शस्त्र नियंत्रण तथा नि:शस्त्रीकरण का अर्थ, प्रकार

शस्त्र नियंत्रण तथा नि:शस्त्रीकरण का अर्थ

यद्यपि शस्त्र नियंत्रण तथा नि:शस्त्रीकरण एक जैसे शब्द लगते हैं लेकिन इन दोनों में सुक्ष्म अन्तर है। “शस्त्र नियंत्रण में वे सभी प्रयास शामिल हैं जो शस्त्र दौड़ में कमी करके युद्ध की सम्भावनाओं को कम करते हैं या इसके क्षेत्र को सीमित करते हैं। शस्त्र नियंत्रण नि:शस्त्रीकरण से अधिक व्यापक अवधारणा है। इसमें भविष्य में हथियारों का नियंत्रण भी शामिल होता है। नि:शस्त्रीकरण केवल वर्तमान में अस्तित्ववान शस्त्रें के नियंत्रण से संबंधित होता है, जबकि शस्त्र नियंत्रण भविष्य में उत्पादन किए जाने वाले हथियारों पर भी रोक लगाता है। आज शस्त्र नियंत्रण का प्रयोग भावी परमाणु शस्त्रें के उत्पादन को रोकने के लिए अधिक किया जाता है। शस्त्र नियंत्रण राष्ट्रों में कटौती तथा प्रतिबन्ध के मेल से बनी अवधारणा है जो निकटवर्ती अवधारणा नि:शस्त्रीकरण से अधि व्यापक है।

नि:शस्त्रीकरण की अवधारणा इस बात पर आधारित है कि शस्त्रस्त्र सैन्य बलों को विघटित कर देने तथा आयुधों को समाप्त कर देने पर ऐसा अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण विकसित होगा, जिसमें युद्ध के स्थान पर शान्ति के िलाए महत्वपूर्ण स्थान होगा। इस प्रकार - “नि:शस्त्रीकरण उस महाविनाश को रोकने का एक प्रयास है जो युद्ध के रूप में अभिव्यक्ति प्राप्त करता है और जिससे सम्पूर्ण मानवता की हानि होती है।” मार्गेन्थो ने नि:शस्त्रीकरण को परिभाषित करते हुए कहा है - “शस्त्र दौड़ को समाप्त करने के उद्देश्य से विशेष या उसी प्रकार के शस्त्रें की समाप्ति या कटौती नि:शस्त्रीकरण कहलाती है।”

इस प्रकार नि:शस्त्रीकरण युद्ध सामग्री तथा सैनिकों की संख्या में कटौती का पक्षधर है, जबकि शस्त्र नियंत्रण में वे सभी उपाय शामिल हैं जो शस्त्रें के प्रयोग को सीमिति या नियमित करते हैं। नि:शस्त्रीकरण इस विश्व में वर्तमान में अस्तित्ववान शस्त्रें को समाप्त करने या नष्ट करने से सरोकार रखता है। यह शस्त्र नियंत्रण से कम व्यापक है। शस्त्र नियंत्रण भविष्य में उत्पादित शस्त्रें को सीमित या प्रतिबन्धित करता है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि नि:शस्त्रीकरण वर्तमान में युद्ध सामग्री व सैनिकों को नियंत्रित करने तथा शस्त्र नियंत्रण शस्त्र दौड़ को नियंत्रित करने का प्रयास है। लेकिन ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे से अलग न होकर एक दूसरे की पूरक हैं। विद्यमान युद्ध सामग्री में कटौती तब तक अपूर्ण ही रहेगी जब तक शस्त्रें के उत्पादन या शस्त्र दौड़ पर रोक न लगाई जाए। इन दोनों के उद्देश्य समान हैं - अंतर्राष्ट्रीय जगत में शस्त्रें पर नियंत्रण या कटौती द्वारा मानव समाज को युद्ध की विभीषिका से बचाना। इसलिए वर्तमान समय में इन दोनों का समान महत्व है। आज परमाणु आयुद्यों के अस्तित्व ने सम्पूर्ण युद्ध की सम्भावना को प्रबल बना दिया है। इसलिए विश्व के सभी देश नि:शस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण की वकालत करते हैं।

नि:शस्त्रीकरण के प्रकार

सामान्य एवं स्थानीय नि:शस्त्रीकरण- 

सामान्य नि:शस्त्रीकरण शस्त्रर्थों का ऐसा परिसीमन है जिस पर अधिकांश राष्ट्र सहमत होते हैं। इसके अंतर्गत सन्धिकर्ता देशों पर गुणात्मक एवं मात्रत्मक नियंत्रण लगाए जाते हैं। इसका उदाहरण 1922 का वॉशिंगटन नौसैनिक समझौता है जिस पर हस्ताक्षर कर तत्कालिक महाशक्तियों ने नौ सैनिक क्षमताओं की होड़ की सम्भावनाओं को कम कर दिया था। स्थानीय नि:शस्त्रीकरण क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से सीमित होता है तथा इसमें गिने-चुने राष्ट्र ही शामिल होते हैं। इस प्रकार के नि:शस्त्रीकरण का उद्देश्य क्षेत्रीय स्थिरता व शान्ति को सुदृढ़ करना होता है। 1871 का रश बागोट समझौता इसका उदाहरण है।

मात्रत्मक एवं गुणात्मक नि:शस्त्रीकरण- 

मात्रत्मक नि:शस्त्रीकरण में सैन्य बलों तथा उपलब्ध शस्त्रस्त्रें का संख्यात्मक परिसीमन किया जाता है। इसका उद्देश्य सब प्रकार के शस्त्रें में कटौती करना है। 1932 का नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन इसका प्रमुख उदाहरण है। गुणात्मक नि:शस्त्रीकरण में विशिष्ट प्रकार के शस्त्रें की कटोैती की जाती है। इसमें केवल घातक शस्त्रें का ही परिसीमन किया जाता है। 1868 के सैंट पीटर्सबर्ग समझौते द्वारा फटने वाली डमडम गोलियों का निषेध किया जाना इसी प्रकार के नि:शस्त्रीकरण का उदाहरण है। 1987 की ‘मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्र सन्धि’ भी (अमेरिका और सोवियत संघ) इसका प्रमुख कारण है।

पारस्परिक तथा आणविक नि:शस्त्रीकरण-

पारम्परिक नि:शस्त्रीकरण में परम्परागत शस्त्रें व सेनाओं में कटौती का नाम है। आज आणविक युग में परम्परागत शस्त्रें का अधिक महत्व नहीं रह गया है। 1968 की परमाणु अप्रसार सन्धि आणविक नि:शस्त्रीकरण का उदाहरण है इसके अंतर्गत आणविक आयुद्यों के विकास व प्रसार को परिसीमित किया गया है।

पूर्ण एवं आंशिक नि:शस्त्रीकरण- 

पूर्ण नि:शस्त्रीकरण में सब प्रकार के शस्त्रें को समाप्त करने का प्रयास शामिल है। इसमें आनुपातिक कटौती के स्थान पर सम्पूर्ण कटौती शामिल होती है। इसका अर्थ है एक ऐसी विश्व व्यवस्था की स्थापना जिसमें युद्ध करने के सारे मानवीय और भौतिक साधन समाप्त कर दिए गए हों। इसके तहत समस्त सैन्य बल व सैन्य सामग्री नष्ट कर दी जाएगी। ऐसी स्थिति अभी नहीं है। यह केवल एक मृगतृष्णा ही है। आंशिक नि:शस्त्रीकरण में सब प्रकार के शस्त्रें का परिसीमत नहीं किया जाता है। यह सामान्य या स्थानीय संदर्भ में सैन्य बलों तथा शस्त्रस्त्रें पर मात्रत्मक एवं गुणात्मक सीमाएं लगाता है जिससे युद्ध की विनाशकता में कमी आती है। SALT-I और SALT-II इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

अनिवार्य और ऐच्छिक नि:शस्त्रीकरण

अनिवार्य नि:शस्त्रीकरण युद्ध के बाद विजेता राष्ट्रों द्वारा पराजित राष्ट्रों पर थोपा जाता है। प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्धों के बाद जर्मनी का नि:शस्त्रीकरण किया जाना इसका प्रमुख उदाहरण है। इस प्रकार का नि:शस्त्रीकरण भेदभावपूर्ण होता है और इससे स्थायी शान्ति की नींव नहीं पड़ सकती। इसके विपरीत ऐच्छिक नि:शस्त्रीकरण को राष्ट्र स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं। 1968 की अणु प्रसार निरोध सन्धि इसका उदाहरण है। इससे शान्ति की नींव मजबूत होती है। यह स्थायी होता है। इसे बाध्यकारी बल की आवश्यकता नहीं होती है।

नि:शस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण क्यों?

