कृषि में हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं? इसके लाभ एवं हानि की विवेचना

कृषि में हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं

हरित क्रांति, हरित एवं क्रांति शब्द के मिलने से बना है। क्रांति से तात्पर्य किसी घटना में तेजी से परिवर्तन होने तथा उन परिवर्तनों का प्रभाव आने वाले लम्बे समय तक रहने से है। हरित शब्द कृषि फसलों का सूचक है। अत: हरित क्रांति से तात्पर्य कृषि उत्पादन में अल्पकाल में विशेष गति से वृद्धि का होना तथा उत्पादन की वह वृद्धि दर आने वाले समय तक बनाये रखने से है।

भारतीय कृषि के संदर्भ में हरित क्रांति से आशय छठे दशक के मध्य कृषि उत्पादन में हुई उस भारी वृद्धि से है जो थोड़े से समय में उन्नतिशील बीजों, रासायनिक खादों एवं नवीन तकनीकों के फलस्वरूप हुई। अन्य शब्दों में, हरित क्रांति भारतीय कृषि में लागू की गई उस विकास विधि का परिणाम है जो 1960 के दशक में पारस्परिक कृषि को आधुनिक तकनीकी द्वारा प्रतिस्थापित किये जाने के रुप में सामने आई। 

कृषि में तकनीकी ज्ञान का आविष्कार, उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग, सिंचाई सुविधाओं का विकास, कृषि क्षेत्र में उन्नत औजारों एवं मशीनों का अधिकाधिक उपयोग, कृषि में विद्युतीकरण, कृषि क्षेत्र में ऋण का विस्तार, कृषि शिक्षा में विस्तार कार्यक्रमों के सम्मिलित प्रयासों के फलस्रुपय वर्ष 1966-67 के उपरान्त कृषि उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि हुई। उत्पादन वृद्धि की इस असाधारण गति दर को कृषि वैज्ञानिकों, ने हरित क्रांति का नाम दे दिया। 

हरित क्रांति का जन्मदाता नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो0 नोरमन बॉरलोग है। भारत में हरित क्रांति को बढ़ावा देने का श्रेय मुख्यत: एस. स्वामीनायन को दिया जाता है। हरित क्रांति की संबा इसलिए भी दी गई कि क्योंकि इसके फलस्वरूप भारतीय कृषि निर्वाह स्तर से ऊपर उठकर आधिक्य स्तर पर आ चुकी है। इस प्रकार हरित क्रांति में मुख्य रुप से दो बाते आती हैं:-
  1. एक तो उत्पादन तकनीक में सुधार
  2. दूसरे कृषि उत्पादन में वृद्धि
हरित क्रांति को नवीन कृषि रणनीति के नाम से भी जाना जाता है। नई कृषि युक्ति (New Agricultural Strategy) को 1966 ई0 में एक पैकेज के रुप में शुरु किया गया और इसे अधिक उपज देने वाले किस्मों का कार्यक्रम (High Yielding Variety Programme) की संज्ञा दी गई।

हरित क्रांति से आशय

हरित क्रांति से आशय छठवें दशक के मध्य में कृषि उत्पादन में हुई उस वृद्वि से है, जो कुछ थोड़े से समय में उन्नतशील बीजों, नवीन तकनीकों तथा रासायनिक खादों के फलस्वरूप हुई। हरित क्रांति, भारतीय कृषि में लागू की गई उस विकास विधि का परिणाम है, जो 1960 के दशक में पारंपरिक कृषि को नवीन तकनीक द्वारा प्रतिस्थापित किये जाने के रूप में सामने आई, क्योंकि कृषि क्षेत्र में यह तकनीक एकाएक आई एवं तेजी से इसका विकास विस्तार हुआ। इससे कम समय में ही इतने आश्चर्यजनक परिणाम निकले कि देश के योजनाकारों, राजनीतिज्ञों तथा कृषि विशेषज्ञों ने इस अप्रत्याशित प्रगति को हरित क्रांति की संज्ञा दी। हरित क्रांति की संज्ञा इसलिए भी दी गई, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि निर्वाह स्तर से ऊपर उठकर आधिक्य स्तर पर आ चुकी थी ।

