नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं?

नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं?

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य वर्तमान भेदभावपूर्ण आर्थिक सम्बन्धों का निर्धारण नए सिरे से करना है। नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के समर्थक देशों का मानना है कि विकसित और विकासशील देशों में गहरी आर्थिक असमानता है। वर्तमान व्यवस्था धनी या विकसित देशों के हितों की ही पोषक है। नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का उद्देश्य वर्तमान व्यवस्था को समाप्त करके इसे न्यायपूर्ण व समान बनाना है ताकि यह विकासशील देशों के भी हितों की पोषक बन जाए। इसका प्रमुख ध्येय नव-उपनिवेशवाद को समाप्त करके अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं को अधिक तर्कसंगत बनाना है ताकि थोड़े से विकसित देशों द्वारा बड़ी संख्या वाले विकासशील देशों के आर्थिक शोषण को रोका जा सके।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि “नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था वर्तमान भेदभावपूर्ण व आर्थिक असमानता पर आधारित अर्थव्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से तृतीय विश्व के देशों द्वारा उठाई गई मांग है ताकि अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध न्यायपूर्ण व अधिक तर्कसंगत बने और नव-उपनिवेशवाद के सभी साधन इस तरह से संचालित हों कि विकासशील देश भी विकसित देशों की तरह आर्थिक विकास के मार्ग पर चल सकें।”

साधारण शब्दों में, नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था वर्तमान अर्थव्यवस्था को समाप्त करके नए सिरे से स्थापित करने का मार्ग है ताकि विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों का औपनिवेशिक शोषण रुक जाए और विश्व की आय तथा साधनों का न्यायपूर्ण व समान बंटवारा हो ताकि उत्तर-दक्षिण का अन्तर समाप्त हो जाए।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख सिद्धांत

वर्तमान पक्षपातपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को समाप्त करके नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य विकसित तथा विकासशील देशों के मध्य विद्यमान आर्थिक समानता को कम करना है ताकि विकासशील देश भी आर्थिक विकास के रास्ते पर चल सकें। इसके लिए विकासशील देशों ने नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के बारे में कुछ सिद्धांत बताएं हैं जो हैं-
  1. विश्व मुद्रा प्रणाली का सामान्यीकरण करना
  2. विकासशील तथा विकसित देशों के बीच विद्यमान तकनीकी भेद को कम करना
  3. विकसित देशों द्वारा विकासशील राष्ट्रों के वित्तीय बोझ को कम करना
  4. बहुराष्ट्रीय निगमों तथा अन्य आर्थिक संस्थाओं को तर्कसंगत बनाना
  5. विकासशील देशों को विकसित देशों के साथ व्यापार की वरीयता देना
  6. विकासशील देशों द्वारा उत्पादित औद्योगिक माल के निर्यात को प्रोत्साहन देना
  7. कच्चे माल की कीमत घटना-बढ़ाने की प्रवृति का विरोध तथा कच्चे माल व तैयार माल की कीमतों में कम अन्तर होना
  8. कच्चे माल तथा समस्त आर्थिक क्रियाकलापों पर राष्ट्रीय सम्प्रभुता को स्वीकार करना।
उपरोक्त सभी सिद्धांत नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना के लिए आवश्यक हैं। ये एक तरह से विकासशील देशों द्वारा नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना करने हेतु सुझाई गई प्रमुख बातें हैं। इन्हीं पर नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का ढांचा खड़ा किया जा सकता है।

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का ऐतिहासिक विकास

नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग सर्वप्रथम 1962 में आयोजित गुटनिरपेक्ष देशों के काहिरा सम्मेलन में उठाई गई, इसके बाद 1970 के लुसाका गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन में इसी बात को दोहराया गया। 1973 में गुटनिरपेक्ष देशों के अलजीयर्स सम्मेलन में धनी या विकसित देशों की शोषक प्रवृति को बढ़ावा देने वाली अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना का घोषणा पत्र अपनाया गया। इसमें प्राकृतिक देशों को तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने, उनके व्यापार को वरीयता देने तथा बहुराष्ट्रीय निगमों की गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने का सिद्धांत अपनाया गया। इसके बाद 1975 के लीमा सम्मेलन में विकासशील राष्ट्रों द्वारा निर्यातित कच्चे माल के मध्यवर्ती भण्डारों तथा प्राथमिक उत्पादों के लिए वित्तीय सहायता देने हेतु एक संचित कोष की स्थापना करने पर सहमति हुई। 1975 में ही विकसित तथा विकासशील देशों के 28 प्रतिनिधियों ने पेरिस में बैठक की। इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग की समस्या पर विचार करना था लेकिन इसके कोई ठोस परिणाम नहीं निकले। 1976 के कोलम्बो गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भी इस बारे में विचार किया गया। इसमें विकासशील देशों में पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देने की बात कही गई।

