संविधान द्वारा राज्यपाल को पर्याप्त व्यापक शक्तियाँ दी गयी है। राज्यपाल की शक्तियों का अध्ययन इन रूपों में किया जा सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 153 व्यवस्था करता है कि प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। एक ही व्यक्ति एक से अधिक राज्यों का राज्यपाल भी हो सकता है। राज्यपाल राष्ट्रपति के द्वारा पांच वर्ष के कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है तथा वह राष्ट्रपति की इच्छा तक अपने पद पर बना रहता है। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि राज्यपाल की नियुक्ति पांच वर्ष के लिए की जाती है परन्तु इसे इस काल से पहले भी हटाया जा सकता है। कार्यकाल की समाप्ति पर उसी राज्य में या अन्य राज्य में दुबारा नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है। भारत का कोई भी नागरिक जिसकी आयु 35 वर्ष या इससे अधिक न हो और वह अन्य कारणों से अयोग्य न हो किसी भी राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है। यहां पर स्पष्ट करना उचित होगा कि राष्ट्रपति सदैव मंत्रिमण्डल के परामर्श पर कार्य करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वास्तव में राज्यपाल की नियुक्ति और उसका हटाया जाना केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की इच्छा पर होता है। संविधान निमार्ण के समय सोचा गया था कि राज्यपाल को राज्य की जनता द्वारा चुना जाये परन्तु बाद में इस विचार को छोड़ दिया गया।

संविधान राज्यपाल की नियुक्ति के सम्बन्ध में किसी प्रक्रिया का वर्णन नही करता। परन्तु संविधान सभा में यह इच्छा व्यक्त की गई कि सामान्यत: राज्यपाल राज्य का निवासी नही होना चाहिए तथा नियुक्ति से पहले केन्द्र को राज्य के मुख्यमन्त्री से परामर्श कर लेना चाहिए। इस संदर्भ में पहली परम्परा का तो सामान्यत: पालन किया जा रहा है परन्तु दूसरी परम्परा के बारे में विवाद है। विशेषत: 1967 के बाद से मुख्यमंत्रियों की यह शिकायत रही है कि उनसे या तो परामर्श किया ही नही जाता या परामर्श के नाम पर उन्हें केवल यह जानकारी दे दी जाती है कि फलां व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त करने पर विचार किया जा रहा हैं। वास्तव में पिछले वर्षो में राज्यों की राजनीति में राज्यपालों की भूमिका के विवाद के संदर्भ में राज्यपाल की नियुक्ति का प्रश्न भी विवादित हो गया है। अलोचको का मत है कि केन्द्र में शासित राजनीतिक दल अपने दल गत हितों को सामने रखकर सक्रिय राजनितिज्ञों को राज्यपाल नियुक्त करते है।

नियुक्ति के संदर्भ में विवाद को सम्मुख रखते हुए केन्द्र राज्य सम्बन्धों पर विचार करने के लिए नियुक्त सरकारिया आयोग ने कुछ सुझाव दिए है। उनके अनुसार राज्यपाल के पद पर नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति सामाजिक जीवन के किसी पहलु में सम्मानित जन होना चाहिए, वह राज्य से बाहर का निवासी हो, स्थानीय तथा राज्य स्तर की राजनीति से उसका गहरा सम्बन्ध न हो और सामान्यतरूप से तत्कालीन राजनीति में सक्रिय न हो। नियुक्ति से पहले मुख्यमन्त्री से परामर्श आवश्यक होना चाहिए। सरकारिया आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि सामान्यत: राज्यपाल को पांच वर्ष के कार्यकाल से पहले नहीं हटाया जाना चाहिए। यदि ऐसा अत्यन्त आवश्यक हो तो उसके कारण स्पष्ट किए जाने चाहिए। आयोग के इन सुझावों के बावजूद व्यवहार में राज्यपाल की नियुक्ति तथा पदयुक्ति पूर्णत: राजनीतिक आधारों पर ही की जा रही है।

