संविधानवाद का अर्थ, परिभाषा, संविधानवाद की प्रमुख विशेषताएं

संविधानवाद का अर्थ है-उत्तरदायी व सीमित सरकार (Responsible and Limited Government)। इसके आधार हैं संविधान और संविधानिक सरकार। यद्यपि इनकी निश्चित परिभाषा देना कठिन है। उपरोक्त सभी परिभाषाएं पूर्ण नहीं हैं। समय और परिस्थितियों के अनुसार संविधानवाद का अर्थ बदल जाता है। लेकिन यह बात तो सत्य है कि संविधान (लिखित या अलिखित) तथा संवैधानिक सरकार के बिना इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

संविधानवाद का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना राजनीतिक संस्थाओं का इतिहास। राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक शक्ति के प्रादुर्भाव ने मानव को इनकी निरंकुशता के बारे में सोचने को बाध्य किया है। शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट करती है और जब इसका सम्बन्ध राजनीतिक संस्थाओं या राजनीति से जुड़ जाता है तो इसके पथभ्रष्ट व दुरुपयोग की संभावना बहुत ज्यादा हो जाती है। इसलिए एक चिन्तनशील व सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य ने प्रारम्भ से ही इस राजनीतिक शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए सामाजिक रूप में कुछ नियन्त्रण व बाध्यताएं राजनीतिक शक्ति के ऊपर लगाई हैं। ये बाध्यताएं परम्पराओं, कानूनों, नियमों, नैतिक मूल्यों के रूप में भी हो सकते हैं और संगठित संवैधानिक शक्ति के रूप में भी। 

संविधान ही एकमात्र ऐसा प्रभावशाली नियन्त्रण का साधन होता है, जो राजनीतिक शक्ति को व्यवहार में नियन्त्रित रखता है और जन-उत्पीड़न को रोकता है। यदि राजनीतिक शक्ति या संस्थाओं पर संविधानिक नियन्त्रण न हो तो वह अत्याचार करने से कभी नहीं चूकती। इस अत्याचार और अराजकता की स्थिति से बचने के लिए शासक और शासन को बाध्यकारी बनाया जाता है। यही बाध्यता व्यक्ति की स्वतन्त्रता और अधिकारों की रक्षक है। 

यद्यपि व्यवहार में कई बार शासक वर्ग राजनीतिक शक्ति का दुरुपयोग भी कर देता है, लेकिन ऐसा तभी सम्भव है, जब शासित वर्ग जागरुक ना हो या वह शासक वर्ग में अन्धाधुन्ध विश्वास रखने वाला हो। इसी कारण से राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित रखने ओर उसे जन-कल्याण का साधन बनाने के लिए उसमें उत्पीड़न या बाध्यता (Coecive) का समावेश कराया जाता है। इस उत्पीड़न या बाध्यता की शक्ति को संविधान तथा सभी शासकों को नियन्त्रित अधिकार क्षेत्र में रखने की संवैधानिक व्यवस्था को संविधानवाद कहा जाता है।

संविधानवाद का अर्थ

संविधानवाद एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसका संचालन उन विधियों और नियमों द्वारा होता है जो संविधान में वर्णित होते हैं। इसमें निरंकुशता के लिए कोई जगह नहीं होती है और शासन संचालन लोकतांत्रिक तरीके से किया जाता है। संविधान और संवैधानिक सरकार संविधानवाद के आधार-स्तम्भ हैं। 

संविधानवाद उसी राजनीतिक व्यवस्था में सम्भव है, जहां संविधान हो और शासन संविधान के नियमों के अनुसार ही होता हो। इसलिए संविधान और संवैधानिक सरकार के बारे में भी जानना जरूरी है। संविधान उन कानूनों या नियमों का संग्रह होता है जो सरकार के संगठन, कार्यों, उद्देश्यों, सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों, नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों, नागरिकों के सरकार के साथ सम्बन्धों की व्याख्या करता है। 

हरमन फाईनर ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है-”संविधान आधारभूत राजनीतिक संस्थाओं की व्यवस्था है।” 

आस्टिन के अनुसार-”संविधान वह है जो सर्वोच्च सरकार के संगठन को निश्चित करता है।” 

डायसी के अनुसार-”वे सब नियम जिनके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में राजसत्ता का वितरण तथा प्रयोग किया जाता है, राज्य का संविधान कहलाते हैं।” 

फ्रेडरिक के अनुसार-”संविधान जहां एक तरफ सरकार पर नियमित नियन्त्रण रखने का साधन है, वहीं दूसरी तरफ समाज में एकता लाने वाली शक्ति का प्रतीक भी है।” 

