फासीवाद क्या है फासीवाद की विशेषताएं?

फासीवाद शब्द की उत्पत्ति इटालियन भाषा के शब्द ‘Fascio’’से हुई है। इसका अर्थ है-’लकड़ियों का बंधा हुआ गठ्ठा’। यह शब्द रोम में राजचिन्ह को दर्शाने के लिए प्रयोग किया जाता था। इसमें लकड़ियों के साथ एक कुल्हाड़ा भी रखा जाता था। लकड़ी का गट्ठा एकता का तथा कुल्हाड़ी राष्ट्रीय शक्ति का प्रतीक था। इटली में मुसोलिनी द्वारा इस चिन्ह को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाए जाने के कारण फासीवादी पार्टी द्वारा अपनाई जाने वाली विचारधारा को फासीवाद कहा जाने लगा।

मुसोलिनी ने फासीवाद का विकास किया और इसे अपने दल की विचारधारा बनाए रखा। उसने उदारवाद, लोकतन्त्र, साम्यवाद, व्यक्तिवाद का विरोध किया निरंकुशवाद, उग्र-राष्ट्रवाद, युद्धवाद, सर्वाधिकारवाद तथा पूंजीवाद का समर्थन किया। इसलिए फासीवाद से एक ऐसी व्यवस्था का बोध होता है जो लोकतन्त्र तथा उदारवाद का प्रबल विरोध करती है और उग्र राष्ट्रवाद, युद्धवाद, पूंजीवाद तथा सर्वसत्ताधिकारवाद का समर्थन करती है। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’फासीवाद वास्तविकता पर आधारित है, हम निश्चित तथा वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करना चाहते हैं। मेरा कार्यक्रम कार्य करना है, केवल बातें करना नहीं।’’ 

मुसोलिनी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हमारा लक्ष्य प्रत्येक कार्य द्वारा राज्य को शक्तिशाली बनाना है। इसलिए हम समय और वातावरण के अनुसार कुलीनतन्त्री भी हैं और लोकतन्त्रवादी भी, रूढ़िवादी भी हैं और प्रगतिवादी भी, प्रतिक्रियावादी भी हैं और क्रांतिकारी भी, नियमवादी भी हैं और नियम विरोधी भी। इससे स्पष्ट है कि फासीवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो अपने को मानव समाज के केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखती, बल्कि आर्थिक व सामाजिक क्षेत्रों में भी नए ढंग से संगठित करने के लिए प्रयास करती है। 

सी0डी0 बर्नस ने अपनी पुस्तक ‘Political Ideas’ में फासीवाद को परिभाषित करते हुए कहा है-’’फासीवाद एक ऐसा सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलन है, जिसे राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन करना है।’’ इबन्स्टीन ने फासीवाद को परिभाषित करते हुए कहा है-’’फासीवाद एक एकाधिकार प्राप्त दल द्वारा शासन तथा समाज का सर्वसत्ताधिकारवादी संगठन हे, जो अत्यधिक जातिवादी, राष्ट्रवादी, सैनिकवादी तथा साम्राज्यावादी है।’’

इस प्रकार कहा जा सकता है कि फासीवाद एक अवसरवादी विचारधारा है, जो प्रजातन्त्र, राजनीतिक दल, स्वतन्त्रता, समानता, समाजवाद आदि मानवीय मूल्यों के प्रश्नों का विरोध करती है और आवश्यकतानुसार उग्र-राष्ट्रवाद, जातीय श्रेष्ठता, परम्परावाद, युद्धवाद, निरंकुशवाद आदि का समर्थन करती है। इसलिए यह एक क्रमबद्ध सुव्यवस्थित राजदर्शन होकर ऐसे विचारों का योग है जो विभिन्न स्रोत से ग्रहण किए गए हैं और इसका उद्देश्य इटली की जनता का लोक-कल्याण था।

फासीवाद का उदय और विकास

फासीवाद का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के बाद इटली में हुआ। यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध से पहले भी इटली में फासीवाद के तत्व विद्यमान रहे हैं। 16वीं सदी में मैकियावेली ने भी इटली को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में विकसित करने का स्वप्न देखा था। 1861 में राजा विकटर इमैनुएल द्वारा भी ऐसा संगठित राष्ट्र के रूप में खड़ा करने का कार्य कोई नहीं कर सका। प्रथम विश्वयुद्ध में इटली ने मित्र राष्ट्रों का साथ दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद उसके विजयी मित्र राष्ट्रों ने न तो उसे युद्ध की लूट का हिस्सा दिया और न ही उपनिवेश दिए। इस तरह प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसके साथ बहुत बड़ा धोखा किया गया। प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने के कारण इटली की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाने लगी। देश में गृह-युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। उधर रुस में साम्यवादी अधिनायकतन्त्र स्थापित हो चुका था। फ्रांस में भी श्रमिक आन्दोलन शुरू हो चुका था। इटली की गणतन्त्रीय सरकार भी इस प्रकार के खतरे से भयभीत थी। इसलिए इस अराजकतापूर्ण वातावरण में इटली को सम्भालने वाले नेतृत्व की आवश्यकता थी। ऐसे समय में मुसोलिनी ने 1925 में गणतन्त्रीय सरकार को भंग करके इटली में फासीवादी दल की सरकार स्थापित की। 
23 मार्च, 1919 को स्थापित फासीवाद पार्टी को मुसोलिनी के नेतृत्व में अब अपनी नीतियां क्रियान्वित करने का पूरा अवसर प्राप्त हो गया। मुसोलिनी ने युद्धोत्तरकालीन दुर्दशा से इटली को बचाने का पूर्ण कार्य किया और इटली को फासीवाद बना दिया। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध से उत्पन्न विषम परिस्थतियों ने इटली में फासीवाद को जन्म दिया।

प्रथम विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्रों (जर्मनी, इटली, जापान) के पराजित होने के बाद उन पर वर्साय सन्धि की अन्यायपूर्ण शर्तें थोपी गई। अपने इस अपमान को बदला लेने के लिए इटली में मुसोलिनी ने फासीवादी ताकतों का विकास किया। उसके साथ ही जर्मनी में भी हिटलर ने फासीवादी व्यवस्था का ही विकास किया। यद्यपि हिटलर की विचारधारा को नाजीवाद कहा जाता है। लेकिन उसमें भी फासीवाद जैसे गुण थे। 

मुसोलिनी ने कहा कि इटली भव्य परम्पराओं वाला देश है और इसे अपना खोया हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान व सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था प्राप्त किए बिना चैन से नहीं बैठना है। इसके बाद फासीवाद इटली और जर्मनी की सीमाएं लांघकर पोलैण्ड, फ्रांस, स्पेन, हंगरी, आस्ट्रिया, यूनान पुर्तगाल आदि देशों में भी फैल गया। 1939 में स्पेन में जरनल फ्रांको ने फासीवादी शासन की स्थापना की। पुर्तगाल में पहले ही सालाजार का तानाशाही शासन स्थापित हो चुका था। 

जापान में भी यह विचारधारा 1932 से 1945 तक प्रबल रही। परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फासीवाद का प्रभाव कम होने लगा और आज फासीवाद को एक घृणित शब्द माना जाता है क्योंकि यह विवेकवाद, बुद्धिवाद, तक्रसंगतता, मानवीयता, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति, मानवीय मूल्यों आदि का घोर विरोधी है। आज का युग लोकतन्त्र का युग है। फासीवाद के लिए आज कोई भी देश स्वतन्त्रता तथा समानता जैसे मानवीय मूल्यों को तिलांजलि मोल नहीं दे सकता। 

