कोई भी समूह या गुट आज आवश्यक निर्णय लेने तथा आवश्य बातचीत के लिए अपने बड़े आकार के कारण प्रत्येक अवसर पर
अपने सभी सदस्यों को एकत्रित नहीं कर सकते। इसके लिए वे अपने कुछ प्रतिनिधि सदस्यों का चुनाव कर लेते हैं, जो भविष्य में
प्रत्येक निर्णय में भागीदार बनते हैं और समूह या गुट का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस दृष्टि से प्रतिनिधियों द्वारा समूह के लिए अधिकृत
शक्ति के तहत कार्य करना प्रतिनिधित्व कहलाता है।
प्रतिनिधित्व की परिभाषा
एनसाईकलोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में प्रतिनिधित्व की परिभाषा इस प्रकार
दी गइै है-”प्रतिनिधित्व वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सारे नागरिकों या उनके किसी अंश की अभिवृतियां, अधिमान्यताएं, दृष्टिकोण
और इच्छाओं को, उनकी ऐच्छिक कार्य का रूप प्रदान करता है और जिनके प्रतिनिधि होते हैं उन्हीं पर बाध्यकारी प्रभाव होता है।”
राबर्ट वॉन मोहल के अनुसार-”प्रतिनिधित्व वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से समस्त नागरिक या उनका कोई अंश सरकारी
कार्य पर जो प्रभाव डालता है, वह उनकी सुव्यक्त इच्छा के अनुसार होता है, उन्हीं में से थोड़े से लोगों द्वारा उनकी ओर से किया
जाता है और यह उनके लिए मानना आवश्यक होता है जिसका वे प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।”
प्रतिनिधित्व का अर्थ समझने के बाद राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अर्थ समझना भी आवश्यक है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति की तरफ संकेत करता प्रतीत होता है। राजनीतिक प्रतिनिधि ही निर्वाचित व्यक्ति होता है जो समूह का प्रतिनिक्तिात्व करता है। राजनीतिक प्रतिनिधि एक ऐसा व्यक्ति होता है हो किसी राजनीतिक समाज में शासन की प्रक्रिया को प्रभावित करने तथा प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने का वैधिक अधिकार रखता है।
प्रतिनिधित्व का अर्थ समझने के बाद राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अर्थ समझना भी आवश्यक है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति की तरफ संकेत करता प्रतीत होता है। राजनीतिक प्रतिनिधि ही निर्वाचित व्यक्ति होता है जो समूह का प्रतिनिक्तिात्व करता है। राजनीतिक प्रतिनिधि एक ऐसा व्यक्ति होता है हो किसी राजनीतिक समाज में शासन की प्रक्रिया को प्रभावित करने तथा प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने का वैधिक अधिकार रखता है।
ए0एच0 विर्च ने इसको परिभाषित करते हुए कहा है-”राजनीतिक
प्रतिनिधि एक ऐसा व्यक्ति होता है जो परम्परागत या कानून द्वारा एक राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधि का स्तर रखता है और
प्रतिनिधि की भूमिका निभाता है।” इस दृष्टि से राजनीतिक प्रतिनिधित्व राजनीतिक प्रतिनिधि द्वारा राजनीतिक व्यवस्था की अदा
की गई भूमिका का सूचक है।
प्रतिनिधिक प्रणाली का विकास