सी0एफ0 स्ट्रांग के अनुसार-”संविधान उन सिद्धान्तों का समूह है जिनके अनुसार राज्य के अधिकारों, नागरिकों के अधिकारों और दोनों के सम्बन्धों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है।” 

लोवेन्स्टीन ने कहा है-”यह शक्ति प्रक्रिया पर नियन्त्रण के लिए आधारभूत साधन है और इसका प्रयोजन राजनीतिक शक्ति पर सीमा लगाने व नियन्त्रण करने के तरीकों का उच्चारण है।” ब्राईस के अनुसार-”किसी राज्य अथवा राष्ट्र के संविधान में वे कानून या नियम शामिल होते हैं जो सरकार के स्वरूप को निर्धारित करते हैं तथा उसके नागरिकों के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों को बतलाते हैं।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधान शासक व शासितों के सम्बन्धों को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण कानून है। यद्यपि व्यवहार में इसका रूप अलग भी हो सकता है। संविधान लिखित तथा अलिखित दोनों प्रकार के हो सकते हैं। यद्यपि सिद्धान्त में तो संविधान शासक वर्ग पर नियन्त्रण की व्यवस्था करता है, लेकिन कई बार व्यवहार में संविधान का शासक वर्ग पर कम नियन्त्रण पाया जाता है। इसका कारण उस राज्य में संवैधानिक सरकार का न होना है। प्रथम विश्वयुद्ध के जर्मनी में संविधान तो था, लेकिन वहां संवैधानिक सरकार नहीं थी। सारी शासन-व्यवस्था पर हिटलर का निरंकुश नियन्त्रण था। इसलिए संविधानवाद के लिए संविध् ाान के साथ साथ संवैधानिक सरकार का होना भी जरूरी है।

संवैधानिक सरकार वह होती है जो संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार संगठित, सीमित और नियन्त्रित हो तथा व्यक्ति विशेष की इच्छाओं के स्थान पर केवल विधि के अनुसार ही कार्य करती हो। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, इटली, रूस आदि देशों में संविध् ाान होते हुए भी संवैधानिक सरकारों का अभाव था, क्योंकि वहां के तानाशाही शासकों के लिए संविधान एक रद्दी कागज की तरह था। इसलिए वहां पर संविधानवाद नहीं था। संविधानवाद के लिए संविधान के साथ-साथ संवैधानिक सरकार का होना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। संवैधानिक सरकार ही संविधान को व्यावहारिक बनाती हैं। संविधान के व्यवहारिक प्रयोग के बिना संविधानवाद की कल्पना नहीं की जा सकती।

संविधान और संवैधानिक सरकार का अर्थ-स्पष्ट हो जाने पर संविधानवाद को आसानी से समझा जा सकता है। संविधानवाद आधुनिक युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह उन विचारों व सिद्धान्तों की तरफ संकेत करता है, जो उस संविधान का विवरण व समर्थन करते हैं, जिनके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित किया जा सके। संविधानवाद निरंकुश शासन के विपरीत नियमों के अनुसार शासन है जिसमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताएं व आस्थाएं शामिल हैं। 

संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें जनता की आस्थाओं, मूल्यों, आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों व सिद्धान्तों के आधार पर ही शासन किया जाता है और संविधान के द्वारा ही शासक वर्ग को प्रतिबंधित या नियन्त्रित किया जाता है ताकि व्यवहार में शासक वर्ग निरंकुश न बनकर जन-इच्छा के अनुसार ही शासन करता रहे। इस प्रकार संविधानवाद एक सीमित शासन भी है क्योंकि इसमें प्रतिबन्धों की व्यवस्था होती है। 

संविधानवाद का की परिभाषा

संविधानवाद को परिभाषित करते हुए अनेक विद्वानों ने कहा है :-

1. पिनाक और स्मिथ के अनुसार-”संविधानवाद केवल प्रक्रिया एवं तथ्यों का ही मामला नहीं है बल्कि राजनैतिक शक्तियों के संगठनों का प्रभावशाली नियन्त्रण भी है, एवं प्रतिनिधित्व, प्राचीन परम्पराओं तथा भविष्य की आशाओं का भी प्रतीक है।”

2. सी0 एफ0 स्ट्रांग के अनुसार-”संवैधानिक राज्य वह है जिसमें शासन की शक्तियों, शासितों के अधिकारों और इन दोनों के बीच सम्बन्धों का समायोजन किया जाता है।”

3. कोरी तथा अब्राहम के अनुसार-”स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहा जाता है।”