आज फासीवाद को अपनाने का अर्थ है, युद्ध मोल लेना और अपना तथा अपनी प्रजा का जीवन संकट में डालना, यद्यपि कुछ देाों में फासीवाद के अवशेष अब भी विद्यमान हैं, लेकिन प्रजातन्त्रीय भावना के सामने उनका कोई अस्तित्व नहीं है।

फासीवाद की विशेषताएं

फासीवाद एक क्रमबद्ध सुव्यवस्थित विचारधारा नहीं है। यह आवश्यकतानुसार ग्रहण किए गए फासीवादी सिद्धान्तों का समूह है। फासीवाद का प्रतिपादन किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया गया है। इसमें समय-समय पर फासीवादी विचारधारा रखने वाले व्यक्तियों ने कुछ न कुछ नया जोड़ा है। इस आधार पर फासीवाद की प्रमुख विशेषताएं तथा सिद्धान्त हैं-

1. सर्वसत्तावादी तथा सर्वाधिकारवादी राज्य का समर्थक – फासीवादी राज्य को एक आध्यात्मिक व नैतिक सत्ता मानकर उसकी पूजा करते हैं। उनकी दृष्टि में राज्य ही भगवान है। मुसोलिनी का कहना है-’’फासीवाद एक धार्मिक अवधारणा है जिसके अन्तर्गत मनुष्य को एक श्रेष्ठतर कानून अथवा वस्तुपरक इच्छा के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसकी इच्छा में व्यक्ति की इच्छा भी विलीन है और वह उसे एक आध्यात्मिक समाज के सचेतन सदस्य की स्थिति प्रदान करती है।’’ इस दृष्टि से व्यक्ति राज्य के अधीन है और राज्य साध्य व व्यक्ति उसका एक साधन है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता का औचित्य राज्य के कानूनों के पालन करने तक ही सीमित है। राज्य से बाहर व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं है। फासीवादी नेता अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक बल देते हैं ताकि उनकी निरंकुशता कायम रह सके। 

फासीवादियों का विश्वास है कि जनसाधारण में न तो स्वशासन की योग्यता होती है और न ही वे राज्य के क्रियाकलापों में सक्रिय भागेदारी चाहते हैं। फासीवाद व्यक्तिवाद का विरोध करके समग्राधिकारीवादी राज्य का समर्थन करता है। फासीवादी संख्या के स्थान पर गुणों को महत्व देकर एक नेता की अधिनायकता में विश्वास करता है। 

फासीवादियों के अनुसार मानवीय या आध् यात्मिक मूल्य रखने वाली वस्तु का राष्ट्र हित के सामने कोई महत्व नहीं है, इसलिए वह व्यक्ति की सम्पूर्ण गतिविधियों पर राज्य रूपी संस्था का कठोर नियन्त्रण का समर्थक है। मुसोलिनी ने कहा है-’’राष्ट्र एक स्वावलम्बी इकाई है। इसलिए राष्ट्र के सम्पूर्ण साधन राज्य को गौरवपूर्ण बनाने के लिए प्रयुक्त होने चाहिए और व्यक्ति के मस्तिष्क में राष्ट्र की अभिवृद्धि का ही प्रधान विचार होना चाहिए।’’ 

मुसोलिनी ने इटली में तथा हिटलर ने जर्मनी में सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य की स्थापना करके वहां की समस्त जनता की गतिविधियों को अपने हाथों में लेकर राष्ट्र के प्रति असीम श्रद्धा का परिचय दिया। उन्होंने राष्ट्र-विरोधी तत्वों को सख्ती से कुचल दिया और वहां के मसीहा बन गए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि फासीवादी सर्वसत्ताधिकारवादी राज्य के समर्थक हैं।

2. उग्र-राष्ट्रवाद का समर्थन – फासीवाद राष्ट्र की उपासना करते हैं। उनकी दृष्टि से राष्ट्र ही साध्य है। उनकी दृष्टि में राष्ट्र एक निर्जीव समुदाय नहीं है, बल्कि समान भाषा, रीति-रिवाज, परम्परा, धर्म आदि के बन्धनों से एक सूत्र में बंधा हुआ, अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व, इच्छा शक्ति और विशेष उद्देश्य रखने वाला सजीव संगठन है। यह जनता के भाग्य का फैसला करता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति का कोई अलग महत्व नहीं है। व्यक्ति के अधिकार राज्य के आदेशों का पालन करने में ही निहित है। व्यक्ति को वही कार्य करने चाहिएं जिनसे राष्ट्र की शक्ति और गौरव में वृद्धि हो। उसे राष्ट्र हित में अपना सब कुछ बलिदान कर देना चहिए। 

मुसोलिनी ने स्वयं रेडिये व समाचारपत्रों द्वारा लोगों को अनेक अतीत का गौरवगाण कराया और उनमें जातीय श्रेष्ठता की भावना भरकर अपना खोया हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान दोबारा प्राप्त करने का आº्वान किया। अत: फासीवाद उग्र-राष्ट्रीयता में विश्वास व्यक्त करता है।

3. राज्य का सावयव रूप – फासीवादियों के अनुसार राज्य एक व्यक्तियों का समूह मात्र न होकर, पृथक शरीर का स्वामी है। जिस प्रकार अलग-अलग अंगों के होने पर भी शरीर अपना अलग स्वतन्त्र अस्तित्व होता है, उसी तरह राज्य का भी अपना अलग अस्तित्व है। जिस प्रकार शरीर की रक्षा के लिए किसी गलत अंग को काट दिया जाता है, उसी तरह राज्य रूपी शरीर की रक्षा के लिए मनुष्य सभी अंग को बलिदान किया जा सकता है, जिस प्रकार शरीर से पृथक किसी अंग का कोई महत्व नहीं होता, उसी तरह राज्य से बाहर व्यक्ति का कोई महत्व नहीं है। राज्य से बाहर व्यक्ति की कोई स्वतन्त्रता या अधिकार नहीं है। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक व्यक्ति राज्य के अन्तर्गत एवं राज्य के लिए है, राज्य के बाहर या उसके विरूद्ध कोई नहीं हो सकता।’’ इस तरह फासीवादी राज्य को एक सम्पूर्ण सावयिक इकाई मानते है, जिसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और व्यक्ति उसके अधीन है।

4. अतर्कवाद व अबुद्धिवाद में विश्वास – फासीवादी तर्क व बुद्धि का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि प्राय: व्यक्ति बुद्धि की अपेक्षा भावना से काम लेता है। व्यक्ति बुद्धिवाद एवं तर्क के आधार पर कभी भी सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। उसे अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए तर्क व बुद्धि से परे भी जान पड़ता है। मुसोलिनी ने कहा है-’’हमने अपना रहस्य उत्पन्न किया है। यह रहस्य विश्वास है, यह एक भावना है। इसका वास्तविक होना जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी यह एक वास्तविकता है, क्योंकि यह एक प्रेरक है, एक आशा है, एक विश्वास है तथा एक साहस है। हमारा रहस्य राष्ट्र है, हमारा रहस्य राष्ट्र की महानता है।’’ फासीवादियों ने इसी निष्ठा के आधार पर राष्ट्र का उत्थान किया। 

मुसोलिनी का कहना था कि प्रत्येक इटलीवासी को राष्ट्रीय उत्थान के लिए हर समय कार्य करते रहना चाहिए और कार्यों को बिना तर्क के लागू करना चाहिए। 

उसका कहना था कि बुद्धि और तर्क की अपेक्षा यह काल्पनिक विश्वास ही सफलता का यन्त्र है।’’ उसने लिखा है-’’हमारी अन्य श्रद्धा ही हमारा राष्ट्र है। यह विश्वास ही पर्वतों को हिला सकता है, तर्क नहीं।’’ इस प्रकार फासीवादी तर्क-वितर्क की अपेक्षा विश्वासपूर्वक कार्य करते रहने को ही प्राथमिकता देते हैं। फासीवादियों का यही सिद्धान्त उनके तानाशाही शासन को स्थायित्व प्रदान करता है।