शस्त्रीकरण के दुष्परिणामों को संसार दो विश्व युद्धों के परिणामों के रूप में झेल चुका है। जापान ने तो परमाणु शस्त्रीकरण के व्यापक प्रभावों की जो मार सही है, वह सर्वविदित है। आज तक मनुष्य ने शस्त्रें के बल पर जितने शान्ति के प्रयास किए हैं, वे अस्थायी ही रहे हैं। शान्ति को स्थाई रूप में कायम करने के लिए नि:शस्त्रीकरण तथा शस्त्र-नियंत्रण का होना अति आवश्यक है। इनके अभाव में विश्व शान्ति का विचार निर्मूल सा प्रतीत होता है। नि:शस्त्रीकरण विभिन्न महाशक्तियों में तनाव में कमी करके स्थायी शान्ति स्थापित करता है। आज आणविक युग में तो इसका महत्व और ज्यादा है। हम जिस वातावरण में जी रहे हैं, वह अशान्त व अविश्वास का है। शस्त्रीकरण ने मानव व प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग किया है। इसने राष्ट्रों के मध्य तनावों को जन्म दिया है। इसने तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावना को प्रबल बना दिया है। आज शान्ति, सुरक्षा व समृद्धि के लिए इसकी अत्यंत आवश्यकता है। नि:शस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण ही केवल एकमात्र ऐसा उपाय है जो विश्व शान्ति के विचार को प्रबल बना सकता है। इसलिए नि:शस्त्रीकरण व शस्त्र-नियंत्रण की आवश्यकता निम्न कारणों से है-
  1. नि:शस्त्रीकरण अंतर्राष्ट्रीय तनाव कम करता है- शस्त्रीकरण से शस्त्र-निर्माण की दौड़ में वृद्धि होती है। सभी राष्ट्र अल्प सुरक्षा के नाम पर शस्त्रें का भंडारण करने लग जाते हैं। इससे वे दूसरे के हितों की उपेक्षा करने का अपराध कर बैठते हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। राज्यों में वैमनस्य की भावना प्रबल हो जाती है। ऐसे में सदैव युद्ध का खतरा बना रहता है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना के लिए तनाव घटाना आवश्यक है और तनाव घटाने के लिए शस्त्र दौड़ तथा शस्त्र दौड़ घटाने के लिए नि:शस्त्रीकरण या शस्त्र नियंत्रण।
  2. नि:शस्त्रीकरण से आर्थिक विकास का मार्ग विकसित होता है - सभी नवोदित राष्ट्रों ने अपने आर्थिक विकास ने अनेक प्रयत्न किए हैं, लेकिन उनके सारे प्रयास असफल ही रहे हैं। अपना स्वतन्त्र राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के लिए इन देशों ने शस्त्र उत्पादन तथा शस्त्र-भण्डारण पर पानी की तरह पैसा बहाया है। शस्त्र दौड़ का प्रभाव विकसित देशों पर भी पड़ा है। इसलिए जब तक इन देशों का अधिकतर बजट शस्त्रें की खरीद-फरोख्त पर व्यय होगा, ये देश अपना आर्थिक विकास नहीं कर सकते। इसलिए आर्थिक विकास के लिए शस्त्रें पर खर्च किए जाने वाले व्यय को रोकना अति आवश्यक है। ऐसा केवल नि:शस्त्रीकरण या शस्त्र-नियंत्रण द्वारा ही सम्भव हो सकता है।
  3. नि:शस्त्रीकरण से युद्ध की सम्भावना में कमी आती है- यह बात सत्य है कि आज लड़ाई दो सेनाओं के बीच न होकर, दो हथियारों के बीच होती है। जिस देश के पास पर्याप्त मात्र में अस्त्र-शस्त्र हों, वह दूसरों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन जाता है। शक्ति मनुष्य को पथभ्रष्ट करती है और अत्यधिक शक्तिशाली होना नाश का कारण बनता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा जापान पर बमों का प्रयोग किया जाना उसके शक्ति प्रदर्शन का ही एक अंग था। शक्ति प्रदर्शन का सबसे अच्छा अवसर युद्ध होता है। इसलिए दूसरे देश की तरह प्रत्येक देश सैन्य या शस्त्र शक्ति में वृद्धि करना चाहता है ताकि जरूरत पड़ने पर उसका प्रयोग किया जा सके। यदि किसी देश के पास शस्त्र न हों तो वह युद्ध में अधिक विनाशकारी भूमिका नहीं निभा सकता। शस्त्र दौड़ को अपने राष्ट्रीय हितों के रूप में परिभाषित करने की जो प्रवृति द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बढ़ रही है, वह विश्व शान्ति के लिए खतरनाक है। शस्त्रीकरण अंतर्राष्ट्रीय वैमनस्य को बढ़ावा देकर, अन्त में युद्ध का कारण बनता है। अत: आज सबसे अधिक आवश्यकता शस्त्र दौड़ को रोकने की है ताकि तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं को धूमिल किया जा सके। इसके लिए यह जरूरी है कि अन्धाधुन्ध शस्त्र दौड़ व शक्ति प्रदर्शन से बचा जाए। ऐसी परिस्थिति में नि:शस्त्रीकरण ही एक मात्र उपाय है जो हमें युद्ध की विभीषिका से बचाकर शान्ति के मार्ग की ओर ले जा सकता है।
  4. नि:शस्त्रीकरण जन-कल्याण का मार्ग है- आज शस्त्र दौड़ के युग में गरीब से गरीब देश भी अपने राष्ट्रीय सुरक्षा व हितों के नाम पर शस्त्रें को खरीदने या उनका निर्माण करने पर अरबों-खरबों रूपये खर्च करते हैं। इससे वे अपनी जनता की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी न करने के दोषी बन जाते हैं। यदि आज जो राशि शस्त्र दौड़ पर खर्च हो रही है, उसे जनकल्याण के कार्यों पर खर्च कर दिए जाए तो समस्त विश्व की कायापलट हो सकती है। विश्व में बढ़ रही भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी तथा अकाल जैसी समस्याओं का सफलतापूर्वक निदान किया जा सकता है। शस्त्र मनुष्य का पेट नहीं भर सकते और न तन ढांपने के लिए उसे कपड़ा दे सकते हैं। आइजहावर ने इस बात में अपना मत देते हुए कहा है कि “प्रत्येक बन्दूक जिसे बनाया जाता है, प्रत्येक युद्धपोत जिसका जलावरण किया जाता है, प्रत्येक रॉकेट जिसे छोड़ा जाता है, अन्तिम अर्थों में उन लोगों के प्रति जो भूखे रहते हैं और जिन्हें खाना नहीं खिलाया जाता है, जो ठिठुरते हैं किन्तु उन्हें वस्त्र नहीं दिए जाते, एक चोरी का सूचक है।” आज सभी देश आर्थिक विकास के संसाधनों का शस्त्र साधनों पर जो खर्च कर रहे हैं, वह विश्व के भावी कल्याण के लिए शुभ संकेत नहीं है। इससे जन कल्याण का मार्ग अवरुद्ध होगा। यदि हमें जनकल्याण को बढ़ावा देना है और विश्व में सच्ची शान्ति की स्थापना करनी है तो शस्त्रें पर किए जाने वाले खर्च की दिशा आर्थिक विकास की ओर करनी होगी। आज विश्व शान्ति व समृद्धि के लिए आवश्यकता शस्त्रें की नहीं, नि:शस्त्रीकरण की है। नि:शस्त्रीकरण ही एक ऐसा उपाय है जो विश्व से भुखमरी, गरीबी, कुपोषण जैसी भयानक समस्याओं का निदान कर सकता है। इससे बढ़कर जनकल्याण का मार्ग कोई दूसरा नहीं हो सकता।
  5. शस्त्रीकरण से विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान नहीं हो सकता- शस्त्रीकरण से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कटुता व वैमनस्य की भावना का जन्म होता है। एक देश दूसरे देश से अवांछित व्यवहार करना आरम्भ कर देता है। शस्त्र शक्ति से सम्पन्न देश कमजोर देशों पर अपनी नीतियां थोपकर मनमाना हस्तक्षेप करने की प्रवृति को जन्म देता है। घृणा और द्वेष का नकारात्मक वातावरण पैदा होने लगता है। परस्पर विवाद इतने अधिक बढ़ जाते हैं कि उनके स्थायी युद्ध में बदलने की पूर्ण सम्भावना रहती है। शान्तिपूर्ण उपायों के लिए ऐसे अशान्त व विवादपूर्ण वातावरण में कोई स्थान नहीं होता हैं इसलिए शस्त्रीकरण पर नियंत्रण आवश्यक बन जाता है। नि:शस्त्रीकरण ही ऐसा साधन है जो अंतर्राष्ट्रीय विवादों के स्थायी समाधान के लिए शान्त व सकारात्मक वातावरण का निर्माण करता है।
  6. शस्त्रीकरण सर्वनाश का दूत है - आज विश्व के शास्त्रस्त्रें की जो होड़ बढ़ रही है, वह विश्व शान्ति के लिए शुभ संकेत नहीं है। आज बम्ब के आविष्कार ने द्रुतगामी प्रक्षेपास्त्रें को जन्म दे दिया है। आज एक स्थान पर ही बैठकर परमाणु शस्त्रें को ले जाने वाले वाहनों का बटन दबाकर विश्व के किसी भी कोने में विनाश किया जा सकता है। जापान पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रयोग किए गए बम एकमात्र टे्रलर थे। आज यदि अणुशक्ति की पूरी फिल्म देख ली जाए तो पृथ्वी पर कुछ भी नहीं बचेगा। सम्पूर्ण पृथ्वी एक अन्धकारमय आवरण से ढक जाएगी। अणु शक्ति के प्रयोग के बाद हजारों वर्षों तक जारी रहने वाला विकिरण भविष्य में जानव जाति के जन्म की सभी सम्भावनाओं को निर्मूल कर देगा। ऐसे सर्वनाश से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि शस्त्रीकरण की बजाय शस्त्र नियंत्रण व नि:शस्त्रीकरणपर ध्यान दिया जाए ताकि सम्पूर्ण मानव जाति व पृथ्वी को महाविनाश से बचाया जा सके।
  7. शस्त्रीकरण से अवांछित हस्तक्षेप को बढ़ा़वा मिलता है -शस्त्रीकरण असुरक्षा को ऐसा वातावरण निर्मित कर देता है कि कमजोर से कमजोर देश भी शस्त्र प्राप्ति के लिए विकसित देशों या शस्त्र निर्माता धनी देशों पर निर्भर हो जाता है। शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ ने शस्त्रीकरण को जिस कदर बढ़ावा दिया, वह विश्व शान्ति के लिए सबसे घातक बना हुआ है। अस्त्र आपूर्ति के नाम पर इन महाशक्तियों ने अवांछित हस्तक्षेप का जो खेल विश्व में खेला, वह सर्वविदित है। इसी तरह की प्रवृति आज भी है। अमेरिका जैसा देश पाकिस्तान के आर्थिक व राजनीतिक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। इससे एशिया महाद्वीप में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। महाशक्तियों द्वारा ऐसा हस्तक्षेप अनुचित है। इससे गरीब राष्ट्रों पर अनुचित दबाव पड़ता है। इसलिए यदि गरीब देशों की शस्त्र आवश्यकताओं कम हो जाएं या समाप्त हो जाएं तो विकसित देशों को विकासशील देशों में हस्तक्षेप का अवसर नहीं मिलेगा। उनकी इस निर्भरता को नि:शस्त्रीकरण के द्वारा ही कम किया जा सकता है।
  8. शस्त्रीकरण नैतिकता के विपरीत है- शस्त्रीकरण युद्ध को जन्म देता है और युद्ध सदैव अनैतिक होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर शस्त्रें का उत्पादन या संग्रह करना अनैतिक है। युद्ध राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का नैतिक साधन नहीं है। इससे मानवता की हानी होती है। नैतिकतावादी विचारकों का कहना है कि अच्छे साध्य की प्राप्ति के लिए साधन भी अच्छे ही होने चाहिए। इसलिए नि:शस्त्रीकरण ही एक ऐसा उपाय है जो नैतिकता के अधिक निकट हो सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि नि:शस्त्रीकरण ही विश्व शान्ति की स्थापना का सच्चा आधार हो सकता है। आज विश्व में चारों तरफ आतंक का जो संतुलन है, उसे नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों से ही कम या समाप्त किया जा सकता है। मानव जाति के अस्तित्व को आज सबसे अधिक खतरा आणविक हथियारों से है। नि:शस्त्रीकरण के बिना सम्पूर्ण विनाश को नहीं रोका जा सकता है। इसलिए आज अनेक राजनेता, कूटनीतिज्ञ, दार्शनिक व वैज्ञानिक विश्व में शस्त्र-दौड़ को कम करने या समाप्त करने की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। लेकिन कुछ स्वार्थी व्यक्ति नि:शस्त्रीकरण की बजाय शस्त्रीकरण को अधिक महत्व देते हैं। उनका कहना है कि नि:शस्त्रीकरण से हजारों कारखाने बन्द हो जाएंगे और अनेक देशों में बेरोजगारी तथा भुखमरी बढ़ जाएगी। इससे तकनीकी विकास का मार्ग अवरुद्ध होगा। उनका यह तर्क अधिक अच्छा नहीं है। मानव ज्ञान का मानवता के विनाश के लिए प्रयोग करना अनुचित व अनैतिक है। आज मनुष्य जाति को विनाश से बचाने के लिए नि:शस्त्रीकरण या शस्त्र नियंत्रण की अत्यधिक आवश्यकता है। विश्व राजनेताओं द्वारा इस दिशा में सकारात्मक प्रयास करने चाहिए ताकि विश्व शान्ति का आधार मजबूत हो। तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावनाएं क्षीण हों और मानवता की सुरक्षा व समृद्धि की गारन्टी प्राप्त हो।