प्रतिनिधित्व प्रणाली की उत्पत्ति को लेकर राजनीतिक विद्वान एकमत नहीं हैं। मॉण्टेस्क्यू तथा रूसो इसे आधुनिक युग की उपज मानते हैं, उनका कहना है कि प्राचीन काल में राजा ही शक्ति का एकमात्र अधिकारी था और शासन के सभी निर्णय उसी के द्वारा लिये जाते थे। जब राजा की निरंकुशता बढ़ने लगी तो जनता की आवाज को दबाए रखने के लिए अपने कुछ सलाहकारों को जन-प्रतिनिधि के रूप में उभरने लगी। जब राजा को धन की जरूरत पड़ती थी तो वह कुछ जन-प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाने लगा और धीरे धीरे ये प्रतिनिधि समाज का महत्वपूर्ण अंग बन गए। राजा और जनता को जोड़ने में इन्हीं प्रतिनिधियों ने भूमिका अदा करनी शुरु कर दी और तेहरवीं सदी के अन्त में तथा चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में इंग्लैंड में संसद, फ्रांस में ईस्टेट्स जनरल (Estates General), स्पेन में कोर्टेस (Cortes), जर्मनी और जापान में डायट (Diet) के रूप में प्रतिनिधि संस्थाओं का उदय हुआ। इन संस्थाओं और राजाओं में लम्बे समय तक संघर्ष चलता रहा और अन्त में प्रतिनिधि संस्थाओं की ही विजय हुई।1213 में जॉन ने प्रत्येक काउन्टी
से चार बुद्धिमान नाइटों को वृहत सभा की बैठक में बुलाया। हेनरी तृतीय ने 1254 में, एडवर्ड प्रथम ने 1295 में ऐसी ही सभाएं की।
एडवर्ड प्रथम की सभा आदर्श संसद के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि उसमें 400 व्यक्तियों ने भाग लिया था। इसमें सभी वर्गों को
प्रतिनिधित्व मिला था। इंग्लैण्ड की संसद एक मदर पार्लियामैंट के रूप में विख्यात थी, क्योंकि इसमें सभी वर्गों के हितों का
प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि थे। धीरे धीरे इंग्लैण्ड में प्रतिनिधित्व प्रणाली का विकास होता रहा और 1919 में सभी व्यस्क पुरुष
व स्त्रियों को मतदान का अधिकार दे दिया गया। आज इंग्लैण्ड प्रतिनिधि लोकतन्त्र व राजतन्त्र का अनूठा उदाहरण है।
इंग्लैण्ड की तरह ही अन्य देशों में भी प्रतिनिधिक प्रणाली का बराबर विकास होता रहा। 1871 का तीसरा फ्रांसीसी गणतन्त्र तथा
1919 का वाइमर गणतन्त्र प्रतिनिधिक प्रणाली के विकास के अनूठे उदाहरण हैं। अमेरिका क्रान्ति के समय भी ‘बिना प्रतिनिधित्व
के कर नहीं’ का नारा गूंजा और अन्त में वहां पर प्रतिनिधि लोकतन्त्र की स्थापना हुई।
यद्यपि साम्यवादी देशों में भी प्रतिनिधिक
प्रणाली का ढिंढोरा पीटा जाता रहा है, लेकिन वहां वास्तविकता कुछ और ही है। भारत में भी 1857 की क्रान्ति के बाद प्रतिनिधिक
प्रणाली की शुरुआत हुई और भारतीय परिषद् अधिनियम 1861 के तहत गवर्नर जनरल तथा गर्वनरों की परिषदों में भारतीयों को
कुछ स्थान दि गए। 1892 तथा 1909 में इस संख्या को कुछ बढ़ा दिया गया और 1919 के मॉण्टेग्यू-चेम्स फोर्ड सुधारों के द्वारा
उत्तरदायी प्रतिनिधिक शासन प्रणाली का जन्म हुआ। 1955 के भारत सरकार अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक प्रणाली की जड़ें
और अधिक गहरी कर दी। भारत में पहली बार प्रान्तों के लिए निर्वाचित प्रतिनिधिक सरकारें बनीं।
1946 में संविधान सभा का निर्माण
भी प्रतिनिधिक व्यवस्था के तहत ही हुआ। इसमें सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया। स्वतन्त्रता के बाद भारत व्यस्क
मताधिकार के आधार पर प्रतिनिधि शासन का संचालन करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया, जो आज भी विश्व का सबसे
बड़ा प्रतिनिधि लोकतन्त्रीय देश है।
आज भारत के संविधान में मताधिकार की आयु 18 वर्ष है और जनता अपना शासन
प्रतिनिधियों के माध्यम से ही चला रही है।
प्रतिनिधित्व के प्रकार
प्रतिनिधित्व विभिन्न आधारों पर अनेक प्रकार का हो सकता है। आज प्रतिनिधित्व के निम्नलिखित रूप प्रचलित हैं:-- प्रादेशिक प्रतिनिधित्व
- व्यावसायिक प्रतिनिधित्व
- आनुपातिक प्रतिनिधित्व
- अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व
