भूमि सुधार से आप क्या समझते हैं भारत में इसके उद्देश्य स्पष्ट कीजिए?

भूमि सुधार से आप क्या समझते हैं

भूमि सुधार एक विस्तृत धारणा है जिसमें सामाजिक न्याय की दृष्टि से जोतों के स्वामित्व का पुनर्वितरण तथा भूमि के इष्टतम प्रयोग की दृष्टि से खेती किए जाने वाले जोतों का पुनगर्ठन सम्मिलित है। नोबल पुरस्कार प्राप्त महान अर्थशास्त्री प्रो0 गुन्नार मिर्डल के अनुसार-’’भूमि सुधार व्यक्ति और भूमि के सम्बन्धों में नियोजन तथा संस्थागत पुनर्गठन है।’’ 

स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय देश के अधिकांश कृषि क्षेत्र में वास्तविक काश्तकार तथा भूमि के स्वामी के बीच मध्यस्थों की एक बड़ी सेना विद्यमान थी। इनके कारण जहाँ एक ओर काश्तकार को भूमि की उपज का बड़ा भाग मध्यस्थों को देना पड़ता था, वही दूसरी ओर वह इन पर पूरी तरह आश्रित था। भू-धारण की उसे कोई गांरटी नही दी जाती थी और लगान की दरों में भी निश्चितता नहीं थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘‘जोतने वाले को भूमि’’ के नारे को वास्तविकता में बदलने के लिए भूमि-सुधार किए गयें। सबसे पहले उत्तर प्रदेश लिए कानून बनाया गया।

भूमि सुधार के उद्देश्य

भूमि व्यवस्था सम्बन्धी सुधार हेतु स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सरकार द्वारा निर्णय लिया गया जिससे मूलत: निम्न उद्वेश्यों की पूर्ति की आशा थी।
  1. कृषि क्षेत्र में विद्यमान संस्थागत विसंगतियों को दूर करना तथा इसे तर्क संगत और आधुनिक बनाना। जैसे- जोत का आकार, भूमि स्वामित्व, भूमि उत्तराधिकार ,काश्तकार की सुरक्षा, आधुनिक संस्थागत सहायता और आधुनिकीकरण आदि पर ध्यान दिया जाना था।
  2. आर्थिक असमानता को समाप्त करना था, जिससे सामाजिक समानता को प्राप्त कर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके।
  3. कृषि उत्पादन में वृद्धि कर आत्म निर्भरता प्राप्त करना।
  4. गरीबी उन्मूलन एंव लोगो में सामान्य मान्यताएँ प्रदान करना।

भूमि सुधार की आवश्यकता

भारत में भूमि सुधारों की आवश्यकता इन  कारणों से महसूस की गई थी।
  1. स्वतंत्रता के समय देश में कृषि पदार्थो की भारी कमी थी। अत: कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम आवश्यक है।
  2. सामाजिक न्याय और समानता के विकास हेतु सुधार कार्यक्रम द्वारा एकत्रित भूमि को भूमिहीनों में वितरित करना।
  3. औद्योगिक क्षेत्र में अनेक उद्योग के लिए कच्चा माल भूमि से ही प्राप्त होता है। 
भूमि सुधारों की आवश्यकता पर बल देते हुए डॉ0 राधाकमल मुखर्जी ने अपनी पुस्तक इकनॉमिक प्रॉबलम्स ऑफ इड़िया में लिखा था कि ‘‘वैज्ञानिक कृषि अथवा सहकारिता को हम कितना ही अपना ले, पूर्ण सफलता हमें तब तक नहीं मिलेगी जब तक कि हम भूमि व्यवस्था में वांछित सुधार नहीं कर देते।’’

प्रो0 सैग्युलसन के अनुसार- ‘‘सफल भूमि सुधार के कार्यक्रमों ने अनेक देशों में मिटृी को सोने में बदल दिया है।’’