4. जे0 एस0 राऊसैक के शब्दों में-”धारणा के रूप में संविधानवाद का अभिप्राय है कि यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासन के रूप में नियन्त्रण की एक व्यवस्था है।”

5. कार्टन एवं हर्ज के अनुसार-”मौलिक अधिकार तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका प्रत्येक संविधानवाद की अनिवार्य और सामान्य विशेषता है।” 

6. के0 सी0 व्हीयर के अनुसार-”संवैधानिक शासन का अर्थ किसी संविधान के नियमों के अनुसार शासन चलाने से कुछ अधिक है। इसका अर्थ है कि निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन। ऐसा तभी संभव है जब किसी देश का शासन संविधान के नियमों के अनुसार ही चलता हो। इसके पीछे मौलिक उद्देश्य यही है कि शासन की सीमाएं बांधी जा सकें और शासन चलाने वालों के ऊपर कानूनों व नियमों का बन्धन रहे।”

संविधान और संविधानवाद में अन्तर

संविधान ही संविधानवाद का आधार होता है। कुछ राजनीतिक विद्वान इन दोनों को पर्यायवाची मानते हैं, लेकिन व्यवहार में स्थिति भिन्न हो सकती है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी और इटली में संविधान तो थे, लेकिन संविधानवाद नहीं था। इसलिए संविधान और संविधानवाद में परिस्थितियों के अनुसार अन्तर होता है। इस अन्तर के प्रमुख आधार हैं :-
  1. परिभाषा की दृष्टि से अन्तर
  2. प्रकृति की दृष्टि से अन्तर
  3. उत्पत्ति की दृष्टि से अन्तर
  4. क्षेत्र की दृष्टि से अन्तर
  5. औचित्य की दृष्टि से अन्तर
1. परिभाषा की दृष्टि से अन्तर - यदि परिभाषा के आधार पर देखा जाए तो संविधान एक संगठन का प्रतीक होता है तथा संविधानवाद एक विचारधारा का प्रतीक है, जिसमें राष्ट्र के मूल्य, विश्वास तथा राजनीतिक आदर्श शामिल होते हैं। संविधान एक ऐसा संगठन है जिसमें सरकार और शासितों के सम्बन्धों को निर्धारित किया जाता है। संविधान राजनीतिक व्यवस्था के शक्ति सम्बन्धों की आत्मकथा है। संविधानवाद उन विचारों का द्योतक है जो संविधान का वर्णन और समर्थन करते हैं तथा जिसके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावकारी नियन्त्रण कायम रखना संभव होता है। 

2. प्रकृति की दृष्टि से अन्तर - प्रकृति की दृष्टि से संविधान एक साधन प्रधान धारणा है और संविधानवाद एक साध्य प्रधान धारणा है। संविधानवाद राजनीतिक समाज के लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सुव्यवस्था है। यह हर समाज के गन्तत्यों को प्राप्त करने की संविधान रूपी साधन द्वारा चेष्टा करता है। इस तरह संविधान वह साधन है जो राजनीतिक समाज के लक्ष्यों व उद्देश्यों को प्राप्त करके संविधानवाद की स्थापना करता है या संविधानवाद रूपी साध्य को प्राप्त करता है।

3. उत्पत्ति की दृष्टि से अन्तर - संविधान का निर्माण किया जाता है, जबकि संविधानवाद विकास की लम्बी प्रक्रिया का परिणाम होता है। यद्यपि ब्रिटेन का संविधान परम्पराओं पर आधारित व अलिखित होने के कारण इसका अपवाद है। संविधान का निर्माण सर्वोच्च अधिकार प्राप्त किसी संस्था द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए भारत का संविधान एक संविधान सभा द्वारा लगभग 3 वर्ष में तैयार किया गया था। 

संविधानवाद किसी भी देश के राजनीतिक समाज के मूल्यों, विश्वासों तथा आदर्शों के विकास का परिणाम होता है। संविधान जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप सदैव परिवर्तित व संशोधित होते रहे हैं, लेकिन संविधानवाद की स्थापना के बाद उसे बदलना या समाप्त करना निरंकुशता व अराजकता को जन्म देता है।

4. क्षेत्र की दृष्टि से अन्तर - क्षेत्र की दृष्टि से संविधान एक अपवर्जक (exclusive) तथा संविधानवाद एक अन्तभूर्तकारी (Inclusive) धारणा है। संविधानवाद तो कई देशों में यदि उनकी संस्कृति समान है तो एक पाया जा सकता है, लेकिन संविधान हर देश का अलग-अलग होता है, क्योंकि इसमें वर्णित अधिकार व कर्तव्य, शासक व शासितों के सम्बन्ध प्रत्येक देश के राजनीतिक समाज में अलग-अलग ढंग के होते हैं। य़द्यपि कई देशों के संविधानों में भी समानता का लक्षण दिखाई देता है, लेकिन यह लक्षण मात्रात्मक होता है, गुणात्मक नहीं। 

