वैश्वीकरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं


वैश्वीकरण का अर्थ

वैश्वीकरण का अर्थ है अंतर-निर्भरता । संब(ता स्तर पर एकीकरण को बढ़ावा देना जिसके अंतर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, तकनीकी, आर्थिक एवं पर्यावरणीय पक्षों को सम्मिलित शिक्षा का निजीकरण और वैश्वीकरण किया गया हो । यह विभिन्न देशों तथा कंपनियों के बीच अंतक्रिया की प्रक्रिया है जिसका प्रभाव देश के आर्थिक विकास एवं उन्नति पर पड़ता है । वास्तव में वैश्वीकरण से आर्थिक एवं सामाजिक संबंधें को बढ़ावा मिल रहा
है । इसके साथ-साथ राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन भी हो रहे हैं ।

व्यापक अर्थ में वैश्वीकरण राष्ट्रों के मध्य कार्य और परस्पर क्रिया के बढ़ाए गए क्षेत्र की ओर संकेत करता है । वास्तव में यह वस्तुओं सेवाओं और पूंजी का मुख्य विनिमय है ।

वैश्वीकरण की परिभाषा

चेंबर शब्दकोश के अनुसार, वैश्वीकरण का अर्थ है विश्वव्यापी बना देना या संपूर्ण विश्व अथवा सभी लोगों को प्रभावित करना ।

रंगराजन के अनुसार, वैश्वीकरण का अर्थ है सूचनाओं, विचारों, तकनीकों, वस्तुओं और सेवाओं, पूंजी, वित्त और लोगों का देश की सीमाओं से बाहर प्रवाह के द्वारा समाजों एवं अर्थव्यवस्था का एकीकरण ।

स्टीपन गिल के अनुसार, वैश्वीकरण पूंजी एवं वस्तुओं की सीमा से पार गतिशीलता की कारोबार लागत
की कमी है । जिसके अंतर्गत उत्पादन के कारकों एवं वस्तुओं को शामिल किया गया है ।

वैश्वीकरण की विशेषताएं

  1. मुक्त व्यापार की बाधाएँ दूर करना ।
  2. आर्थिक वैश्वीकरण, व्यापार, निवेश और लोगों के प्रवास द्वारा विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के साथ एकीकरण ।
  3. यह सूचनाओं, विचारों, तकनीकी, वस्तुओं तथा लोगों का देश की सीमाओं से बाहर प्रवाह के द्वारा समाज तथा व्यवस्थाओं का एकीकरण है ।
  4. वैश्वीकरण वस्तुओं, सेवाओं और सामग्री का लोगों के हित के लिए मुक्त विनिमय है ।
  5. यह अंतर्राष्ट्रीय के पार लोगों और ज्ञान की गतिशीलता है ।

वैश्वीकरण क्यों?

वैश्वीकरण के समान इसके पक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यह विश्व के सभी लोगों के लिए विकास प्राप्त कर सकता है, तथा उन्हें लगातार कायम रहने वाले विकास के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता कर सकता है। महासचिव कोफी अन्नान ने अपने भाषण के शीर्षक - “हम दुनिया के लोग : 21वीं शताब्दी में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका” में कहा कि वैश्वीकरण के लाभ स्पष्ट हैं - अघिक तेज गति से विकास, रहन-सहन का उच्चतर स्तर, देशों और व्यक्तियों के लिए नए-नए अवसर। इसके लिए हमें इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान देना चाहिए। श्रम मानदण्ड न्यायोचित होने चाहिए, मानवाधिकारों का आदर किया जाना चाहिए और पर्यावरण की सुरक्षा करनी चाहिए।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने विश्व अर्थव्यवस्था की कई रुकावटें दूर कर दी हैं। इससे व्यापार में खुलापन आया है और विदेशी निवेश के प्रति उदारता में वृद्धि हुई है। इसके कारण वित्तीय व व्यापार क्षेत्र में उदार नीतियों का निर्माण किया गया है। आज जेट विमान, उपग्रह, इंटरनेट की वजह से देशकाल की सीमाएं अर्थहीन हो गई है। आज अंतर्राष्ट्रीय बाजार का उदारीकरण हो गया है। राष्ट्रीय सम्प्रभुताएं सीमाविहीन होने लगी हैं। दुनिया सिकुड़कर एक 'Global Village' बन गई है। इसने विश्व अर्थव्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए हैं। आज विश्व व्यापार पर अंतर्राष्ट्रीय निगमों का ही कब्जा हो गया है। 