1. प्रादेशिक प्रतिनिधित्व
इस प्रतिनिधित्व के अन्तर्गत किसी क्षेत्र को निर्वाचन कराने के लिए कई भागों में बांटा जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही सदस्य का चुनाव किया जाता है। इसे भौगोलिक या क्षेत्रीय प्रतिनिच्छिात्व भी कहा जाता है। सुविधा की दृष्टि से निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या कम करके एक निर्वाचन क्षेत्र से कई सदस्ज्ञयों का भी चुनाव किया जा सकता है। जिस चुनाव क्षेत्र से केवल एक ही सदस्य चुना जाता है, उसे एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र तथा जिस क्षेत्र से एक साथ कई सदस्य चुने जाते हैं, उसे बहुदसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है। एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र अपेक्षाकृत भौगोलिक दृष्टि से छोटे और कम जनसंख्या वाले क्षेत्र होते हैं और कई बार राजनीतिक विभाजन के अनुरूप ही होते हैं।भारत तथा फ्रांस
में ऐसे ही निर्वाचन क्षेत्र हैं। इस प्रणाली में सामान्य तौर पर मतों के बहुमत के आधार पर ही परिणाम घोषित किया जाता है। इसका
प्रमुख गुण इसकी सरलता है। इसमें दलों की संख्या भी सीमित रहती है। लेकिन अनेक विद्वानों ने इस प्रणाली की भी आलोचना
की है। इस प्रणाली के आधार पर चुना हुआ व्यक्ति केवल एक ही हित का प्रतिनिधित्व करता है, क्षेत्र के बाकी हित बिना प्रतिनिक्तिात्व के रह जाते हैं।
2. व्यावसायिक प्रतिनिधित्व
इस प्रतिनिधित्व को प्रकार्यात्मक प्रतिनिधित्व भी कहा जाता है। इसमें प्रतिनिधियों के चयन का आधार समाज को व्यावसायिक संगठन होता है। यह प्रादेशिक, आनुपातिक तथा अल्पंसंख्यक प्रतिनिधित्व तीनों के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। इस प्रतिनिधित्व का आधार यह है कि सामाजिक, आर्थिक तथा व्यावसायिक समूहों राष्ट्रीय विधान सभा में स्थान प्रदान किया जाना चाहिए। जी0 डी0 एच0 कोल ने इसे सच्चा तथा लोकतान्त्रिक प्रतिनिधित्व कहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद रूप तथा इटली में इस प्रणाली को अपनाया गया था।1919 के वायमर संविधान के अधीन इटली में
एक राष्ट्रीय परिषद् की स्थापना की गई जिसमें श्रमिकों, पूंजीपतियों और उपभोक्ताओं के हितों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया।
आधुनिक समय में यह इन्डोनेशिया में पाया जाता है। लेकिन इस प्रतिनिधित्व के दोष भी बहुत हैं। इसमें विधायिका के ‘अल्पसंख्यक
वर्ग अपनी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधि भेजने में असफल रहता है। इसमें व्यवसायों को उचित वर्गीकरण न तो सम्भव है और
न ही उचित। इससे संकीर्ण हितों को बढ़ावा मिलता है और मतदाताओं की स्वतन्त्रता भी सीमित हो जाती है। इससे विधायिका
परस्पर विरोधी गुटों का अखाड़ा बन जाती है। इसमें न तो जनसंख्या का ही सही विभाजन किया जा सकता है और न ही समूहों
का। इसके दोषों के कारण ही यह प्रणाली आज बहुत ही कम देशों में है। यदि यह कह दिया जाए कि यह मृतप्राय: है तो कोई
अतिश्योक्ति की बात नहीं है।
3. आनुपातिक प्रतिनिधित्व
यह पद्धति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि मतों की गणना की बजाय उनको तोला जाना चाहिए। इस पद्धति का प्रयोग बहु-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता है। यह अल्पसंख्यकों को भी प्रतिनिधित्व प्रदान करने में सक्षम है। इस पद्धति की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें उम्मीदवार को बहुमत प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। इस पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग 1793 मं फ्रांस में हुआ था, लेकिन आज अनेक देशों में हो रहा है।इस पद्धति
