरण करने के पक्ष में थे। इसलिए सर्वोदय का विचार ऐसे केन्द्रीकृत समाज की रचना करने पर जोर देता है, जिसमें वर्ग विभेद समाप्त हो और सभी व्यक्ति निर्बाध रूप में आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक उन्नति कर सकें। सर्वोदयी विचारधारा का मानना है कि कोई सत्ता जितनी केन्द्रीकृत होती है, उतनी ही अधिक भ्रष्ट होती है। इसलिए सर्वोदयी विचारधारा ने समाज से अन्याय व शोषण को समाप्त करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया है। गांधी जी ने कहा है-’’यदि सर्वोदय को सफल बनाना है तो अहिंसात्मक तरीके से विकेन्द्रीकरण करना होगा।’’ इससे स्पष्ट है कि गांधी जी ने सारी शक्तियां व अधिकार पंचायतों को हस्तांतरित करने पर जोर दिया है। आर्थिक क्षेत्र में कुटीर उद्योगों को महत्व दिया है इससे ही सर्वोदय की प्राप्ति हो सकती है।

4. आर्थिक समानता की स्थापना - गांधी जी का मानना है कि समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता ही समाज के अनेक दोषों का कारण है। इसलिए उन्होंने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत द्वारा इस समस्या का समाधान करने का सुझाव दिया है। गांधी जी का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक वस्तुएं या सम्पत्ति कर स्वामी न समझकर उसका संरक्षक समझे। गांधी जी का विचार है कि फालतू धन के हस्तांतरण के बिना आर्थिक विषमता को कम नहीं किया जा सकता, इसलिए सवो्रदय का लक्ष्य आर्थिक विषमता समाप्त करके समाजवाद का लक्ष्य प्राप्त करना है।

5. आत्मिक सर्वोच्चता - सर्वोदयी विचारधारा में आत्मा की सर्वोच्चता पर बल दिया जाता है। गांधी जी का विश्वास था कि समाज की समस्त समस्याओं का कारण आध्यात्मवाद से विश्वास का हटना है। सर्वोदय आन्दोलन का प्रमुख लक्ष्य सभी की आत्मिक शक्ति का विकास करना है। गरीबों की सेवा या परोपकार से आत्मिक शक्ति का विकास होता है। इस तरह सर्वोदय का विचार आध्यात्मिक शक्ति का विकास करता है।

6. अहिंसा पर बल - गांधी जी का मानना था कि अहिंसा के बिना कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता। हिसा पर आधारित शक्ति अस्थायी व क्षणिक होती है। गांधी जी ने अहिंसा की शक्ति के बारे मे लिखा है-’’अहिंसा की शक्ति बिजली से भी तेज और ईथर से अधिक शक्तिशाली है। बड़ी से बड़ी अहिंसा का सामना अहिंसा से सम्भव है।’’ इस प्रकार अहिंसा के बिना सर्वोदय की स्थापना भी नहीं हो सकती। अहिंसक साधन ही सर्वोदय के विचार को चिरस्थाई बना सकते हैं। अत: सर्वोदय का विचार अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित है।

7. सर्वोदय राज्य व दल विहीन समाज की स्थापना का पक्षधर है - गांधी जी राज्य को एक आवश्यक बुराई मानते थे। उन्होंने राज्य को आत्मा रहित मशीन की संज्ञा दी है। राज्य शोषण का ऐसा यन्त्र है, जो गरीबों को अधिक पीसता है। यह संगठित तथा एकत्रित हिंसा का प्रतिनिधि है। इसी तरह राजनीतिक दल भी समाज को वर्गों में विभाजित कर देते हैं और समाज की एकता नष्ट हो जाती है। इसलिए राज्य रूपी शोषण की संस्था और समाज की एकता को नष्ट करने वाले दलों की समाप्ति से ही सर्वोदय समाज की स्थापना हो सकती है। सर्वोदय समाज की एकता को नष्ट करने वाले दलों की समाप्ति से ही सर्वोदय समाज की स्थापना हो सकती है। सर्वोदय समाज में राज्य व दलों का कोई महत्व नहीं होगा।

