अनुक्रम
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तुलसीदास |
पन्द्रह सौ चौवन विषे, ऊसी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ल सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर।।
‘सवंत सोलह सौ असी असी गंग के तीर।
सावन शुक्ल सप्तमी तुलसी तजौ सरीर।।
गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। पं. रामगुलाम द्विवेदी और ठा. शिवसिंह सेंगर ने तुलसी का जन्म स्थान बाँदा जिले के राजापुर बतलाया गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनका जन्मस्थान राजापुर ही माना है। पं. गौरीशंकर द्विवेदी तथा रामनरेश त्रिपाठी ने सोरों को तुलसी का जन्म स्थान बताया है। बाँदा के गजेटियर के अनुसार राजापुर गाँव सोरो के संत तुलसीदास जी द्वारा बसाया गया है। जनश्रुति के आधार पर गोस्वामी जी के पिता का नाम आत्माराम था और वे पत्योंजा के दुबे थे- ‘‘तुलसी परासर गोत, दुबे पति औजा के।’’ तुलसी की माता का नाम हुलसी था। गोसाई चरित’ और ‘तुलसी चरित’ के आधार पर आचार्य शुक्ल ने इसे सरयूपारीय ब्राम्हण माना है। मिश्रबन्धुओं ने इन्हें कान्यकुब्ज माना है।
आपके विवाह के संबंध में उल्लेख है कि उनका विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। उनके तारक नाम का पुत्र भी हुआ था जिसकी मृत्यु हो गई थी। इसके अतिरिक्त कहा जाता है कि (तुलसी चरित के अनुसार) उनके तीन विवाह हुए थे। तीसरा विवाह कंचनपुर के लक्ष्मन उपाध्याय की पुत्री बुद्धिमती से हुआ था। इस विवाह में तुलसी के पिता ने 6000 रूपये लिये थे। मुनिया नाम की दासी की मृत्यु के पश्चात् उसी अवस्था में इनके दीक्षा-गुरू बाबा नरहरिदास की इन पर दया-दृष्टि हुई। इन्हीं से तुलसी ने शूकर क्षेत्र या सोरों में राम-कथा सुनी थी। शेष सनातन के पास काशी में 16-17 वर्ष रहकर वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण तथा भागवत आदि का गम्भीर अध्ययन किया और अन्त में काशी में रहने लगे। काशी में तुलसी का मान बढ़ता गया। राजा टोडरमल, रहीम और मानसिंह तुलसी के अन्य मित्र थे।
गोस्वामी तुलसीदास का कृतित्व
पं. राम गुलाम द्विवेदी व आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में तुलसी के छोट-बड़े बारह ग्रन्थों को प्रामाणिकता दी है। नागरी प्रचारणी सभा ने इन बारह ग्रन्थों को ही प्रामाणिक मानकर प्रकाशित किया है- 1. रामचरितमानस 2. जानकी मंगल 3. पार्वतीमंगल 4. गीतावली 5. कृष्ण गीतावली 6. विनय-पत्रिका 7. दोहावली 8. बरवै रामायण 9. कवितावली (हनुमान बाहुक समेंत) 10. वैराग्य संदीपनी 11. रामाज्ञा प्रश्न 12. रामलला नहछँू। इन ग्रन्थों में प्रबंध काव्य की दृष्टि से रामचरितमानस और मुक्त काव्य की दृष्टि से विनय पत्रिका सर्वाधिक महत्पूर्ण है। अधिकांश की भाषा अवधि है।तुलसी और उनका रचना संसार
तुलसीदास मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत कलाकार थे। उनकी अन्तर्दृष्टि जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से काव्य का तत्व खोज लेती है और उनके पास काव्य की समझ और अभिव्यक्ति की अपार क्षमता विद्यमान है। युग और जीवन की गहरी समझ के बिना कोई व्यक्ति कलाकार नहीं हो सकता। तुसली निसंदेह एक बड़े कलाकार थे। उनकी काव्य-कला के तत्व विवेचनीय हैं-1. विषय वस्तु-
तुलसी द्वारा रचित रामचरितमानस जो कि इनका प्रतिनिधि ग्रंथ है, इसकी विषय वस्तु का आधार ‘अध्यात्म रामायण’ तथा वाल्मीकि रामायण है। कथावस्तु के विकास और वर्णन विस्तार में भी तुलसी की असाधारण प्रतिभा और कलात्मक विशेषज्ञता के दर्शन होते हैं। इसकी विषय वस्तु विन्यास की प्रशंसा में आचार्य श्यामसुन्दर दास ने लिखा है- ‘इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर तथा मध्यकालीन धर्म गन्थों के तत्वों का समावेश कर साथ ही अपनी उदार बुद्धि एवं प्रतिभा से अद्भुत चमत्कार उत्पन्न कर उन्होंने जिस अनमोल साहित्य का सृजन किया वह उनकी सारग्रहणी प्रवृत्ति के साथ ही उनकी प्रगाढ़ मौलिकता का परिचायक है।’’2. चारित्रिक वैशिष्ट्य-