नि:शस्त्रीकरण तथा शस्त्र-नियंत्रण के लिए किए गए प्रयास

नि:शस्त्रीकरण का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना शस्त्रीकरण का जब से मनुष्य ने शस्त्र निर्माण और उनके की कला सीखी, साथ में उनके दुष्प्रभावों की चिन्ता भी सताने लगी। मनुष्य सदैव शास्त्रस्त्रें से भय खाता आया है और शान्ति के बारे में विचार करता रहा है। उसकी या शासन सत्ता की तरफ से नि:शस्त्रीकरण के बराबर प्रयास किए जाते रहे हैं। लेकिन प्रारम्भिक चरण में उसे आंशिक सफलता भी प्राप्त नहीं हुई। नि:शस्त्रीकरण का प्रथम प्रयास सैद्धान्तिक तौर पर 1648 ई. में शुरू हुआ। इस समय वैस्टफालिया की सन्धि में प्रथम बार अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण तथा सैनिक शक्ति में कटौती का अनुभव किया गया। उस समय से आज तक इसकी निरन्तर प्रगति हो रही है। नि:शस्त्रीकरण के इतिहास को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है-
  1. प्रथम विश्व युद्ध से पहले
  2. प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध तक
  3. द्वितीय विश्व युद्ध से शीत युद्ध के अन्त तक
  4. शीत युद्ध के अन्त से वर्तमान समय तक

प्रथम विश्व युद्ध से पहले - 

प्रथम विश्व युद्ध से पहले 1648 की वैस्टफालिया सन्धि भी नि:शस्त्रीकरण की दिशा में प्रथम प्रयास थी। इसके बाद 1817 में रश-बेगोट समझौते द्वारा कनाडा-अमरीका सीमांत को नि:सैन्य करने पर सहमति जताई। नि:शस्त्रीकरण की दिशा में यह प्रथम व्यवस्थित प्रयास था जिस पर ब्रिटेन तथा अमेरिका ने सामूहिक रूप से स्वीकार किया। 1831 के फ्रांसीसी नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव में भी असैन्यकृत विश्व की कल्पना की गई, लेकिन इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया गया। इसके बाद 1868 की सैन्ट पीटर्सबर्ग सन्धि में भी फटने वाली डमडम गोलियों के प्रयोग की मनाही की गई। 1870 में ब्रिटेन भी नियोजना का प्रस्ताव रखा लेकिन इसका भी वही काल हुआ जो 1981 की फ्रांसीसी योजना का हुआ था। इसके उपरान्त 1874 में बैसेल्स प्रस्तावों में भी वायु प्रक्षेपास्त्रें के प्रयोग की मनाही की गई। इसे भी व्यापक समर्थन नहीं मिल सका।

19 वीं सदी के अन्त में 1899 के प्रथम हेग सम्मेलन में मानव कल्याण व विश्व शान्ति के लिए शस्त्रर्थों में कटौती करने पर विचार किया गया। इस सम्मेलन में हवा में से मार करने वाले अस्त्रें तथा विस्फोटकों को दागने पर प्रतिबंध लगाया गया और बेहोश करने वाली गैस का प्रयोग भी वर्जित किया गया। इसके बाद 1907 में सामूहिक नि:शस्त्रीकरण का सार्थक प्रयास द्वितीय हेग सम्मेलन में किया गया। इस सम्मेलन में सैनिक व्यय में कटौती का प्रस्ताव लाया गया लेकिन। इन दोनों सम्मेलनों ने युद्ध के संचालन को विनिमय करने तथा युद्ध की क्रूरताएं कम करने के प्रयासों की नींव अवश्य डाल दी। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत ने विश्व शान्ति के सारे उपायों को समाप्त कर दिया और 1914 से पूर्व नि:शस्त्रीकरण के सभी प्रयास कल्पना की वस्तु बनकर रह गए।

प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध तक - 

1919 में प्रथम विश्व युद्ध के समाप्त होते ही विश्व शांति के प्रयास तेज हो गए। इस युद्ध में प्रयोग किए गए हथियारों के प्रभावों पर व्यापक विचार विमर्श हुआ। भविष्य में ऐसे किसी भी युद्ध की सम्भावना को रोकने के लिए राष्ट्र संघ की स्थापना पर विचार किया गया और विश्व शांति बनाए रखने का उत्तरदायित्व इसे ही सौंपा गया। इसलिए प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ के अन्दर व इससे बाहर दोनों तरफ नि:शस्त्रीकरण के प्रयास किए गए।

राष्ट्र संघ द्वारा किए गए प्रस्ताव- राष्ट्र संघ के संविधान में धारा 8 के अंतर्गत शान्ति स्थापना के लिए राष्ट्रीय शास्त्रस्त्रें को राष्ट्रीय सुरक्षा के अनुरूप कम करने के लिए नि:शस्त्रीकरण समझौतों का प्रयास करने का प्रावधान किया गया। लीग की सदस्यता ग्रहण करने वाले देशों को शस्त्र नियंत्रण को स्वीकार करने की शर्त स्वीकार करना अनिवार्य था। 28 जून 1919 की वर्साय संधि को स्वीकार करने वाले देशों ने राष्ट्र संघ के सदस्यों के रूप में अपनी सैनिक शक्ति में कमी लाने का प्रथम व्यवहारिक प्रयास किया। इसके अंतर्गत विजेता राष्ट्रों द्वारा हारे हुए देशों का अनिवार्य नि:शस्त्रीकरण किया। राष्ट्रसंघ ने अपनी नि:शस्त्रीकरण की कार्य योजना को व्यावहारिक रूप देने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए- 1. स्थायी परामर्शदाता आयोग - राष्ट्रसंघ ने नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए जनवरी, 1920 में स्थायी परामर्शदाता आयोग की स्थापना की। विशुद्ध सैनिक संगठन होने के नाते यह नि:शस्त्रीकरण की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं कर सका। इसलिए नवम्बर, 1920 में इसमें 6 असैनिक सदस्यों को शामिल करके इसे अस्थायी मिश्रित आयोग में बदल दिया गया। अत: इससे नि:शस्त्रीकरण की दिशा में अधिक प्रगति नहीं हुई।

जेनेवा प्रोटोकोल - इसका उद्देश्य मध्यस्थता द्वारा सुरक्षा और सुरक्षा से नि:शस्त्रीकरण के प्रयास करना था। 15 जून, 1925 को प्रोटोकोल का अनुसरण करते हुए सामान्य नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन बुलाने पर विचार विमर्श हुआ लेकिन गे्रट ब्रिटेन ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस प्रयास राष्ट्रसंघ द्वारा जेनेवा प्रोटोकोल व्यवस्था के तहत किया गया नि:शस्त्रीकरण का प्रयास असफल हो गया।