5. एक व्यक्ति के शासन और तानाशाही में विश्वास – फासीवादी विचारधारा का मानना है कि अधिकतर व्यक्ति शासन करने के अयोग्य होते हैं। शासन की योग्यता तो थोड़े ही व्यक्तियों में होती है। इसलिए योग्य व्यक्तियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अज्ञानी व मूर्ख व्यक्तियों का पद-प्रदर्शन करते हुए उन पर शासन करें। उनके हाथ में शासन की बागड़ोर आने से जनता को उनकी योग्यताओं का पूरा लाभ प्राप्त होता है। हिटलर तथा मुसोलिनी ने इसी सिद्धान्त का प्रचार करके जर्मनी व इटली में अपनी निरंकुश सत्ता स्थापित की। 

मुसोलिनी ने इटली में फासीवादी दल की अधिनायकता स्थापित करके वहां का शासन पूरी तरह अपने हाथ में लिया। वहां की जनता यह विश्वास करने लग गई थी कि जो कुछ मुसोलिनी कहता है या करता है, वही सत्य है।

इटली व जर्मनी में फासीवाद समर्थक व्यक्तियों ने देशभक्ति, अन्धश्रद्धा आदि का प्रचार करके मुसोलिनी व हिटलर की निरंकुशता को मजबूरी प्रदान की। इन देशों में इन दोनों की देवताओं की तरह पूजा होने लगी। जिसने भी उनका विरोध करने का साहस किया, वे मौत के घाट उतार दिए गए। धीरे-धीरे हिटलर व मुसोलिनी ने राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था पर कब्जा कर लिया।

6. प्रजातन्त्र का विरोध – फासीवाद लोकतन्त्र का घोर विरोधी है। उसकी दृष्टि में प्रजातन्त्र मूर्ख व भ्रष्ट व्यक्तियों का शासन है। उनका कहना है कि लोकतन्त्र एक मरणासन्न शव है जो पूरी तरह सड़ चुका है। उनकी नजर में संसद बातों की दुकान है। मुसोलिनी ने कहा है-’’लोकतन्त्र थोड़े-थोड़े समय बाद चुनावों के समय लोगों को झूठी सम्प्रभुता का आश्वासन देने का साधन है।’’ मुसोलिनी ने तत्कालीन इटली में लोकतन्त्र की दुर्दशा के बारे में कहा है-’’इटली की संसद एक जहरीला फोड़ा है, यह समुचे राष्ट्र के रक्त को दूषित कर रहा है, अत: इसका तुरन्त नाश होना चाहिए।’’ फासीवादियों की दृष्टि में प्रजातन्त्र काल्पनिक व अव्यवहारिक शासन व्यवस्था है। उनका कहना है कि लोकतन्त्र समानता व बहुमत के सिद्धान्त पर आधारित है। प्रकृति ने सभी को असमान बनाया है तो समानता की बात करना मूर्खता है। इसी प्रकार शासन करने के गुण थोड़े व्यक्तियों में ही होते हैं, इसलिए लोकतन्त्र मूर्खों का शासन है। 

फासीवादी लोकतन्त्र के स्थान पर एक व्यक्ति की तानाशाही का समर्थन करते हैं। उनका नारा है-’’विश्वास रखो, आज्ञा पालन करो और लड़ो!’’ उनका मानना है कि लोकतन्त्र पूंजीपतियों का शासन है। इसलिए वह कभी भी आम व्यक्ति का भला नहीं कर सकता।

7. उदारवाद का विरोध – उदारवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता और अधिकारों पर जोर देता है। फासीवादी अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर अधिक बल देते हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति की सच्ची स्वतन्त्रता तो राज्य के आदेशों का पालन करने और राष्ट्र-भक्ति में है। उदारवादियों द्वारा लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली का समर्थन किए जाने का भी फासीवादी विरोध करते हैं। उनका कहना है कि शासन की बागड़ोर योग्य व्यक्तियों के हाथों में ही ठीक रहती है। जनता को शासन से दूर रहने में भी भलाई है। इसी तरह फासीवादी आर्थिक उदारीकरण के भी विरोधी हैं। उनका मानना है कि आर्थिक उदारीकरण राष्ट्र हित में नहीं होता। इससे शोषण व आर्थिक असमानता को बढ़ावा मिलता है। इसलिए आर्थिक साधन भी राज्य के नियन्त्रण में ही रहने चाहिए। इस तरह फासीवादी उदारवाद के विरोधी हैं।

8. समाजवाद का विरोध – फासीवादी समाजवाद व साम्यवाद के घोर विरोधी हैं। समाजवाद समानता पर जोर देता है। असमानता प्रकृति की देन है। इसलिए समानता के प्रयास करना मूर्खता है। यह प्रकृति का नियम है कि योग्य अयोग्य पर शासन करे। उसे वर्ग संघर्ष की बात भी अमान्य है, क्योंकि विभिन्न वर्गों में सहयोग व समन्वय के द्वारा ही सामाजिक व्यवस्था कायम रह सकती है। वे राज्य विहीन समाज की अवधारणा को भी काल्पनिक मानते हैं। फासीवादियों का कहना है कि सहयोग व समन्वय ही प्रगति का आधार है। भौतिक प्रगति व्यक्ति को पशुवत् बना देती है। साम्यवादियों द्वारा भौतिकवाद को अधिक महत्व देना मनुष्य के सर्वांगीण विकास बाधा पहुंचाने वाला है। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’आर्थिक समृद्धि मनुष्य को उन पशुओं के समान बना देगी, जिन्हें अपना पेट भरने के सिवाय और कोई काम नहीं होता।’’ इसलिए वह मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए साम्यवाद को अमान्य करता है। वह पूंजीपतियों व श्रमिकों को सहयोग के आधार पर कार्य करने को कहता है ताकि इटली की अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित किया जा सके।

9. व्यक्तिवाद का विरोध – फासीवादी व्यक्ति को एक साधन मानते हैं। मुसोलिनी का कहना है-’’सब कुछ राज्य के अन्दर है, कोई भी राज्य से बाहर नहीं है और न कोई राज्य का विरोध कर सकता है।’’ फासीवाद राज्य को सम्प्रभु मानकर उसकी पूजा करता है। उसका विश्वास है कि राज्य की इचछा को ही अपनी इच्छा मानने से व्यक्ति अपनी तथा अपनी संस्कृति व सभ्यता का विकास कर सकता है। इसलिए व्यक्ति को साधन बनकर राज्य रूपी साध्य के लिए ही कार्य करना चाहिए। यदि व्यक्ति को राष्ट्र-हित में अपने प्राण भी देने पड़े, संकोच नहीं करन चाहिए। व्यक्ति को राज्य की उपेक्षा करने का कोई अधिकार नहीं है। व्यक्ति के सभी अधिकार और स्वतन्त्रताएं राज्य के भीतर ही हैं। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’श्रमिकों को अपने वेतन बढ़वाने के लिए किसी प्रकार की हड़ताल या अन्य उपद्रवी साधनों के प्रयोग का अधिकार नहीं है।’’ फासीवादी व्यक्ति के अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर जोर देकर व्यक्तिवाद का विरोध करते हैं।

10.  साम्राज्यवाद तथा सैनिकवाद का समर्थन – फासीवादी राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए युद्ध को अनिवार्य मानते हैं। उनका कहना है कि युद्ध खोई हुई प्रतिष्ठा प्राप्त कराने का साधन है। इसमें अयोग्य व निर्बल राष्ट्रों का सफाया हो जाता है और योग्य व्यक्तियों को ही जीने का अधिकार प्राप्त होता है। इससे साहस, त्याग, बलिदान जैसे गुणों का विकास होता है और राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि होती हैं इसके द्वारा शक्तिशाली राष्ट्र को साम्राज्यवाद का विस्तार करने के अवसर प्राप्त होते हैं और राष्ट्र की आत्मा उन्नत होती है। 