1981 की केनकुन शिखर वार्ता में भी विकासशील तथा विकसित देशों के बीच विश्व अर्थव्यवस्था सम्बन्धी वार्तालाप हुआ। लेकिन यह वार्ता उत्तर-दक्षिण के आर्थिक सम्बन्धों पर सर्वमान्य निर्णय तक नहीं पहुंच सकी। 1982 में नई दिल्ली में दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ाने के लिए एक बैठक का आयोजन हुआ। इसमें सामूहिक आत्मनिर्भरता के लिए सहयोग के महत्व को सर्वसम्मति से मान्यता देने के साथ यह सम्मेलन समाप्त हो गया। इसके बाद रक्षिण दक्षिण सहयोग पर जुलाई 1985 को नई दिल्ली में बैठक हुई। इसमें भी सामूहिक आत्म-निर्भरता के लिए कार्य करने का आहारन किया गया। इसके बाद जून 1987 में दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर गुटनिरपेक्ष देशों की बैठक हुई। यह नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना की ओर अच्छा कदम था। इसके बाद मार्च 1988 में दक्षिण-दक्षिण आयोग की बैठक कुआलालम्पुर में हुई। इसमें विकासशील देशों की आर्थिक समस्याओं से लड़ने के लिए एक बहुमुखी रणनीति का निर्माण करने पर विचार हुआ। इसके बाद G-15 की बैठक 1990 में कुआलालम्पुर में हुई। G-15 विकासशील देशों का एक समूह है। इसमें दक्षिण-दक्षिण सहयोग को मजबूत बनाने के प्रयास किए गए। G-15 की कारकास बैठक में यह कहा गया कि विकासशील देश भी अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में महान भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए तृतीय विश्व की एकता व सहयोग पर बल देना चाहिए। इसमें क्षेत्रीय तथा उपक्षेत्राीय व्यापार संगठन कार्यक्रमों को तृतीय विश्व के हितों में तकनीकी हस्तांतरण पर निर्भर हुआ। इसमें G-7 के साथ निरन्तर वार्तालाप को जारी रखने की वचनबद्धता को भी दोहराया गया। इसके बाद G.15 का नई दिल्ली में शिखर सम्मेलन हुआ। इसमें दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर बल दिया गया तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का लोकतन्त्राीकरण करने की मांग का समर्थन किया गया। इसके बाद G-15 के ब्यूनेस ऐरिस सम्मेलन में G-7 के साथ सभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर वार्तालाप शुरू करने की सिफारिश की गई। इसमें वर्तमान विश्वीकरण की प्रक्रिया को विकासशील देशों के हितों के विपरीत बताया गया। इसके बाद G-15 की जमैका बैठक में विश्व आर्थिक व्यवस्था में विकासशील देशों को अधिक महत्व दिए जाने तथा इसमें संस्थागत सुधारों की मांग की गई। G-15 के काहिरा (2000) सम्मेलन में भी असमान विश्व अर्थव्यवस्था पर विचार किया गया और WTO को अपने उत्तरदायित्वों को विकसशील देशों की समस्याओं के सन्दर्भ में निर्धारित करने का आवाहन किया। इस तरह G-77, दक्षिण-दक्षिण सहयोग, G- 15 गुटनिरपेक्ष सम्मेलन आदि द्वारा NIEO की मांग बार बार उठाई जाती रही है। लेकिन विकसित राष्ट्रों का रुख अब तक नकारात्मक ही रहा है।

नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग के निर्धारक तत्व

नवोदित स्वतन्त्रा राष्ट्रों ने अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को नए ढंग से स्थापित करने की जो पुरजोर मांग की है, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को जन्म देने वाले प्रमुख कारण हैं-
  1. नव-उपनिवेशवाद 
  2. बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जापूर्ण भूमिका 
  3. उत्तर तथा दक्षिण देशों में गहरा अन्तर 
  4. विकसित और विकासशील देशों में निरन्तर बढ़ता अन्तर 
  5. बढ़ती अंतर्निर्भरता
  6. गैट तथा विश्व व्यापार संगठन की अप्रभावशीलता 
  7. नई अन्तर्राष्ट्रीय  प्रवृत्तिया 
  8. ब्रेटनवुड की असफलता 