सज्जीकरण आयोग - 1924 में अस्थायी मिश्रित आयोग द्वारा काम करना बन्द कर देने पर इसकी जगह राष्ट्र संघ ने सज्जीकरण आयोग की स्थापना की। इसका कार्य नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन के लिए तैयारी करना था। इस आयोग ने 1930 तक नि:शस्त्रीकरण मतभेदों को दूर करने में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं की। 1930 में व्यापक विचार विमर्श के बाद इस आयोग ने अपनी कार्य योजना का ढांचा पेश किया। इस योजना की मुख्य बातें थी:
  1. रासायनिक तथा जीवाणु फैलाने वाले युद्धों पर रोक लगाई जाए।
  2. स्थल युद्ध की सामग्री का मात्रत्मक तथा गुणात्मक परिसीमन किया जाए।
  3. अनिवार्य सैनिक सेवा को निश्चित सीमा तक कम किया जाए।
  4. हवाई अस्त्रें को अश्व-शक्ति के आधार पर सीमित किया जाए।
  5. स्थायी नि:शस्त्रीकरण आयोग की स्थापना की जाए।
जेनेवा सम्मेलन - सज्जीकरण आयोग की प्रमुख बातों को ही ध्यान में रखकर 13 फरवरी, 1932 को राष्ट्र संघ का नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन जेनेवा में हुआ। इसमें 61 राष्ट्रों के 232 प्रतिनिधियों ने अपने 337 प्रस्तावों सहित भाग लिया। यद्यपि यह सम्मेलन नि:शस्त्रीकरण की दिशा में एक व्यवस्थित प्रयास था लेकिन मंचूरिया संकट की काली छाया भी इस पर पड़ी। इस सम्मेलन में इन बातों पर विचार हुआ।
  1. आक्रमणकारी को कठोरतापूर्वक सजा देना तथा पंचनिर्णय को अनिवार्य बनाना।
  2. विवादों को मध्यस्थता द्वारा हल करना।
  3. राष्ट्र संघ की सुरक्षात्मक शक्ति का विकास अर्थात दण्डात्मक सेना का निर्माण
  4. लेकिन परस्पर सहयोग की भवना के अभाव के कारण यह सम्मेलन असफल रहा। इस सम्मेलन में प्रत्येक देश अपनी-अपनी धाक जमाने की फिराक में था। जर्मनी ने शस्त्रस्त्रें में समान कटौती का विचार रखा। उसने कहा कि वर्साय की सन्धि के अनुसार जो अन्याय उसके साथ हुआ था उसे समाप्त किया जाए। अब उसे भी अन्य यूरोपीय शक्तियों के समान ही सैन्य शक्ति का विकास करने का अवसर मिलना चाहिए। जब उसकी बात को मानने से इंकार कर दिया गया तो उसने राष्ट्र संघ के इस नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन से दूर होने की घोषणा कर दी। इस प्रकार राष्ट्र संघ के सदस्य देशों के भेदभावपूर्ण व्यवहार व गलत नीतियों के कारण नि:शस्त्रीकरण के इस व्यवस्थित प्रयास को गहरा आघात पहुंचा।

राष्ट्र संघ के बाहर किए गए प्रयास

1919 से 1939 तक विभिन्न देशों ने विश्व शांति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से आपस में अनेक वार्ताएं की जिससे नि:शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला। इस दौरान किए गए नि:शस्त्रीकरण के प्रयास हैं -

वाशिंगटन नौ सैनिक सम्मेलन - यह सम्मेलन 12 नवम्बर, 1921 से 6 फरवरी, 1922 तक वाशिगंटन (अमेरिका) में हुआ। इस सम्मेलन में सात सन्धियां की गई। इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी राष्ट्र संघ का सदस्य न होते हुए भी ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, बैल्जियम, हॉलैंड, पुर्तगाल, चीन व जापान के साथ भाग लिया। इस सम्मेलन का उद्देश्य विभिन्न देशों में नौ सेना के विस्तार के लिए अंतर्राष्ट्रीय शान्ति में बाधक प्रतिस्पर्धा को रोकना था। इस सम्मेलन में ‘नौसैनिक प्रतिस्पर्धा परिसीमन सन्धि पर सभी देशों ने हस्ताक्षर किए। इस सन्धि में नवीन विशाल नौ सैनिक पोत बनाने; अड्डे स्थापित करने, वर्तमान नौ सैनिक अड्डों की नए सिरे से किला बन्दी करने पर सहमति हुई। लेकिन इस सम्मेलन में पनडुब्बियों; छोटे युद्धपोतों, विध्वंसकों के सम्बन्ध में कोई आम राय नहीं बन सकी। फ्रांस ने इस सन्धि का समर्थन नहीं किया। इसलिए इसका व्यापारिक रूप नहीं बन सका और अंतर्राष्ट्रीय नौ-सैनिक शक्तियों में निर्णय प्रतिस्पर्धा जारी रही।

जेनेवा नौ-सेना सम्मेलन - अमेरिका की पहल पर 1927 में एक नवीन नौ सैनिक समझौता करने हेतु जेनेवा में सम्मेलन बुलाया गया। फ्रांस व इटली इसमें शामिल नहीं हुए। अमेरिका, जापान व ब्रिटेन के मध्य विचार विमर्श तक ही यह सम्मेलन सिमटकर रह गया। इन तीनों देशों में भी आपस में आप सहमति नहीं बन सकी। अत: यह सम्मेलन भी अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहा।

लन्दन नौ-सेना सम्मेलन - 1927 के जेनेवा सम्मेलन के असफल रहने पर नवीन प्रयास के रूप में प्रथम लन्दन नौसेना सम्मेलन 21 जनवरी 1930 को प्रारम्भ हुआ। इस सम्मेलन में नौ सैनिक शक्ति को समतुल्यता के आधार पर घटाने के लिए सभी देशों को कहा गया। इटली ने फ्रांस के साथ, जापान ने ब्रिटेन तथा अमेरिका के साथ समतुल्यता शक्ति को घटाने पर विचार किया। इसमें हुए सन्धि के कारण अमेरिका तथा जापान ने ब्रिटेन के साथ मिलकर क्रूजरों, विध्वंसकों तथा पनडुब्बियों में भार वाहक क्षमता को सीमित करना स्वीकार किया। फ्रांस तथा इटली ने इस सन्धि पर अपनी असहमति व्यक्त की। इस सन्धि की प्रमुख बातें थीं:
  1. इस सन्धि के अनुसार ब्रिटेन ने 5, अमेरिका ने 3 तथा जापान ने 1 बड़ा युद्ध पोत नष्ट करने पर सहमति जताई।
  2. पांच महाशक्तियों ने 1936 तक नए युद्धपोतों के निर्माण पर रोक लगा दी।
  3. सामान्य युद्ध पोतों पर 5.1 इंच से अधिक तथा बड़े युद्ध पोतों पर 6.1 इंच से अधिक व्यास की तोपें न लगाने पर सहमति हुई।
  4. इसमें पनडुब्बियों का आकार 2000 टन तक घटाने पर समझौता हुआ। लेकिन इस सन्धि का एक दोष यह था कि इसकी एक धारा में हस्ताक्षर करने वाले देशों को यह अधिकार दिया गया था कि यदि अंतर्राष्ट्रीय स्थिति खराब हो जाती है तो सन्धिकर्ता देश फिर से शस्त्रस्त्रें का निर्माण कर सकते हैं। यही प्रावधान इसकी असफलता का सबसे बड़ा कारण था।
द्वितीय लंदन नौ-सेना सम्मेलन - इसका प्रयास 1935 में अन्तिम रूप से साकार हुआ। यह सम्मेलन 9 दिसम्बर, 1935 से आरम्भ होकर 25 मार्च 1936 तक चला। इस सम्मेलन में सभी महाशक्तियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में जापान ने ब्रिटेन और अमेरिका के बराबर जल सेना रखने की मांग की। प्रथम सम्मेलन की तरह यह भी परस्पर विरोधी मांगों का अखाड़ा मात्र बन गया। इटली ने भी फ्रांस के साथ नौ सैनिक शक्ति की समतुल्यता की मांग की। इस तरह जापान और इटली ने इसमें कोई सहयोग नहीं दिया। इस सन्धि पर केवल अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने ही हस्ताक्षर किए। लेकिन जापान और इटली के सहयोग के बिना यह सम्मेलन अधिक सफल नहीं रहा। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों ने केवल भविष्य में नौ-सेना निर्माण सम्बन्धी कार्यक्रमों की सूचनाओं का परस्पर आदान-प्रदान करने का निर्णय किया।
इस प्रकार इस दौरान किए गए सन्धियां व समझौते किसी बाध्यकारी शक्ति के अभाव के कारण असफलता का ताज बनते गए और विश्व के अनेक देशों में परस्पर वैमनस्य की भावना बढ़ती रही। सभी महाशक्तियों ने शस्त्र दौड़ को जारी रखा। अन्त में शस्त्र प्रतिस्पर्धा ने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कटुता पैदा कर दी और इसकी परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में हुई।

द्वितीय विश्वयुद्ध से शीत-युद्ध के अन्त तक

शस्त्र दौड़ ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जन्म दिया। इसके परिणाम प्रथम विश्वयुद्ध से भी अधिक भयानक थे। इस युद्ध में प्रथम बार आणविक प्रहार किए गए। इससे जापान के दो शहर हिरोशिमा और नागासाकी आणविक हथियारों का निशाने बने। इस युद्ध की भयानक विनाश लीला ने विश्व को नए सिरे से शान्ति के लिए विचार करने को विवश कर दिया। इसलिए विश्व के अनेक देशों ने नि:शस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण के उपाय तलाशने शुरू कर दिए। यद्यपि शीत युद्ध की उग्रता ने नि:शस्त्रीकरण सम्बन्धी उपायों को ठेस अवश्य पहुंचाई, लेकिन इस दौरान अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा नि:शस्त्रीकरण के प्रयास भी किये गए ताकि तृतीय विश्व युद्ध या शीत युद्ध को वास्तविक युद्ध में परिवर्तित होने पर रोक लग सके। 1990 में सोवियत संघ के विघटन तक नि:शस्त्रीकरण के लिए किए गए प्रयास हैं- द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद निर्मित अंतर्राष्ट्रीय संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने निशस्त्रीकरण या शस्त्र नियंत्रण की जिम्मेदारी अपने प्रसिद्ध अंग सुरक्षा या महासभा को सौंप दी। UNO के चार्टर की धारा 2, 11, 26, 47 में नि:शस्त्रीकरण का उल्लेख किया गया है।