8. नैतिकता पर आमाारित - गांधी जी का मानना है कि नैतिकता के आदर्श को प्राप्त किए बिना सर्वोदयी समाज की स्थापना सम्भव नहीं है। वर्तमान सभी समस्याएं नैतिक समस्याओं पर आधारित हैं और उनका समाधान भी नैतिक साधनों द्वारा सम्भव है। इसलिए सर्वोदय का विचार नैतिक साधनों के अभाव में सफल नहीं हो सकता। जब तक व्यक्ति का नैतिक विकास न किया जा सकेगा, तब तक सर्वोदयी समाज की स्थापना नहीं हो सकती।

9. समानता व स्वतन्त्रता पर बल - गांधी जी ने समानता को सर्वोदय का आधार माना है। समानता के बिना सर्वोदय की स्थापना नहीं हो सकती। जब सभी व्यक्तियों को समान पनपने के अवसर प्राप्त होंगे तो उनका सर्वोदय होगा। इसी प्रकार व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अभाव में भी व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। सर्वोदय समानता व सबको स्वतन्त्रा प्राप्त होने के बाद ही प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार गांधी जी का सर्वोदय का विचार समानता व स्वतन्त्रता के अधिकार पर आधारित है।

सर्वोदय के साधन

गांधी जी के विचारों के आधार पर उसके अनुयायियों विनोबा भावे तथा काका कालेलकर ने सर्वोदय की स्थापना के तरीके बताए हैं-

1. आत्म-संयम - गांधी जी का कहना है कि यदि हम अपनी इच्छाओं पर काबू पा लें तो गरीब लोगों के लिए भी कुछ बच सकता है। विनोबा भावे ने कहा है-’’हमें अपने विचार और जीभ पर काबू रखना चाहिए। हम भोग करें लेकिन अति से बचें।’’ इसके लिए लोगों को आध्यात्म व योग की शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे इन्द्रिय-विग्रह के आदि हो जाएं और दूसरों के बारे में भी सोचें।

2. हृदय परिवर्तन - गांधी जी का कहना है कि अहिंसात्मक साधनों द्वारा अमीरों को गरीबी की सहायता करने के लिए मनाना चाहिए। इससे शोषण की समाप्ति होगी और समाजिक व आर्थिक विषमताओं का अन्त होगा। इसके लिए किसी प्रकार का दबाव नहीं डालना चाहिए। स्वेच्छा से किया गया समाज हित का कार्य ही सर्वोदय प्राप्ति में सहायता पहुंचा सकता है।

3. भू-दान आन्दोलन - गांधी जी का कहना था कि अतिरिक्त सम्पत्ति को गरीबों में बांटने या समाज हित में लगा देने से सामाजिक विषमता का अन्त होता है। उस विचार को आगे बढ़ाते हुए विनोबा जी ने भू-दान आन्दोलन का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति के पास फालतू या आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति है तो उसे स्वेच्छा से गरीबों को या भूमिहीनों को दान कर देना चाहिए। इससे गरीबों की सामाजिक उन्नति के अवसर प्राप्त होंगे और सारे सामाजिक दोष समाप्त हो जाएंगे।

4. ट्रस्टीशिप व्यवस्था - गांधी जी का विचार था कि जिन लोगों के पास फालतू सम्पत्ति है, वे उस सम्पत्ति को समाज की धरोहर समझकर उसकी रक्षा करें, स्वयं को उसके स्वामी न समझे। वे लोग अपनी सम्पत्ति के कुछ अंश स्वेच्छा से गरीबों को दान भी कर सकते हैं।

5. राज्य व सरकार का अन्त - गांधी जी का मानना था कि राज्य और सरकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बांधा पहुंचाते हैं। इनका अन्त करके ही सर्वोदय का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