नव-उपनिवेशवाद 

नवोदित स्वतन्त्रा राष्ट्रों पर पुराना साम्राज्यवादी नियंत्रण तो समाप्त हो चुका है और उसकी जगह नए प्रकार के सामा्रज्यवाद ने ले ली है। इसे नव उपनिवेशवाद या आर्थिक साम्राज्यवाद के नाम से जाना जाता है। आज अधिकतर विकासशील या पिछड़े देश विकसित देशों के उपनिवेशीय नियंत्रण में रह रहे हैं। राजनीतिक रूप से देखने मे तो विकासशील देश प्रभुसत्ता सम्पन्न हैं लेकिन व्यवहार में विकसित देशों द्वारा नव उपनिवेशीय नियंत्राण के रूप में उनकी राजनीतिक क्रियाओं में पूरा हस्तक्षेप है। अपनी स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद ये देश निरन्तर आर्थिक विकास के लिए आर्थिक सहायता के रूप में विकसित देशों की अन्यायपूर्ण आर्थिक नीतियों का शिकार हैं। उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति के लिए साम्राज्यवादी शक्तियां भी उत्तरदायी हैं। अपनी स्वतन्त्राता प्राप्ति से पहले भी इन विकसित देशों ने इनका आर्थिक शोषण किया और स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद भी यह प्रक्रिया बन्द नहीं हुई। विकासशील देशों की वित्तीय सहायता प्राप्त करने की आर्थिक मजबूरियां नव उपनिवेशीय शोषण की प्रवृति का ही परिणाम हैं। आज नव उपनिवेशवाद के अंतर्गत सैनिक सहायता, बहुराष्ट्रीय निगम, संरक्षणवादी व्यापार, संधियों में साझेदारी, हस्तक्षेप आदि साधनों द्वारा विकसित राष्ट्र विकासशील देशों को अपनी आर्थिक नीतियों का शिकार बना रहे हैं। आज WTO, IMF जैसी विश्व आर्थिक संस्थाएं भी इन विकसित देशों के हितों की ही पोषक हैं। इसलिए इस नव-उपनिवेशीय नियंत्राण को विकासशील राष्ट्र समाप्त करने की दिशा में ठोस उपाय कर रहे हैं। दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रयास करना इसी का परिणाम है ताकि क्षेत्राीय सहयोग में वृद्धि करके तथा विकसित देशों पर पारस्परिक अन्तनिर्भरता में कमी करके उपनिवेशीय नियंत्राण में कमी लाई जा सके। दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देना नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का ही एक सिद्धांत है। जो NIEO की मांग में वृद्धि करता है।

बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जापूर्ण भूमिका 

ये निगम विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं में दीमक की तरह प्रवेश कर रहे हैं और अपनी कार्यप्रणाली द्वारा उनकी अर्थव्यवस्थाओं को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान आदि विकसित देशों के 800 बड़े बड़े बहुराष्ट्रीय निगम विकासशील देशों में विकसित राष्ट्रों की भुजा के रूप में कार्य कर रहे हैं। विकासशील देशों में पूंजी निवेश करके इनको कई गुणा मुनाफा प्राप्त हो रहा है। समस्त विश्व के कुल उत्पादन के 50 प्रतिशत से अधिक भाग पर इनका ही कब्जा है। विकसित देशों की विकसित तकनीक इनका प्रमुख साधन है। जिसके बल पर ये विकासशील देशों में कच्चे माल को तैयार माल में बदलकर वही मंडियों में बेचकर भारी लाभ प्राप्त कर रहे हैं। भारत जैसे अति विकासशील देश भी इनके जाल में फंसते जा रहे हैं। कम विकासशील देशों की स्थिति तो ज्यादा बदतर है। इन निगमों ने विकासशील देशों की मंडियों और तकनीक के रास्ते में बहुत सारी रुकावटें पैदा कर रखी हैं जिससे विकासशील देशों की उत्पादित वस्तुएं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाती हैं। बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जास्पद भूमिका के कारण विकासशील देश लगातार कच्चे माल की मंडियां बनती जा रही हैं और इस पर विकसित राष्ट्रों की पकड़ मजबूत होती जा रही है। विकासशील देशों के पास बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा पैदा किए गए अवरोधों की कोई काट नहीं है। ये निगम नव-उपनिवेशवाद का एक मजबूत साधन होने के नाते विकसित देशों के हितों में ही वृद्धि कर रहे हैं और विकासशील देशों का भरपूर आर्थिक शोषण कर रहे हैं। आज अधिकतर विकासशील देश विकसित देशों की इस चाल को समझ चुके हैं कि बहुराष्ट्रीय निगम भी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पिना नियंत्राण स्थापित करने का एक साधन हैं। इसलिए विकासशील देश बहु-राष्ट्रीय निगमों की शोषणकारी भूमिका को समान्त करने के उद्देश्य से नई अंतराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) की मांग करते हैं।