की व्याख्या सबसे पहले टॉमस हेयर ने अपनी रचना 'Election of Representation' में की थी। इस प्रणाजली के दो रूप हैं - (i)
एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (ii) सूची प्रणाली।
1. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के गुण
- इसमें जनता के सभी वर्गों विशेष तौर पर अल्पसंख्यक वर्ग को भी प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
- यह प्रणाली जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करती है।
- यह प्रणाली लोकतत का सही प्रतिनिधित्व करती है। इसमें सभी दलों को मतों के अनुरूप ही विधानमण्डल में स्थान प्राप्त हो जाते हैं।
- इसमें मतदाताओं को अधिक स्वतन्त्रता मिलती है।
- यह प्रजातन्त्रीय व्यवस्था की सूचक है। इसमें दल विशेष का अधिपत्य स्थापित नहीं हो सकता।
- इसमें व्यवस्थापिका जनता के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है।
- इसमें कोई मत बेकार नहीं जाता।
- इसमें निर्वाचन सम्बन्धी भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाता है।
- यह प्रणाली अधिक खर्चीली नहीं है।
2. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अवगुण
यद्यपि यह प्रणाली वर्ग, दल, गुट व जाति के लिए कुछ न कुछ प्रतिनिधित्व अवश्य सुनिश्चित करती है, लेकिन फिर भी इसमें कुछ दोष हैं :-- यह प्रणाली दलों को अधिक महत्व देती है।
- यह प्रणाली जटिल तथा भ्रांतिपूर्ण है।
- यह मतदाताओं तथा प्रतिनिधियों के बीच खाई पैदा करती है।
- इससे साम्प्रदायिकता तथा अल्पसंख्यक विचार-सारणी का जन्म होता है।
- यह व्यवस्थापिका को दलीय संघर्ष का अखाड़ा बना देती है।
- इसमें सार्वजनिक लाभ की आशा करना बेकार है।
- यह जनमत के शासन की बजाय गुटबन्ददी का शासन है।
- इसमें उप-चुनावों की व्यवस्था का अभाव है।
- इससे दलीय तानाशाही का जन्म होता है।
4. अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व
आधुनिक समय में अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था प्रत्येक राजनीतिक समाज के लिए एक चुनौती है। जे0एस0मिल ने सरकार को बहुसंख्यक वर्ग के हाथों में देना अलोकतन्त्रीय माना है। उसका कहना है कि किसी भी देश में किसी वर्ग का प्रतिनिधितव अनुपाती न होकर समानुपाति होना चाहिए। लेकी ने भी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधित्व को उचित माना है। उसका कहना है कि बहुसंख्यक वर्ग के साथ-साथ सरकान में अल्पसंख्यक वर्ग का भी प्रतिनिधित्व बहुत आवश्यक है। इसलिए अल्पसंख्यक वर्ग को प्रतिनिधित्व देने से पहले अल्पसंख्यक वर्ग की समुचित जानकारी होना भी जरूरी हो जाता है। कुछ विद्वानों ने अल्पसंख्यक वर्ग को परिभाषित करने का भी प्रयास किया है।एनसाईकलोपेडिया ऑफ ब्रिटेनिका में लिखा है-”अल्पसंख्यक वर्ग वह है जो अन्य वर्गों या गुटों से कम सदस्य संख्या रखता
है।” संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव-अधिकार रिपोर्ट में 1950 में कहा गया है कि “अल्पसंख्यक शब्द में जनता के वे ही अप्रभुत्वशील
वर्ग शामिल हो सकते है जो स्थायी जातिय, धार्मिक या भाषायी परम्पराओं या विशेषताओं वाले होते हैं और जिन्हें वे बनाए रखना