6. ग्राम दान आन्दोलन - गांधी जी ने सर्वोदय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ग्राम दान का सुझाव दिया था। इस विचार को विनोबा जी ने आगे बढ़ाते हुए कहा है कि सब लोग अपनी-अपनी भूमि ग्राम समाज को दान कर दें और जब भूमि पर खेती हो, वह ग्राम समाज के नियन्त्रण में हो। प्रत्येक योग्यतानुसार कार्य करें और उसे योग्यतानुसार ही प्राप्त हो। इससे सम्पूर्ण ग्राम एक परिवार का रूप ले लेगा और सर्वोदय का लक्ष्य प्राप्त होगा।
इस प्रकार गांधीजी व उसके अनुयायियों ने सर्वोदय के विचार का पोषण किया है। उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करने पर जोर दिया है ताकि सर्वोदय की प्राप्ति हो सके। लेकिन फिर भी सर्वोदयी विचारधारा यथार्थवादी स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकी। आज का युग प्रतियोगिता का युग है इसमें सर्वोदय को प्राप्त करना कठिन है। सर्वोदय समाज की हर समस्या का समाधान नहीं कर सकता। गांधी जी ने सर्वोदय को प्राप्त करने के तरीकों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा है, भू-दान तथा ग्रामदान जैसे उपाय उसके परवर्ती विचारकों द्वारा शामिल किए गए हैं। लेकिन इतना होने के बावजूद भी गांधी जी के सर्वोदय के विचार को समय-समय पर महत्व दिया जाता रहा है। 73वें संविधान संशोधन में भी पंचायती राज संस्थाओं को महत्व दिया गया है। उनके अहिंसा सम्बन्धी विचारों पर आधारित होने के कारण सर्वोदय का विचार काफी प्रासांगिक है। आज विश्व संकीर्ण राष्ट्रीयताओं का शिकार है। विश्व शान्ति के लिए गांधी जी के सर्वोदय के विचार की सार्वभौमिकता आज अधिक व्यावहारिक लगती हैं अत: गांधी जी के सर्वोदय सम्बन्धी विचारों का परमाणु युग में भी विशेष महत्व है।

आधुनिक समय में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता

गांधी जी का जीवन दर्शन एक कर्मयोगी व व्यावहारिक राजनीति का है। यद्यपि उन्होंने किसी क्रमबद्ध सिद्धान्त या दर्शन का प्रतिपादन नहीं किया, लेकिन उनके विचार विश्व शान्ति के लिए प्रकश स्तम्भ है। उनका राजनीतिक चिन्तन उदारवाद और मानवतावाद पर आधारित होने के कारण सर्वहारा वर्ग के हितों का पोषक है। उनका राजनीति का आध्यात्मीकरण करने का विचार आज की राजनीतिक समस्याओं का समाधान करने व राजनीति को जनकल्याण का साधन बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण देन है। उनका सर्वोदय तथा अहिंसा का सिद्धांत विश्व-बन्धुत्व की भावना को बढ़ावा देने तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में मधुरता पैदा करने का अचूक शस्त्र है, इतना होने के बावजूद भी शांति के पुजारी तथा आध्यात्मिक के अग्रदूत व प्रणेता महात्मा गांधी के विचारों को अनेक राजनीतिक विचारक अव्यावहारिक व अप्रासांगिक मानते हैं। उनका कहना है कि गांधी जी के सिद्धांत आदर्श मात्र हैं, व्यावहारिक नहीं।

उनका सत्य व अहिंसा का सिद्धांत निस्सन्देह मूल्यवान व महत्वपूर्ण सिद्धांत है। परन्तु अब प्रश्न यह पैदा होता है कि आज के आणविक युग में इसकी क्या प्रासांगिकता है। आज प्रत्येक राष्ट्र अपने को सामरिक दृष्टि से सुरक्षित देखना चाहता है। दो विश्व युद्धों ने मानव को आतंक व भय के वातावरण में जीने के लिए जिस कद्र बाध्य किया है, उससे राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा आवश्यक व महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित का लक्ष्य बन गया है। इसलिए व्यवहार में इस सिद्धांत को लागू करना असम्भव है। कोई भी देश अहिंसा के सिद्धांत के सहारे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को नहीं छोड़ सकता। इसी तरह उनका रामराज्य का स्वप्न भी मात्र कपोल कल्पना है। कुटीर उद्योग वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रतिस्पर्धा के अनुकूल नहीं हो सकते। आज का युग विज्ञान का युग नए-नए आविष्कारों ने औद्योगिक प्रणाली को पूरी तरह यन्त्रचालित बना दिया है। महात्मा गांधी ने औद्योगिक क्षेत्र की जटिलताओं की तरफ ध्यान न देकर अव्यावहारिक होने का ही परिचय दिया है। 