उत्तर तथा दक्षिण देशों में गहरा अन्तर 

आज उत्तर-दक्षिण में गहरी खाई है। उत्तर के विकसित देश जो 30 प्रतिशत जनसंख्या वाले हैं, विश्व के 70 प्रतिशत जनसंख्या वाले विकासशील देशों पर अपना आर्थिक वर्चस्व कायम किए हुए हैं। विकासशील देशों की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय औसतन 100 पौंड है, जबकि विकसित देशों में यह 3000 से 6000 पौंड तक है। आज विकासशील देशों में आर्थिक विकास के नाम पर गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं विद्यमान हैं, जबकि विकसित देश विलासितापूर्ण जीवन जी रहे हैं। ये सभी देश विकासशील देशों का आर्थिक शोषण करके ही फल-फूल रहे हैं। आज विकासशील देशों के पास शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए आर्थिक साधनों की कमी आड़े आ रही है। इन देशों में लोगों को भरपेट भोजन भी नहीं मिल रहा और कुपोषण की समस्या निरंतर बढ़ रही है। विश्व अर्थव्यवस्था के असंतुलित विकास ने विकासशील देशों की समस्याओं को और अधिक बढ़ाया है। इससे उत्तर-दक्षिण में गहरा अन्तर पैदा हो गया है। विकासशील देशों की यही मांग है कि विश्व अर्थव्यवस्था का नए रूप में गठन हो ताकि विकसित व विकासशील देशों में पैदा हुई गहरी खाई को पाटा जा सके। अर्थात् नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना ही विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील देशों का आर्थिक शोषण रोककर उत्तर दक्षिण के अन्तर को कम कर सकती है।

विकसित और विकासशील देशों में निरन्तर बढ़ता अन्तर 

आज अमीर राष्ट्र और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब राष्ट्र अधिक गरीब होते जा रहे हैं। यह सब वर्तमान अन्यायपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों का ही परिणाम है। इसी से विकसित तथा विकासशील देशों में अन्तर निरन्तर बढ़ रहा है। ऊर्जा संकट ने विकसित देशों को उन्नत तकनीक के बल पर विकासशील राष्ट्रों का शोषण करने के योग्य बनाया है। इसने उत्तर दक्षिण के अन्तर को बढ़ाया है। आज UNCTAD तथा GATT जैसी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएं भी इस अन्तर को कम करने में नाकामयाब रहे हैं। इन संगठनों की प्रवृति भी विकसित देशों की ओर ही है। इन्होंने विकासशील देशों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। ऊर्जा संकट, विश्व व्यापार में कड़ी प्रतिस्पर्धा, बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जास्पद भूमिका, विश्व व्यापार संगठन की अपर्याप्तता, विकासशील राष्ट्रों को प्राप्त होने वाली कम आर्थिक सहायता, विकासशील देशों का तकनीकी पिछड़ापन आदि ने उत्तर दक्षिण (विकसित विकासशील) के अन्तर में वृद्धि करने में सहायता की है। इससे विकासशील देशों में मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है और उनका भुगतान संतुलन का घाटा अत्यंत रूप से बढ़ चुका है। जिसे नियंित्रत करना विकासशील देशों के वश की बात नहीं है। आज तीसरा विश्व भयानक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं के दौर से गुजर रहा है। विश्व व्यापार में विकासशील देशों का योगदान निरन्तर घट रहा है। आज तृतीय विश्व के देश मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। विश्व के विकसित देशों का विलासपूर्ण जीवन निरंतर बढ़ रहा है। 1990 के बाद तो विकासशील देशों का आर्थिक पिछड़ापन अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। इससे विकासशील देशों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। इसलिए वे इस अन्तर को कम करके न्यायपूर्ण विश्व अर्थव्यवस्था की स्थापना की बात करते हैं। 

विश्व की आय व साधनों का एक पक्षीय शोषण- 

आज विश्व के थोड़े से ही विकसित राष्ट्र बहुसंख्यक विकासशील राष्ट्रों के आर्थिक साधनों पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं और ऐसा करके वे विकासशील राष्ट्रों का आर्थिक शोषण कर रहे हैं। तकनीकी ज्ञान के बल पर विकसित राष्ट्र आर्थिक साधनों पर अपने वर्चस्व को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। इनका कच्चे माल और निर्मित माल पर पूरा एकाधिकार है। वे विकासशील देशों को कच्चा माल बेचने तथा तैयार माल बेचने के उद्देश्य में नव-उपनिवेशीय तरीकों का प्रयोग करके सफल हो जाते हैं। उनका ध्येय अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। इसलिए वे तृतीय विश्व को इसके सर्वथा अनुकूल समझते हैं और उसके आर्थिक साधनों का खूब शोषण करते हैं। IMF, Bank, तथा WTO भी उसकी इस काम में पूरी मदद करते हैं। इनकी आड़ में विकसित देश विकासशील देशों की आर्थिक नीतियों को प्रभावित करके अपने आर्थिक हितों को ही पोषित करते हैं। ये संस्थाएं ही उनके आर्थिक साम्राज्यवाद को सुदृढ़ बनाती हैं और विश्व के आर्थिक साधनों को एक पक्षीय झुकाव में सहायता करती है। इससे तृतीय विश्व के देशों का आर्थिक शोषण बढ़ जाता है और NIEO की मांग का उदय होता है।