भी चाहते हैं ओर इस कारण वे शेष जनसंख्या से भिन्न होते हैं।” आज राजनीतिक विद्वानों का कहना है कि इस प्रकार अल्पसंख्यक
वर्ग बहुसंख्यक वर्ग से अलग होने के कारण अलग प्रतिनिधित्व का हकदार हो जाता है। अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व देने
के लिए अनेक देशों में अलग-अलग विधियां प्रयुक्त की जाती हैं।
भारत में राष्ट्रपति या राज्य सभा के सदस्यों का चुनाव करते समय
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली ही अपनाई जाती है जिसका आधार ‘एकल संक्रमणीय मत प्रणाली है। आज विश्व के सभी
लोकतन्त्रीय देशों में अल्पसंख्यक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व देकर न्याय प्रणाली को भी संगत बनाया जाता है। अल्पसंख्यकों को
प्रतिनिधित्व देने के प्रमुख तरीके हैं :-
1. द्वितीय मतदान पद्धति - इस पद्धति के अधीन यह अपेक्षा की जाती है कि उम्मीदवार को जीतने
के लिए 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए। यदि कोई उम्मीदवार निर्धारित मत नहीं लेता है तो उसका निर्वाचन रद्द
कर दिया जाता है और शेष उम्मीदवारों के बीच में ही फिर मतदान द्वारा मुकाबला चलता है। उदाहरण के लिए जब एक
सीट के लिए केवल तीन उम्मीदवार मैदान में हों। उस निर्वाचन क्षेत्र में कुल 40000 मत चुनाव में उम्मीदवारों को प्राप्त हुए
हों, जिनमें से A को 19000, B को 14000, C को 7000 वोट प्राप्त हुए हों, तो उस अवस्था में A को 50 प्रतिशत बहुमत मिलने
के लिए तीसरे उम्मीदवार को चुनाव मैदान से हटाना जरूरी हो जाता है। दोबारा चुनाव मैदान में A और B ही रह जाते हैं।
दोबारा मतदान में A या B में से कोई भी बहुमत हासिल करके विजयी बन सकता है। इस तरीके से भी अल्पसंख्यकों की स्थिति
काफी सुधर सकती है, क्योंकि दोबारा होने वाले मतदान में वे किसी विशेष उम्मीदवार या राजनीतिक दल के साथ सौदेबाजी
करके अपने हितों को सुरक्षित कर सकते हैं।
2. वैकल्पिक मत प्रणाली - इस प्रणाली के अन्तर्गत मतदाता अपना वोट देते समय अपनी कई
पसंद व्यक्त कर सकता है। यदि पहली ही गिनती में उम्मीदवार जीत जाता है तो ठीक है, अन्यथा सबसे कम वोटों वाले
उम्मीदवार को सूची से हटाकर उसके स्थान वाली वोटों में पसंद के अनुसार शेष उम्मीदवारों में बांट दिया जाता है। इसी
तरह पूर्ण बहुमत तक यही प्रक्रिया दोहराई जाती है और अन्त में आवश्यक संख्या पर पहुंचते ही चुनाव परिणाम घोषित कर
दिया जाता है। इस प्रणाली में भी अल्पसंख्यक किसी भी राजनीतिक दल के साथ सौदेबाजी करने की अपेक्षा स्वयं ही अपने
हितो को सिद्ध करने के निकट पहुंच जाते हैं।
3. सीमित मत प्रणाली - इस प्रणाली में यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में कम
से कम तीन सदस्यों को अवश्य निर्वाचित किया जाए। इसलिए प्रत्येक मतदाता निर्धारित सीटों की अपेक्षा कम मत डालता
है। इसमें कोई भी प्रत्याशी एक मतदाता द्वारा एक ही मत प्राप्त करता है। इसमें मतदाता को यह हिदायत होती है कि वह
एक उम्मीदवार को एक ही वोट दे। उदाहरण के लिए किसी निर्वाचन क्षेत्र से 10 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हों और उनमें
से केवल 4 को ही चुना जाना हो तो प्रत्येक मतदाता को उसे अधिक मत डालने का अधिकार नहीं होगा। यह प्रणाली
अल्पसंख्यकों की स्थिति में कुछ न कुछ सुधार अवश्य लाती है और यदि उनकी संख्या अधिक है तो वे एकाध स्थान