उदाहरण के लिए लोकतन्त्रीय देशों में संविधान में प्राय: कई प्रकार के समान लक्षण होते हैं। उसी तरह साम्यवादी देशों के संविधानों में भी अलग प्रकार की समानता देखने को मिलती है। इस तरह संविधान एक सीमित अवधारणा है, जबकि संविधानवाद एक विस्तृत धारणा है। इसे देशकाल की सीमाएं बांध नहीं सकती।

5. औचित्य की दृष्टि से अन्तर - संविधान का औचित्य विधि के आधार पर सिद्ध किया जाता है, जबकि संविधानवाद में आदर्शों का औचित्य विचारधारा के आधार पर सिद्ध होता है। जिस देश के संविधान में उचित कानून व नियमों की व्यवस्था होती है तथा संविधान जन-इच्छा के अनुकूल होता है तो उस संविधान को औचित्यपूर्ण माना जाता है। इसी तरह यदि किसी देश में संवैधानिक आदर्शों को संवैधानिक उपायों से ही प्राप्त करने के प्रयास किए जाते हैं तो संविधानवाद का औचित्य सिद्ध हो जाता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संविधान और संविधानवाद में गहरा अन्तर है। एक संगठन का प्रतीक है तो दूसरा विचारधारा का। एक साधन है तो दूसरा साध्य, एक सीमित धारणा है तो दूसरी विस्तृत, एक का निर्माण होता है तो दूसरे का विकास। इतने अन्तर के बावजूद भी दोनों में आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि दोनों की दिशाएं अलग-अलग होंगी तो इसके राजनीतिक समाज के लिए विनाशकारी परिणाम निकलेंगे।

संविधानवाद के आधार 

 विलियम जी0 एण्ड्रयूज के अनुसार यह मतैक्य चार प्रकार का हो सकता है :-
  1. संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य 
  2. सरकार के आधार के रूप में विधि-शासन की आवश्यकता पर सहमति
  3. समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति
  4. गौण लक्ष्यों एवं विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर सहमति 
1. संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य - यदि नागरिक यह महसूस करते हैं कि सरकार उनके हितों के विरुद्ध कार्य कर रही हैं तो वे सरकार का विरोध करने में कोई देर नहीं करते। इससे विद्रोह या क्रांति की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए ऐसी स्थिति संविधानवाद के विपरीत होती है। इसी कारण संविधानवाद के लिए जनता का सरकार व उसकी नीतियों पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। यह विश्वास ही संविधान और संविधानवाद के साम्य का आधार है। इसलिए संविधानवाद को बनाए रखने के लिए संस्थाओं के ढांचे और प्रक्रियाओं पर नागरिकों में मतैक्य होना जरूरी है।

2. सरकार के आधार के रूप में विधि-शासन की आवश्यकता पर सहमति - जनता को सदैव यह विश्वास होना चाहिए कि सरकार या शासन कानून द्वारा ही चलाया जा रहा है और शासक वर्ग विधि के शासन की उपेक्षा नहीं कर रहा है। जनता की यही आस्था या विश्वास आपातकाल में शासक वर्ग को संविधानवाद से छूट देकर लाभ पहुंचाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में हिटलर को तथा इटली में मुसोलिनी को इसी छूट का लाभ मिला था। ऐसा विशिष्ट परिस्थितियों में ही होता है। इसिलीए संविधानवाद के लिए जनता को सरकार के कार्यों को विधि के शासन के रूप में देखने पर मतैक्य की भावना रखनी चाहिए। यही सहमति संविधानवाद की रक्षा करती है।

3. समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति - राजनीतिक समाज के लोगों में सामान्य उद्देश्यों पर सहमति का अभाव राजनीतिक व्यवस्था में तनाव व खिंचाव उत्पन्न करता है। इससे दूसरे क्षेत्रों में मतैक्य के टूटने की संभावना बढ़ जाती है। सामान्य उद्देश्यों पर असहमति की स्थिति सम्पूर्ण संवैधानिक ढांचे को नष्ट कर सकती है। इसलिए संविधानवाद के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक समाज के लोगों में समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति बनी रहे। यही संविधानवाद की आधारशिला है। इसके अभाव में संविधानवाद में ठोसता नहीं आ सकती।