बढ़ती अंतर्निर्भरता

आज विश्व के विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों में पारस्परिक निर्भरता में लगातार वृद्धि हो रही है। विकसित देशों को कच्चा माल खरीदने तथा तैयार माल बेचने के लिए मंडियों की आवश्यकता है जिसे विकासशील देश ही पूरा कर सकते हैं। इसी तरह कम-विकसित या विकासशील देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए आर्थिक सहायता व तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने के लिए विकसित देशों की ओर देखना पड़ रहा है। लेकिन विकसित राष्ट्र विकासशील देशों का शोषण करने की नीतियों को अमल में ला रहे हैं। विकसित तकनीक तथा राजनीतिक व सैनिक श्रेष्ठता के बल पर विकसित राष्ट्र विकासशील देशों पर अपना आर्थिक नियंत्राण सुदृढ़ कर रहे हैं। विकासशील देशों का यह सोचना कि पारस्परिक अन्तनिर्भरता से उनका भला होगा, गलत साबित हो रहा है। पारस्परिक अन्तर्निर्भरता ने आज विकसित राष्ट्रों की भूमिका को नकारात्मक बना दिया है। इसने नव-उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया है। इसलिए विकासशील राष्ट्र यह अनुभव करने लगे हैं कि सार्वभौमिक अंतनिर्भरता के कारण वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था अधिक अप्रासांगिक बन गई है। इसलिए इसे अधिक न्यायसंगत बनाने के लिए इसकी पुन: संरचना करना आवश्यक हो गया है। लेकिन विकसित राष्ट्र इसका विरोध करके इसके मार्ग में बाधाएं उत्पन्न कर रहे हैं।

गैट तथा विश्व व्यापार संगठन की अप्रभावशीलता 

इन संगठनों का निर्माण इसलिए हुआ था कि इससे बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ावा मिले। पहले यह काम GATT का था, अब WTO करता है। इसकी स्थापना का उद्देश्य सदस्य देशों के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों को बढ़ाना है। अंतर्राष्ट्रीय सन्धियों के तहत इसे विश्व व्यापार के पुलिसमैन की भूमिका अदा करें। लेकिन आज नया GATT या WTO विकसित और विकासशील देशों की समस्याओं का हल करने में नाकामयाब रहा है। इसने श्रम कानूनों, पेटेंट तथा कॉपीराइट के बारे में कानूनों को और अधिक जटिल बना दिया है। आज आलोचक यह कहते हैं कि WTO बहुराष्ट्रीय निगम के लिए विश्व विजय का प्रतीक है। इससे विकासशील देशों को आर्थिक शोषण में वृद्धि हुई है। इसलिए तृतीय विश्व के देश नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) की स्थापना की पुरजोर मांग करते हैं ताकि न्यायपूर्ण आर्थिक सम्बन्धों का विकास हो।

नई अन्तर्राष्ट्रीय  प्रवृत्तिया 

1990 के बाद शीत यद्धु के अन्त ने तृतीय विश्व की समस्याओं को और अधिक बढ़ा दिया है। आज विकसित देशों का रुख पूर्वी यूरोप के देशों की ओर है। अये देश पूर्वी यूरोप को अधिक से अधिक आर्थिक लाभ पहुंचा रहे हैं ताकि वहां पर साम्यवाद का अजगर सिर से न आ जाए। इससे विकासशील देशों को आर्थिक सहायता बहुत कम ही मिलने लगी है। इसने उनकी आर्थिक विकास की गति को बहुत धीमा कर दिया है। इसलिए तृतीय दुनिया के देश और अधिक आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए विश्व अर्थव्यवस्था को न्यायपूर्ण व समान बनाने की वकालत करते हैं।

ब्रेटनवुड की असफलता 

वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बे्रटनवुड में हुए व्यापार समझौते के ही तहत हो रहा है। इसने अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अन्यायपूर्ण व असमान बना दिया है। बढ़ते भुगतान घाटे तथा भेदभावपूर्ण ऋण व्यवस्था ने यह सिद्ध कर दिया है कि वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था अन्यायपूर्ण है। यह विकसित देशों की शोषणकारी प्रवृत्ति को और अधिक बढ़ावा दे रही है। इससे विकासशील देशों के हितों की बजाय विकसित देशों के ही हितों का पोषण हो रहा है। इसलिए विकासशील देश वर्तमान ब्रेटनवुड प्रणाली को समाप्त करके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था को अधिक सामान्य बताना है ताकि विकासशील देशों को भी व्यापार में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने का अवसर प्राप्त हो और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO) की स्थापना हो।