मुसोलिनी ने राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के लिए युद्ध को अनिवार्य मानकर साम्राज्यवाद की नीति का पालन किया। उसने कहा है-’’इटली का विकास एक जीवन तथा मृत्यु का प्रश्न है। इटली का प्रसार होना चाहिए या उसे मर जाना चाहिए।’’ इस तरह मुसोलिनी ने सैन्यवाद तथा साम्राज्यवाद की नीति का प्रसार करके विश्व शांति को धक्का पहुंचाया। उसकी यह नीति द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बनी। उसने इथोपिया पर आक्रमण किया और साम्राज्यवाद का प्रसार किया। इस प्रकार फासीवाद साम्राज्य का समर्थक है और विश्व शांति का विरोधी है। साम्राज्यवाद और विश्व शांति सर्वथा एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। इनमें कभी तालमेल नहीं हो सकता।

11. धर्म और चर्च में विश्वास – फासीवाद एक अवसरवादी विचारधारा है। प्रारम्भ में तो फासीवदियों का धर्म में कोई विश्वास नहीं था। लेकिन उन्होंने जब यह महसूस किया कि धार्मिक विश्वास के बिना उनके राष्ट्रवाद का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता तो मुसोलिनी ने धार्मिक नेताओं के साथ 1929 में समझौता करके धार्मिक समर्थन भी प्राप्त कर लिया। इस तरह फासीवादी धर्म और चर्च में अपना गहरा विश्वास व्यक्त करते हैं। वे संस्कृति व सभ्यता के विकास में धर्म को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं।

मुसोलिनी ने माक्र्सवादियों के धर्म विरोधी विचारों की निन्दा की और कैथोलिक धर्म को राजधर्म घोषित किया। इससे उसकी निरंकुश सत्ता को पोप व जनता का औचित्यपूर्ण धार्मिक समर्थन मिल गया। इसी तरह जर्मनी में हिटलर ने जर्मन जाति व धार्मिक विश्वासों को महत्व देकर अपनी बैठ बनाई।

12. अन्तर्राष्ट्रीयता का विरोध – फासीवादी राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक हें। उनका जातीय श्रेष्ठता में गहरा विश्वास है। हिटलर ने जर्मन जाति को विश्व की श्रेष्ठ जाति मानकर यहूदियों पर अमानवीय अत्याचार किए और मुसोलिनी ने भी गैर-इटली की जातियों को कुचल दिया। उनका विश्वास था कि एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र से कोई मेल नहीं है। प्रभुसत्ता राष्ट्र के पास होती है, राष्ट्रों के समूह के पास नहीं। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’अन्तर्राष्ट्रीय शांति या व्यवस्था की बात केवल वही राष्ट्र करते हैं जो अन्य राष्ट्रों के साथ संघर्ष और प्रतियोगिता में असफल रहते हैं।’’ फासीवादियों की दृष्टि में स्वराष्ट्र हित सर्वोपरि है। वे इस परम साध्य के लिए कोई भी सीमा लांघ सकते हैं। मुसोलिनी ने उग्र-राष्ट्रवाद को महत्व देकर अन्तर्राष्ट्रीय शांति को भंग किया था और इसी कारण द्वितीय विश्व युद्ध हुआ था।

13. परम्परावाद का समर्थन – फासीवादी इतिहास व परम्परा को बहुत महत्व देते हैं। मुसोलिनी ने सत्ता प्राप्त करने के बाद लोगों को कहा कि ‘‘इटली गौरवपूर्ण परम्पराओं वाला देश है। हमें इसे फिर से खोई हुई अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलानी है।’’ उसका विश्वास था कि अतीत का गौरवपूर्ण गुणगान करके ही लोगों को एक मंच पर संगठित किया जा सकता है और शासन सत्ता को स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है। इसलिए उसने परम्पराओं का गुणगान किया और इटली के गौरवमयी इतिहास से इटली की जनता को अवगत कराया। इसी तरह हिटलर ने जर्मनी में जर्मन जाति के गौरवपूर्ण इतिहास का वास्ता दिलाकर विकास करने का आवाहन किया।

14. निगमनात्मक राज्य का समर्थन – फासीवादियों के अनुसार राज्य व्यक्तियों का निर्जीव समूह नहीं है, अपितु विभिन्न आर्थिक कार्य करने वाले संघों या निगमों का सजीव समुदाय है। व्यक्ति इन संघों में शामिल होकर अपने कर्त्तव्यों को पूरा करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यवसाय के अनुसार सम्बन्धित व्यवसाय के निगम का सदस्य होता है। ये निगम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी क्षेत्रों में होते हैं। ये सभी राज्य के अधीन कार्य करते हैं। इटली में मुसोलिनी ने निगमनात्मक राज्यों के द्वारा उत्पादन में वृद्धि की, कीमतों को स्थिर व कम किया तथा पूंजीपतियों तथा श्रमिकों में संघर्ष को दूर किया, परन्तु ये नियम स्वायत्तशासी नहीं थे, बल्कि इन पर राष्ट्रीय सत्ता का पूरा नियन्त्रण था। ये निगम इटली के विकास में नींव का पत्थर साबित हुए।

15. फासीवादी अर्थव्यवस्था – फासीवादी ऐसी अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं जो न तो निजी क्षेत्र के प्रभुत्व वाली है और न ही समाजवादी। फासीवादी केवल राष्ट्रीय महत्व के उद्योगों का ही राष्ट्रीयकरण चाहते हैं, बाकी को निजी हाथों में सौंप देना चाहते हैं, उनका कहना है कि इस प्रकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था में पूंजीपति व श्रमिक राष्ट्र की उन्नति के लिए ही कार्य करेंगे। पूंजीपति या मजदूर वर्ग को किसी भी रूप में राष्ट्रीय अहित की आज्ञा नहीं दी जाएगी। पारस्परिक विवाद संघों के द्वारा हल किए जाएंगे। यदि इनसे विवाद हल नहीं होंगे तो फासिस्ट न्यायालयों द्वारा इन्हें हल किया जाएगा। उत्पादन का लक्ष्य राष्ट्रीय आवश्यकता को पूरा करना होगा। उत्पादन क्रिया पर राज्य का पूरा नियन्त्रण रहेगा ताकि राष्ट्रीय विकास का लक्ष्य प्राप्त हो सके और पटरी से उतरी हुई अर्थव्यवस्था को फिर से उसी दशा में लाया जा सके। 

मुसोलिनी ने कहा है-’’सम्पूर्ण उत्पादन व्यवस्था राज्य के नियन्त्रण में होगी और सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप ही संचालित होगी।’’ 
इस प्रकार कहा जा सकता है कि फासीवाद एक ऐसा दर्शन है जो वास्तविकता पर आधारित है। मुसोलिनी ने स्वयं कहा था कि हम समय, स्थान और वातावरण के अनुसार कुछ भी हो सकते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इटली व जर्मनी के सामने प्रमुख समस्या आर्थिक विकास की थी। वहां पर राजनीतिक अस्थिरता का जो माहौल बना हुआ था, उसे दूर करने के लिए एक ऐसे ही कार्यक्रम की आवश्यकता थी, जो फासीवादियों द्वारा चलाया गया। यदि मुसोलिनी उग्र-राष्ट्रीयता को बढ़ावा न देता और इटली के गौरवमयी इतिहास की बात जनता के समाने न रखता तो इटली के लोगों को संगठित करना वा उनका विश्वास जीतना उसके लिए असम्भव था। इसलिए जिस प्रकार की निरंकुश शासन-व्यवस्था उसने कायम की, वह तत्कालीन परिस्थितियों की मांग थी। 