1970-90 के दौरान विश्व के सकल घरेलू उत्पादन में विश्व व्यापार की भागेदारी 12 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो गई है। 1980-1996 के दौरान प्रत्यक्ष पूंजी निवेश 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 10.6 प्रतिशत हो गया है। इस दौरान अंतर्राष्ट्रीय वित क्षेत्र का भी विकास हुआ है। विदेशी मुद्रा बाजार का विकास चौंकाने वाला है। 

1983 में प्रतिदिन विदेशी मुद्रा बाजार का विकास चौंकाने वाला है। 1983 में प्रतिदिन विदेशी मुद्रा बाजार में 60 अरब डॉलर का लेन देन होता था जो 1996 में 1200 अरब डॉलर तक पहुंच गया।

इस प्रकार वैश्वीकरण की प्रक्रिया के कारण सम्प्रभुता, स्वायत्तता और स्वतन्त्रता की संकीर्ण परिभाषाएं सिकुड़ गई हैं। संचार क्रांति और वैश्वीकरण ने जातीयता को गतिशील बना दिया है। आज विश्व का प्रत्येक देश एक दूसरे के काफी पास आ गया है। भौगोलिक दूरियां समाप्त हो गई है। इससे अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध नए रूप में पेश हुए हैं। इसमें प्रत्येक व्यक्ति व देश को आर्थिक विकास में भागेदारी के अवसर प्रदान किए गए हैं। इसलिए अधिक तेज आर्थिक विकास तथा विकास के नए अवसर प्रत्येक को प्रदान करने के लिए भूमण्डलीकरण अथवा वैश्वीकरण बहुत अधिक जरूरी है।