4. गौण लक्ष्यों एवं विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर सहमति - संविधानवाद के भवन को धराशायी होने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि नागरिक समाज के लोगों में गौण लक्ष्यों और विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर भी सहमति बनी रहे। विशिष्ट नीति-प्रश्नों पर असहमति सहमति के अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकती है और संविधानवाद रूपी भवन को गिरा सकती है। यह सहमति अधिक आवश्यक न होते हुए भी, संविधानवाद की ठोसता के लिए जरूरी है। इसके कारण संविधानवाद रूपी भवन हल्के-फुल्के झटकों से हिलने से बच जाता है। यह सहमति संविधानवाद को व्यावहारिकता का गुण प्रदान करती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनीतिक समाज के लोगों में संस्थाओं के ढांचे व प्रक्रियाओं पर, सरकार के आधार के रूप में विधि के शासन की आवश्यकता पर, समाज के सामान्य उद्देश्यों, गौण लक्ष्यों तथा विशिष्ट नीति-सम्बन्धी प्रश्नों पर आम राय का होना जरूरी है। यह राय या मतैक्य सहमति के जितने पास होता है और विरोध से जितनी दूर होता है, संविधानवाद की जड़ें उतनी ही अधिक गहरी होती हैं। राजनीतिक समाज में होने वाले छोटे-मोटे उतार-चढ़ाव संविधानवाद को इस स्थिति में कोई हानि नहीं पहुंचा सकते। यदि राजनीतिक समाज के लोगों में मतैक्य की भावना का अभाव होगा तो संविधानवाद की रक्षा करने का कोई विलक्प नहीं हो सकता। अत: विभिन्न बातों पर राजनीतिक समाज के लोगों में पाया जाने वाला मतैक्य या सहमति ही संविधानवाद का आधार है।

संविधानवाद के तत्व

पिनॉक व स्मिथ के अनुसार ये तत्व हैं :-
  1. संविधान आवश्यक या अपरिहार्य संस्थाओं के अभिव्यक्तक के रूप में 
  2. संविधान राजनीतिक शक्ति के प्रतिबन्धक के रूप में
  3. संविधान विकास के निदेशक के रूप में 
  4. संविधान राजनीतिक शक्ति के संगठक के रूप में
1. संविधान आवश्यक या अपरिहार्य संस्थाओं के अभिव्यक्तक के रूप में - कोई भी संविधान चाहे वह लिखित हो या परम्पराओं पर आधारित ब्रिटेन के संविधान की तरह अलिखित हो, अपनी अपरिहार्य संस्थाओं (कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका) की व्यवस्था अवश्य करता है। यदि संविधान में इन संस्थाओं और इनके अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या नहीं होगी तो संविधानवाद की कल्पना करना असम्भव है। संविधान में इन संस्थाओं के अधिकार व शक्तियों के साथ-साथ इनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या होना जरूरी है, यही संविधानवाद की प्रमुख मांग है। यदि इन संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या न की गई हो तो सदैव शासक-वर्ग या नौकरशाही तन्त्र के निरंकुश होने के आसार बने रहते हैं। 

अत: संविधानवाद के लिए प्रत्येक संविधान में चाहे वह लिखित हो या अलिखित, उसमें विधायिमा, कार्यपालिका और न्यायपालिका के गठन, शक्तियों और उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या, संविधानवाद के लिए आवश्यक है, क्योंकि ये संस्थाएं राज्य की अपरिहार्य संस्थाएं हैं।

2. संविधान राजनीतिक शक्ति के प्रतिबन्धक के रूप में -  प्रत्येक देश की शासन-व्यवस्था को सुचारु ढंग से चलाने के लिए उस पर कुछ प्रतिबन्धों की व्यवस्था का होना भी संविधानवाद की आधारशिला है। प्रत्येक लोकतंत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के संविधान में कुछ ऐसे उपाय किए जाते हैं कि शासन या सरकार हर समय नियंत्रित रहते हुए अपनी शक्तियों को जनहित में ही उपयोग किए हैं। इससे शासक वर्ग की स्वेच्छाचारिता का फल जनता को नहीं भोगना पड़ता। लोकतांत्रिक राज्य में ये प्रतिबन्ध, विधि का शासन (Rule of Law), मौलिक अधिकार (Fundamental Rights), शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) तथा परम्पराएं व सामाजिक बहुलवाद (Convention and Pluralism) आदि के रूप में होते हैं। जब राज्य का शासन कानून के अनुसार चलाया जाएगा और नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होगा तो संविधानवाद को हिलाने वाला कोई नहीं हो सकता। यदि संविधान में ही शासन के तीनों अंगों की शक्तियों का पृथक्करण कर दिया जाएगा तो शक्तियों का केन्द्रीयकरण नहीं होगा और शासक वर्ग निरंकुश नहीं बन सकेगा तो संविधानवाद मजबूत स्थिति में बना रह सकता है। इसी तरह सामाजिक परम्पराएं तथा बहुलवाद जब इतना मजबूत होगा कि साधारण सी राजनीतिक उथल-पुथल अराजकता पैदा करने में नाकाम रहे तो संविधानवाद को बनाए रखने में कोई परेशानी नहीं हो सकती। इस तरह संविधान में इन प्रतिबन्धों की व्यवस्था किए बिना संविधानवाद के स्थायित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। ये प्रतिबन्ध ही शासन को सीमित व उत्तरदायी बनाते हैं। अत: प्रतिबन्धों द्वारा सीमित व उत्तरदायी सरकार ही संविधानवाद का आधार है। इसलिए संविधान का राजनीतिक शक्ति पर नियन्त्रण लगाना अनिवार्य है।