1960-70 के दशक के मध्य के बाद भारत पारंपरिक कृषि व्यवहारों का प्रतिस्थापन आधुनिक तकनीक एवं कार्य व्यवहारों से किया जा रहा है। पारंपरिक कृषि देशी आगतों पर निर्भर करती है और इसमें कार्बनिक खादों, साधारण हलों तथा अन्य पुराने कृषि औजारों एवं यंत्रों का प्रयोग होता है। इसके विपरीत नवीन कृषि तकनीक में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, उन्नत बीजों, कृषि मशीनरी, विस्तृत सिंचाई, डीजल तथा विद्युत शक्ति आदि का प्रयोग शामिल है।

हरित क्रांति के लाभ 

1. खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि - हरित क्रांति या नई कृषि राजनीति का पहला लाभ हुआ है कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है, विशेष रुप से गेहूँ, बाजरा, चावल, मक्का, व ज्वार दालों के उत्पादन में आशतीत वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर सा हो गया है। प्रति हेक्टेयर उत्पादन में आशतीत वृद्धि हुई है। देश में सभी खाद्यान्नों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 1950-51 में 522 कि0ग्राम प्रति हेक्टेयर था जो बढ़कर 2011-2012 में 1996 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया।

2. परम्परागत स्वरुप में परिवर्तन - हरित क्रांति द्वारा किसानों को परम्परागत खेती की सीमाएँ पता चल गई हैं। आज किसान आधुनिक तकनीकों को अपनाने के लिए तैयार है। आज खेती का व्यवसायिकरण हो चुका है। लैजिस्की के अनुसार, ‘‘जहॉ कहीं भी नई तकनीकें उपलब्ध हैं कोई किसान उनके महत्व को अस्वीकार नहीं करता। बेहतर कृषि विधियों तथा बेहतर जीवन स्तर की इच्छा न केवल नई उत्पादन तकनीकों का प्रयोग करने वाले एक छोटे से धनी वर्ग तक सीमित है बल्कि उन लाखों किसानों में भी फैल गई जिन्होंने अभी तक इन्हें अपनाया है और जिनके लिए बेहतर जीवन स्तर अभी तक सपना है।’’ किसानों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है। उत्पादकता में बढ़ोत्तरी से कृषि के स्तर में बदलाव आया और अब वह जीवकोपार्जन करने के निम्न स्तर से ऊपर उठकर आय बढ़ाने का साधन बन गई।

3. कृषि बचतों में वृद्धि - खाद्यान्न में उत्पादन में वृद्धि का एक परिणाम यह हुआ कि मण्डी में बिकने वाले खाद्यान्न की मात्रा में वृद्धि हो  गइ। जिससे कृषक के पास बचतों की मात्रा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है जिसको देश के विकास के लिए काम में लाया जा रहा है। यह वृद्धि, विशेषकर औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए लाभकारी रही।

4. विश्वास - हरित क्रांति का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि कृषक, सरकार व जनता सभी में यह विश्वास जाग्रत हो गया है कि भारत में कृषि पदार्थों के क्षेत्र में केवल आत्मनिर्भर ही नहीं हो सकता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर निर्यात भी कर सकता है।

5. खाद्यानों के आयात में कमी - प्रो0 एस0 एल0 दान्तवाला के मत में ‘हरित क्रांति ने सॉंस लेने योग्य राहत का समय दिया है। इसके खाद्यान्नों की कमी की चिन्ता से छुटकारा मिलेगा और अर्थशास्त्रियों व नियोजकों का ध्यान पुन: भारतीय योजनाओं की ओर लगेगा। वास्तव में हरित क्रांति होने से खाद्यानों का आयात 1978 से 1980 तक पूर्णत: बन्द कर दिया गया था। 2009-10 में 85, 211 करोड़ रुपयो का कृषि पदार्थों का निर्यात किया गया। कृषि पदार्थों का निर्यात कुल निर्यात का 9.9 प्रतिशत था। इस प्रकार विदेशी मुद्रा के खर्च में बहुत बचत हो गई है।

6. कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र के सम्बन्धों में मजबूती - नवीन कृषि तकनीकी तथा कृषि के आधुनिकीकरण ने कृषि तथा उद्योग के परस्पर सम्बन्ध को और भी अधिक सुदृढ़ बना दिया है। पारम्परिक रुप में यद्यपि कृषि और उद्योग का अग्रगामी सम्बन्ध पहले से ही मजबूत था क्योंकि कृषि क्षेत्र द्वारा उद्योगों के लिए आयात उपलब्ध कराये जाते हैं। जैसे चीनी मिल के लिए गन्ना, कपड़ा मिल के लिए कपास। कृषि के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप अब कृषि में उद्योग निर्मित आयातों जैसे कृषि यंत्र व रासायनिक उवर्रक की मांग में भारी वृद्धि हुई है।

7. कृषि एवं गैर कृषि क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसर - कृषि की नई तकनीकी अथवा हरित क्रांति के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई जिसके परिणामस्वरुप फसलों की कटाई के लिए श्रम की मांग बढ़ गई। एक वर्ष में, एक की बजाए दो फसलों के उगाने के कारण भी श्रम की मांग में काफी वृद्धि हुई है। उदाहरणतया, पंजाब व हरियाणा में अक्टूबर तथा नवम्बर धान को काटने तथा इसके पश्चात गेहूँ के बोने के कारण श्रम की मांग बढ़ गई है। कृषि में उत्पादन में वृद्धि के कारण, कृषि पर आधारित उद्योग का विकास हुआ है। इन उद्योगों में भी श्रम का प्रयोग बढ़ गया है। सेवा क्षेत्र में भी हरित क्रांति के कारण रोजगार बढ़ा है। अधिक उत्पादों तथा अधिक कृषि साधनों के परिवहन तथा मण्डी सम्बन्धी सेवाओं के परिवाहन तथा मण्डी सम्बन्धी सेवाओं की आवश्यकता नें भी रोजगार में वृद्धि की है।

8. ग्रामीण विकास - हरित क्रांति के फलस्वरूप सार्वजनिक एवं निजी निर्माण कार्यों को प्रोत्साहन मिला है। ग्रामीण क्षेत्र में बैंकों की गतिविधियां बढ़ गई हैं।

हरित क्रांति की हानि

हमें ज्ञात हो चुका है कि हरित क्रांति के परिणामस्वरूप कुछ फसलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। देश को आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक दृष्टि से लाभ हुआ है। नीचे हम इनमें से कुछ हानि का वर्णन कर रहे हैं:-

1. कृषि विकास में असन्तुलन - हरित क्रांति का क्षेत्र कुछ ही राज्यों तक सीमित है। विशेष रुप से उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र व तमिलनाडु में कृषि के विकास में एक आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। दूसरी ओर राजस्थान, हिमांचल प्रदेश, बिहार तथा असम जैसे राज्य कृषि में कोई विशेष प्रगति न ला सके। यहॉ हम यह भी बताना चाहते हैं कि हरित क्रांति ने न केवल देश के भिन्न-भिन्न भागों में, कृषि के विकास की दर में असमानता पैदा की, अपितु देश के एक ही क्षेत्र में कृषि के विकास में असमानता पैदा कर दी। जैसे कि पंजाब के रुपनगर तथा होशियारपुर के जिलों में, या हरियाणा के नारनौल जिले में, सिंचाई की पर्याप्त सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण, कृषि में प्रगति न हुई जबकि इन राज्यों के बाकी हिस्सों में कृषि के विकास की गति बहुत बढ़ गई।