भारत पर हुए पाकिस्तान व चीनी हमलों ने भारत की शांतिप्रिय व अहिंसावादी नीति की जो मिट्टी पलीत की है, वह सर्वविदित है। आज भारत की शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का जो करारा जवाब पाकिस्तान दे रहा है, उसके महात्मा गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत की धज्जियां उड़ती प्रतीत होती हैं। इसलिए आज के वैज्ञानिक युग में जब चांद सितारों पर पहुंचने की होड़ लग रही हो तो सत्याग्रह और अहिंसा का सिद्धांत निरर्थक है। आज अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का मुकाबला अहिंसा के सिद्धांत के सहारे नहीं किया जा सकता। अत: आलोचकों की बात सही है कि महात्मा गांधी के विचार आधुनिक समय में अप्रासांगित व अव्यवहारिक है।

यद्यपि महात्मा गांधी के सिद्धांत वर्तमान समय में अव्यावहारिक लगते हैं, लेकिन गांधी जी ने अपने सिद्धान्तों में सत्य, प्रेम और उदारता के जो नियम बताएं हैं, वे शाश्वत् महत्व रखते हैं। यह सत्य है कि आज के वैज्ञानिक युग में आणविक शस्त्रों की छत्र-छाया में शांति के महात्मा गांधी द्वारा बताए गए उपाय निरर्थक मालूम होते हैं। लेकिन यदि मानतवा को तीसरे विश्व युद्ध के विनाश से बचाना है, तो महात्मा गांधी के सिद्धान्तों को महत्व देना होगा। आज सभी देश महसूस करते हैं कि विश्व के सामने महात्मा गांधी के शान्ति मॉडल के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं है। यदि तीसरा विश्व युद्ध होता है तो सम्पूर्ण मानवता नष्ट होने के कगार पर पहुंच जाएगा। इस धरती से मानव सभ्यता का अस्तित्व ही लगभग समाप्त हो जाएगा। इसलिए आज यह आवश्यक है कि महात्मा गांधी के सिद्धान्तों को अपनाया जाए। 

प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री गोपीनाथ धवन का कहना है-’’युद्धवाद के पागलपन, आर्थिक और राजनैतिक केन्द्रीकरण और शान्तिप्रियता ने यह अनुभव करा दिया है कि हम महात्मा गांधी के गत्यात्मक सत्यों को समझें।’’ आज तीसरे विश्व युद्ध की भ्यावह आशंका में सांस लेती मानवता और युद्ध के खतरों से घिरा हुआ समकालीन विश्व अपने भविष्य से लगातार आतंकित है। नाभिकीय युद्ध के परिणामों और विनाश के वैज्ञानिक निष्कर्ष उसकी विनाश की आशंका को पक्का कर रहे हैं। आज दुनिया बारुद के जिस ढेर पर बैठी हुई है और एक छोटी सी चिंगारी उसका विनाश करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए आज गांधी जी के सिद्धान्तों को अपनाने का समय आ गया है। यदि आज विज्ञान हिंसा का साधन बन गया तो मानव सभ्यता की रक्षा करना असम्भव होगा। यदि हमें जीवित रहना है और नए संसार की रचना करनी है तो मानवता के भले के लिए हमें अहिंसात्मक उपायों का ही सहारा लेना पड़ेगा। अहिंसात्मक साधनों का प्रयोग करने से ही सर्वोदय समाज की स्थापना हो सकेगी और विश्व में बढ़ रही आर्थिक विषमता का भी अन्त हो जाएगा। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि महात्मा गाधीं के विचार जितने प्रासांगिक व व्यावहारिक 1947 से पहले व 1947 में थे, आज भी बन सकते हैं, यदि उनको सच्चे हृदय से जीवन में उतारा जाए। आज विश्व में हो रहे नि:शस्त्रीकरण के उपाय महात्मा गांधी के शान्ति विचारों के ही पर्यायवाची हैं। अत: महात्मा गांधी के विचार आधुनिक युग में भी प्रासंगिक होने के साथ-साथ काफी महत्वपूर्ण व शाश्वत् महत्व के हैं।

2 Comments

  1. महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार / सिद्धांत के बारे में आप ने बहुत प्रशंसनीय जानकारी लिखी है।आप का दिल से धन्यवाद ! एक नजर भारतीय राजनीती में प्रवेश कैसे करे? इस आर्टिकल पर भी डाले।

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