राज्यपाल के कार्य और शक्तियां

संविधान द्वारा राज्यपाल को पर्याप्त व्यापक शक्तियाँ दी गयी है। राज्यपाल की शक्तियों का अध्ययन इन रूपों में किया जा सकता है। 
  1. कार्यपालिका शक्तियां
  2. विधायी शक्तियां
  3. वित्तीय शक्तियां
  4. न्याचिक शक्तियां
  5. विविध शक्तियां
1. कार्यपालिका शक्तियां: राज्य की कार्यपालिका शक्तियां राज्यपाल में निहित है जिन्हें वह स्वयं या अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा स्मपादित करता है। वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है तथा उसके परामर्श पर अन्य मन्त्रियों की। वह महद्धिवक्ता, लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा इसके सदस्यों की नियुक्ति करता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में उससे परामर्श किया जाता है। राज्यपाल की कार्यपालिका शक्तियां राज्यसूची में उल्लिखित विषयों से सम्बन्धित हैं। समवर्ती सूची के विषयोंं पर राष्ट्रपति की स्वीकृति के अन्तर्गत वह अपने अधिकारों का प्रयोग करता है। राज्य सरकार के कार्य के सम्बन्ध में वह नियमों का निर्माण करता है। वह मन्त्रियों के बीच कार्यो का वितरण भी करता है। उसे मुख्यमन्त्री से किसी भी प्रकार की सूचना मांगने का अधिकार है। 

राज्य के मुख्यमन्त्री का यह कर्तव्य है कि वह राज्यपाल को मन्त्रिमण्डल के सभी निर्णयों से अवगत कराये। वह मुख्यमन्त्री को किसी मन्त्री के व्यक्तिगत निर्णय को सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल के समक्ष विचार के लिए रखने को कह सकता है।

2. विधायी शक्तियां: राज्यपाल राज्य की व्यवस्थापिका का एक अविभाज्य अंग होता है। वह व्यवस्थापिका के अधिवेशन बुलाता है और स्थगित करता है। वह विधानमण्डल के निम्न सदन को विघटित भी कर सकता है। महानिर्वाचन के बाद विधानमण्डल की पहली बैठक में वह एक या दोनों सदनों को किसी विधेयक के सम्बन्ध में सन्देश भेज सकता है।

राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक पर उसकी स्वीकृति आवश्यक है। वह विधेयक को अस्वीकार कर सकता या उसे पुनर्विचार के लिए विधानमण्डल को लौटा सकता है। अगर विधानमण्डल दूसरी बार विधेयक पारित कर देता है तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी ही होगी। वह कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है। राज्यपाल आवयकता पड़ने पर विधानमण्डल की बैठक के बीच की अवधि में अध्यादेश जारी कर सकता है। इन अध्यादेशों का वही बल तथा प्रभाव होता है जो राज्य के विधान मण्डलों द्वारा पारित अधिनियम का होता है। यह अध्योदेश विधानमण्डल की बैठक प्रारम्भ होने के 6 सप्ताह बाद तक क्रियाशील रहता है। यदि 6 सप्ताह से पहले ही विधानमण्डल उस अध्यादेश को अस्वीकृत करने का प्रस्ताव पास कर दे तो ऐसी स्थिति में अध्यादेश को रद्द या समाप्त समझा जायेगा। 

राज्यपाल राज्य विधान परिषद के सदस्यों को ऐसे लोगों में से नामजद करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारिता आन्दोलन तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष तथा व्यवहारिक ज्ञान हो। अगर वह ऐसा समझे कि विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीें हुआ है, तो वह इस वर्ग के कुछ सदस्यों को मनोनीत कर सकता है। इस प्रकार राज्यपाल को विधायी क्षेत्र में भी व्यापक शक्तियां प्राप्त है।