मुसोलिनी तथा हिटलर द्वारा दिए गए सभी सुझाव व कार्यक्रम तत्कालीन परिस्थितियों में सही थे और समस्त फासीवादी कार्यक्रम भी औचित्यपूर्ण थे। लेकिन आगे चलकर कई देशों में फासीवाद का विकृत रूप उभरने लगा और इससे जनता को बहुत हानि हुई। जब फासीवादी आन्दोलन एक आवश्यकता न रहकर संकीर्ण स्वार्थ सिद्धियों का साधन बन गया तो इसकी सर्वत्र निन्दा होने लगी और फासीवाद शासन के अन्त के साथ ही फासीवादी विचारधारा भी अलोकप्रिय होती गई। आज फासीवाद के कुछ न कुछ तत्व कई देशों की शासन व्यवस्थाओं में अवश्य विद्यमान हैं, लेकिन उनका अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में कोई विशेष महत्व नहीं है। इराक के फासीवादी शासन तथा तालिबान के अफगानिस्तान में शासन के तानाशाही तत्वों को अमेरिका ने जिस कदर मिटा दिया हे, उससे फासीवाद के अन्त के लक्षण स्पष्ट तौर पर उभरे हैं। अत: फासीवाद एक घृणास्पद विचारधारा है। इसका तत्कालीन समय में तो महत्व हो सकता है, आज नहीं।

फासीवाद की आलोचनाएं

फासीवाद एक उग्र-राष्ट्रीयता पर आधारित विचारधारा है। यह हिंसा और युद्ध का समर्थन करके विश्व शान्ति के लिए सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न करती है। आज का युग विश्व-शान्ति की कामना का युग है। दो विश्व युद्धों में मानव जाति को अहिंसात्मक साधनों के प्रति निष्ठावान बना दिया है। आज समस्त विश्व समाज का बुद्धिजीवी वर्ग फासीवादी ताकतों से घृणा करता है। फासीवाद एक अल्पकालीन विचारधारा है। इसका जन्म प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही हुआ और इसी दौरान फासीवादी ताकतों का सफाया भी हो गया। लेकिन फासीवाद के अवशेष आज भी कहीं न कहीं अवश्य विद्यमान हैं। यद्यपि फासीवाद में देशप्रेम, न्यायोचित आर्थिक व्यवस्था एवं नागरिकों के कर्त्तव्यों पर बल दिया जाता है। आज लोकतन्त्रीय भावनाओं की जो दुर्दशा हो रही है, उसे देखते हुए फासीवाद एक सर्वोत्तम व्यवस्था लगती है। लेकिन फिर भी इसे अमान्य किया जाता है। इसकी आलोचना के प्रमुख आधार हैं-

1. विश्वशान्ति का शत्रु – फासीवाद युद्ध और हिंसा का प्रबल समर्थन करता है। युद्ध राजनेताओं की तो महत्वाकांक्षाएं पूरी कर सकता है, आम जनता की नहीं। युद्ध की नीति किसी भी देश को विनाश के रास्ते पर ले जाती है। साम्राज्यवादी युद्ध सदैव खतरनाक होता है। शक्ति का प्रसार आम जनता की भावनाओं का गला घोंट देता है। इसे सह-अस्तित्व की भावना का ह्रास होता है। इससे विश्व मानवता के कल्याण का स्वप्न कभी पूर नहीं हो सकता। युद्ध में निर्दोष लोगों का भी नुकसान होता है। इससे अनैतिकता को बढ़ावा मिलता है। साम्राज्यवादी युद्धों का प्रबल समर्थन होने के नाते मुसोलिनी ने जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी आकाक्षांए पूर्ण की थी, उनसे दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत हुई थी और विश्व शान्ति भंग हुई थी। इसलिए साम्राज्यवाद का समर्थक होने के नाते फासीवाद अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों व समझौतों के खिलाफ है। अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों का पालन किए बिना विश्व कभी सुख की कामना नहीं कर सकता। अत: फासीवाद विश्व शान्ति का प्रबलतम शत्रु है।

2. लोकतन्त्रीय आस्थाओं पर प्रहार – फासीवाद स्वतन्त्रता, समानता, सामाजिक न्याय, भ्रातृत्व आदि लोकतन्त्रीय मान्यताओं का विरोधी है। इसमें व्यक्ति की स्वतन्त्रता राज्य के आदेशों का पालन करने तक सिमटकर रह जाती है और उसका राष्ट्र हित के नाम पर अधिनायक की इच्छा के लिए बलिदान कर दिया जाता है। फासीवाद लोकतन्त्र की मूर्खों का शासन बताकर अपना निरंकुश शासन स्थापित करके लोकतन्त्रीय आस्थाओं का जनाजा निकाल देते हैं। इस सर्वाधिकारवादी व्यवस्था में लोकतन्त्रीय मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता। फासीवाद असमानता को प्रकृति का गुण मानकर समानता का विरोध करता है। लेकिन स्वतन्त्रता व समानता एक उन्नत व सभ्य समाज की आवश्यक पहचान होती है। आज को लोकतन्त्रीय युग में इन्हें बहुत महत्व दिया जाता है। स्वतन्त्रता और समानता लोकतन्त्र का आधार है। अत: इनकी उपेक्षा अनुचित है।

3. राज्य साध्य न होकर साधन है – फासीवाद राज्य को साध् य मानकर उसके लिए व्यक्ति की समस्त इच्छाओं का बलिदान कर देते हैं। इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का कभी स्वतन्त्र विकास नहीं हो सकता। मनुष्य एक चिन्तनशील सामाजिक प्राणी है। वह अपने समाज के हित व अहित को अच्छी तरह जानता है। उसका कल्याण ही समाज का कल्याण है। आधुनिक राज्य का उद्देश्य व्यक्ति व समाज का अधिकतम कल्याण करना है। राज्य व्यक्ति की इच्छा का परिणाम है। राज्य व्यक्ति की इच्छा के लिए कार्य करने का एक उत्तम साधन है। लेकिन फासीवादी व्यक्ति को एक मशीन बनाकर उसे राज्य के लिए बलिदान कर देते हैं। उसकी सिथति दास जैसी हो जाती है। फासीवादी यह बात भूल जाते हैं कि राज्य एक कल्याणकारी संस्था है। जिसका उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करने में योगदान देना है। इसलिए फासीवादियों द्वारा राज्य को साध्य मानना गलत है।

4. फासीवाद अधिनायकवाद को बढ़ावा देता है – फासीवाद एक ऐसी तानाशाही व्यवस्था है जो शक्तियों के केन्द्रीयकरण द्वारा स्वेच्छाचारिता को बढ़ावा देती है। इसमें व्यक्ति की इच्छा का राष्ट्र के प्रति अन्य श्रद्धा के नाम पर बलिदान कर दिया जाता है। इसमें अधिकार नाम की कोई वस्तु नहीं होती। व्यक्ति की समस्त गतिविधियों पर राज्य व उसपर शासन करने वाले निरंकुश शासक का निमन्त्रण बना रहता है। व्यक्ति की समस्त स्वतन्त्रताओं को कुचलकर जिस प्रकार तानाशाही शासक व्यवहार करता है, उससे मानव समाज को हानि ही पहुंचती है। इससे विश्व शांति को खतरा उत्पन्न होता है। शासक की तानाशाही नीति जनता के आक्रोश का कारण बनती है। इस प्रकार के शासन का समय लम्बा नहीं होता। इटली व जर्मनी में अल्पकाल में ही तानाशाही व्यवस्थाएं समाप्त हो गई थी।