तो प्राप्त कर ही लेते हैं, जो साधारण बहुमत प्रणाली में सम्भव नहीं होता। यह प्रणाली इंग्लैण्ड, जापान और इटली
में प्रचलित थी, लेकिन अब नहीं है।
4. पृथक-निर्वाचन प्रणाली - इस प्रणाली को साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली भी कहा जाता
है। इसका प्रयोग भारत में अंग्रेजों ने किया था। 1909 में मार्ले-मिण्टो सुधारो मे तहत इसमें पृथक-निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था
की गई थी जो हिन्दू और मुस्लिम समाज को धर्म के आधार पर दो भागों में बांटने वाली थी। 1919 के अधिनियम तथा 1935
के अधिनियम के तहत यह व्यवस्था और अधिक मजबूत की गई और भारतीय समाज में फूट डालने का यह अनोखा तरीका
था। दोनों सम्प्रदायों को अपने-अपने क्षेत्रों से अपने-अपने प्रतिनिधि चुनने की छूट थी। लेकिन इसका प्रमुख दोष यह था कि
यह राष्ट्रीय एकता को भंग करने वाली थी और सामाजिक व आर्थिक विकास के मार्ग में बाधक थी। स्वतन्त्रता के बाद भारत
ने इस प्रणाली को समाप्त कर दिया।
5. संचयी मत-प्रणाली - इस प्रणाली के अधीन प्रत्येक मतदाताओं को स्थानों की संख्या
के बराबर मत प्रदान किए जाते हैं और उसे यह अनुमति होती है कि वह अपने सभी मत अलग-अलग व्यक्तियों की अपेक्षा
एक ही व्यक्ति को दे सकता है और चाहे तो कम या अधिक मात्रा में वोटों का बंटवारा कर सकता है। इससे जाहिर है कि
अल्पसंख्यक मतदाता अपना वोट अल्पसंख्यक उम्मीदवार को ही देंगे। इससे उनका एक उम्मीदवार तो अवश्य प्रतिनिधित्व
प्राप्त कर सकेगा। लेकिन इसके लिए अल्पसंख्यकों का संगठित व एकमत रहना जरूरी है। इस प्रणाली को एकल मतदान
प्रणाली भी कहा जाता है।
6. सुरक्षित स्थानयुक्त संयुक्त निर्वाचन प्रणाली - इस पद्धति को
आरक्षण पद्धति कहा जाता है। इसके अन्तर्गत चुनावों के दौरान कुछ स्थान आरक्षित कर दिए जाते हैं। उस स्थान से केवल
वही उम्मीदवार चुनाव लड़ सकता है, जिस जाति, धर्म, वर्ग या प्रजाति के लिए सीट सुरक्षित है। भारत में यह प्रणाली है।
संविधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत ही प्रत्येक चुनाव में अल्पसंख्यकों के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए जाते हैं। इससे
अल्पसंख्यक वर्ग को अवश्य प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इसका प्रमुख गुण यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता के स्थान पर
सामाजिक एकता का विकास होता है, क्योंकि चुनावों में सभी जातियों या वर्गों के मतदाता व्यक्ति विशेष को ही अपना मत
देने के लिए बाध्य होते हैं।
7. व्यवसायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली - इस व्यवस्था के अन्तर्गत उम्मीदवार
अलग-अलग पेशों से होते हैं। इसमें मतदाताओं को अपने अपने व्यवसायों से ही प्रतिनिधि चुनने का अिध्ऋाकार होता है। इस
प्रणाली की व्यवस्था पेशेगत है। चुनाव क्षेत्र भी पेशेगत आधार पर ही बंटे होते हैं। लेकिन इस प्रणाली का दोष यह है कि
इसके आधार पर चुने हुए उम्मीदवार पेशे विशेष के हितों का ध्यान रखते हैं, सम्पूर्ण समाज का नहीं। लेकिन फिर भी इसमें
अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व अवश्य सुरक्षित हो जाता है।
8. प्रवासी मतदान प्रणाली - इस प्रणाली के अन्तर्गत एक मतदाता एक बहुसदस्यीय-निर्वाचन क्षेत्र में एक
उम्मीदवार के लिए अपना मत दे सकता है। कम से कम मतों की संख्या निर्धारित होती है और जो उम्मीदवार उतने मत प्राप्त