3. वित्तीय शक्तियां: राज्यपाल को कुछ वित्तीय शक्तियां भी प्राप्त है। राज्य विधान मण्डल में राज्यपाल की पूर्व-स्वीकृति के बिना कोई भी धन- विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। वह विधानमण्डल के समक्ष प्रतिवर्ष बजट प्रस्तुत करवाता है तथा उसकी सिफारिश के बिना कोई भी अनुदान की मांग नहीं की जा सकती है। राज्यपाल विधानमण्डल से पूरक, अतिरिक्त तथा अधिक अनुदान की भी मांग कर सकता है। राज्य की संचित निधि राज्यपाल के ही अधिकार में रहती है तथा विधानमण्डल से स्वीकृति की अपेक्षा में वह इस विधि से किसी प्रकार के व्यय की अनुमति दे सकता है।

4. न्यायिक शक्तियां: संविधान के अनुच्छेद 161 के अनुसार जिन विषयों पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार होता है उन विषयों सम्बन्धि किसी विधि के विरूद्ध अपराध करने वाले व्यक्तियों के दण्ड को राज्यपाल कम कर सकता है, स्थागित कर सकता है, बदल सकता है तथा क्षमा भी कर सकता है।

5. विविध शक्तियां: राज्यपाल को अन्य अनेक शक्तियां भी प्राप्त है :
  1. वह राज्य लोक सेवा आयोग का वार्षिक प्रतिवेदन और राज्य की आय व्यय के सम्बन्ध में महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन प्राप्त करता है और उन्हें विधानमण्डल के समक्ष रखता है।
  2. अगर वह देखता है कि राज्य का प्रशासन संविधान के अनुसार चलना सम्भव नहीं है तो वह राष्ट्रपति को राज्य में संवैधानिक यन्त्र की विफलता के सम्बन्ध में सूचना देता है और उसके प्रतिवेदन पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होता है। संकटकालीन स्थिति में वह राज्य के अन्दर राष्ट्रपति के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है। 
  3. संविधान के द्वारा किन्हीं राज्यों के राज्यपालों को कुछ विशेष कार्यो के संबंध में स्वविवेकीय शक्तियां भी प्रदान की गयी है। नागालैण्ड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, असम, मिजोरम, मेघालय और त्रिपुरा के राज्यपालों को उनके अपने विवेक पर विशिष्ट कार्य कार्यन्वित करने के लिए सौपें गये है।

राज्यपाल की स्थिति या भूमिका

संविधान के अनुसार राज्यपाल की स्थिति राज्य में उसी प्रकार की है, जिस प्रकार की राष्ट्रपति की संघ सरकार में है। परन्तु दोनों की स्थिति में सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप में भिन्नता पाई जाती है। सैद्धान्तिक तौर पर सभी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल में केन्द्रीत है और वह राज्य प्रशासन का स्त्रोत है। उसके नाम पर राज्य का प्रशासन चलाया जाता है। वह मुख्यमन्त्री, मंत्रिपरिषद के सदस्यों तथा राज्य के उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता है। उसकी स्वीकृति के बिना कोई भी कानून बनाया नहीं जा सकता परन्तु राज्य स्तर पर केन्द्र की भांति संसदीय प्रणाली को अपनाए जाने के कारण वास्तव मेंं राज्यपाल स्वयं अपनी शक्तियों का प्रयोन नही करता। उसे संवैधानिक शासक होने के नाते साधारणत: मन्त्रिपरिषद के परामर्श के अनुसार कार्य करना पड़ता हैं। यद्यपि संविधान द्वारा इस बात का स्पष्टीकरण नहीं किया गया था, परन्तु अब राज्यपाल के लिए मन्त्रिपरिषद के परामर्श को मानना आवश्यक है। 

इसका मुख्य कारण यह है कि मन्त्री राज्यपाल के कार्यो के लिए व्यक्तिगत तथा संयुक्त रूप से विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होते है इसलिए राज्यपाल की शक्तियों का प्रयोग मन्त्रियों द्वारा ही किया जाता है। वह स्वयं केवल असाधरण परिस्थितियों में ही इसका प्रयोग कर सकता है।

