आर्थिक विकास के निर्धारक तत्व

विश्व के समस्त देशों में आर्थिक वृद्धि हुई है परन्तु उनकी वृद्धि दरें एक दूसरे से भिन्न रहती हैं। वृद्धि दरों में असमानताएं उनकी विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, तकनीकी एवं अन्य स्थितियों के कारण पाई जाती है। यहीं स्थितियां आर्थिक वृद्धि के कारक हैं। परन्तु इन कारकों का निश्चित रूप से उल्लेख करना भी एक समस्या है क्योंकि विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अपने अपने ढंग से इनको बताया है। 

किंडलबर्जर और हैरिक ने भूमि और प्राकृतिक साधन, भौतिक पूंजी, श्रम और मानव पूंजी, संगठन प्रौद्योगिकी, पैमाने की बचतें और मण्डी का विस्तार, तथा संरचनात्मक परिवर्तन को आर्थिक वृद्धि के कारक माने हैं। 

रिचर्ड गिल ने जनसंख्या वृद्धि, प्राकृतिक साधन, पूंजी संचय, उत्पादन के पैमाने में वृद्धि एवं विशििष्टीकरण और तकनीकी प्रगति को आर्थिक वृद्धि के आधारभूत कारक बतलाए हैं। साथ ही लुइस ने आर्थिक वृद्धि के केवल तीन कारक ही महत्वपूर्ण कहे हैं, ये हैं : बचत करने का प्रयत्न, ज्ञान की वृद्धि या उसका उत्पादन में प्रयोग और प्रति व्यक्ति पूंजी अथवा अन्य साधनों की मात्रा में वृद्धि करना। परन्तु नक्र्से इन कारकों को आर्थिक वृद्धि के लिए पर्याप्त नहीं समझता। 

उसके अनुसार, ‘‘आर्थिक वृद्धि बहुत हद तक मानवीय गुणों, सामाजिक प्रवृत्तियों, राजनैतिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक संयोगों से संबंध रखती है। वृद्धि के लिए पूंजी अनावश्यक तो है परन्तु उसके लिए केवल पूंजी का होना ही पर्याप्त नहीं है।’’ अत: राजनैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताएं आर्थिक वृद्धि के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि आर्थिक आवश्यकताएं।

आर्थिक विकास की अवधारणा

इस शताब्दी के मध्य तक अर्थशास्त्र में 'आर्थिक विकास' को अधिकतर 'आर्थिक संवृद्धि' के अर्थ में ही प्रयोग किया जाता था । परन्तु अब इन दोनों संकल्पनाओं में अन्तर किया जाता है । जहाँ । आर्थिक संवृद्धि को राष्ट्रीय या घरेलू उत्पाद या प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि के रूप में मापा जाता है वहां आर्थिक विकास में गुणात्मक पहलुओं पर भी विचार किया जाता है । अब केवल सकल घरेलू उत्पाद या सकल राष्ट्रीय उत्पाद तक सीमित न रहकर अर्थशास्त्री 'विकास प्रक्रिया' पर ध्यान केन्द्रित करने लगे हैं । इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब-उल-हक का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है- "विकास की प्रमुख समस्या गरीबी की सबसे भयानक किस्मों पर सीधा प्रहार करना है । गरीबी, भूखमरी, बीमारी, अशिक्षा, बेरोजगारी और असमानताओं जैसी समस्याओं के उन्मूलन को विकास के मुख्य लक्ष्यों में शामिल किया जाना चाहिए । आवश्यकता इस बात की है कि हम मुख्यतया गरीबी पर ध्यान केन्द्रित करें । इस माध्यम से सकल राष्ट्रीय उत्पाद को अपने आप उचित महत्व मिल जायेगा । दूसरे शब्दों में, अब सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर पर कम और उसकी संरचना पर अधिक ध्यान देना जरूरी है।""