भूमि सुधार का स्वरूप

हम सुविधा के अनुसार भूमि सुधारों को इन  शीर्षकों के अंतर्गत समीक्षा कर सकते है- 1. मध्यस्थों वर्गों का उन्मूलन 2. जोतो की उच्चतम सीमा का निर्धारण 3. काश्तकारी सुधार
  1. लगान का नियमन
  2. भू-धारण की सुरक्षा
  3. काश्तकारों का पुनग्रहण
  4. भूमिहीन कामकारों को भूमि प्रदान करना
4. कृषि का पुनर्गठन
  1. चकबंदी
  2. भूमि के प्रबंधन में सुधार
  3. सहकारी कृषि

1. जंमीदारी तथा मध्यस्थों का उन्मूलन

भूमि सुधार व्यवस्था का सर्वप्रमुख कार्य जंमीदारी या मध्यस्थों का उन्मूलन था। उत्तर प्रदेश जंमीदारी उन्मूलन कानून का पालन करने में अग्रणी राज्य था जहाँ एक विधेयक 7 जूलाई 1949को प्रस्तुत किया गया जो 16 जनवरी 1951 को पास हो गया। क्रमश बम्बई व हैदराबाद में 1949-50, म0प्र0 व असम में 1951,पंजाब, राजस्थान व उडीसा में 1952 तथा हिमाचल कर्नाटक व पश्चिमी बंगाल में 1954-55 में अधिनियम पारित किए गए। देश के लगभग सभी राज्यों में जंमीदार ,जागीरदार एँव नामणदार जैसे मध्यस्थों के भूमि अधिकारों को समाप्त किया गया। 

इन मध्यस्थों के पास देश की लगभग 40 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि पर अधिकार था। इनकी समाप्ति से देश के लगभग दो करोड़ से अधिक किसानों को लाभ पहुँचा है और उन्हें भूमि में स्थाई तथा पैतृक अधिकार प्रदान किया गया।

2. जोतो की उच्चतम सीमा का निर्धारण

भूमि सुधार कार्यक्रमों का प्रमुख ध्येय में जोतो की उच्चतम सीमा का निर्धारण था। इस कार्य को करने की आवश्यक का कारण प्रथम रूप में भविष्य में जोतों के आकार में वृद्धि को रोकना था एवं दूसरा बड़ी जोतों के अतिरिक्त भू-भाग को लेकर उनको भूमिहीनों में वितरित कर समाजिक न्याय करना था।

उच्चतम जोत सीमा निर्धारण के लाभ- उच्चतम जोत सीमा निर्धारण के लाभ इंगित है-
  1. उच्चतम जोत की सीमा निर्धारण से भूमि के असमान वितरण को एकत्रित कर वंचित लोगों में बांटा गया।
  2. भूमि अधिकार की प्राप्ति से राजनीतिक जागृति एवं समाजवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण में सबलता प्राप्त हुई।
  3. मध्य एवं छोटी जोतो की स्थापना से लोगों में समानता का वातावरण बनता है जो सहकारी कृषि का आधार बनता है।
  4. मध्य एवं छोटे जोते श्रम प्रधान होते है जो मशीनीकरण पर अंकुश लगाकर रोजगार में वृद्वि की द्योतक है।
  5. उच्चतम जोत की सीमा व्यक्ति के पास भूमि की उपलब्धता को कम करता है। जिस कारण गहन कृषि को प्रोत्साहन मिलता है।
  6. उच्चतम जोत की सीमा केन्द्रीयकरण की प्रवृति को हतोत्साहित करती है।
  7. उच्चतम जोत सीमा का सबसे बड़ा लाभ कृषि भूमि के अपव्यय को रोकना है बड़ी जोत में कुछ न कुछ भूमि कृषि कार्य से विरत रह जाती है, जबकि छोटी जोत की सम्पूर्ण भूमि का उपयोग हो जाता है।
उच्चतम जोत सीमा निर्धारण से हानि- उच्चतम जोत सीमा निर्धारण के विपक्ष में जो तर्क दिए जाते है, वे ही इसके अवगुण या हानि है, जो है:-
  1. कृषि का वृहद रूप में उपयोग न हो पाना, जिस कारण मशीनीकरण और उच्च तकनीकी ज्ञान का लाभ नहीं मिल पाता है।
  2. शहरी क्षेत्र में भूमि की उच्चतम सीमा नहीं होना और कृषि में भूमि की उच्चतम सीमा विषमता को पैदा करता है।
  3. भूमि की उर्वरता एवं सिंचाई की भिन्नता के साथ उसकी कोटि भी कई प्रकार की है, इस कारण सभी क्षेत्रों में कृषि भूमि की एक सी उच्चतम सीमा निर्धारण व्यावहरिक रूप में सही नहीं है। 4. ऐसी आशा थी कि भूमिहीन लोगो के एकत्रित भूमि का वितरण कर सामाजिक न्याय की स्थापना की जाएगी, जबकि एकत्रित भूमि की मात्र कम एवं अपेक्षित लोगो की अधिक संख्या के कारण उनकी समस्या का उचित समाधान नहीं किया जा सका है।