डा0 अम्बेडकर ने संविधान सभा में राज्यपाल की शक्तियां तथा स्थिति का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कहा था कि, “राज्यपाल की शक्तियां इतनी सिमित, नाममात्र होगी तथा उसकी स्थिति इतनी दिखावटी होगी कि वह कोई भी कार्य अपनी इच्छा तथा व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर नहीे कर सकेगा।” संविधान के अनुसार उसके लिए सभी विषयों पर मंत्रिपरिषद का परामर्श स्वीकार करना आवश्यक है। इसका समर्थन कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस प्रकार किया है कि, “राज्यपाल इस संविधान के अन्तर्गत अपने मंत्रियों की सलाह के बिना कोई भी कार्य नहीं कर सकता।” 

एच0बी0 कॉमथ के अनुसार, “राज्यपाल एक और से मुख्यमन्त्री तथा दूसरी ओर से राष्ट्रपति अथवा वास्तव में प्रधानमन्त्री के हाथ में कठपुतली है।”

परन्तु इन विचारों के होते हुए भी राज्यपाल का पद सर्वथा प्रभावहीन नहीं है। उसे कुछ ऐसी शक्तियां भी प्राप्त है जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है:
  1. यद्यपि साधारणत: राज्यपाल विधानमण्डल में बहुमत दल के नेता को मुख्यमन्त्री पद के लिए निमन्त्रण देता है और फिर उसकी सलाह से दूसरे मन्त्रियों को नियुक्त करता है परन्तु विशेष परिस्थितियों में मुख्यमंत्री का चुनाव वह अपनी इच्छा से भी कर सकता है-यदि आम चुनाव के बाद किसी भी दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त न हो या जब बहुमत दल में फूट पड़ जाने के कारण किसी भी दल को प्रत्यक्ष बहुमत दल को प्रत्यक्ष बहुमत का समर्थन न रहे या जब मुख्यमन्त्री अविश्वास का प्रस्ताव पास हो जाने के कारण स्वंय त्यागपत्र दे दें, तो राज्यपाल ऐसी दशा में अपनी इच्छा से किसी भी व्यक्ति को, जिसें वह विधानसभा में बहुमत प्राप्त करने के योग्य समझे, मुख्यमन्त्री नियुक्त कर सकता है।
  2. किसी राज्य में संवैधानिक सरकार के विफल हो जाने के समय राज्यपाल वास्तविक शासक के रूप में कार्य करता हैं। वह निर्णय करता है कि राज्य सरकार संविधान की धाराओं के अनुसार कार्य कर रही है कि नहीं और ऐसी स्थिति के बारे में वह राष्ट्रपति को सूचित करता है। राज्यपाल के इस अधिकार का होना इसलिए आवश्यक है कि कोई भी मुख्यमन्त्री अपने मन्त्रिपरिषद के विघटन के लिए राज्यपाल को सूझाव नहीं देगा तथा यह राज्यपाल को स्वयं निर्णय करना पड़ता है। राज्यपाल की सिफारिश के बाद यदि राष्ट्रपति संविधान की धारा 356 के अन्तर्गत किसी राज्य में संकटकाल की घोषणा कर दे तो राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वास्वतिक कार्यपालिका की भांति कार्य कर सकता है। राज्य विधानसभा में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त न होने पर या मुख्यमन्त्री के परामर्श अनुसार विधानसभा विघटित करने का निर्णय भी वह स्वयं करता है। ऐसी स्थिति में मुख्यमन्त्री को स्वीकार करना या न करना राज्यपाल की इच्छा पर निर्भर है।
  3. राज्यपाल विधानमण्डल द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रख सकता है। उसकी इस शक्ति को चुनौती नही दी जा सकती।
  4. वह मुख्यमन्त्री से किसी भी विषय पर सूचना प्राप्त कर सकता है और उसे किसी भी विषय पर जिस पर एक मंत्री ने निर्णय किया हो, समस्त मन्त्रिपरिषद द्वारा विचार करने के लिए कह सकता है। ऐसी दशा में मुख्यमन्त्री को राज्यपाल द्वारा पूछे गए विषय पर सूचना अवश्य देनी पड़ती है तथा एक मंत्री द्वारा किए गए निर्णय पर समस्त मन्त्रिपरिषद को निर्णय लेना पड़ता है।
  5. संविधान के संशोधन अनुसार पंजाब तथा आंध्रप्रदेश के राज्यपालों को प्रादेशिक समितियों तथा राज्य विधानमण्डलों में किसी विषय पर मतभेद हो जाने पर निर्णय करने का विशेष अधिकार दिया गया है। इसी प्रकार संविधान की धारा 371(2) के अनुसार मुंबई तथा गुजरात के राज्यपालों के राज्यों के विशेष प्रदेशों के विकास के लिए व्यय करने का अधिकार दिया गया है। नागालैंड के राज्यपाल को वित एवं कानून तथा शक्ति की व्यवस्था के सम्बन्ध में विशेष अधिकार दिए गए हैं।
  6. राज्यपाल को राज्य के अल्पसंख्यक लोगों के अधिकारों के सरंक्षक के रूप में कार्य करने का उत्तरदायित्व भी सौंपा गया है।
कुछ लोग राज्यपाल के सविवेक अधिकारों (Discretionary Powers) की आलोचना करते है। उनका कहना है कि यदि केन्द्र तथा राज्यों में भिन्न-भिन्न दलों की सरकारें हो तो केन्द्रीय सरकार राज्यपाल को राज्य में विरोधी दल की सरकार का दमन करने के लिए प्रयोग कर सकती है। लेकिन देश की सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों पर काबू पाने तथा देश को संगठित रखने के लिए इन अधिकारों का होना अति आवश्यक है।