5. फासीवाद कला और विज्ञान की प्रगति में बाधक है – कला और विज्ञान का विकास विचार-स्वातन्त्रय पर निर्भर करता है। फासीवाद राज्य में शिक्षा, कला एवं साहित्य पर कठोर नियन्त्रण रहता है। व्यक्ति की विचार-स्वतन्त्रता पर राज्य का अंकुश लगा रहता है। क्रोकर ने कहा है-’’राष्ट्र के सार्वजनिक तथा सांस्कृतिक जीवन को केन्द्रीयकृत कर दिए जाने पर उच्च ज्ञान, साहित्य तथा कला के विकास की सम्भावना लुप्त हो जाती है।’’ साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शन आदि का स्वस्थ विकास तो तभी सम्भव है, जब समाज राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में शांतिपूर्ण जीवन जीने की स्थिति में हो। फासीवाद के निरंकुश शासन के होने के कारण व्यक्ति व समाज की समस्त गतिविधियों पर राज्य का कठोर नियन्त्रण बना रहने के कारण कला, साहित्य और विज्ञान का विकास होना असम्भव होता है। अत: फासीवाद व्यवस्था कला और विज्ञान के विकास में बाधक है।

6. फासीवादी अर्थव्यवस्था जन कल्याण के विरूद्ध है – फासीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन का लक्ष्य राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। वास्तव में यह अधिनायकवादी शासक की ही इच्छाओं की पूर्ति करती है। इसमें पूंजीवाद का पोषण होता है और श्रमिकों का अहित होता है। फासीवाद श्रमिकों से हड़ताल का अधिकार भी छीन लेते हैं, ताकि वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज भी न उठा सके। फासीवाद श्रमिकों की स्वतन्त्रता को छीनकर पूंजीपतियों की ही तरफदारी करते हैं। इस दृष्टि से फासीवादी अधिनायकवाद पूंजीवाद का ही उन्नत रूप है। इसी तरह इसमें आम जनता की आवश्यकताओं की वस्तुओं का उत्पादन करने की बजाय राष्ट्रीय महत्व की वस्तुओं का निर्माण करके जनकल्याण की उपेक्षा ही की जाती है। इस तरह फासीवाद समाजवाद का भी विरोधाी है। यह पूंजीपतियों तथा उद्योगपतियों के व्यक्तिगत लाभ को राष्ट्रीय हित के लिए विनियोजित कराकर निजी उद्योगों को ही बढ़ावा देता है। ऐसी स्थिति में न तो श्रमिकों का भला हो सकता है और न आम जनता का।

7. फासीवाद एक अवसरवादी विचारधारा है – फासीवाद का कोई अपना निश्चित सिद्धान्त या दर्शन नहीं है। यह समय-समय पर विभिन्न फासीवाद विचारधारा रखने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त किए गए सिद्धान्तों का समूह है, जो अवसरवादिता का समर्थन करती है। इसका आधार लोहे और टीन की हथकड़ियां हैं। सेबाइन ने लिखा है-’’फासीवाद हीगलवादी राष्ट्रवाद, प्लेटो के कुलीनतन्त्रवाद तथा बर्गसन के अविवेकवाद को संयुक्त कर इनको व्यावहारिक रूप में लागू करने में सफल रहा है।’’ यह एक ऐसा दर्शन है जो गिरगिट की तरह तथा बहुरुपिए की तरह अपना रंग बदलता है और भेष बिगाड़ता रहता है। इसमें परस्पर विरोधी तत्वों को जोड़कर राष्ट्र हित के नाम पर प्रयोग किया जाता है। यह मैकियवेली की अवसरवादी नीति का पूर्ण पालन करता है। इस प्रकार की अवसरवादिता विश्व समाज के विकास में बाधक होती है। इससे अस्वरूप परम्पराओं का जन्म होता है और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिलता है। अत: अवसरवादिता की नीति अव्यावहारिक व असंगत है।

8. फासीवाद शक्ति का दर्शन है – फासीवाद युद्ध व हिंसा के प्रबल समर्थक हैं। उनकी दृष्टि में शक्ति ही राज्य का आधार है। मुसोलिनी ने स्पष्ट कहा था कि या तो इटली को प्रसार करना चाहिए या मर जाना चाहिए। फासीवाद किसी भी विरोधी को शक्ति द्वारा कुचल देने के प्रबल समर्थक है। उनके शासन का आधार जन इच्छा न होकर व्यक्ति ही है। वे शक्ति द्वारा ही अपनी शासन व्यवस्था कायम रखते हैं और शासन करते हैं। उनके दर्शन में उदारता जैसी कोई वस्तु नहीं है। शक्ति के उपासक होने के कारण मुसोलिनी तथा हिटलर का अनिवार्य प्रसाार मानव जाति के लिए घातक हो जाता है। शक्ति पर आधारित शासन व शासक दोनों का अन्त अवश्यम्भावी है। फेरेरो ने लिखा है-’’एक शक्ति जिसका निर्माण करती हे, दूसरी शक्ति उसका अन्त कर देती है।’’ शक्ति का दर्शन सभ्य मानव समाज के लिए ठीक नहीं हो सकता। आज का सभ्य समाज इसका विरोध करता है।

9. धर्म और राजनीति को मिलाना गलत है – फासीवादी धर्म और राजनीति को एक करके मनुष्य की राजनीतिक चेतना का ह्रास करते हैं। यह एक रूढ़िवादी समाज की निशानी है, प्रगतिशील समाज की नहीं। प्रगतिशील समाज सदैव राजनीति को धर्म से दूर ही रखता है। राजनीति में धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाया जाना एक सभ्य समाज की निशानी है। पाकिस्तान में धर्म द्वारा राजनीति का मेल भारत जैसे प्रगतिशील राष्ट्र के लिए भी खतरा है। भारत में धर्म को राजनीति से दूर रखकर प्रगतिशील समाज की स्थापना की गई है। धार्मिक उन्माद सदैव ही सामाजिक विघटन के कारण रहे हैं। इसलिए राजनीति में धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण ही अपनाया जाना चाहिए।

10. फासीवाद व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक है – फासीवाद व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन करता हैं वह अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्यों पर बल देता है। इससे व्यक्ति सृजनात्मकता का भी ह्रास होता है और व्यक्ति को उचित वातावरण न मिलने के कारण उसके व्यक्तित्व का विकास भी रूक जाता हैं मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों का होना जरूरी है। आज संसार के प्रत्येक देश को नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। फासीवाद अधिकारों के नाम पर कर्त्तव्यों को थोपकर व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास में बाधा पहुंचाता है। अधिकार और कर्त्तव्य एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। दोनों का समुचित रूप से होना व्यक्ति के विकास का सूचक है। फासीवादियों ने व्यक्ति के अधिकारों को छीनकर उसके व्यक्तित्व का नाश किया जाता है।