3. संविधान विकास के निदेशक के रूप में - संविधान में विकास का गुण भी होना चाहिए। वर्तमान में ही प्रभावी शक्ति बने रहने से वह भविष्य के प्रति उदासीन बन सकता है। इसलिए उसमें गतिशीलता तथा लोचशीलता का गुण भी होना चाहिए। समय व परिस्थितियों के अनुसार राजनीतिक समाज के मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं आदि में परिवर्तन होते रहते हैं। पुराने राजनीतिक मूल्यों व आदर्शों का स्थान नए मूल्य व आदर्श लेने के लिए तैयार रहते हैं, केवल उन्हें राजनीतिक समाज की अनुमति की प्रतिज्ञा होती है। इसलिए प्रत्येक देश के संविधान में नवीन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन परिवर्तित व सम्वृद्धित मूल्यों को ग्रहण करने की क्षमता का होना आवश्यक है। यदि कोई भी संविधान भावी विकास की योजना की उपेक्षा करता है तो वह राजनीतिक समाज की सहानुभूति खो देता है और क्रान्ति का शिकार हो सकता है। गतिहीनता को प्राप्त संविधान समाज के सामान्य व गौण उद्देश्यों को प्राप्त करने की बजाय उसमें वाचक बनकर राजनीतिक व सामाजिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करता है। इसलिए संविधान को राजनीतिक समाज की बदलती हुई मान्यताओं या संस्कृति का सम्मान करना चाहिए ताकि संविधानवाद की व्यवहारिकता बनी रहे और संविधानवाद एक गत्यात्मक धारण बनी रहे।

4. संविधान राजनीतिक शक्ति के संगठक के रूप में - संविधान किसी भी शासन-व्यवस्था को वैधता या औचित्य प्रदान करता है। वह यह बात सुनिश्चित करता है कि सरकार के समस्त क्रिया-कलाप उसके अधिकार क्षेत्र के अनुसार ही हों और स्वयं सरकार भी वैधता का गुण बनाए रखे। इसलिए संविधान सरकार की सीमाओं की स्थापना के साथ-साथ सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का लम्बात्मक तथा अम्बरान्तीय (Vertical and Horizntal) विभाजन व वितरण भी करता है। संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक उसी अवस्था में रह सकता है जबकि संविधान द्वारा यह व्यवस्था हो कि सरकार के कार्य अधिकार-युक्त रहें तथा सरकार स्वय भी वैध हो। यदि ऐसा न होगा तो सरकार विरोधी शक्तियां सरकार को गिरा सकती हैं। सरकार को संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करने के अलावा अपनी ऐसी कार्यशैली की स्थापना करनी होती है कि लोगों में शासन-सत्ता के प्रति निष्ठा व लगाव बना रहे। यदि निष्ठा या लगाव सरकार की वैधता का भी प्रतिबिम्ब है। यदि कोई भी सरकार वैधतापूर्ण नहीं रहेगी तो न तो संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठक रहेगा और न ही संविधानवाद की प्राप्ति होगी। इसलिए सरकार का संविधानवाद की व्यावहारिकता के लिए वैध होना अनिवार्य है। 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधान अपरिहार्य संस्थाओं का अभिव्यक्तक, राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक, राजनीतिक विकास का निदेशक तथा राजनीतिक शक्ति का संगठन होना चाहिए। इसके अभाव में संविधान संविधानवाद का आधार कभी नहीं बन सकता तथा वह केवल कागज का टुकड़ा मात्र होगा, जिसकी कोई व्यवहारिक उपयोगिता नहीं होगी।