श्री पायली के शब्दों, “यद्यपि ये साधारण परिस्थितियां नही है फिर भी ऐसे देश में जहां लोकतन्त्रीय संस्थाएं अभी विकास की अवस्था में है और जहां प्रादेशिक, भाषायी और दूसरे विकेद्रीकरण के तत्वों का अन्य भागों पर विशेष प्रभाव है वहां ऐसी सम्भावनाओं का होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति का अनुभव केवल राज्यपाल ही कर सकता है और वह ही यथायोग्य कार्यवाही, जिसमें मन्त्रिपरिषद को भंग किया जाना भी शामिल है कर सकता है।”

इसका अर्थ यह नहीं हैं कि राज्यपाल केन्द्र में सत्ताधारी दल के हाथ में कठपुतली बन जाए। जहां उसे राष्ट्रीय अखण्डता को स्थापित करने और विकेंद्रीकरण के तत्वों का दमन करने के लिए केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करना चाहिए, वहां उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह राज्य के मुख्य कार्यपालिका के रूप में अपनी शक्तियों का प्रयोग किसी राजनैतिक प्रभाव से ऊपर उठकर करे। विशेषकर जब राज्य में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हुए भी राज्य के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसी स्थिति में उसकी सहायता के लिए परामर्शदाताओं (Advisers) की नियुक्ति की जाती है और वह उनकी सहायता से राज्य के शासन का संचालन करता है।