3. काश्तकारी व्यवस्था में सुधार 

 काश्तकारी व्यवस्था में भूमि का स्वामी स्वंय कृषि न कर अन्य किसानों को पटृे पर देता था। प्रतिफल में किराया या लगान लेता था। पटृेदार किसान भी कहीं-कहीं आगे इसे अन्य किसानों को पटृे पर दे देते थे। काश्तकारो का निम्न स्वरूप उस समय में दिखाई पड़ता था।

1. स्थायी काश्तकार- स्थायी काश्तकार वह थे जिन्हें भूमि से बेदखल नहीें किया जा सकता था। परन्तु जंमीदार लागन में वृद्वि कर सकता था।

2. ऐच्छिक काश्तकार- ये काश्तकार थे जिन्हें जंमीदार कभी भी भूमि से बेदखल कर सकता था।

3. उपकाश्तकार- काश्तकार किसान जिन किसानों को पटृे पर भूमि देते थे उन्हे उपकाश्तकार कहते थे। इनकी स्थित अत्यन्त दयनीय थी इन्हे तो कभी-कभी लगान उपज का दो तिहाई तक देना होता था।
काश्तकारी व्यवस्था में सुधार का मुख्य उद्देश्यों काश्तकारों को भूमि पर कानूनी रूप में स्थायी अधिकार प्रदान करना था, साथ ही बीमार, अपंग, विधवा असर्मथ और सैनिक आदि जो स्वंय खेती नहीं कर सकते है पटृे पर प्रदान करने की छूट देना था। शोषणात्मक कार्यो पर रोक हेतु जंमीदारी अधिनियम में काश्तकारी व्यवस्था में निम्न सुधार किए गए-

1. लगान का नियमन-  लगान नियमन कानून लागू होने से पूर्व पटृेदार कुल उपज का आधे से अधिक भाग भूमि स्वामी को लगान के रूप में देते थे। प्रथम योजना में ही इस सन्दर्भ में नियमन बनाया गया जो सामान्य तथा 20 से 25 प्रतिशत से अधिक न हो जैसाकि तलिका में विभिन्न राज्यों के सन्दर्भ में सिंचित और असिंचित एवं शुष्क भूमि के लिया इंगित है।

2. भू-धारण की सुरक्षा- काश्तकारी व्यवस्था में महत्वपूर्ण कार्य पटृेदारों को पटृे की सुरक्षा प्रदान करने के सन्दर्भ में उठाया गया। बडे़ पैमाने पर पटृेदारों की बेदखली पर रोक लगाई गयी। भूमि की एक न्यूनतम सीमा पटृेदारों के पास अवश्य रहने दी गई। कुछ राज्यों में पटृेदारों को अन्यत्र भूमि दिलाने का उत्तरदायित्व दिया गया।

काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व तीन प्रकार से दिया गया
  1. जो काश्तकार दूसरों की भूमि जोत रहे थे वे स्वंय को भूमि का स्वामी घोषित कर दिए गए। इनमें जमीन के मालिक को मुआवने देने को कहा गया। न देने पर सरकार ने वसूली का दायित्व लिया। यह व्यवस्था- गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में की गई।
  2. सरकार ने स्वंय भूमि का मुआवजा मालिकों को प्रदान किया तथा काश्तकारों से बाद में किस्तों में लिया गया। यह व्यवस्था दिल्ली में की गई।
  3. सरकार ने काश्तकारों से सीधा सम्पर्क बनाया गया और उन्हें दो विकल्प दिए गये प्रथम वह भूमि का पूरा मूल्य देकर स्वामित्व के अधिकार को प्राप्त करे द्वितीय सरकार को लगान देते रहें। इस प्रकार की व्यवस्था केरल एवं उ0प्र0 में की गई।
3. काश्तकारों का पुनग्रहण- सभी राज्यों में काश्तकारों को भू-धारण अधिकार प्रदान करने के लिए कानून बनाए गए। इसके अन्तर्गत जो काश्तकार 8-से 10 वर्ष से खेती कर रहे थे उन्हें जमीन पर स्वामित्व का अधिकार दिया गया। लगभग 1करोड़ 14 लाख काश्तकारों को 1.5 करोड़ एकड़ भूमि पर स्वामित्व प्रदान किया गया।

4. भूमिहीन कामगारो को भूमि प्रदान करना- उच्चतम सीमा के कारण प्राप्त भूमि एवं ग्राम-दान आंदोलन के द्वारा बड़े भू-स्वामियों से प्राप्त भूमि को भूमिहीन श्रमिकों में वितरित किया गया ताकि भूमि संबन्धी असमानता को दूर किया जा सके।

4. कृषि का पुर्नगठन 

भूमि सुधार कार्यक्रमों के अन्र्तगत कृषि का पुर्नगठन किया गया, इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए गये।

6. चकबन्दी - चकबन्दी वह प्रक्रिया है जिसमें किसान के इधर-उधर बिखरे हुए छोटी भूमि के बदले उसी किस्म भूमि के लिए एक स्थान पर प्रदान कर जारी करना है। चकबन्दी दो प्रकार की है-
  1. ऐच्छिक चकबन्दी- यह लोगो की इच्छा पर है, बड़ौदा रियासत द्वारा 1921में आरम्भ की गई।
  2. अनिवार्य चकबन्दी- यह चकबन्दी कानूनी रूप में अनिवार्य रूप से लागू की जाती है, इसकी शुरूआत 1928 में आंशिक चकबन्दी के रूप में म0 प्र0 में हुई थी। नौ राज्य आन्ध्र प्रदेश, अरूणाचल, मिजोरम, मणिपुर, मेद्यालय, त्रिपुरा, नागालैण्ड़, तमिलनाडु, व केरल में चकबन्दी कानून नही है, बाकि सभी राज्यों में चकबन्दी कानूनों के अन्र्तगत चकबन्दी की जा रही है। पंजाब व हरियाणा में चकबन्दी कार्य पूर्ण है, उ0 प्र0 में भी 90 प्रतिशत कार्य पूरा किया जा चुका है।
7. भूमि के प्रंबधन में सुधार- भूमि सुधार कार्यक्रम की सफलता भूमि रिकार्ड व दस्तावेजों के अद्यतन बनाने से ही है। इस सन्दर्भ में व्यवस्था हो रही है। समस्त भूमि सुधार कानूनों को नौंवी अनुसूची में शामिल किया जा चुका है। केन्द्रीय आयोजना के अन्र्तगत भूमि रिकार्डो का 12 वीं योजना के अन्त तक सभी जिलों में पूर्णतया कम्प्यूटरीकरण के लिए कार्य किया जा रहा है। बंजर भूमि का उपयोग, उन्नत पैदावार वाले बीजों का प्रयोग, कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग आदि के द्वारा भूमि का कुशल प्रबन्ध किया जा रहा है।

8. सहकारी कृषि- सहकारी कृषि का आशय किसानों के द्वारा सहकारिता के सिद्धान्तों के आधार पर संयुक्त रूप से कृषि करना, जो हमारे ग्राम स्वराज्य का अवलम्बन था। देश में भूमि सुधारों का अन्तिम लक्ष्य सहकारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थापना करना है। इसमें छोटे-छोटे किसान आपस में मिलकर बड़ी जोत के सभी लाभों को प्राप्त करते हुए नवीन तकनीकी ज्ञान के आधार पर गहन कृषि करते है। लाभ का वितरण भूमि की हिस्सेदारी एवं परिश्रम को मिलाकर किया जाता है। पंचवर्षीया योजना में भूमि के छोटे-छोटे टुकडो को देखते हुए सहकारी खेती पर काफी जोर दिया जा रहा है। सहकारी खेती के चार रूप हो सकते है-
  1. काश्तकार सहकारी खेती
  2. सामूहिक सहकारी खेती
  3. उन्नत सहकारी खेती
  4. संयुक्त सहकारी खेती