इस प्रकार उत्तर-दक्षिण में गहरे अन्तर, सावैभौतिक पारस्परिक अन्तर्निर्भरता, नव-उपनिवेशवाद, आर्थिक साधनों का एक पक्षीय शोषण, बहुराष्ट्रीय निगमों की अन्यायपूर्ण भूमिका, WTO की अपूर्णता आदि तत्वों ने मिलकर नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग को सुदृढ़ बनाया है। आज विकासशील देश अपनी इस मांग को जोरदार रूप में उठा रहे हैं; लेकिन यह मांग एक मांग ही बना हुई है। इसे वास्तविकता बनाने में न जाने कितना समय लगेगा।

नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख मुद्दे व धारणाएं 

आज अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की अवधारणा में कई विषय तथा समस्याएं शामिल की गई हैं। इन समस्याओं का समाधान उत्तर दक्षिण वार्ताओं पर निर्भर करता है। यदि इन समस्याओं का उचित समाधान करने में विकासशील व विकसित देशों को सफलता मिल जाए तो विश्व में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना होगी और सभी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्ध नए सिरे से स्थापित होने लगेंगे। नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की अवधारणा के प्रमुख मुद्दे हैं-
  1. वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था में संस्थागत परिवर्तन 
  2. अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था व व्यापार में संरक्षणवाद की नीति का अन्त 
  3. बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जास्पद भूमिका पर नियंत्रण 
  4. वस्तु उत्पादकों के हितों का संरक्षण 
  5. विकासशील देशों की आत्मनिर्भरता में वृद्धि  
  6. तकनीकी आदान-प्रदान 
  7. पूँजी स्रोतो का हस्तांतरण 
  8. ब्रेटनवुड व्यवस्था में पूर्ण संशोधन

वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था में संस्थागत परिवर्तन - 

आज विश्व अर्थव्यवस्था को संचालित करने वाली सभी संस्थाएं विकसित राष्ट्रों के हितों की पोषक हैं। आर्थिक संबंधों को संचालित व नियंित्रत करने वाले सभी नियम भी अन्यायपूर्ण हैं जो आर्थिक विषमताओं में वृद्धि करने वाले हैं। इसलिए विकासशील देशों की यह बात उचित है कि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं विकसित राष्ट्र के हितों में कार्य करती है। अत: इनका पुनर्गठन किया जाना चाहिए। GATT भी धनी तथा विकसित राष्ट्रों को लाभ पहुंचाने वाला है। उरुग्वे वार्ता भी विकसित राष्ट्रों के पक्ष में है। वर्तमान पेटेन्ट कानून व कॉपीराइट भी विकसित देशों की अर्थव्यवस्था में लाभकारी स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए विश्व आर्थिक संस्थाओं व उनकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करना आवश्यक है तथा न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था पर आधारित न्यायपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों का जन्म हो।

अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था व व्यापार में संरक्षणवाद की नीति का अन्त - 

वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था विकसित राष्ट्रों की संरक्षणवादी व्यापार नीति पर आधारित है। इस नीति के तहत विकसित देश विकासशील देशों के व्यापार पर मनमाने अंकुश लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से उनके व्यापार को हानि पहुंचा रहे हैं। इन देशों ने GATT के नियमों को भी ताक पर रख दिया है और अपनी संरक्षणवादी नीति को ही सबल आधार प्रदान करने में लगे हुए हैं। इन विकसित देशों ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विकासशील देशों का कोटा पहले से भी कम कर दिया है। जूता व कपड़ा उद्योग पर अनेक प्रतिबंध से परिपूर्ण शर्तें थोपकर इन देशों ने विकासशील देशों के व्यापार को क्षति पहुंचाई है। कठोर प्रतिबंधों के कारण इनका निर्यात लगातार घट रहा है और भुगतान संतुलन का घाटा लगातार बढ़ रहा है। आज भी इंग्लैंड तथा ब्रिटेन जैसे देश विलासिता की वस्तुओं तथा लोहे जैसी आवश्यक धातु से निर्मित सामान पर भी सीमित कोटा प्रणाली लगाने पर विचार कर रहे हैं। इन संरक्षणवादी नीतियों के कारण विकासशील देश लगातार हानि उठा रहे हैं। उनका आयात तो बढ़ रहा है, लेकिन निर्यात घट रहा है। ऐसी स्थिति में उनकी अर्थव्यवस्थाएं बर्बादी के कगार पर पहुंचने वाली हैं। अत: विकासशील देशों की यह मांग सही है कि संरक्षणवादी व्यापार नीति पर प्रतिबंध लगाया जाए और नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की ओर बढ़ा जाए।