2. कुछ ही फसलों तक सीमित - अनाज के सम्बन्ध में हरित क्रांति गेहॅू की फसल के साथ ही प्रमुख रुप से जुड़ी रही है। नए बीज सफल नहीं हुए। यह मानना पड़ेगा कि दालों, व्यापारिक फसलों जैसे कपास, तिलहन, पटसन आदि के सम्बन्ध में अधिक उपज वाले बीज तैयार करने के प्रयास बहुत सफल नही हो सके हैं। हम यह कहना चाहेंगे कि भारत में वे उपखण्ड जहॉ सिंचाई की सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थीं, उन क्षेत्रों के हरित क्रांति गेहूँ और चावल का उत्पादन बढ़ाने में सहायक हुई।

3. आय के वितरण में भारी असमानता - हरित क्रांति के परिणामस्वरूप धनी कृषक वर्ग पहले की अपेक्षा अधिक अमीर हो गए और गरीब किसानों की आय के स्तर में विशेष वृद्धि नहीं हो पाई और दूसरे किसानों की तुलना में गरीब होते गए। डा0 वी0 के0 आर0 वी0 राव के अनुसार, ‘‘यह बात सर्व विदित है कि तथा कथित हरित क्रांति जिसने देश में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी है, के साथ ग्रामीण आय में असमानता बढ़ी है, बहुत से छोटे किसानों को अपनी काश्तकारी अधिकार छोड़ने पड़े हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक तनाव बढे़ हैं।’’ कृषि की नई टैक्नोलोजी के अपनाए जाने के कारण, ग्रामीण समाज दो भागों में बंट गया। प्रत्येक गांव में, इन दोनों वर्गों की आर्थिक स्थिति में अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है।

4. पूंजीवादी खेती को प्रोत्साहन - हरित क्रांति, बड़ी मशीनों, उर्वरक तथा सिंचाई सुविधाओं में एक भारी निवेश पर आधारित है। बड़े किसानों ने ही कृषि की नई तकनीकी का लाभ उठाया। इन सुविधाओं का लाभ छोटे किसानों कम पूंजी होने के कारण नहीं उठा पाये। All India Rural Credit Review Committee (1969) के अनुसार, 705 एकड़ तथा इससे अधिक भूमि वाले किसानों की संख्या कुल किसानों की संख्या की 38 प्रतिशत थी, जबकि इसके पास खेती अधीन भूमि का 70 प्रतिशत भाग था, इन्हीं किसानों ने बड़ी मशीनों के प्रयोग, कुछ श्रमिकों को काम से निकाल दिया तथा बचे हुए श्रमिकों को उचित वेतन न दिये।

5. बड़े खेतों पर रोजगार के अवसरों में कमी - जैसा हम जानते हैं कि कृषि की नई तकनीकि का प्रयोग करने के कारण मशीनों का अधिक प्रयोग पड़ा, जिससे कृषि उत्पादकता तो बढ़ी। हरित क्रांति में कृषि मशीनों के प्रयोग को बढ़ावा दिय जैसे फसलों को बोने तथा कटाई के लिए ट्रैक्टर तथा थे्रशर का प्रयोग बढ़ा, जिससे खेतों पर काम कर रहे श्रमिक बेरोजगार हो गये।

6. भूमि व मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव - यह हम जानते हैं कि हरित क्रांति के कारण रासायनिक उर्वरकों तथा फसलों को कीट पतंगों से बचाने के लिए कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग अधिक बढ़ गया था। रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग के कारण, भूमि की उपजाऊ शक्ति कम होती जा रही है, कीटनाशक दवाई का लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। गेहूँ और चावल की खेती के लिए भूमिगत जल, का प्रयोग (ट्यूबवैल द्वारा) अत्यधिक बढ़ गया है, जिसके कारण जलस्तर घट गया है और पर्यावरण को क्षति पहुंचने लगी है।