संविधानवाद की विशेषताएं

 संविधानवाद की प्रमुख विशेषताएं होती हैं :-
  1. संविधानवाद एक गत्यात्मक अवधारणा है
  2. संविधानवाद मूल्यों पर आधारित अवधारणा है 
  3. संविधानवाद संस्कृति सम्बद्ध अवधारणा है 
  4. संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है 
  5. संविधानवाद समभागी अवधारणा है 
  6. संविधानवाद साध्यमूलक अवधारणा है 
1. संविधानवाद एक गत्यात्मक अवधारणा है - गतिशीलता संविधानवाद का प्रमुख गुण होता है। इसी कारण संविधानवाद विकास का सूचक होता है, विकास में बाधक नहीं। समय व परिस्थितियों के अनुसार समाज के मूल्य व आदर्शों के बदलने के कारण संविधानवाद को भी अपनी प्रकृति को बदलना पड़ता है। यही संविधानवाद की गत्यात्मकता का आधार है। संविधानवाद समाज के मूल्यों व आदर्शों की स्थापना व प्राप्त करने के साथ साथ नए मूल्यों पर समाज की भविष्य की आकांक्षाओं के प्रति भी गम्भीर होता है। यदि संविधानवाद लोकशीलता तथा परिवर्तनशीलता के गुण से ही होगा तो संविधानवाद की रक्षा करने वाला कोई नहीं होगा। ऐसे संविधानवाद के दिन जल्दी ही लद जाएंगे और वह विनष्ट हो जाएगा। अत: संविधानवाद का प्रमुख गुण गतिशीलता है और संविधानवाद एक गत्यात्मक अवधारणा है।

2. संविधानवाद मूल्यों पर आधारित अवधारणा है - संविधानवाद का सम्बन्ध इन आदर्शों से होता है जो किसी राष्ट्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और राष्ट्रवाद का आधार होते हैं। संविधानवाद उन विश्वासों, राजनीतिक आदर्शों और मूल्यों की तरफ इशारा करता है जो प्रत्येक नागरिक को बहुत ही प्रिय होते हैं। अभिजन वर्ग के बाद समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इसको जनता तक पहुंचाता है। सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होने पर ही मूल्य संविधान का आदर्श बनते हैं और संविधानवाद को मूल्यों से युक्त करता है। इन मूल्यों की रक्षा के लिए नागरिक हर बलिदान देने को तैयार रहते हैं। जिन मूल्यों को समाज द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है, वे मूल्य संविधानवाद से दूर हट जाते हैं। सामाजिक स्वीकृति के बाद ही ये मूल्य राष्ट्र-दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित स्थान पर पहुंच जाते हैं। अत: संविधानवाद मूल्य-युक्त अवधारणा है और इसका सम्बन्ध राष्ट्र-दर्शन से है।

3. संविधानवाद संस्कृति सम्बद्ध अवधारणा है - मूल्य किसी भी राजनीतिक समाज की संस्कृति का अंग होते हैं। प्रत्येक देश के मूल्य व आदर्श उस देश की संस्कृति की ही उपज होते हैं और उनका विकास भी राजनीतिक संस्कृति के विकास पर पर ही निर्भर करता है। संविधानवाद भी इन्हीं मूल्य और आदर्शों से घनिष्ट रूप से जुड़ा होता है। यद्यपि राजनीतिक समाज की संस्कृति में विविधता का गुण भी पाया जाता है, परन्तु संविधानवाद एक समन्वयकारी शक्ति के रूप में सभी विरोधों में सामंजस्य स्थापित करके उन्हें अपने देश की संस्कृति का अंग बना देता है। इस तरह प्रत्येक देश की संस्कृति से ही संविधानवाद अपना विकास करता है। अत: संविधान का राजनीतिक संस्कृति से गहरा सम्बन्ध होता है।

4. संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है - संविधान नागरिक समाज के मूल्यों व आदर्शों का प्रतिबिम्ब होता है। संविधान किसी भी देश का सर्वोच्च कानून होता है। प्रतिबन्धों की व्यवस्था के कारण जनता का संविधान में गहरा विश्वास होता है। यदि विश्वास और लगाव संविधानवाद का भी आधार है। यदि संविधान और संविधानवाद में साम्य नहीं होगा तो राजनीतिक उथल-पुथल की घटनाएं शुरु हो सकती हैं और देश में अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। इसलिए संविधानवाद को बचाने वाले कोई नहीं हो सकता। ऐसी संभावना असामान्य स्थिति में ही होती है, सामान्य स्थिति में नहीं, इसलिए संविधानवाद को संविधान पर ही आश्रित रहना पड़ता है। इसी से संविधानवाद व्यवहारिकता का गुण प्राप्त करता है।