विकास के अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में परम्परागत धारणा यह है कि आर्थिक विकास एक ऐसी स्थिति है जिसमें सकल राष्ट्रीय उत्पाद 5 से 7 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ता रहे और उत्पादन एवं रोजगार संरचना में इस प्रकार परिवर्तन हो कि उसमें कृषि का हिस्सा कम होता जाय और विनिर्माण क्षेत्र तथा तृतीय क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जाय । इस प्रकार इस विचारधारा के अन्तर्गत ऐसे कदम शामिल हैं जिससे कृषि के स्थान पर औद्योगीकरण की गति को तेज किया जा सके । गरीबी निवारण, आर्थिक असमानताओं में कमी और रोजगार के अवसरों में वृद्धि जैसे उद्देश्यों की मात्र चर्चा भर की जाती है और यह मान लिया जाता है कि सकल राष्ट्रीय या घरेलू उत्पाद में वृद्धि तथा प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि होने से बाकी उद्देश्यों अपने आप धीर-धीरे प्राप्त हो जायेगें ।

आठवें दशक में आर्थिक विकास की संकल्पना को पुनः परिभाषित किया गया और आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य गरीबी, असमानता और बेरोजगारी का निवारण रखा गया । इस दौर में पुनर्वितरण के साथ संवृद्धि का नारा दिया गया । इस सन्दर्भ में चार्ल्स पी० किण्डलवर्गर और ब्रूस हैरिक का यह कथन महत्वपूर्ण है- "आर्थिक विकास की परिभाषा प्रायः लोगों के भौतिक कल्याण में सुधार के रूप में की जाती है । जब किसी देश में खसकर नीची आय वाले लोगों के भौतिक कल्याण में बढ़ोत्तरी होती है, जन साधाण को अशिक्षा, बीमारी और छोटी उम्र में मृत्यु के साथ-साथ गरीबी से छुटकारा मिलता है । कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय न रहकर औद्योगीकरण होता है जिससे उत्पादन के स्वरूप में और उत्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाले कारकों के स्वरूप में परिवर्तन होता है । कार्यकारी जनसंख्या का अनुपात बढ़ता है और न आर्थिक तथा दूसरे किस्म के निर्णयों में लोगों की भागीदारी बढ़ती है तो अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदलता है और हम कहते हैं कि देश विदेश में आर्थिक विकास हुआ है ।"'
डडले सीयर्स ने आर्थिक विकास के अर्थ के विषय में कुछ बुनियादी सवाल उठाये हैं । वे कहते हैं कि किसी भी देश में आर्थिक विकास की प्रक्रिया की चर्चा करते समय जिन प्रश्नों पर ध्यान देना आवश्यक है वे हैं - क्या गरीबी के स्तर में कमी हो रही है ? क्या बेरोजगारी का स्तर कम हो रहा है? क्या अर्थव्यवस्था में असमानताएं कम हो रही है ? यदि इन तीनों प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास हुआ है । परन्तु इसमें से एक या दो अथवा सभी प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है तो इस स्थिति को आर्थिक विकास कहना अनुपयुक्त होगा चाहे फिर प्रति व्यक्ति आय दुगनी ही क्यों न हो जाय ।'

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आर्थिक विकास इस तरह एक ऐसी प्रकिया है जिसे सफल बनाने के लिए हर पिछड़ा देश आज कोशिश कर रहा है । आर्थिक विकास का वर्णन जिन सुन्दर लक्ष्यों के रूप में किया गया है वे हर अल्पविकसित देश को बड़े आकर्षक लगते हैं लेकिन व्यवहार में उन्हें हासिल कर पाना आसान नहीं है । लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के बहुत सारे देश पिछले 50 वर्षों से इस दिशा में लगातार कोशिशें करने के बावजूद इन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाने में बहुत अधिक सफल नहीं हो सके हैं ।