भूमि सुधार कार्यक्रमों का आलोचनात्मक मूल्यांकन

आजादी मिलने के बाद से भूमि सुधार कार्यक्रम जिनके अन्र्तगत जंमीदारी उन्मूलन, जोतों की उच्चतम सीमा का निर्धारण, काश्तकारी उन्मूलन, लगान का नियमन, सहकारी कृषि, चकबन्दी एंव पटृे की सुरक्षा जैसे कार्य किए गये, जिनके आधार पर भूमि सुधार कार्यक्रमों की प्रशंसा भी की जाती है। जैसाकि संयुक्त राष्ट्र संद्य की भूमि सम्बन्धी रिपोर्ट में उल्लेख है कि,’’ भारत में भूमि सुधार के हाल के अधिनियम संख्यात्मक दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इतने अधिनियम कहीं भी नहीं बनाए गए हैं। अधिनियम लाखों, करोड़ों कृषको पर प्रभाव डालते हैं और भूमि के विशाल क्षेत्रों को अपने दायरे में सम्मिलित करते हैं। लेकिन ऐसा होने पर भी भूमि सुधार कार्यक्रमों की प्रगति धीमी रही है।’’

प्रो0 दान्तवाला का मत है कि,’’ अब तक भारत में जो भूमि सुधार हुए है या निकट भविष्य में होने वाले हैं वे सभी सही दिशा में है, लेकिन क्रियान्वयन के अभाव में इसके परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहे हैं। ‘‘भूमि सुधार कार्यक्रमों की कुछ सफलता रही तो इसी धीमी गति के रूप में कुछ कमियां भी इंगिंत होती है।

1. भूमि सुधार कार्यक्रमों का प्रभाव- भूमि सुधार कार्यक्रमों का सकारात्मक पक्ष जिसे हम इन कार्यक्रमों का प्रभाव भी कह सकते है निम्नवत रहे। अब खेती करने वाले किसान और सरकार में सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। भूमि की मालगुजारी सीधे सरकार के पास जमा करता है। किसानों को भूमि पर स्थाई अधिकार प्राप्त हो गये परिणाम यह हुआ कि उपज वृद्विहेतु किसानों द्वारा भूमि पर स्थायी सुधार कार्यक्रम भी शुरू किए जाने लगे। जंमीदारी प्रथा के अन्त होने से बेगारा व नौकरी जैसी शोषण गतिविधियों से किसानों को मुक्ति मिल गई। किसानों को भूमि का स्वामित्व मिला जिस कारण वह उसमें स्थाई सुधार लागू कर अधिक परिश्रम करने लगें फलस्वरूप कृषि उपज में वृद्वि हुई। काश्तकार एवं जंमीदार एक ही स्तर पर आ गये इसे समाज में समता की भावना का विकास हुआ। लोग आपस में मिलकर सहकारिता के सिद्धान्तों के अनुरूपसहकारी कृषि को बढावा मिला। चकबन्दी के परिणाम स्वरूप बिखरे खेतों को एकत्रित किया गया जहां वह कृषि कार्यो हेतु एक साथ नवीन तकनीक से गहन कृषि कर सकते है। जोतो की उच्चतम सीमा निर्धारण के कारण भूमि का उचित एवं न्यायपूर्ण वितरण हो सका। ग्रामीण व्यवस्था में एक नवीन परिवर्तन आया समाज के उस वर्ग को भी जमीन उपलब्ध हुई जिसके पास केवल मजदूरी का ही कार्य था। लोगों को आवास हेतु जमीन प्रदान की गई। लगान के रूप में सरकारी राजस्व में भी वृद्धि हुई। बेकार पड़ी हुई भूमि का समाज के वंचित वर्ग में वितरण हुआ। समान्तवादी व्यवस्था का अन्त हुआ। किसानों के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में नूतम परिवर्तन आया।