11. युद्ध व हिंसा का समर्थन – फासीवाद युद्ध और हिंसा में गहरा विश्वास रखते हैं। उनके इसी विश्वास ने विश्व समाज को द्वितीय विश्व युद्ध की आग में झोंक दिया था। युद्ध और हिंसा सभ्यता का पतन करती है, विकास नहीं। सभ्य समाज कभी भी युद्ध और हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता। युद्ध विश्व शांति के लिए घातक है। आज का युग शान्ति का युग है। युद्ध और हिंसा की बात करना अनैतिक व अमानवीय है। इसलिए फासीवद का युद्ध और हिंसा का समर्थन अनुचित व अमान्य है। फासीवाद के ये विचार बर्बर व असभ्य हैं। फासीवाद जिस आदिम समाज की बात करता हे, वह आज अस्वीकार करने योग्य है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि फासीवाद विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसकी उग्र-राष्ट्रीयता की भावना विश्व-बन्धुत्व के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। अविवेकवाद पर आधारित यह विचारधारा है, जो प्रगतिशील समाज के रास्ते में एक बाधा है। आज राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध विश्वास व सहयोग पर आधारित है। इनमें छल-कपट की कोई जगह नहीं है। अवसरवादिता अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में दरार पैदा करने में अपना योगदान देकर विश्व शान्ति को खटाई में डाल सकती है। इसलिए अवसरवादिता विश्व समाज में अमान्य है। आज का युग अन्तर्राष्ट्रवाद का युग है। विश्व का प्रत्येक देश एक-दूसरे से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक रूप से जुड़ा हुआ है। फासीवाद संकीर्ण राष्ट्रवाद की बात करके अन्तर्राष्ट्रीय का विरोध करता है, इस दृष्टि से भी फासीवादी विचारधारा अमान्य है। फासीवाद के दानवीय विचार मानव सभ्यता को नष्ट करने वाले हैं। शक्ति व हिंसा पर आधारित इस विचारधारा ने न केवल इटली व जर्मनी को बल्कि विश्व मानवता को भी बहुत हानि पहुंचाई है। द्वितीय विश्व युद्ध में इन ताकतों ने जो भीषण विनाश व तबाही का दृश्य देखा, वह सर्वविदित है। 

इटली और जर्मनी में फासीवादी ताकतों ने जितना जन-इच्छा को दबाया, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जनता को अपने ही इन शासकों से घृणा हुई। आज विश्व में ईराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन तथा अफगानिस्तान के तालिबान शासन का जो हर्ष हुआ है, वे सर्वविदित है। ईराक के तानाशाह सद्दाम को अपना आदर्श मानने वाली जनता, आज उनसे घृणा करती है। इसी प्रकार जिन भी देशों में फासीवादी तत्व हैं, वहां उनका देर-सवेर अन्त होना आवश्यक है। आज विश्व समाज फासीवाद को एक घृणित वस्तु के रूप में देखता है। अत: फासीवादी एक घृणास्पद विचारधारा है। इसका महत्व तत्कालीन समय में तो हो सकता है, अज नहीं।

फासीवाद तथा साम्यवाद में तुलना

फासीवाद तथा साम्यवाद दोनों प्रथम विश्व युद्ध के बाद जन्मी विशिष्ट प्रकार की राज-व्यवस्थाएं, शासन पद्धतियां तथा विचारधाराएं हैं। दोनों ही विचारधाराएं 19वीं सदी के लोकतन्त्र के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुई। दानों विचारधाराओं में परस्पर काफी समानताएं व असमानताएं हैं।

1. फासीवाद व साम्यवाद में समानताएं -

  1. दोनों विचारधाराएं समकालीन हैं। इन दोनों का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ। 1917 की सर्वहारा क्रान्ति द्वारा लेनिन ने जार का तख्ता पलट कर साम्यवादी अधिनायकवाद की स्थापना की। इसी तरह मुसोलिनी ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद फासीवादी पार्टी के नेतृतव में इटली की सत्ता पर एकदलीय अधिनायकवाद कायम किया।
  2. दोनों विचारधाराएं लोकतन्त्र व संविधानवाद की विरोधी है। साम्यवादी व फासीवादी दोनों सर्वसत्ताधिकारवादी (Totalitarian) राज्य की स्थापना करके व्यक्ति के अधिकारों व स्वतन्त्रतओं को मर्यादित करते हैं। दोनों को संसदीय लोकतन्त्र पर विश्वास नहीं है, क्योंकि यह व्यवस्था राजनीतिक दलबन्दी को प्रोत्साहन देती है। फासीवादियों व साम्यवादियों की दृष्टि में संसद बातुनी व्यक्तियों की दुकान है। इसमें कार्यपालिका पर संसदीय नियन्त्रण रहने के कारण महत्वपूर्ण प्रश्नों पर आम राय बनना व उसे लागू करना कठिन होता है। फासीवादियों व साम्यवादियों का मानना है कि सामाजिक हित के लिए एक ही दल का होना आवश्यक है। बहुदलीय प्रणाली जनता व देश को दलगत राजनीति में फंसा देती है। इसलिए विरोधी विचारधारा वाले दलों का दमन करके फासीवादी अपने दल के एकाधिकारवाद को ही महत्व देते हैं। इसी प्रकार साम्यवादी सर्वहारा वर्ग के नाम पर साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित करते हैं।
  3. दोनों ही व्यवस्थएं 19वीं शताब्दी के द्वन्द्ववादी चिन्तकों के विचारों पर आधारित है। फासीवादी हीगल के प्रत्ययवाद या जर्मन राष्ट्रवाद पर आधारित है। मुसोलिनी ने इटली की परिस्थितियों के अनुरूप ही हीगल के राष्ट्रवादी विचारों को अमली जामा पहनाया है। इसी तरह माक्र्स के विचारों को लेनिन तथा स्टालिन द्वारा रूसी परिस्थितियों में लागू किया गया है। इसलिए दोनों ही विचारधाराएं अपने पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों का संशोधित व व्यवहारिक रूप है।
  4. दोनों ही विचारधाराएं व्यक्तिवाद और उदारवाद का विरोध करती है। साम्यवादी तथा फासीवादी व्यक्तिगत स्वातन्त्रय से असहमत है। वे राज्य को असीम अधिकार सौंपकर व्यक्तिवाद का विरोध करती है। दोनों ही विचारधाराएं व्यक्ति की गरिमा तथा महत्व, सब व्यक्तियों को मौलिक समानता और स्वतन्त्रता आदि उदारवाद के सिद्धान्तों का खण्डन करती है।
  5. दोनों ही विचारधाराएं अन्धश्रद्धा पर आधारित हैं। ये विचारधाराएं तर्क व बुद्धि पर आधारित न होकर विश्वास पर आधारित है। उनका विश्वास है कि बुद्धिवाद व्यक्तियों को उग्र-राष्ट्र चेतना का उदय नहीं कर सकता। लोकतन्त्र में तो तर्क-वितर्क द्वारा लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है। साम्यवादी व फासीवादी व्यवस्था में तर्क-वितर्क के लिए कोई स्थान नहीं है।
  6. दोनों ही विचारधाराएं व्यक्ति को साधन मानती हैं और राज्य को साध्य मानकर उसकी पूजा पर जोर देती है। उनका मानना है कि राष्ट्र से बड़ा कोई दूसरा साध्य नहीं हो सकता। व्यक्ति को राज्य से बाहर कोई अधिकार नहीं हो सकता।
  7. दोनों विचारधाराएं हिंसा व युद्ध में विश्वास करती है। उनका विश्वास है कि शक्ति के प्रयोग के बिना वर्तमान व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता। दोनों ही व्यवस्थएं अपने विरोधियों का दमन करने के लिए बल प्रयोग की अनुमति देती है। मुसोलिनी ने हिंसा के बल पर ही इटली की सत्ता प्राप्त की थी। इसी तरह लेनिन ने क्रान्ति द्वारा जार का तख्ता पलट कर उसने साम्यवादी दल का अधिनायकवाद स्थापित किया था। दोनों विचारधाराएं निरन्तर संघर्ष को अनिवार्य मानती हैं।
  8. दोनों ही व्यवस्थाएं राज्य की अर्थव्यवस्था पर राज्य का पूर्ण नियन्त्रण स्थापित करती है। साम्यवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति का विरोध करता है। फासीवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार तो देता है, लेकिन उस पर निगमनात्मक राज्य का नियन्त्रण लगा देता है। इसी तरह दोनों आर्थिक क्षेत्र में प्रतियोगिता के विरूद्ध हैं। 9ण् दोनों ही व्यवस्थएं एकदलीय अधिनायकवाद की समर्थक हैं। इटली में फासीवादी दल तथा रूस में साम्यवादी दल का पूरा नियन्त्रण लम्बे समय तक रहना एकदलीय अधिनायकवाद को स्पष्ट करता है। चीन में आज भी साम्यवादी दल का शासन है। 10ण् दोनों ही व्यवस्थाएं सैनिकवादी हैं। दोनों ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाने के पक्ष में है।