रामचरित मानस’ के चरित्र पौराणिक हैं, पर वे अपने युग की चारित्रिक मनोवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं इसमें अनेक चरित्र ऐसे हैं जिनके स्वभाव और मानसिक प्रवृत्तियों की विशेषता गोस्वामी जी ने कई अवसरों पर प्रदर्शित भावों और आचरणों की एकरूपता दिखाकर प्रत्यक्ष की हैं। तुलसी ने अपने ग्रन्थों में पात्रों का चरित्र-चित्रण अत्यन्त सतर्कता, कोमलता, व्यापक उदारता के साथ किया है। उनके चरित्र मानव जीवन की विविध चारित्रिक विशेषताओं को अपने में समेटे हुए होते हैं। आदर्श जीवन की प्रतििष्ठा के लिए आदर्श मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया है। रामचरितमानस में भरत का आदर्श चरित्र खड़ा करने और कैकेई की आत्मग्लानि आदि के चित्रण से गोस्वामी जी के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की अद्भुत क्षमता के दर्शन मिलते हैं।3. अलंकार-
अलंकार भाषा के आभूषण हैं। इनसे ही प्राय: कल्पना का रूप होता है। तुलसी जी के अलंकार प्रयोग की विशेषता यह है कि उसमें कौतुक के स्थान पर रमणीयता और सहसता है। रस सिद्ध कवि तुलसी दास केशव के समान अलंकारों के पीछे-मारे-मारे नहीं फिर; बल्कि अलंकार उनके काव्य में सहज रूप से आये हैं। यही कारण है कि अलंकार भावगुण, वस्तु और घटना के तीव्रता अनुभव कराने में सहायक सिद्ध हुए हैं। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं।
‘‘उदित उदय गिरिमंच पर रघुवर बाल पतंग।
विकसे संत सरोज सब, हरसैं लोचन भृंग।’’ (सांगरूपक)
‘आगे दीखि जरति रिष भारी, महनु रोष तरवारि उधारी।’ (उत्प्रेक्षा)‘पीपर पात सरिस मन डालो।’ (उपमा) प्रथम प्रश्नपत्र
‘‘प्रभु अपने नीचहुं आदरहीं, अगिनिधूम गिरि तुन सिरधरहीं।’’
‘‘सन्त हृदय नीवनत समाना, कहा कविनपै कहै न जाना,
निज परिताप द्ववै नवनीता, परिदु:ख दवै सुसंत पुनीता।’ (व्यतिरेक)
4. छन्द-
तुलसी की भाषा शैली, अलंकार, छन्दों पर अबाध अधिकार था। इन्होंने भाषा के सम्बन्ध में स्पष्टत: कह दिया था-
‘‘का भाषा का संस्कृत भाख चाहिये साँच।
काम जो आवै कामरी का लै कै कमाँच।’’
इनकी कामरी ही कमांच से अधिक मूल्यवान सिद्ध हुई। इन्होंने अपने समय की प्रचलित सभी शैलियों का बड़ी ही विदग्धैव्यतापूर्ण उपयोग किया है।
5. भाषा शैली और उक्तिवैचित्रय-
प्रबन्ध वैचित्रय के अनुसार शैली वैचित्रय भी तुलसी जी की विशेषता है। अपने समय में प्रचलित वीर गाथा काल की छप्पय पद्धति विद्यापति और सूरदास की गीत पद्धति, गंग आदि भाटों की कवित, सवैया पद्धति नीति काव्यों की सूक्ति पद्धथि प्रेमाख्यानों की दोहा-चौपाई पद्धति, तुलसी की शैली के मौलिक गुण हैं।तुलसी महान शैली-निर्माता और ज्ञाता थे। डॉ. माता प्रसाद गुप्त इनकी शैली के विषय में लिखते हैं- ‘‘तुलसी की शैली के मौलिक गुण हैं, उसकी श्रद्धालु, उसकी सरलता उसकी सुबोधता, उसकी निव्र्य जता, उसकी अलंकार प्रियता, उसकी चारुता, उसकी रमणीयता, उसका प्रवाह, ऐसा प्रतीत होता है कि शैली की ये विशेषताएं अपेक्षाकृत उसके जीवन का एक प्रतिरूप उपस्थित करती हैं। ये वास्तव में कवि के सुलझे हुए मस्तिष्क को उसके सादे जीवन और उच्च विचार के आदर्श को उसकी स्वभावगत सरलता और आडम्बर विहीनता को, उसके ध्यये की एकाग्रता को और इन सबसे अधिक अपने विषय में उसकी पूर्ण आत्मविस्मृति और उसके साथ पूर्ण तल्लीनता को किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा व्यक्त करती है।