2. भूमि सुधार कार्यक्रमों की कमियाँ- भूमि सुधार कार्यक्रम बड़ी ही तत्परता से लागू हुए परन्तु अवलोककन करने पर इनमें निम्नं कमियाँ इंगित होती है- भूमि सुधार कार्यक्रमोंं का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो सका। प्रो0 गुन्नार मिर्डल ने अपनी पुस्तक एशियन ड्रामॉ में लिखा है कि ‘‘भूमि सुधार कानून जिस ढंग से क्रियान्वित किए गए है उनसे सामान्यत उन कानूनों की भावनाओं और अभिप्राय को हताश होना पड़ा है।’’लोगो (जमीदारों) द्वारा काश्तकारों को बेदखल कर खुदकाश्त के लिए भूमि का पुर्नग्रहण किया गया। उच्चतम जोत की सीमा से बचाव हेतु जोतो का अनियमित एवं अवैधानिक हस्तान्तरण हुआ जंमीदार, राजनेता एवं प्रशासनिक अधिकारी का गठजोड़ बना जो पूर्व में ही तथाकधित रूप में एक ही थे, इन्होनें कानून की अवहेलना के साथ ही साथ भूमि सम्बन्धी रिकार्डो में भी परिवर्तन किया। भूमि सम्बन्धी प्रलेख अपूर्ण थे जिससे स्वामित्व निर्धारण करने में कठिनाई आई। 

भूमि सुधार सम्बन्धी कानून का जंमीदारों द्वारा कानून की खामियों का लाभ उठाया गया। भूमि सुधार कार्यक्रमों में एकरूपता का अभाव था। कई कार्यक्रम जैसे चंकबन्दी, उच्चतम जोत सीमा कानून, सहकारी कृषि आदि को एक साथ लागू नहीं किया गया। भूमिहीन किसानों या छोटे काश्ताकारों को भूमि के स्वामित्व प्रदान करने के साथ ही साख या वित्त की उपलब्धता नहीं उपलब्ध कराई गई।

3. भूमि सुधार कार्यक्रमों की सफलता के लिए सुझाव- भूमि सुधार कार्यक्रमों के प्रभावी सफलता हेतु निम्न कार्य आवश्यक है- भूमि सम्बन्धी रिकार्डो का पूर्णतया नवीन करण किया जायें साथ ही सरल सुलभता हेतु पूर्णतया कम्प्यूटीकरण किया जाए। एक अच्छी प्रशासनिक तत्रं का निर्माण किया जाए। भूमि सुधार कार्यक्रमों से सन्द्रर्भित स्पेशल अदालत स्थापित की जाए जहॉ गरीबी लोगों को नि:शुल्क न्याय प्रदान किया जाए साथ ही वह त्वरित निर्णय लिए जाए। किसानों को भूमि में स्थाई विकास हेतु साख एवं वित्त की सरलता से उपलब्धता सुनिश्चित किया जाना चाहिए। खेतिहर मजदूर व बटाई वालों की भी भूमि सुधार कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में शामिल किया जाना चाहिए। भूमि सुधार कार्यक्रमों का समयाबद्ध रूप में क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। भूमि सुधार कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार के साथ इसकी प्रक्रिया को भी सरल बनाया जाना चाहिए।

संदर्भ -
  1. कृषि अर्थशास्त्र (2001) उ0 प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ उ0प्र0।
  2. पी0के0, कृषि अर्थशास्त्र, वृंदा पब्लिकेशन्स प्रा0लि0, नई दिल्ली।
  3. डाॅ0 राजपाल, कृषि अर्थशास्त्र(2004) वी0 के प्रकाशन, बडौतए बागपत।
  4. माथुर बी0 एल0; (2011) ‘‘कृषि अर्थशास्त्र‘‘; अर्जुन पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली।
  5. डाॅ0 शिव भूषण‘; (2010) ‘‘ कृषि अर्थशास्त्र ‘‘; साहित्य भवन आगरा।

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