कर लेता है, उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। इसमें यह भी व्यवस्था की जाती है कि जो व्यक्ति अपना मत ऐसे व्यक्ति
को देते हैं, जो असफल हो जाता है, तो वे मतदाता फिर से मतदान करके रिक्त पदों को भर सकते हैं। इसके लिए गुप्त मतदान
प्रणाली अपनाई जाती है। इसमें भी अल्पसंख्यकों को कुछ न कुछ प्रतिनिधित्व तो मिलने की संभावना अवश्य रहती है।
9. मतभार प्रणाली - इस प्रणाली के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों को अधिक वोट देने का अधिकार प्रदान
किया जाता है। उन्हें बहुसंख्यक वर्ग की संख्या से अधिक मत देने का अधिकार प्राप्त होता है। भारत में स्वतन्त्रता से पहले
मुसलमानों और सिखों को हिन्दुओं से अधिक मत देने का अधिकार प्राप्त था। इसमें भी अल्पसंख्यक वर्गों को प्रतिनिधित्व
मिलने की प्रबल संभावना होती है। लेकिन आज भारत में यह प्रणाली नहीं है।
10. आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली - आज अल्पसंख्यक वर्ग को उचित प्रतिनिक्तिात्व देने के लिए इस प्रणाली को सर्वोत्तम माना जाता है। इसमें अल्पसंख्यक वर्ग को उसकी संख्या के अनुपात में प्रतिनिक्तिात्व प्रदान किया जाता है। जे0एस0 मिल ने इसी प्रणाली को लोकतन्त्र का आधार माना है। इस प्रणाली को एकल संक्रमणीय
मत-प्रणाली तथा सूची प्रणाली की उपव्यवस्था के तहत संचालित किया जाता है। इस प्रणाली के बारे में इसी अध्याय के
‘आनुपातिक प्रतिनिधित्व’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत विस्तार से समझाया गया है।
उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए अनेक प्रणालियां प्रचलित हैं। अल्पसंख्यक हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं। यदि उनके हितों की उपेक्षा की जाती है तो वे समाज की आम धारा से कट सकते हैं और राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। लेकिन प्रतिनिधितव की व्यवस्था करते समय यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि अल्पसंख्यक को अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करके बहुसंख्यक के कोप का भाजन राजनीतिक व्यवस्था को न बना दे। विशेष व्यवस्थाओं के तहत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों वर्गों को ही उचित प्रतिनिधित्व मिलने से ही समाज व देश का भला हो सकता है। सत्ता प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था को ही लागू किया जाना चाहिए।
उपरोक्त विवेचन के बाद कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए अनेक प्रणालियां प्रचलित हैं। अल्पसंख्यक हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं। यदि उनके हितों की उपेक्षा की जाती है तो वे समाज की आम धारा से कट सकते हैं और राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो सकता है। लेकिन प्रतिनिधितव की व्यवस्था करते समय यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि अल्पसंख्यक को अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग करके बहुसंख्यक के कोप का भाजन राजनीतिक व्यवस्था को न बना दे। विशेष व्यवस्थाओं के तहत अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों वर्गों को ही उचित प्रतिनिधित्व मिलने से ही समाज व देश का भला हो सकता है। सत्ता प्रतिनिधित्व की उचित व्यवस्था को ही लागू किया जाना चाहिए।
Oakwood
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