बहुराष्ट्रीय निगमों की लज्जास्पद भूमिका पर नियंत्रण - 

आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय निगम एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। इनका सभी अंतर्राष्ट्रीय पेटेन्टों पर नियंत्राण है। अपने तकनीकी ज्ञान के बल पर इनका समस्त विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था व आर्थिक नीतियों पर प्रभुत्व है। तकनीक को जब ये तीसरी दुनिया के देशों को बेचते हैं तो इनका लाभ कई गुणा बढ़ जाता है। इसलिए विकासशील देशों को आर्थिक साधनों की कमी के चलते भारी कीमत पर तकनीक खरीदनी पड़ती है। साथ में ही उन देशों को बहुराष्ट्रीय निगमों के अनुचित हस्तक्षेप को भी सहना पड़ता है। इनकी लज्जास्पद भूमिका के कारण विकासशील देशों को भारी हानि उठानी पड़ती है। इस नव-उपनिवेशीय (Neo-Colonialism) नियंत्रण के कारण विकसित तथा विकासशील देशों में आर्थिक असमानता ज्यादा बढ़ जाती है। विकासशील देशों में ये निगम वहां की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यप्रणाली को भी प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं ताकि उनका उपनिवेशीय नियंत्राण और मजबूत बन जाए। कई बार तो ये विकासशील देशों में तख्ता पलट जैसी घटनाओं को सफलतापूर्वक अंजाम दे देते हैं। इसलिए वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था में इनकी भेदभावपूर्ण भूमिका के कारण, विकासशील देश इनके लिए एक आदर्श आचार संहिता के निर्माण पर जोर देते हैं ताकि इनकी भूमिका स्वस्थ आर्थिक सम्बन्धों का निर्माण करने में मददगार सिद्ध हो और नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों का प्रवाह हो।

वस्तु उत्पादकों के हितों का संरक्षण - 

आधुनिक युग सार्वभौमिक पारस्परिक आत्मनिर्भरता का युग है। इसमें विकासशील देशों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। परन्तु उनकी भूमिका को विकसित देशों की तुलना में कम आंका जाता है। अपने हितों की सुरक्षा के लिए उन्हें विकसित देशों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उनकी उत्पादित वस्तुओं केा विकसित देशों की संरक्षणवादी व्यापारिक नीति तथा खुली प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है। इसमें उनको असफलता का मुंह देखना पड़ता है। इससे विकासशील देशों को कम निर्यात से ही संतुष्ट होना पड़ता है। विकसित देशों द्वारा कच्चे माल व तैयार माल की कीमतों व कीमत घटाने-बढ़ाने की प्रवृति के कारण भी उन्हें भारी हानि उठानी पड़ती है। इससे तृतीय विश्व के देशों में निर्धनता का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। इसलिए विकासशील देशों की यह मांग है कि वर्तमान संरक्षणवादी नीति को समाप्त करके न्यायपूर्ण नीति बनाई जाए। कच्चे माल की कीमतें स्थित रखी जाएं ताकि विकासशील देशों को आर्थिक नुकसान न उठाना पड़े। कीमतों को घटाने या बढ़ाने की नीति अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत ही निर्धारित की जाए ताकि विकासशील देशों को अधिक नुकसान न हो। इससे विकासशील देशों का आर्थिक नुकसान कम होगा। व्यापार में उनकी भागेदारी निर्यातक के रूप में बढ़ेगी और असमान आर्थिक सम्बन्धों में बदलाव आकर नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना हो सकेगी।

विकासशील देशों की आत्मनिर्भरता में वृद्धि  - 

आधुनिक युग में सभी विकासशील राष्ट्रों का ध्येय आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना है। आधुनिक विश्व अर्थव्यवस्था उनकी आत्मनिर्भरता को पारस्परिक निर्भरता में बदलने वाली है। वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था में विकासशील देशों को आत्मनिर्भर बनाने जैसे तत्वों का सर्वथा अभाव है। विकासशील देशों में निर्धनता, बेरोजगारी, भुखमरी जैसी समस्याओं का ढेर है। अब विकासशील देश इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ एकजुट हो चुके हैं। वे चाहते हैं कि विकासशील देश पारस्परिक सहयोग की भावना के आधार पर ही अपनी आत्मनिर्भरता में वृद्धि करें। यद्यपि वे यह भी जानते हैं कि विकसित राष्ट्रों पर उनकी निर्भरता आसानी से कम नहीं हो सकती। फिर भी वे पारस्परिक निर्भरता के स्थान पर आत्मनिर्भरता के प्रयास करने की दिशा में कृतसंकल्प हैं। इसी से नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का विकास होगा और विकासशील देशों का यह आत्मनिर्भरता का लक्ष्य अवश्य ही प्राप्त होगा।