अणु शक्ति आयोग- जनवरी 1946 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा एक अणु शक्ति आयोग की स्थापना करने का निर्णय लिया गया। इस आयोग का उद्देश्य एक ऐसी योजना का निर्माण करना था जो राष्ट्र परमाणु शक्ति के उत्पादन को अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के अंतर्गत रखने को तैयार हो जाए ताकि परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किया जा सके। सुरक्षा परिषद् ने इस आयोग को निर्देश दिया कि वह इन विषयों पर प्रस्ताव तैयार करे-
  1. अणु शक्ति का प्रयोग केवल शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए करना सुनिश्चित बनाना।
  2. अणु शक्ति के वैज्ञानिक ज्ञान का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए विभिनन देशों में आदान-प्रदान।
  3. जन-संहारक अणु आयुद्यों को बहिष्कृत करना।
  4. प्रभावशाली निरीक्षण व्यवस्था का ढांचा तैयार करना ताकि उससे कोई बच न सके। परम्परागत आयोग की प्रथम बैठक 14 जून 1946 को न्यूयॉर्क में हुई। अमेरिका ने इस बैठक में परमाणु कार्यक्रम पर अपना एकाधिकार बनाए रखने के उद्देश्य से एक ऐसी योजना रखी जो अधिक अन्यायपूर्ण थी। इसलिए सोवियत संघ ने अमेरिका की इस ‘बरुच योजना’ को अस्वीकार कर दिया। सोवियत संघ ने अणु बमों के संग्रह को नष्ट करने पर जोर दिया। उसने साथ में यह भी कहा अणु शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रभावशाली उपाय किए जाए। अमेरिका और सोवियत संघ ने अलग-अलग सुझाव पेश करके इस योजना को खटाई में डाल दिया। इसलिए नि:शस्त्रीकरण का यह प्रयास भी सफल नहीं हो सका।
परम्परागत-शस्त्र आयोग - इसकी स्थापना फरवरी, 1947 में की गई। सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्य इस आयोग में शामिल थे। इस आयोग का उद्देश्य सेना के शस्त्रें पर नियंत्रण रखना तथा उनमें कमी करने का प्रयास तलाशना था। इस आयोग में सोवियत संघ ने सुझाव दिया कि अणु-शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों का सर्वप्रथम नि:शस्त्रीकरण किया जाए। लेकिन अमेरिका का कहना था कि शस्त्रें को कम करने पर ही अधिक ध्यान देना चाहिए। सोवियत संघ ने कहा कि प्रत्येक देश को अपनी सेना में 1/3 कटौती करनी चाहिए और परमाणु हथियारों के निर्माण पर रोक लगानी चाहिए तथा जितने परमाणु शस्त्र बन चुके हैं, उन्हें तुरन्त नष्ट कर देना चाहिए। इस तरह परस्पर विरोधी विचारधारा व शीत-युद्ध के चलते अमेरिका और सोवियत संघ ने नि:शस्त्रीकरण के इस प्रयास को भी धराशायी कर दिया।

संयुुक्त नि:शस्त्रीकरण आयोग- जनवरी, 1952 में परम्परागत शस्त्र आयोग तथा अणु शक्ति आयोग दोनों को मिलाकर संयुक्त नि:शस्त्रीकरण आयोग की स्थापना कर दी गई। इसे सुरक्षा परिषद् के अधीन रखा गया। इस आयोग ने दो समितियों की स्थापना की। एक समिति को हथियारों (अणु आयुद्यों सहित) व सेनाओं के नियमन तथा दूसरी समिति को राष्ट्रों द्वारा सेनाओं व हथियारों सम्बन्धि सूचनाओं पर विचार-विमर्श का उत्तरदायित्व सौंपा गया। इस आयोग में सुरक्षा परिषद् के सभी सदस्यों के साथ-साथ कनाडा को भी शामिल किया गया। इस प्रकार इसकी सदस्य संख्या 12 हो गई। इस आयोग ने अपने व्यापक क्षेत्रधिकार का प्रयोग करते हुए - सैन्य बल के आधार व शस्त्रस्त्रें की संख्या में कटौती, व्यापक नि:शस्त्रीकरण सन्धियां, वास्तविक शस्त्र संख्या आदि पर सुझाव दिए। सोवियत संघ ने इस बात पर जोर दिया कि सभी देशों को अपनी सेनाओं में 1/3 कटौती करनी चाहिए। आणविक आयुद्यों पर तुरन्त रोक लगानी चाहिए तथा आणविक ज्ञान का हस्तांतरण करना चाहिए। लेकिन अमेरिका ने आणविक ज्ञान के आदान-प्रदान के उपरान्त ही नि:शस्त्रीकरण के उपाय करने पर जोर दिया। इस प्रकार परस्पर मतभेदों के कारण इस आयोग की कार्यप्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और नि:शस्त्रीकरण का यह प्रयास भी अपने पूर्ववर्ती प्रयासों की तरह निरर्थक सिद्ध हुआ।

शान्ति हेतु अणु योजना - 1953 में अमेरिका के राष्ट्रपति आइजनहावर ने शान्ति हेतु परमाणु योजना प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए करने की बात कही। लेकिन उन्होंने परमाणु हथियारों के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा। इसी बात पर आशंकित होकर सोवियत संघ ने कहा कि परमाणु ऊर्जा का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए प्रयोग करने के लिए यह जरूरी है कि वर्तमान परमाणु आयुद्यों को नष्ट कर दिया जाए। अमेरिका ने सोवियत संघ का यह सुझाव स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार शान्ति की यह योजना भी असफल रही।

जेनेवा सम्मेलन - जुलाई, 1955 में स्विटजरलैण्ड के जेनेवा नगर में अमेरिका के राष्ट्रपति आइजहावर ने खुली आकाश योजना प्रस्तुत की। इस सम्मेलन में सोवियत संघ, ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस ने भाग लिया। इस सम्मेलन में ‘मुक्त आकाश योजना’ प्रस्तुत करके अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ परस्पर सैनिक बजट, वर्तमान शक्ति एवं उसके विकास की सम्भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान तथा परस्पर जांच व निरीक्षण करने का रास्ता साफ कर दिया। लेकिन सोवियत संघ ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया और कहा कि हथियारों की जांच व निरीक्षण के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण अभिकरण की स्थापना की जाए। उसने आणविक शस्त्रें के परीक्षण पर प्रतिबंध तथा परम्परागत शस्त्रें में कटौती करने की आवश्यकता पर भी बल दिया। अमेरिका ने सोवियत संघ की मांगों का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप यह योजना भी निष्क्रिय रही।

नि:शस्त्रीकरण आयोग की उप-समिति की बैठक- 14 जून, 1957 को लन्दन में नि:शस्त्रीकरण आयोग की उप-समिति की बैठक हुई। इसमें रूस ने त्रिसूत्री फार्मूला पेश किया गया (क) दो वर्ष के लिए परमाणु परीक्षण रोक दिए जाएं (ख) परीक्षण की रोक को प्रभावी बनाने हेतु एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग स्थापित किया जाए। (ग) समझौते के क्रियान्वयन के लिए एक नियंत्रण कक्ष स्थापित किया जाए। परन्तु सोवियत संघ के यह प्रस्ताव पश्चिमी शक्तियों को स्वीकार्य नहीं हुए। इसलिए यह प्रयास भी बेकार सिद्ध हुआ।

नि:शस्त्रीकरण की बुल्गानिन योजना - फरवरी, 1958 में सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री ने एक नि:शस्त्रीकरण योजना का ढांचा पेश किया जिसे बुल्गानिन योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना के प्रमुख प्रस्ताव थे-
  1. सभी तरह के परमाणु व तापनाभिकीय शस्त्रें के परीक्षण पर रोक लगाई जाए।
  2. अमेरिका, ब्रिटेन और रूस परमाणु शस्त्रें को नष्ट करें।
  3. जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों से विदेशी सेनाओं को वापिस बुलाया जाए।
  4. आकस्मिक आक्रमणों को रोकने के बारे में समझौता किया जाए।
  5. नाटो तथा वार्सा पैक्ट के देशों में अनाक्रमण समझौता किया जाए।
  6. अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने सोवियत संघ की योजना को एक प्रचार बताया। इस प्रकार यह योजना भी फ्लॉप हो गई।
रापाकी योजना- मार्च 1958 में पोलैण्ड के विदेश मन्त्री ने ‘रापाकी योजना’ प्रस्तुत की जिसमें यूरोप की सुरक्षा व शान्ति के लिए पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी को परमाणु शक्ति विहीन करने का सुझाव दिया गया। इस योजना के तहत इन देशों में आणविक शस्त्रें के निर्माण, संग्रह व उपयोग पर रोक लगाना प्रस्तावित हुआ। सोवियत संघ ने तो इसका समर्थन कर दिया, लेकिन अमेरिका ने इसे अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार ‘रापाकी योजना’ ने भी असफलता का ताज पहन लिया।

पूर्ण सर्वमान्य नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव- 18 सितम्बर, 1959 को सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री खुश्चवे ने नि:शस्त्रीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में इस प्रस्ताव में कहा कि चार वर्ष के अन्दर सभी राष्ट्रों का इस प्रकार नि:शस्त्रीकरण करना चाहिए कि युद्ध के सभी साधन समाप्त हो जाएं। इसके साथ-साथ एक आंशिक नि:शस्त्रीकरण योजना भी प्रस्तुत की गई जिसमें नाटो व वारसा पैक्ट के देशों में एक अनाक्रमण सन्धि करने, आक्रमण के समय परस्पर सहायता करने, यूरोप के देशों से विदेशी सेना हटाने, मध्य यूरोप को परमाणु विहीन क्षेत्र बनाने पर विचार किया गया। लेकिन शीत-युद्ध की उग्रता के कारण दोनों महाशक्तियों में इस योजना पर आम राय नहीं बन सकी। इसलिए यह योजना भी असफल रही।

दस राष्ट्रीय जेनेवा नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन - यह सम्मेलन 1960 में जेनेवा में हुआ और इसमें 10 राष्ट्रों ने भाग लिया, ये राष्ट्र थे - ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, इटली, बुल्गारिया, पोलैण्ड, रूमानिया, सोवियत संघ, तथा चेकोस्लोवाकिया। इसमें 5 नाटो के तथा 5 वर्साय सन्धि के देश थे। इसमें प्रथम स्तर की वार्ता में समस्त पक्षों के बीच आणविक व प्रक्षेपास्त्र नि:शस्त्रीकरण एवं पारम्परिक सैन्य बल के परिसीमन पर व्यापक चर्चा हुई। द्वितीय स्तर की वार्ता में तीन परमाणु शक्तियों, अमेरिका, सोवियत संघ तथा ब्रिटेन के बीच परमाणु शस्त्र-नियंत्रण, परिसीमत तथा आणविक परीक्षण निषेध पर विचार-विमर्श हुआ। परन्तु परस्पर कोई सर्वमान्य समझौता न होने के कारण यह सम्मेलन भी निष्क्रिय हो गया।