आर्थिक विकास के निर्धारक तत्व

प्रत्येक देश के आर्थिक विकास की पृष्ठभूमि में कुछ ऐसे तत्व विद्यमान होते हैं जिन पर उस देश का आर्थिक विकास निर्भर करता है। आमतौर से इन तत्वों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है-(अ) प्रधान चालक तत्व एवं अनुपूरक तत्व (ब) आर्थिक एवं गैर आर्थिक तत्व। प्रधान चालक अथवा प्राथमिक तत्व वे तत्व होते हैं जो उस देश के आर्थिक विकास के कार्य को प्रारम्भ करते हैं। विकास की नींव वास्तव में इन्हीं तत्वों पर रखी जाती है। प्रधान चालक तत्वों के माध्यम से जब विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है तो कुछ अन्य तत्व इनको तीव्रता प्रदान करते हैं। वास्तव में इन्हें ही अनुपूरक अथवा गौण अथवा सहायक तत्व कहा जाता है। इस प्रकार प्राथमिक तत्व विकास की आधारशिला हैं जबकि अनुपूरक तत्व, आर्थिक विकास को गति प्रदान करते हैं और इसे बनाये रखने में सहायक सिद्ध होते हैं।

प्रधान चालक तत्वों में प्राकृतिक साधन मानवीय साधन, कौशल निर्माण तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व संस्थागत तत्वों को सम्मिलित किया जाता है। इसके विपरीत अनुपूरक तत्वों में 1. जनसंख्या वृद्धि, 2. प्राविधिक विकास की दर, और 3. पूंजी निर्माण की दर मुख्य हैं। प्रधान चालक और अनुपूरक तत्वों के सापेक्षिक महत्व, वर्गीकरण व स्वरूपों के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियोंं में काफी मतभेद पाया जाता है। कुछ लोग प्रधान चालक तत्वों को महत्व प्रदान करते हैं। तो कुछ लोग सहायक तत्वों को।

1. प्रो0 हैरोड एवं डोमर ने आर्थिक विकास के चार सहायक तत्व माने हैं - 1. जनसंख्या वृद्धि की दर, 2. औद्योगिक विकास की दर, 3. पूंजी उत्पाद अनुपात, 4. बचत व आय का अनुपात।

2. श्रीमती जॉन राबिन्सन का मत है कि ‘‘आर्थिक विकास एक स्वत: प्रारम्भ होने वाली प्रक्रिया है इसलिये प्राथमिक तत्वों के विपरीत, अनुपूरक तत्वों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि विकास को अन्तिम रूप देने का उत्तरदायित्व इन्हीं तत्वों पर होता है।’’ उनकी दृष्टि में जनसंख्या एवं उत्पादन की दर का अनुपात और पूंजी निर्माण की दर, दो सहायक तत्व आर्थिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

3. प्रो0 शुम्पीटर ने ‘नव प्रवर्तन’ को आर्थिक विकास का आवश्यक तत्व माना है। नव प्रवर्तन से उनका अभिप्राय - 1. उत्पादन की विकसित तकनीकी का सूत्रपात, 2. नई वस्तुओं का उत्पादन,3.नये बाजारों का उपलब्ध होना, 4. उद्योगों में संगठन के नूतन स्वरूप तथा नये साधनों में प्रयोग आदि से है।

4. प्रो0 डब्ल्यू0 डब्ल्यू0 रोस्टोव - ने आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले दो महत्वपूर्ण गतिशील तत्वों - पूंजी संचयन एवं श्रम-शक्ति की ओर संकेत किया है। उनका कहना है कि इन दो तत्वों को निम्नलिखत छ: प्रवृत्तियां प्रभावित करती हे - 1. आधारभूत विज्ञान को विकसित करने की प्रवृत्ति, 2. आर्थिक उद्देश्यों में विज्ञान को लागू करने की प्रवृत्ति, 3. नवीन प्रवर्तनों की खोज व उन्हें लागू करने की प्रवृत्ति, 4. भौतिक प्रगति करने की प्रवृत्ति, 5. उपभोग वृत्ति तथा 6. सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा।