2. फासीवाद व साम्यवाद में असमानताएं -

  1. साम्यवाद साम्राज्यवाद का विरोध करता है। इसके विपरीत फासीवाद साम्राज्यवाद का समर्थक है। साम्यवादियों की दृष्टि में साम्राज्यवाद शोषण का साधन है, जबकि फासीवादी उग्र-राष्ट्रवाद का प्रसार करके साम्राज्यवाद का विकास चाहते हैं। रूस ने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष में स्वतन्त्रता का प्रयास करने वाले देशों का ही समर्थन किया था।
  2. साम्यवाद धर्म का विरोध करता है। इसके विपरीत फासीवादी धर्म व चर्च में विश्वास रखते हैं। मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है। मुसोलिनी धर्म को एक विश्वास की संज्ञा देकर उसे अपने दर्शन में उपयोगी स्थान देता है।
  3. साम्यवादी जातीय व नस्लीय भेदभाव के विरूद्ध हैं। इसके विपरीत फासीवाद जातीय श्रेष्ठता में विश्वास रखता है। उनका अन्ध-राष्ट्रवाद इसी भावना पर आधारित है। सोवियत संघ में सर्वहारा क्रान्ति के बाद गैर-रुसी जातियों को बराबरी का दर्जा दिया गया था। जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों के साथ जो बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया था, वह सर्वविदित है।
  4. साम्यवाद अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास रखता है। वह दुनिया के मजदूरों को एक होने की बात करता है। इसके विपरीत मुसोलिनी पूंजीपति व श्रमिकों को राष्ट्र-हित में बलिदान करने की बात कहता है। अत: फासीवाद संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित है। यह साम्यवाद की तरह प्रबुद्ध राष्ट्रवाद तथा अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से परे है।
  5. साम्यवाद वर्ग-संघर्ष को एक शाश्वत् प्रक्रिया मानता है। वह वर्ग-संघर्ष द्वारा ही नए समाज की रचना की बात करता है। साम्यवादी क्रान्ति द्वारा पूंजीपति वर्ग को समाप्त करके वर्ग-विहीन समाज की स्थापना करना चाहता है। फासीवादी विभिन्न वर्गों में सहयोग व समन्वय की भावना का विकास करके नए समाज की स्थापना करना चाहते हैं। 
  6. साम्यवाउद एक क्रमबद्ध व सुव्यवस्थित दर्शन है। इसके विपरीत फासीवाद विभिन्न विचारों का समूह है। साम्यवाद के विपरीत इसका कोई सैद्धान्तिक कार्यक्रम नहीं है। फासीवाद का जन्म तत्कालीन परिस्थितियों की उपज है। इसके विपरीत साम्यवाद की जड़ें काफी गहरी हैं। यह दीर्घकालीन बौद्धिक विकास का परिणाम है। इसमें मार्क्स, एंजिल, लेनिन, स्टालिन व माओ का विशेष योगदान है।
  7. फासीवादी राज्य को एक निरन्तर बनी रहने वाली संस्था मानकर उसको सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। उनकी दृष्टि में राज्य ही एक साध्य है और पूज्यनीय है। इसके विपरीत साम्यवादी सर्वहारा वर्ग के संक्रमणकालीन नेतृत्व के बाद राज्य की समाप्ति की बात करते हैं। साम्यवाद का अन्तिम उद्देश्य ही राज्य-विहीन समाज की स्थापना करना है।
  8. फासीवादी व्यक्तिगत पूंजी को राष्ट्रीय आवश्यकता मानते हैं। इसके िवारीत साम्यवादी व्यक्तिगत सम्पत्ति के विरोधी हैं।
  9. साम्यवाद असमानता का अन्त करने को अपना अन्तिम लक्ष्य मानता है, जबकि फासीवादी प्राकृतिक असमानता में विश्वास रखते हैं और उसे कायम रखने के पक्षधर हैं।
  10. फासीवाद अबुद्धिवाद व अतर्कवाद पर आधारित है। इसके विपरीत साम्यवाद विभिन्न विचारकों द्वारा दिए गए बौद्धिक योगदान का प्रतिफल है। साम्यवाद किसी ऐसी वस्तु का औचित्य स्वीकार करने को तैयार नहीं है, जिसकी उपयोगिता बुद्धि से सिद्ध न हो। फासीवाद तर्क-वितर्क से दूर रहकर अविवेकशीलता का ही परिचय देता है।
  11. फासीवाद आदर्शवाद पर आधारित है। यह राज्य को एक नैतिक व आध्यात्मिक सत्ता मानता है। इसके विपरीत साम्यवाद भौतिकवाद में विश्वास रखता है। उसकी दृष्टि में राज्य भौतिक विकास का प्रतिफल है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि फासीवाद और साम्यवाद में काफी समानताएं भी हैं और असमानताएं भी। दोनों समकालीन विचारधाराएं हैं और दोनों लोकतन्त्र, संविधानवाद, व्यक्तिवाद, उदारवाद, बुद्धिवाद व तर्कवाद का प्रबल विरोध करती हैं तथा हिंसा, संघर्ष व एकदलीय तानाशाही में विश्वास करती है। दोनों विचारधाराएं व्यक्ति को साधन मानकर उसे राज्य के अधीन करके उसकी स्वतन्त्रता व अधिकारों पर कुठाराघात करती है और शिक्षा प्रणाली को राज्य के पूरे नियन्त्रण में रखती है। इसके बावजूद भी फासीवादी साम्राज्वाद का समर्थन करते हैं, तो साम्यवादी उसका विरोध करते हैं। साम्यवादी फासीवादियों के विपरीत धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहते हैं। उनकी दृष्टि में धर्म एक अफीम है। यह जनता को भाग्यवादी बना देता है। फासीवाद जहां विश्व शान्ति का प्रबलतम शत्रु है, वहीं साम्यवाद फासीवाद की तरह नस्लीय भेदभाव में विश्वास नहीं करता, उसकी दृष्टि में सब जातियां बराबर हैं। फासीवाद एक तदर्थ विचारधारा है तो साम्यवाद एक क्रमबद्ध व सुव्यवस्थित दर्शन है। जहां फासीवाद मृत्यु का दर्शन है, वहीं साम्यवाद जीवन का दर्शन है जो जीओ और जीने दो की नीति में विश्वास करता है। 

अत: साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है, जिसका अपना शाश्वत् महत्व है। आज भी अनेक देशों में इसे मान्यता प्राप्त है। आज फासीवाद विश्व में लुप्त प्राय: है। जहां फासीवाद को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है, वहीं साम्यवाद को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है। अत: साम्यवाद फासीवाद की तुलना में एक श्रेष्ठ व सम्मानजनक स्थान रखता है। फासीवाद की तुलना में साम्यवाद का भविष्य अधिक उज्जवल है।

3 Comments

  1. कृपया साम्यवाद के उन पहलुओं पर भी प्रकाश डालिये जिसने सोवियत रूस का विभाजन करवाया और स्टॅलिन द्वारा बड़े पैमाने पर नरसंहार करवाया गया
    तथा चीन में भी माओ द्वारा करवाये गए सांस्कृतिक क्रांति और ग्रेट लीप फारवर्ड के अंतर्गत करोड़ो लोगों की जाने गयी।
    वास्तविकता में ये दोनों ही अतिरंजित विचारधाराएं हैं जिनका आज के समाज मे प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। और साम्यवाद भी एक प्रकार की गाली ही बन कर रह गया है

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  2. लगता है डर सता रहा है

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