अणु-ु-परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि- यह नि:शस्त्रीकरण की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था। अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी तथा सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री ख्रुश्चेव के प्रयासों से नि:शस्त्रीकरण का कुछ विकास हुआ। 15 जुलाई, 1963 को ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा अमेरिका ने इस सीमित परमाणु सन्धि पर हस्ताक्षर किए और यह सन्धि 10 अक्तूबर, 1963 को लागू हुई तो इस पर 100 देश हस्ताक्षर कर चुके थे। इस सन्धि के द्वारा भूगभ्र्ाीय - परीक्षणों को छोड़कर बाह्य आकाश, समुद्र तथा परमाणु परीक्षण करने पर पाबन्दी लगा दी गई। इसकी प्रमुख धाराएं थी-
  1. प्रथम धारा में तीनों देशों द्वारा यह निश्चय किया गया कि वे अपने क्षेत्रधिकार में वायुमण्डल आकाश तथा समुद्र में किसी तरह का आणविक विस्फोट नहीं करेंगे।
  2. इसकी दूसरी धारा में संशोधन की व्यवस्था की गई।
  3. तीसरी धारा में तीनों देशों की सहमति पर नए देश के इसमें शामिल होने का प्रावधान किया गया।
  4. इसकी चौथी धारा में सन्धि से अलग होने का प्रावधान था।
  5. इसकी अन्तिम धारा में सन्धि के अंग्रजी तथा रूसी भाषा के दोनों रूपों को समान मान्यता दी गई। इस सन्धि का प्रमुख दोष यह था कि भूगर्भ-परीक्षणों पर यह सन्धि चुप थी। फिर भी धीरे धीरे 108 देशों ने इस सन्धि को स्वीकार कर लिया और यह एक व्यापक कार्यक्रम बन गई। इसे नि:शस्त्रीकरण की एक अच्छी शुरुआत व युगान्तरकारी घटना कहा जा सकता है। क्योंकि इस सन्धि ने नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों में तेजी ला दी और सभी देश नि:शस्त्रीकरण का महत्व समझने लग गए।
नि:शस्त्रीकरण आयोग सम्मेलन - 1963 की समिति परमाणु प्रतिबंध सन्धि ने नि:शस्त्रीकरण कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए 21 जनवरी, 1964 में जेनेवा में नि:शस्त्रीकरण आयोग की बैठक हुई। इसमें कहा गया कि सामरिक महत्व के शस्त्रस्त्रें के विकास को रोका जाए, उनका उत्पादन बन्द किया जाए; यूरोप तथा अन्य देशों में अणु-रहित क्षेत्रें का विकास किया जाए, अनाक्रमण समझौते हों, बमवर्षक विमान नष्ट किए जाएं तथा भूमिगत परमाणु परीक्षण भी रोके जाएं। लेकिन महाशक्तियों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा की भावना के चलते इन प्रस्तावों को भी अस्वीकार कर दिया गया।

बाह्य आकाशी सन्धि- 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए बाहरी अन्तरिक्ष प्रयोग सम्बन्धी एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव के अनुसार सोवियत संघ, ब्रिटेन तथा अमेरिका ने बाहरी आकाश में परमाणु शस्त्रें को भेजना निषिद्ध मान लिया। इस सन्धि की प्रमुख बातें थीं-
  1. अन्तरिक्ष अन्वेषण का प्रयोग शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किया जाएगा।
  2. अन्तरिक्ष की गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को केन्द्र बनाया जाए।
  3. अन्तरिक्ष कार्यक्रम द्वारा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाया जाए।
  4. इस सन्धि को दोनों महाशक्तियों ने मान लिया और आकाश में परीक्षण करने की योजना को नकारने वाली बात स्वीकार कर ली।
परमाणु अप्रसार-सन्धि - सोवियत संघ तथा अमेरिका के बीच 1968 में यह सन्धि हुई। इस सन्धि का उद्देश्य विश्व को बढ़ते परमाणु शस्त्रें के खतरे से बचाना था। इसलिए 24 अप्रैल, 1968 को महासभा का एक विशेष अधिवेशन इस सन्धि पर विचार करने के लिए बुलाया गया। पहली बार दोनों महाशक्तियों ने इस सन्धि को सर्वसहमति से स्वीकार किया। परमाणु अस्त्र-अप्रसार सन्धि (Nucelar Non-Proliferation Treaty) की प्रमुख विशेषताएं थीं-
  1. परमाणु शक्ति सम्पन्न देश गैर परमाणु शक्ति वाले देशों को परमाणु शस्त्र बनाने वाली परमाणु तकनीक का रहस्य नहीं देंगे।
  2. परमाणु शक्ति का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए प्रयोग किए जाने वाली तकनीक का ज्ञान हस्तांतरित किया जा सकता है।
  3. परमाणु शक्ति से हीन राष्ट्रों को अपने परमाणु संस्थानों के निरीक्षण का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय शांति आयोग को देना स्वीकार किया।
  4. सम्भावित परमाणु शक्ति वाले देश परमाणु ऊर्जा का प्रयोग अपने आर्थिक विकास तथा अन्य असैनिक कार्यों के लिए कर सकते हैं। अमेरिका तथा सोवियत संघ द्वारा संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद अनेक देशों ने हस्ताक्षर कर दिए। लेकिन भारत, अर्जेन्टाइना तथा ब्राजील ने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया क्योंकि इन देशों ने इस संधि को पक्षपातपूर्ण माना। यह सन्धि नि:शस्त्रीकरण का कोई सर्वमान्य वास्तविक हल नहीं थी। इस सन्धि में न तो नए परमाणु अस्त्रें के निर्माण पर रोक लगाई गई थी और न ही परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम पर किसी प्रकार के नियंत्रण की व्यवस्था थी। यह संधि परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के हितों की पोषक थी। इसका अन्तिम लक्ष्य गैर परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों को परमाणु शक्ति बनने से रोकना था। फ्रांस व चीन ने भी इस सन्धि को अपने राष्ट्रीय हितों के खिलाफ मानते हुए हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। इसी तरह कुछ अन्य देशों ने भी इसके पक्षपातपूर्ण स्वरूप के कारण अमान्य कर दिया। इस प्रकार अनेक देशों ने इसे अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा ‘परमाणु अस्त्रें पर एकाधिकार’ की भावना का पोषक कहा। अत: निशस्त्रीकरण का यह प्रयास भी पूर्ण रूप से नि:शस्त्रीकरण का कोई सर्वमान्य उपाय प्रस्तुत नहीं कर सका।
समुद्रुी तल सन्धि - 7 दिसम्बर, 1970 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा यह प्रस्ताव पास किया गया कि महासमुद्रों को परमाणु शस्त्रें से मुक्त रखा गया। इस प्रस्ताव को असली जामा पहनाने के लिए 11 फरवरी, 1971 को अमेरिका, सोवियत संघ व ब्रिटेन ने क्रमश: वॉशिंगटन, मास्को तथा लन्दन में हस्ताक्षर किए। इस सन्धि द्वारा यह प्रावधान् किया गया कि किसी भी राष्ट्र के समुद्र तट से 19 किलोमीटर तक के क्षेत्रीय जल को छोड़कर महासागरों के किसी भी अन्य हिस्से में परमाणु शस्त्र व उनके वाहक प्रक्षेपास्त्र तैनात न किए जाएं। किन्तु इसमें परमाणु शस्त्रें से लदी हुई पनडुब्बियों व युद्धपोतों को मुक्त रखा गया। इस सन्धि के अनुसार सन्धिकर्ता देशों ने समुद्री तल, महासागरीय तल तथा उपधरती पर किसी भी तरह के जनसंहारक शस्त्रें व परमाणु शस्त्रें के विस्तार पर रोक लगाने की बात स्वीकार की। और यह सन्धि 18 मई, 1972 को लागू हो गई। लेकिन परमाणु शस्त्रें से लैस पनडुब्बियों व युद्धपोतों को इस सन्धि की व्यवस्थाओं से मुक्त रखने के कारण यह महत्वहीन हो गई।

जैविक शस्त्र समझौता - 10 अप्रैल, 1972 को अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ ने जीवाणु शस्त्रें के उत्पादन, संग्रह तथा उनके प्रयोग पर रोक लगाने के लिए आपस में समझौता किया। इस समझौते के अनुसार यह निर्णय लिया गया कि वे ऐसे अस्त्रें का न तो निर्माण करेंगे और न ही प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। यह समझौता 26 मार्च, 1975 को लागू हो गया। इस समझौते के अनुसार नशीले पदार्थों, शस्त्रें, उपकरणों तथा वाहको को नष्ट करने या उन्हें शांतिपूर्ण उद्देश्य की तरफ मोड़ने का निर्णय लिया गया।

सामरिक अस्त्र परिसीमन समझौते (SALT-I, II) अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 3 जुलाई, 1974 को प्रथम दस वर्षीया आणविक आयुद्य परिसीमन समझौता हुआ और इसे 31 मार्च, 1976 को लागू करने की बात पर सहमति हुई। इसके अनुसार 150 किलो टन से अधिक के भूमिगत आणविक परिक्षणों को रोकने तथा प्रक्षेपास्त्रें पर नई सीमा लगाने का निर्णय हुआ। शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए किए गए विस्फोटों को इसकी परिधि से बाहर रखा गया। इसका उद्देश्य परमाणु युद्ध की सम्भावना को कम करना था। इसके बाद 1979 में सोवियत संघ तथा अमेरिका ने दूसरा साल्ट समझौता किया। इस समझौते का दोनों देशों की संसद द्वारा अनुमोदन होना था लेकिन अफगानिस्तान संकट ने इसे हानि पहुंचाई और इसका अनुमोदन स्थगित हो गया। यह समझौता 28 नवम्बर 1980 को साल्ट पर नवीन वार्ता शुरू होने पर नए सिरे से लागू होने के कगार पर पहुंच गया। इस समझौते के अनुसार दोनों देशों ने अपने सामरिक शस्त्रें को 5 वर्षों तक सीमित करने पर विचार किया ताकि नि:शस्त्रीकरण को प्रभावी बनाया जा सके।