राज्यपाल की स्थिति का एक और भी पहलू है। वह राज्य का केवल संवैधानिक मुख्य कार्यपालिका ही नहीं, राज्य में केन्द्र का प्रतिनिधि (Agent) भी है। संविधान द्वारा कई परिस्थितियों में राज्यपाल को केन्द्र की और से निर्देश देने की व्यवस्था की गई है। संविधान की धाराओं के अनुसार केन्द्रीय सरकार राज्य सरकार को अपनी कार्यकारी शक्ति के प्रयोग के सम्बन्ध में निर्देशन दे सकती है और इन निर्देशनों को कार्यविन्त करवाने का उत्तरदायित्व राज्यपाल पर होता है। साध् ाारणत: केन्द्र सरकार के निर्देशों को राज्य सरकार द्वारा मान्यता दी जाती है, परन्तु कभी ऐसा भी संभव हो सकता है कि राज्य सरकार इन निर्देशनों का पालन न करना चाहे, विशेषकर जब केन्द्र तथा राज्यों में भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों की सरकार हो, तब समस्या और भी गंभीर हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में राज्यपाल की स्थिति बड़ी सौचनीय हो जाती है, क्योंकि एक और राज्य में संवैधानिक सरकार की व्यवस्था होने के कारण राज्यपाल को मन्त्रिमण्डल के परामर्श अनुसार कार्य करना पड़ता है तथा दूसरी ओर उसे केन्द्र के प्रतिनिधि के उत्तरदायित्व को भी निभाना पड़ता है। ऐसी दशा में जब राज्य सरकार केन्द्र के निर्देश को न माने तो राज्यपाल केन्द्रीय निर्देश को लागू करने के लिए अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है और यदि वह ऐसा न करे तो केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल राष्ट्रपति को उसे पदच्चुत करने का परामर्श दे सकता है। राज्यपाल को इस प्रकार संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ता है और केन्द्र द्वारा राज्यपाल की स्थिति का शोषण किया जा सकता है। विशेषकर जब केन्द्र में सत्ताधारी दल राज्यों में विरोधी दलों के मन्त्रिमण्डलों का विघटन करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से राज्यपाल का प्रयोग करना चाहे, तो उन्हें बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति से यद्यपि राज्यपाल को केन्द्र के ओदश अनुसार चलना पड़ता है फिर भी उसे अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग बड़े सावधान होकर करना चाहिए और केन्द्र का प्रतिनिधि होते हुए भी राज्य सरकार के अधिकारों की रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे केन्द्र तथा राज्य सरकारों में गतिरोध को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

उपरोक्त विचार-विमर्श से यह प्रतीत होता है कि यद्यपि संविधान के निर्माता राज्यपाल को संसदीय प्रणालीके अनुसार संवैधानिक मुखिया की परिस्थिति प्रदान करना चाहते थे, परन्तु फिर भी उसे विशेष परिस्थितियों में वास्तविक कार्यपालिका के रूप में कार्य करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त राज्यपाल की स्थिति पर इस पद पर नियुक्त किए गए व्यक्ति के व्यक्तित्व का भी विशेष प्रभाव होता है। जैसे कुछ राज्यपाल केवल संवैधानिक स्थिति से ही सन्तुष्ट होते है परन्तु श्री एन0 वी0 गाडगिल, श्री धर्मवीर, श्री वी0 एन0 चक्रवर्ती तथा श्री कानूनगों जैसे राज्यपालों ने इस पद को विशेष महत्व प्रदान किया है जिससे राज्यपाल की स्थिति को संवैधानिक मुखिया की अपेक्षा वास्तविक कार्यपालिका होने में प्रोत्साहन मिला है। इसके इलावा राष्ट्रपति की भांति राज्यपाल को राज्य विधानमण्डल महाभियोग द्वारा हटा नहीं सकता। उसे केवल राष्ट्रपति ही पद से हटा सकता है तथा वह केवल राष्ट्रपति के प्रति उत्तदायी है। इससे राज्यपाल की स्थिति को विशेष बल मिला है तथा वह केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सकता है।

अंत में यह कहा जा सकता है कि राज्य की स्थिति संवैधानिक मुखिया तथा वास्तविक प्रशासक दोनों की है। वह एक ही समय में राज्य का मुख्य कार्यपालिका भी है तथा संधीय सरकार का प्रतिनिधि भी है।

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