7. हरित क्रांति ने भूमि सुधार कार्यक्रमों की आवश्यकता की अवहेलना की - देश में भूमि सुधार कार्यक्रम सफल नहीं रहे हैं और लाखों कृषकों को आज भी भू-धारण की निश्चितता नहीं प्रदान की जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा था कि हरित क्रांति एका औषधि कोष होने के बजाय बीमारियों का एक स्रोत बन सकती है। उन्होनें यह भी कहा था कि यदि विकासशील देश शीघ्र ही भूमि सुधारों को लागू नहीं करते तो हरित क्रांति के लाभ, मुख्य रुप से उन किसानों को होंगे जो कि वाणिज्यक स्तर पर खेती करते हैं, न कि छोटे किसानों को और वाणिज्यक स्तर पर खेती करने वाले किसानों में, बड़े किसान, दूसरों की तुलना में अधिक लाभ उठायेंगे।

8. हरित क्रांति के लिए आवश्यक सुविधाओं की कमी - सिंचाई के साधन, कृषि साख, आर्थिक जोत तथा सस्ते कृषि आगतों का अभी भी देश में अभाव है। छोटे किसान इन सभी साधनों के अभाव में हरित क्रांति के लाभों से वंचित रह गये हैं। जिससे कृषि विकास में वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो पा रही है।

9. उत्पादन लागत में वृद्धि - नया तकनीक ज्ञान अर्थात् उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक दवाइयों, सिंचाई के लिए विद्युत, डीजल, तेल का उपयोग, उन्नत कृषि यंत्रों के क्रय करने आदि के अपनाने में फसलों की खेती करने पर प्रति हेक्टेयर लागत अधिक आती है। इसके लिए किसानों को पहले की अपेक्षा अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है।

हरित क्रांति की सफलता के लिए सुझाव

1. भूमि सुधार कार्यक्रमों को प्रोत्साहन - हरित क्रांति को सफल व व्यापक बनाने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रमों को प्रभावी और विस्तृत रुप से लागू किया जाना चाहिए। सीमा निर्धारण से प्राप्त अतिरिक्त भूमि को भूमिहीन किसानों को वितरित किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त चकबन्दी को प्रभावी बनाकर जोतों के विभाजन पर रोक लगाए जाने की आवश्यकता है। जिससे कृषि की नई तकनीकी प्रभावी रुप से लागू हो पाए।

2. कृषि वित्त की सुविधाओं का विस्तार - हरित क्रांति का लाभ छोटे किसान भी उठा पाएं इसके लिए आवश्यकता है कि वित्तीय संस्थाएं प्रशासनिक व अन्य तरीकों से इन किसानों को ऋण आसान किश्तों में उपलब्ध करायें। कृषि की नई तकनीकी को अपनाने के लिए वित्तीय संस्थाओं को किसानों को प्रोत्साहन देना होगा।

3. सिंचाई सुविधाओं का विस्तार - कृषि के विकास के लिए विशेष तौर पर शुष्क व उपशुष्क उपखण्डों में कृषि की नई तकनीकी का लाभ उठाने के लिए सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाना आवश्यक है। इसके लिए लधु सिंचाई परियोजनाओं के विस्तार वर्षा के जल को इकट्ठा करके (Rain Water harvesting) खेतों की सिंचाई छिड़काव प्रणाली, (Sprinter System) द्वारा की जाए, तो इससे पानी, बिजली, श्रम सब में बचत होगी।

4. हरित क्रांति का अन्य फसलों पर फैलाव - हरित क्रांति के प्रभाव क्षेत्र में गेहॅू और चावल के अतिरिक्त दालों, कपास, पटसन, तिलहन, गन्ना आदि के नए बीजों का विकास करने की आवश्यकता है। यदि इन फसलों के लिए ऊॅची उत्पादकता वाले बीजों का विकास किया जाए तो कृषि क्षेत्र में सम्पूर्ण क्रांति आ जाएगी और कृषि में असन्तुलन भी कम हो जाएगा। 