ब्रेह्य्रेनेव योजना - फरवरी, 1981 में सोवियत नेता ब्रह्यनेव ने अपनी 8 सूत्रीय योजना प्रस्तुत की। उसने कहा कि सोवियत संघ अमेरिका के साथ सार्थक शस्त्र नियंत्रण वार्ताओं का इच्छुक है। उसने नवीन पनडुब्बियों के विस्तार तथा आधुनिक प्रक्षेपास्त्रें के विकास को रोकने पर अपनी सहमति दर्शाई। इस योजना का सर्वत्र स्वागत किया गया। लेकिन अमेरिका ने कोई उत्साहवर्धन प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इसलिए यह योजना प्रभावी कार्यक्रम नहीं बन सकी।

चार-सूत्री रीगन प्रस्ताव- अमेरिका ने बे्रह्यनेव योजना के प्रत्युत्तर में अपना चार-सूत्री कार्यक्रम (फरवरी, 1981 में) प्रस्तुत किया। इसमें अमेरिका ने कहा कि सोवियत संघ अपने एस.एस. 5 व एस.एस. 20 प्रक्षेपास्त्र नष्ट कर दे तथा अमेरिका पर्शिंग 2 तथा समकक्ष थल आधारित प्रक्षेपास्त्र तैनात न करे, सामरिक शस्त्रें में भारी कटौती करने के लिए वार्ताएं करने लिए तैयार हो जाए। लेकिन सोवियत संघ ने इसे प्रचारकारी हथकंडा बताकर अस्वीकार कर दिया।

रीगम नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव - मई, 1982 में अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने अंतरर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रें को सीमित करने के लिए सोवियत संघ को कुछ सुझाव दिए। रीगन प्रस्तावों में कहा गया कि दोनों देशों को परस्पर परमाणु प्रक्षेपास्त्र कम करने चाहिए और साथ ही भूमि तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रें में कमी की जानी चाहिए। इसमें परस्पर 1/3 कटौती का प्रस्ताव पेश किया गया। लेकिन सोवियत संघ इसका सकारात्मक उत्तर न दिए जाने के कारण यह प्रस्ताव भी निरस्त हो गया।

जेनेवा वार्ता का नया दौर - 1983 में जेनेवा में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच START वार्ता के असफल रहने पर 1985 में फिर से नए सिरे से वार्ता करने पर सहमति हुई। दोनों देश फिर से शस्त्र दौड़ रोकने पर सहमत हो गए। सोवियत संघ अमेरिका के साथ START, MRF और INF वार्ताएं एक साथ शुरू करने पर सहमत हो गया। लेकिन अमेरिका ने स्पष्ट कहा कि वह न तो अपने स्टारवार कार्यक्रम को समाप्त करेगा और न उसमें ढील देगा। इस तरफ परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच यह वार्ता 23 अप्रैल, 1985 को स्थगित हो गई।

नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन नई दिल्ली - 1985 में 6 देशों अजर्न्ेटाइना, ग्रीस, स्वीडन, मास्को, तनजानिया तथा भारत का सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित हुआ। इसमें परमाणु अस्त्र बनाने वाले देशों से आग्रह किया गया कि वे सभी परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाएं और परमाणु शस्त्र दौड़ को समाप्त करें। इस प्रकार नि:शस्त्रीकरण की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण प्रयास था।

रीगन-गोर्बाच्योव शिखर वार्ता - नवम्बर 1985 में जेनेवा में अमेरिका के राष्ट्रपति रीगन तथा सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने विश्व शांति बनाए रखने के लिए अंतरिक्ष में शस्त्र-दौड़ पर नियंत्रण करने तथा धरती पर इसे समाप्त करने के लक्ष्य पर जोर दिया। लेकिन यह वार्ता बिना किसी ठोस परिणाम के समाप्त हो गई।

मध्यम दूरी प्र्रक्षेपास्त्र सन्धि - 8 दिसम्बर, 1987 को अमेरिका तथा सोवियत संघ द्वारा इस ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। INF सन्धि के नाम से प्रसिद्ध इस सन्धि में यह व्यवस्था की गई कि दोनों पक्ष 500 से 5000 किमी. तक मार करने वाले प्रक्षेपास्त्रें को तैनाती स्थानों से हटा लेंगे या नष्ट कर देंगे। इसमें अमेरिका द्वारा एक परमाणु बम युक्त 364 प्रक्षेपास्त्र तथा सोवियत संघ द्वारा 3-3 परमाणु बमों से युक्त 500 प्रक्षेपास्त्र हटाने पर सहमति हुई। इस सन्धि के अनुसार सोवियत संघ के एस.एस.12 तथा एस.एस. 22 एवं अमेरिका के पर्शिंग 2 प्रक्षेपास्त्र महासागरों पर दागकर नष्ट करने का निर्णय हुआ। इस सन्धि के अनुसार दोनों पक्ष परमाणु परीक्षणों की क्षमता की जांच के लिए परस्पर निरीक्षण की सुविधा देने पर सहमत हो गए। इस सन्धि का सभी देशों ने स्वागत किया और निर्धारित अवधि में दोनों देशों ने अपने प्रक्षेपास्त्रें को नष्ट भी कर दिया। इस प्रकार यह सन्धि नि:शस्त्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कदम था। इससे तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावना कम हो गई।

गोर्बाच्योव की घोषणा - 7 दिसम्बर, 1988 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने अपनी सेनाओं में कटौती तथा पूर्वी यूरोप में अपने परम्परागत शस्त्रें में कटौती की एक पक्षीय घोषणा की। यह सोवियत संघ की तरफ से नि:शस्त्रीकरण के लिए उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम था। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से लेकर शीत युद्ध की समाप्ति तक नि:शस्त्रीकरण के अनेक प्रयास किए गए। इनमें से कुछ प्रयास सफल भी रहे। लेकिन कोई ऐसा प्रभावी कार्यक्रम तैयार नहीं हो सका जो तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावना को पूर्णतया: नष्ट कर सके। 1989 के अन्त में सोवियत संघ के विघटन ने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को नए सिरे से स्थापित करने के विचार को प्रबल बना दिया। इस समय अनेक परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र जन्म ले चुके थे। अमेरिका को सोवियत संघ की चुनौती से अब अधिक सावधान रहने की आवश्यकता नहीं रही। अब चीन व भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न एशियाई देशों के रूप में उभरने लगे। नई चुनौती का सामना करने के लिए अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ अपना नि:शस्त्रीकरण कार्यक्रम जारी रखना आवश्यक समझा और शीत युद्ध के बाद भी नि:शस्त्रीकरण कार्यक्रम की बागडोर अमेरिका के ही हाथ में रही।

 शीतयुद्ध के अंत से वर्तमान समय तक

वॉशिंगटन शिखर-सम्मेलन - सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव तथा अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के बीच शीत युद्ध के अन्त के बाद यह पहला सम्मेलन जून 1990 में वॉशिंगटन में हुआ। इसमें रसायनिक शस्त्रें सहित शस्त्र नियंत्रण पर एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ। दोनों देशों ने अपने-अपने शस्त्र भंडारों में से 5000 टन कम करने तथा हजारों टन विध्वंसक सामग्री नष्ट करने पर सहमति जताई। इसकी अवधि 1992 से 2000 तक रखी गई। इसमें रासायनिक शस्त्रें पर तुरन्त रोक लगा दी गई। इस सम्मेलन में ‘सामरिक शस्त्र कटौती सन्धि’ (START) को संचालित करने वाले कुछ नियमों पर भी समझौता हुआ। इस प्रकार शीत युद्ध के बाद यह सम्मेलन नि:शस्त्रीकरण का प्रथम महत्वपूर्ण प्रयास था।

पेरिस वार्ता - 19 नवम्बर, 1990 को वारसा तथा नाटो के देशों ने परम्परागत शस्त्रें में कटौती करने के उद्देश्य से पेरिस में एक सम्मेलन बुलाया। इसमें टेंकों, तोपों, सैनिक सशस्त्र वाहनों को नष्ट करने का निर्णय लिया गया। इसमें टैंकों की 20000, सैनिक सशस्त्र वाहन 30000, लड़ाकू हवाई जहाज 6800 तथा हैलीकॉप्टर 2000 की संख्या तक निश्चित की गई। इस वार्ता ने एक ऐसा वातावरण तैयार किया कि नि:शस्त्रीकरण के प्रयास पहले की तुलना में अब अधिक सफल दिखाई देने लगे।

सामरिक शस्त्रें में कटौती की ऐतिहासिक सन्धि (START-I) - सामरिक शस्त्रें पर कटौती की प्रक्रिया जो SALT-II के दौरान निष्क्रिय हो गई थी। अब START-I के माध्यम से पुनर्जीवित हो उठी। इस सन्धि द्वारा सोवियत संघ तथा अमेरिका ने अपने अपने परमाणु शस्त्रें में से 30 प्रतिशत कटौती करने पर सहमति प्रकट की। सोवियत संघ ने 11000 से 7000 तथा अमेरिका ने 12000 से 9000 तक शस्त्र कटौती करना स्वीकार किया। यह पहला औपचारिक प्रयास था जिसके अंतर्गत दोनों महाशक्तियों ने स्वेच्छा से घातक हथियारों में कटौती करना स्वीकार किया।