तकनीकी आदान-प्रदान - 

तकनीकी ज्ञान आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण साधन होता है। विकासशील देशों में आर्थिक पिछड़ेपन का प्रमुख कारण उनके पास उन्नत तकनीक का न होना हैं ये देश कच्चे माल को तैयार माल में बदल तो देते हैं, लेकिन विकसित देशों में उत्पादन वस्तुओं की तुलना में कम गुणवत्ता के कारण उनका माल अंतर्राष्ट्रीय बाजार स्पर्धा में पिछड़ जाता है। इसलिए विकासशील देशों का आर्थिक विकास उन्नत तकनीकी विकास पर ही निर्भर है। यह तकनीक विकसित देशों के पास है। विकसित देश बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से इसे भारी कीमतों पर बेचते हैं। इससे असमान आर्थिक संतुलन पैदा होता है। विकासशील राष्ट्रों की यही मांग है कि तकनीकी हस्तांतरण को सरल बनाया जाए ताकि कम कीमत पर इसे विकासशील देश भी खरीद सकें। लेकिन विकसित देश इस मांग को अनुचित बताते हैं। इसलिए नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना का उद्देश्य भी तकनीकी आदान-प्रदान को सरल बनाकर उसको विकासशील देशों तक कम कीमत पर पहुंचाना है। इसी से NIEO की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त होगा।

पूँजी स्रोतो का हस्तांतरण - 

आज विश्व के विकसित देशों का अधिकतर पूंजी स्रोतो पर कब्जा है। नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख ध्येय इन पूंजी स्रोतो का विकेन्द्रीकरण करके इनका लाभ विकासशील देशों तक भी पहुंचाना है। पूंजी साधनों के उचित प्रयोग से विकसित राष्ट्रों के साथ साथ विकासशील देशों को भी लाभ होगा। नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना से महत्वपूर्ण पूंजी साधनों को उपयोगी कार्यों में लगाकर ज्ञान का भी आदान प्रदान किया जा सकेगा। इसके लिए तृतीय विश्व के देशों के सभी ऋणों को समाप्त करना आवश्यक है। इसके साथ साथ विकसित राष्ट्रों से कुल उत्पादन से प्राप्त आय का 0.7 प्रतिशत भाग विकासशील राष्ट्रों को अनुदान के रूप में मिलना भी जरूरी है। इससे तृतीय विश्व के देशों की आर्थिक समस्याओं का समाधान होगा, उनकी आर्थिक निर्भरता में कमी आएगी तथा उनका आर्थिक विकास का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। इससे नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का मार्ग तैयार होगा और भेदभावपूर्ण वर्तमान आर्थिक सम्बन्धों का काला अध्याय समाप्त हो जाएगा।

ब्रेटनवुड व्यवस्था में पूर्ण संशोधन -

वर्तमान विश्व व्यापार व्यवस्था में विकासशील देशों की भागेदारी बहुत ही कम है। निर्यात मंडियों पर विकसित देशों का ही कब्जा है। विकसित और विकासशील देशों के निर्यात में भारी अन्तर है। GATT की तरह यह भी धनी राष्ट्रों के हितों का ही पोषण कर रही है। इसलिए ब्रेटनवुड व्यवस्था पर आधारित खुली प्रतियोगिता को रोकना आवश्यक है। ताकि यह विकासशील देशों के हितों के अनुकूल कार्य करने लगे। आज विकासशील देशों की यह मांग है कि वर्तमान विश्व व्यापार व्यवस्था (ब्रेटनवुड व्यवस्था) को पूरी तरह समाप्त किया जाए और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के नियमों को विकासशील देशों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाए ताकि नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का निर्माण हो सके।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्तमान अर्थव्यवस्था की पुन:संरचना, ब्रेटनवुड व्यवस्था में पूर्ण संशोधन, पुराने ऋणों की समाप्ति, विश्व व्यापार में तृतीय विश्व के देशों को अधिक हिस्सा प्रदान करना, तकनीकी हस्तांतरण, अंतर्राष्ट्रीय निर्णयों में उचित भागेदारी, कृषि तथा उद्योग के लिए अधिक आर्थिक सहायता आदि की व्यवस्था द्वारा नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसके लिए पारस्परिक अन्तर्निर्भरता की बजाय आत्मनिर्भरता की अधिक आवश्यक है। आज तृतीय विश्व के देशों में आपसी सहयोग की प्रवृति जन्म ले रही है। लम्बे समय से G.77, G.15 तथा दक्षिण-दक्षिण सहयोग आदि प्रयासों से नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की दिशा में ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। लेकिन विकासशील देशों में आपसी सहयोग की भावना की कमी के चलते दक्षिण-दक्षिण सहयोग के कार्यक्रम को भी भारी धक्का लग रहा है। ऐसी परिस्थितियों में NIEO की कल्पना करना अप्रासंगिक होगा। यदि NIEO की स्थापना का मार्ग तैयार करना है तो सबसे पहले विकासशील देशों में आपसी सहयोग की प्रवृति बढ़ानी होगी और उत्तर-दक्षिण संवाद को बनाए रखने के लिए विकसित देशों पर दबाव बनाना होगा ताकि वर्तमान अन्यायपूर्ण विश्व अर्थव्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में विकासशील देशों द्वारा किए जाने वाले प्रयासों को विकसित राष्ट्रों का भी भरपूर सहयोग प्राप्त हो सके।

1 Comments

Previous Post Next Post