5. संविधानवाद समभागी अवधारणा है - एक देश के मूल्य व आदर्श दूसरे देशों के संविधान का भी अंग बन सकते हैं, लेकिन से समान आदर्श मन्त्रालय आधार पर तो ठीक रहते हैं, गुणात्मक आधार पर नहीं। लेकिन संविधानवाद का आदर्श बनने पर ये मूल्य और मान्यताएं स्थायित्च का गुण प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि समान संविधानवाद वाले देशों में भी कुछ असमान लक्षण हो सकते हैं, लेकिन यह अन्तर मात्रात्मक ही रहता है, गुणात्मक नहीं। विकासशील प्रजातन्त्रीय देशों में संविधानवाद के आधारभूत लक्षण लगभग समान मिलते हैं। यदि कोई अन्तर दृष्टिगोचर भी होता है तो वह संविधानवाद की समन्वयकारी शक्ति में घुल जाता है। 

अत: संविधानवाद एक समभागी अवधारणा है। संविधान तो प्रत्येक देश का अपना अलग होता है, संविधानवाद के लक्षण समान रूप से कई देशों में एक जैसे ही मिल सकते हैं।

6. संविधानवाद साध्यमूलक अवधारणा है - संविधानवाद का मुख्य उद्देश्य संविधान के लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। इस कार्य में वह साधन रूपी संविधान की उपेक्षा नहीं कर सकता। साध्य और साधन में गहरा सम्क्न्ध होने के कारण इन्हें एक दूसरे से अलग करने का तात्पर्य होगा। संविधानवाद की आत्मा को नष्ट करना। इसलिए साध्यों के रूप में संविधानवाद राजनीतिक समाज के मूल्यों व आदर्शों को प्राप्त करने की पूरी चेष्टा करता है। अत: संविधानवाद का सम्बन्ध साध्यों से अधिक तथा साधनों से कम होता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि संविधानवाद संविधान पर आधारित अवधारणा है। यह संविधान के आदर्शों व मूल्यों को साध्य के रूप में प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसका राजनीतिक समाज के मूल्यों से गहरा लगाव होने के कारण यह संस्कृति से सम्बन्धित भी होता है। इसमें अन्य देशें की संस्कृति को अंगीकार करने का गुण भी होता है और यह समय व परिस्थितियों के अनुसार विकास की तरफ भी बढ़ता रहता है। इस प्रकार यह गतिशील अवधारणा भी है। संविधानवाद की इन्हीं विशेषताओं के कारण संविधानवाद दूसरे देशों तक अपना विस्तार करता है और यह एक व्यापक अवधारणा बन जाता है।

भारत में संविधानवाद

भारत एक विकासशील देश है। भारत में संविधानवाद पाश्चातय व साम्यवादी संविधानवाद का मिश्रित रूप है। भारत ने संसदीय प्रजातन्त्र को विरासत के रूप में अपनाया है। भारत में यह व्यवस्था अन्य विकासशील देशों की तुलना में अधिक सफल रही है। 

भारत के संविधानवाद में कानून का शासन, मौलिक अधिकारों, स्वतन्त्रता व समानता का आदर्श, स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका, राजनीतिक शक्ति का पृथक्करण, निश्चित अवधि के बाद चुनाव, राजनीतिक दलों की व्यवस्था, प्रैस की स्वतन्त्रता, सामाजिक बहुलवाद आदि द्वारा सीमित सरकार व उत्तरदायी सरकार की परम्परा का निर्वाह किया गया है। इस दृष्टि से भारत में संविधानवाद उदारवादी पाश्चात्य लोकतन्त्र के काफी निकट है। इसी तरह भारत में साम्यवादी संविधानवाद के समाजवादी तथ्यों को भी अपनाया गया है। 

भारत में जनकल्याण को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन व वितरण के साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था की गई है। अत: भारत का संविधानवाद मिश्रित प्रकृति का है और विकसित अवस्था में है। इस प्रकार विकासशील देशों में भारत को छोड़कर संविधानवाद अभी निर्माण के दौर में है। धीरे धीरे कई विकासशील देशों में स्वच्छ संवैधानिक परम्पराएं विकसित हो रही हैं। 

होवार्ड रीगिन्स का कथन सत्य है कि “राज्य नए हैं और राजनीतिक खेल के नियम प्रवाह में हैं इसलिए संविधानवाद अभी सुस्थिर नहीं हो सका है।” आज विकासशील देश संविधानवाद की वास्तविकताओं से काफी दूर है। भारत की तरह आज बर्मा, इण्डोनेशिया, नाईजीरिया, श्रीलंका आदि विकासशील देशों में संविधानवाद की लोकतन्त्रीय परम्पराएं विकसित हो रही हैं।

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