जॉर्ज बुश की नि:शस्त्रीकरण घोषणा - 28 सितम्बर, 1991 को अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने एक पक्षीय निशस्त्रीकरण की घोषणा की। उसने अपनी इस योजना में कहा।
  1. जहाजों और पनडुब्बियों से छोड़ी जाने वाली सभी समुद्री परमाणु मिसाइलें समाप्त हों।
  2. कम दूरी तक मारक क्षमता रखने वाले सभी सामरिक परमाणु शस्त्रें को नष्ट करना।
  3. बी-52 तथा अन्य बम वर्षकों को निष्क्रिय करना।
  4.  स्टार्ट सन्धि को क्रियान्वित करना। इस प्रकार अमेरिका ने अपने एकपक्षीय नि:शस्त्रीकरण के इस कदम द्वारा सम्पूर्ण विश्व को आशावान बना दिया कि अब तीसरे विश्व युद्ध का कोई खतरा नही है। उसने अपने परमाणु हथियारों को नष्ट करने की एक तरफा घोषणा करके सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया। उसके इस कदम ने सोवियत संघ को भी शस्त्र कटौती के लिए प्रेरित किया।
गोर्बच्च्योव की घोषणा - अमेरिका के द्वारा शस्त्र कटौती के सकारात्मक प्रयास का सोवियत संघ ने भी सकारात्मक उत्तर दिया। उसने अपनी सभी परमाणु मिसाइलों को जल्दी हटाने की घोषणा की। उसने अपनी सशस्त्र सेनाओं में 200000 तक कटौती करने तथा 2000 परमाणु अस्त्रें को कम करने की घोषणा की। उसने कहा कि - (I) जंगी जहाजों और बहुउद्देश्यीय पनडुब्बियों से सभी सामरिक शस्त्रें को दूर कर लिया जाएगा (II) परमाणु शस्त्रें का भंडारण कम किया जाएगा (III) सामरिक महत्व के खतरनाक शस्त्रें में भी कटौती की जाएगी। इस प्रकार सोवियत संध की इस घोषणा को सभी देशों ने सराहा। इसलिए यह घोषणा स्वैच्छिक नि:शस्त्रीकरण का एक महत्वपूर्ण प्रयास थी।

स्टार्ट - II सन्धि - 3 जनवरी, 1993 को अमेरिका और सोवियत संघ के बीच नि:शस्त्रीकरण के लिए स्टार्ट-II सन्धि पर हस्ताक्षर किए। यह 1991 की START-I सन्धि के विकास का अगला प्रयास थी। इस सन्धि के द्वारा दोनों देश अपने शस्त्रें में व्यापक कटौती करने पर सहमत हो गए। 2/3 कटौती के तहत दोनों देश अपने परमाणु शस्त्रें को 6500 तक रखने पर सहमत हो गए। इसमें समुद्र तल के नीचे वाली विध्वंसक मिसाइलों की संख्या 1700 से 1750 तक के लाने पर सहमति हुई। बमवर्षक जहाजों द्वारा ले जाने वाले परमाणु शस्त्रें की संख्या 750 से 1250 तक, भारी ICMBS पर शस्त्रें की संख्या 656 तक करने पर समझौता हुआ। इस तरह START-II सन्धि INF तथा START-I से भी अधिक व्यापक थी। इससे नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों को काफी लाभ हुआ।

रासायनिक हथियार निषेध सन्धि- 13 अप्रैल, 1993 को 160 देशों ने पेरिस में इस ऐतिहासिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए और यह 29 अप्रैल, 1997 से लागू हो गई। इस सन्धि के प्रारूप में रासायनिक शस्त्रें की खोज, विकास, भण्डारण व हस्तांतरण पर पूर्ण रोक की व्यवस्था की गई है। इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों ने 15 वर्ष तक अपने रासायनिक हथियारों को नष्ट करने की बात पर सहमति जताई है। रासायनिक शस्त्रें को नष्ट करने की दिशा में अमेरिका तथा रूस के सहयोग के बिना यह सन्धि अधिक प्रभावी नहीं हुई है। आज भी चोरी-छिपे अनेक देश रासायनिक हथियारों का निर्माण कर रहे हैं।

अमेरिका तथा उत्तरी कोरिया के बीच परमाणु समझौता - 21 अक्तूबर 1994 को अमेरिका और उत्तर कोरिया ने आपस में एक परमाणु समझौता किया। इस समझौते के अनुसार उत्तरी कोरिया अपने वर्तमान परमाणु कार्यक्रम को स्थगित करने तथा अपने परमाणु संस्थानों की जांच कराने पर सहमत हो गया। इस समझौते ने विश्व शांति के विचार को मजबूत आधार प्रदान किया। इससे नि:शस्त्रीकरण कार्यक्रम की प्रक्रिया में तेजी आई।

व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि (Comprehensive Test Ban Treaty) - CTBT के नाम से प्रसिद्ध यह ऐतिहासिक सन्धि 11 सितम्बर, 1998 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा भारी बहुमत से पारित कर दी गई। इस संधि के तहत परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाई गई है। भेदभावपूर्ण होने के कारण भारत ने CTBT पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और इसके प्रारूप में कुछ संशोधन करने की अपनी मांग दोहराई। पाकिस्तान ने भी कहा कि जब तक भारत इसे स्वीकार नहीं करेगा, वह भी CTBT पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। वीटो पावर प्राप्त पांचों देशों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए और अन्य देशों पर भी इस पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। भारत का इससे चिन्तित होना स्वाभाविक था क्योंकि यह सन्धि परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के परमाणु संवर्धन पर कोई रोक नहीं लगाती। यदि इस सन्धि को सर्वसहमति का आधार प्राप्त हो जाएगा तो विकसित परमाणु शक्ति सम्पन्न देश विकासशील देशों पर अपना परमाणु साम्राज्यवाद थोपने में सक्षम हो सकते हैं। इसकी समीक्षा करने के लिए वियना सम्मेलन (1999) में भारत ने भाग नहीं लिया। इस समय तक 154 देशों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए थे और 45 ने इसकी पुष्टि कर दी थी। लेकिन अभी भी कुछ परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों द्वारा इसकी पुष्टि होना शेष है। भारत की चिन्ता स्वाभाविक है। यदि इसको मान लिया जाए तो परमाणु विहीन देश परमाणु शस्त्र नहीं बना सकेंगे और न ही परमाणु तकनीक का शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए प्रयोग कर सकेंगे। इसलिए पक्षपातपूर्ण होने के कारण विकासशील परमाणु शक्ति सम्पन्न देश भी इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने में आनाकानी कर रहे हैं। इसलिए इसकी विश्वसनीयता व प्रभावशीलता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।

परमाणु कचरा सन्धि - 1997 में परमाणु कचरे के बारे में कुछ नियमों का निर्णारण करने के लिए इस संधि पर हस्ताक्षर किए गए। भारत ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया लेकिन दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान तथा न्यूजीलैंड ने इसका विरोध किया। इस सन्धि के अनुसार जिस देश में परमाणु विस्फोट होगा, वही देश परमाणु कचरे का निपटान करेगा।

परमाणु नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव - संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 8 दिसम्बर, 1998 को परमाणु नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव पास किया। इसमें परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों से अणु-युद्ध की सम्भवनाओं को कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया गया। इसमें परमाणु अप्रसार को बढ़ावा देने पर बल दिया गया। इसमें परमाणु परीक्षण न करने तथा परमाणु तकनीकी के विकास पर रोक लगाने की बात भी कही गई। इस प्रस्ताव में मौजूदा परमाणु शस्त्रें के भण्डारों पर चिन्ता व्यक्त की गई। 12. मई 2000 में सम्पन्न हुए परमाणु अप्रसार सन्धि समीक्षा सम्मेलन में भी पांच परमाणु शक्ति सम्पन्न वीटो पावर वाले देशों ने परमाणु शस्त्रें में कटौती की घोषणा की। इससे नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों को अधिक बल मिला है। 13. मई, 2002 में अमेरिका और रूस के बीच हुई परमाणु शस्त्र कटौती संधि भी नि:शस्त्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस सन्धि के अनुसार 2012 तक परमाणु शस्त्रें में कटौती का लक्ष्य पूरा किया जाना है।

इस प्रकार राष्ट्रसंघ तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नि:शस्त्रीकरण को बढ़ावा देने वाले बराबर प्रयास किए जाते रहे हैं। शीतयुद्ध में शिथिलता के दौरान तो नि:शस्त्रीकरण के प्रयास अधिक प्रभावी रहे हैं। लेकिन आज भी विश्व के अनेक देशों में अन्धाधुन्ध शस्त्र प्रतिस्पर्धा का दौर जारी है। आज परमाणु शस्त्रें के युग में प्रत्येक राष्ट्र अपने को असुरक्षित महसूस करता है और आर्थिक साधनों के अभावों के बावजूद भी परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की पंक्ति में शामिल होना चाहता है। आज परस्पर असुरक्षा के वातावरण में प्रत्येक राष्ट्र शस्त्र-दौड़ में आगे रहना चाहता है। दो विश्वयुद्धों ने शस्त्र दौड़ को अत्यधिक बढ़ाया है। तीसरे विश्वयुद्ध की सम्भावना ने इसमें अप्रत्याशित वृद्धि की है। विकासशील देश पारस्परिक मतभेदों का शिकार होने के कारण क्षेत्रीय शान्ति को सबसे बड़ी चुनौती दे रहे हैं। आज आतंक का संतुलन है कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं मानता है। प्रत्येक राष्ट्र शस्त्रें की घातक मारक क्षमता से अच्छी तरह परिचित है, फिर भी वह शस्त्रदौड़ में पीछे नहीं हटना चाहता। विश्व जनमत के नि:शस्त्रीकरण के पक्ष में होने के बावजूद भी शस्त्र-प्रतिस्पर्धा शस्त्र नियंत्रण या नि:शस्त्रीकरण पर हावी है। परमाणु युद्ध का भय अनियन्त्रित शस्त्र दौड़ को बढ़ावा दे रहा है। आज विश्व के विकसित व परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों को नि:शस्त्रीकरण कार्यक्रम में अपनी सकारात्मक व पक्षपात विहीन भूमिका निभाने की आवश्यकता है ताकि भय मुक्त विश्व समाज की स्थापना की जा सके और आतंक के संतुलन के स्थान पर शांति का वातावरण हो।

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