5. प्रो0 रिचार्ड टी0 गिल - के अनुसार आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व हैं-1.जनसंख्या वृद्धि,2. प्राकृतिक साधन, 3. पूंजी संचय, 4. उत्पादन में विशिष्टीकरण, 5. तकनीकी प्रगति। प्रो0 मायर एवं बाल्डविन का मत है कि यद्यपि आर्थिक विकास को बनाये रखने के लिये वांछित निर्धारक आर्थिक तत्वों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है, परन्तु वास्तविक रूप से इन्हें निम्न चार शीर्षकों में रखना अधिक उचित होगा :- 1. तकनीकी प्रगति एवं पूंजी संचय, 2.प्राकृतिक साधन, 3. जनसंख्या, 4. साधनों का लचीलापन।

आर्थिक एवं गैर आर्थिक तत्व

उपरोक्त वर्गीकरण के अलावा, निर्धारक तत्वों को आर्थिक एवं गैर आर्थिक आधार पर भी वर्गीकृत किया गया है। आर्थिक तथा गैर आर्थिक तत्वों की सूची इस प्रकार है :-

1. आर्थिक तत्व -
  1. प्राकृतिक साधन 
  2. मानवीय साधन 
  3. पूंजी संचय अथवा पूंजी निर्माण 
  4. उद्यमशीलता
  5. तकनीकी प्रगति एवं नव प्रवर्तन
  6. विदेशी पूंजी
2. गैर आर्थिक तत्व -
  1. सामाजिक एवं संस्थागत तत्व
  2. स्थित एवं कुशल प्रशासन
  3. अन्तर्राष्ट्रीय दशायें

आर्थिक विकास में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का योगदान

आर्थिक विकास, आर्थिक संवृद्धि और भारतीय नियोजन के संक्षिप्त इतिहास के पश्चात् प्रस्तुत अध्याय का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रस्तुत किया जा रहा है । आर्थिक विकास में अनेक घटकों एवं कारकों का योगदान होता है । अस्तु किसी एक कारक के योगदान को ज्ञात कर पाना अपेक्षाकृत कठिन होता है । यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक है कि रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया भारत सरकार के बैंक के रूप में कार्य करता है और यह प्रत्यक्ष रूप से न तो किसी को ऋण देता है और न ही जमा प्राप्त करता है । इसका कार्य बैंकिंग प्रणाली पर नियंत्रण करना है ताकि साख की सन्तुलित मात्रा बनी रहे और देश का चहुंमुखी विकास हो सके । भारत में योजनाओं के लिए वित्त की व्यवस्था सरकार की ओर से रिजर्व बैंक ही करता है ।

योजना के आरंभ के साथ ही भारत में नियोजन के युग का शुभारंभ हुआ । राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह आर्थिक विकास का महत्व बढ़ने पर रिजर्व बैंक के कार्यों में लगातार विस्तार हुआ है । वर्तमान समय में यह बहुत से ऐसे विकास सम्बन्धी एवं प्रवर्तन सम्बन्धी कार्य करता है जिसे पूर्व में केन्द्रीय बैंक के कार्यक्षेत्र से बाहर माना जाता था। कहने का तात्पर्य यह है कि अब रिजर्व बैंक के कार्य मुद्रा बाजार पर प्रतिबन्धात्मक नियंत्रण करने तक सीमित नहीं हैं। वह अब बचतों को बैंकों और दूसरी वित्तीय संस्थाओं के द्वारा उत्पादन कार्यों के लिए उपलब्ध करने के लिए आवश्यक प्रयास करता है । इस दृष्टि से प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि लोगों में बैंकिंग आदत का विकास हो । भारत में मुद्रा बाजार के असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर और महाजन ही रूपये का लेन देन करते रहे हैं । इनकी कार्यविधि दोषपूर्ण है तथा इनका मुख्य उद्देश्य ऋणी का शोषण करना रहा है । इनकी कोशिश यह कभी नहीं रही है कि ऋणी उधार ली गयी राशि का उत्पादन कार्यों के लिए प्रयोग करें। लोगों में बैंकिंग आदत बढ़े और बचतकर्ता आधुनिक क्षेत्रों के सम्पर्क में आयें, इस उद्देश्य से रिजर्व बैंक ने ग्रामीण और अपेक्षाकृत छोटे कस्बों में व्यापारिक बैंकों की शाखाएं खुलवाने की कोशिश की है । व्यापारिक बैंक ग्राहकों को नयी-नयी सुविधाएं भी देने लगे हैं । बैंकों के जमाकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से 1962 में जमा बीमा निगम की स्थापना में रिजर्व बैंक ने पहल की थी । बचतों को प्रोत्साहन के लिए रिजर्व बैंक के प्रयत्न और सक्रिय भागीदारी से 1964 में यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई थी ।