वैश्वीकरण के विपक्ष में तर्क

यद्यपि वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने विश्व के देशों को कुछ लाभ भी पहुंचाया है, लेकिन उसने लोगों को नकारात्मक रूप में अधिक प्रभावित किया है। इसके लाभ न्यायोचित व समान नहीं हैं। विश्व बाजार अब तक सहभागी सामाजिक लक्ष्य पर आधारित नहीं हो सकता है। इसके विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं-
  1. वैश्वीकरण कमजोर देशों के लिए हानिकारक है। पार-सीमा व्यापार तथा निवेश कमजोर देशों के आर्थिक हित में नहीं है। यह इन देशों में लोकतन्त्रीय नियंत्रण को शिथिल कर देता है। इसमें आर्थिक सम्बन्ध राजनीतिक सम्बन्धों पर भारी पड़ते हैं। इसमें मुक्त व्यापार तथा सुरक्षावाद के बीच टकराव पैदा हो जाता है।
  2. वैश्वीकरण विकसित देशों के हितों का पोषक है। बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विकसित देशों के हितों के संवर्द्धन में ही कार्य करती है। इसके कारण उत्पादकता तथा निवेश दरें काफी गिरी हैं। बढ़े हुए वित्तीय प्रवाह ने पूंजी बाजारों में अधिक तरलता तथा वास्तविक ब्याज दरों को काफी ऊँचा किया है। इससे शेयरों की खरीद तथा सट्टेबाजी को प्रोत्साहन मिला है। इस प्रक्रिया ने विकसित देशों को ही ज्यादा लाभ पहुंचाया है, विकासशील देशों को नहीं।
  3. इसने विकसित और विकासशील देशों के बीच आय की असमानता को बढ़ा दिया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कम वेतन पर ही अच्छा कारोबार करके विकसित देशों को अधिक लाभ पहुंचाया है। 1960 में यह अन्तर 30.1 का था, जो अब 82.1 का हो गया है। इसी कारण विकासशील देश पूंजी पलायन का सहन करके भी विदेशी पूंजी निवेश को बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
  4. इसने विकासशील देशों पर ऋणों के भार को बढ़ा दिया है और इससे विश्व में वित्तीय संकट आने की संभावना बढ़ गई है।
  5. वैश्वीकरण का संस्थागत ढांचा भी भेदभावपूर्ण है। इसमें एक तरफ तो व्यापार तथा पूंजी प्रवाह को मुक्त आधार प्रदान किया गया है और दूसरी तरफ तकनीक तथा श्रम प्रवाह को रोका जा रहा है। विकसित देशों की तो यह इच्छा है कि विकासशील देश अपने बाजारों को उनके लिए खोल दें लेकिन तकनीकी हस्तांतरण की मांग न करें। 
  6. यह प्रक्रिया राष्ट्रीय सम्प्रभुता का हनन करती है। विश्व व्यापार संगठन के दायरे में राष्ट्रीय सम्प्रभुता के विषय भी आ गए हैं। वैश्वीकरण किसी राष्ट्र की आर्थिक गतिवधियों और सामाजिक सम्बन्धों को भी प्रभावित करने में सक्षम हैं। 
  7. इससे स्थानीय व्यापारिक हितों को अधिक हानि हो रही है। इसने स्थानीय व्यापारिक निगमों को बहुराष्ट्रीय निगमों का पिछलग्गू बना दिया है।
  8. यह नव-उपनिवेशवाद को मजबूत बना रहा है। मौजूदा विश्व आर्थिक संस्थाएं विकसित देशों को लाभ पहुंचा रही हैं और विकासशील देशों का शोषण कर रही हैं।
इस प्रकार वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने विकासशील देशों को ही अधिक नुकसान पहुंचाया है। इसने लोकतंत्र को कमजोर किया है। इसने आर्थिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति पर हावी कर दिया है। इससे बहुराष्ट्रीय निगम विकसित देशों के हितों में कार्य करने वाली संस्था बन गए हैं। इसमें अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएं IMF, WTO, World Bank विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने की दिशा में ही कार्य कर रहे हैं। आज अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक समझौते विशिष्ट व्यापारिक वर्ग के हितों के पोषक हो गए हैं, इसने विकसित देशों के उद्योगों की तो सुरक्षा की है, लेकिन विकासशील देशों के उद्योगों को पतन की ओर धकेल दिया है। इसने विकसित तथा विकासशील देशों में आय के अन्तर को अधिक बढ़ा दिया है।

इन कमियों के बावजूद भी यह कहा जा सकता है। कि इस प्रक्रिया ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों को बहुत अधिक प्रभावित किया है। इसने संयुक्त राष्ट्र संघ और इससे संबंधित आर्थिक संस्थाओं की भूमिका के महत्व को बढ़ा दिया है। इसमें अर्थव्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर दिया है। इसलिए आवश्यकता इसको समाप्त करने की नहीं है, बल्कि आवश्यकता इसके संकीर्ण लक्ष्यों को समाप्त करने की है। इसके लिए मुक्त व्यापार नीतियों को दबाव मुक्त बनाया जाना चाहिए। विश्व के सभी देशों को अत्यधिक सहयोग देना चाहिए। वर्तमान विश्व आर्थिक संस्थाओं की कुशलता में वृद्धि की जानी चाहिए। 

आज WTO के विश्वव्यापी खतरों से निपटने के लिए काफी सहयोगी की आवश्यकता है। इसलिए इसके आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दुष्प्रभावों को समाप्त करके अंतर्राष्ट्रीय विकास एवं समृद्धि की प्रक्रिया के रूप में इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए। इससे वैश्वीकरण के लाभ विकासशील देशों को भी मिलने लगेंगे और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों में एक नए युग की शुरुआत होगी।

Bandey

मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता (MSW Passout 2014 MGCGVV University) चित्रकूट, भारत से ब्लॉगर हूं।

1 Comments

Previous Post Next Post