4. सीमान्त व छोटे खेतों व छोटे किसानों को लाभ पहुंचाना - जैसा कि हम जानते हैं कि हरित क्रांति क अधिकतम लाभ बड़े किसान ही उठा पाये हैं इसलिए यह आवश्यक है कि:- (क) छोटे-छोटे किसानों को सहकारी खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। (ख) भूमि सुधार कार्यक्रमों को जल्दी व प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। (ग) छोटे किसानों को उन्नतबीज, उर्वरक खरीदने व सिंचाई सुविधाओं के लिए सरलता से साख सुविधाएँ बैंकों द्वारा उपलब्ध करायी जाएं।

6. मूल्य नीति को प्रोत्साहन दायक बनाना - हमें ज्ञात है कि सरकार की कृषि मूल्य नीति कुछ ही फसलों तक सीमित रही है इसलिए अन्य फसलों के उत्पादन में असन्तुलन देखने को मिलता है। सरकार की मूल्य नीति इस प्रकार की होनी चाहिए कि सभी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन मिल पाए। 

7. अन्य फसलों के लिए भी उन्नत किस्म के बीजों का विकास - हम एक बात बताना चाहेंगे कि हरति क्रांति के बाद मुख्यत: चावल और गेहूँ की उत्पादकता में बहुत वृद्धि हुई। परन्तु अन्य फसलों जैसे दाल, तिजहन, कपास और पटसन की उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पाई। इसका कारण यह है कि इनके लिए उन्नत किस्म के बीजों का विकास न हो पाना तथा इनकी उपज को बढ़ाने के लिए अन्य उपाय करना इसलिए आवश्यकता इस बात की हे कि विशेष तौर पर छोटे व सीमान्त किसानों को ऐसे बीज उपलब्ध कराये जाएं। इससे न केवल किसान अपनी भूमि पर कुछ ही फसलें (गेहूँ व चावल) उत्पादित करेंगे वरन् फसलों में भी विविधता को प्रोत्साहन मिलेगा।

8. शुष्क खेती को प्रोत्साहन की आवश्यकता - हमने पहले यह बताया है कि हरित क्रांति का लाभ मुख्यत: सिंचाई की सुविधा से युक्त भूमि को ही मिला है। परन्तु भारत के शुष्क उपखण्डों में फसलों की प्रति एकड़ उत्पादकता न केवल कम हैं बल्कि उसमें उतार - चढ़ाव भी है। ऐसे उपखण्डों में ऐसी फसलों को उगाए जाने की आवश्यकता है जो न केवल कम समय में तैयार हो जाए बल्कि सूखे से भी प्रभावित न हो।

9. फसलों की बीमा योजना - फसल बीमा योजना का लाभ लघु एवं सीमान्त कृषकों तक पहुंचाने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा प्रयास किये जाने चाहिए। सरकार द्वारा व्यापक-फसल बीमा योजना अप्रैल 1985 में कृषकों को उनकी फसलों के सूखा, अति वृष्टि आदि कारणों से नष्ट होने की स्थिति में वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु प्रारम्भ की गई है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य किसानों को अनिश्चितता के समय विश्वास दिलाना है।

सन्दर्भ -
  1. पन्त, जे0सीए, जे0पी0 (2012), भारतीय आर्थिक समस्याएं साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा
  2. जे0पी0 (2011), कृषि अर्थशास्त्र, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा
  3. आर0 एन0 (2010), कृषि अर्थशास्त्र के मुख्य विषय, विशाल पब्लिशिंग कम्पनी जालन्धर।
  4. एन0एल (2000), भारतीय कृषि का अर्थतन्त्र, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर।
  5. एस के0 पुरी, वी0के0 (2007), भारतीय अर्थव्यवस्था, हिमालया पब्लिकेशिंग हाउस, नई दिल्ली।

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