संस्थागत कृषि साख सुविधाओं का विस्तार करना रिजर्व बैंक का प्रारंभ से ही महत्वपूर्ण कार्य रहा है । वास्तव में यह उसकी स्थापना के समय से ही वैधानिक जिम्मेंदारी रही है लेकिन पिछले तीस वर्षों में रिजर्व बैंक का इस क्षेत्र में कार्य विशेष रूप से सराहनीय रहा है । अल्पकालीन साख की व्यवस्था के लिए सहकारी समितियों के विकास के अलावा दीर्घकालीन कृषि वित्त की व्यवस्था के लिए इसने 1963 में कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम की स्थापना की थी। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना होने पर कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम का उसमें विलय हो गया । यद्यपि कृषि वित्त की भांति संस्थागत औद्योगिक वित्त का विकास करना रिजर्व बैंक की वैधानिक आवश्यकता नहीं थी, लेकिन आयोजित विकास के सन्दर्भ में इस कार्य का विशेष महत्व है । किसी भी अल्पविकसित देश में औद्योगिक विकास बहुत जरूरी होता है। लेकिन इसके लिए अन्य कारकों के अलावा पूँजी की व्यवस्था बहुत आवश्यक होती है । जाहिर है कि व्यापारिक बैंक दीर्घकालीन साख प्रदान नहीं करते । इस तरह साख देने का कार्य औद्योगिक वित्त की विशिष्ट संस्थाओं का होता है । भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक इस तरह की कोई संस्था विद्यमान न थी । अतः रिजर्व बैंक ने संस्थागत औद्योगिक वित्त की व्यवस्था करने के उद्देश्य से भारतीय औद्योगिक वित्त निगम और राज्य वित्त निगमों की स्थापना में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की है। भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना तो रिजर्व बैंक की सहायता संस्था के रूप में हुई थी । 1976 में यह स्वायत्तशासी संस्था बन गया और इसका स्वामित्व भारत सरकार के हाथ में चला गया । राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना 12 जुलाई 1982 को हुई । इसकी आधी पूँजी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ने प्रदान की है ।

भारतीय रिजर्व बैंक साख और मुद्रा का नियंत्रक होने के साथ-साथ सरकार का सलाहकार भी है । आर्थिक विकास के सन्दर्भ में रिजर्व बैंक के सलाह सम्बन्धी कार्यों का महत्व और भी बढ़ गया है । अब वह भारत सरकार को वित्तीय मामलों के अतिरिक्त सामान्य आर्थिक मसलों पर भी उपयोगी सलाह देता है । इस प्रकार रिजर्व बैंक का विकास एवं आयोजन के संचालन में महत्वपूर्ण एवं उपयोगी भूमिका है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में आर्थिक विकास के प्रति चेतना पैदा हुई और 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना पर काम शुरू हुआ । इस

1 Comments

Previous Post Next Post