इस प्रकार तुलसी का व्यक्तित्व उनकी शैली में भली-भांति है। तुलसी जी की उक्तियों में उनका उक्ति वैचित्रय भी दर्शनीय है। उनकी उक्तियाँ बड़ी ही मार्मिक और प्रभावशाली हैं। राम की निरूत्तर कर देने वाली सीता की यह उक्ति दर्शनीय है-
‘‘मैं सुकुमारि नाय बन जोगू, तुमहि उचित तप मो कहं भोगू।’’
राम जनकपुरी तो स्वयं देखना चाहते हैं, किन्तु लक्ष्मण से कहते हैं-
‘‘नाथ लखनपुर देखने चहहों प्रभु संकोच डर प्रकट न कहीं।’’
‘‘मनहुं उमंग अंग-अंग कवि छलकै।’’ (लक्षणा)
गोस्वामीजी की उक्तियों वैचित्रय के साथ उनकी निश्छलता और अनूठापन भी अपना महत्व रखता है। कौशल्या के चाहने पर भी प्राण न छोड़ सकने से संबंधित एक उक्ति दर्शनीय है-
‘‘लागि रहत मेरे नैयननि आगे राम लषन अरू सीता।’
और उसी से-
‘‘दु:ख न रहहि रघुपतिहिं विलोक मनु न रहैं बिनु देखे।’
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इसी काव्य में कला-पक्ष और भाव पक्ष अपने अत्यन्त प्रौढ़ रूप में है जो उन्हें एक अप्रतिम, प्रतिभाशाली, क्रान्त दर्शी कवि सिद्ध करते हैं।
डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में- ‘‘तुलसी हिन्दी कविता कानन के सबसे बड़े वृक्ष हैं। उस वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं के काव्य कौशल की चारुता और रमणीयता चारों और बिखरी पड़ी है। यह सच है कि तुलसी कला के द्वारा उपकृत नहीं हुए प्रत्युत कला उनसे उपकृत हुई है - ‘‘कविता करके तुलसी न लसे, पै कविता लसी पा तुलसी की कला।’’
गोस्वामी तुलसीदास के दार्शनिक विचार
तुलसीदास न केवल महान भक्त थे बल्कि वे एक चिन्तक और दार्शनिक भी थे। उन्होनें जीव और ब्रह्म, जगत और माया जैसे तत्वमीमांसीय विषयों पर भी अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। तुलसी के दार्शनिक विचारों का अध्ययन इन शीर्षकों में किया जा सकता है -1. ब्रह्म का स्वरूप -
दार्शनिक विषयों में सबसे पहले हम ब्रह्म पर विचार करते हैं। तुलसी ने भी ब्रह्म को निर्गुण, निराकार, निर्विकार, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्द, अनादि, विश्वरूप कहा है। उन्होंने राम को ही ब्रह्म कहा है। वे राम और ब्रह्म की एकता निरूपित करते हुए कहते है: अमल अनवद्य अद्धैत निगुण सगुन ब्रह्म सुभिराम नरभूप रूपी। वे ब्रह्म को व्यापक एवं सर्वान्तरयामी मानते हुए कहते हैं: व्यापक एक ब्रह्म अविनासी। सत चेतन घन आनन्दरासी।।तुलसी के आराध्य राम दरअसल निर्गुण और निराकार ब्रह्म के ही सगुण साकार अवतार है: अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
तुलसी का मानना है कि जब-जब संसार में अर्धम बढ़ता है तथा असुर एवं अभिमानी बढ़ जाते है, तब-तब ब्रह्म अवतार लेते हैं :जब-जब होई धरम की हानी। बाढ़हिं असुर अभिमानी। तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
वे कहते हैं कि जो निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म है, वही भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर सगुण साकार रूप धारण कर लेता है: अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बधु वेदा। अगुन अरूप अलख अज सोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
इस तरह हम देखते हैं कि तुलसी का ब्रह्म स्वतन्त्र एवं सच्चिदानन्द घन है, वह सर्वज्ञ, अनवद्य, निराकर, नित्य, निरंजन, अविनाशी, अमोध शक्ति सम्पन्न है। वही ब्रह्म के रूप में अवतरित हुआ है और नाना प्रकार की मानवीय लीलाएँ कर रहा है। उसकी ये लीलाएँ विचित्र है और मुनियों को भी भ्रमित कर देती है। अवतारवाद ब्रह्म के स्वरूप का प्रथम प्रश्नपत्र ही विस्तार है। अवतार चाहे राम के रूप में हो कृष्ण के रूप में।
2. जीव का स्वरूप -
भारतीय दार्शनिक परंपरा में जीव को प्रकृति के पांच तत्वों से निर्मित माना है। इसके अतिरिक्त जीव को ब्रह्म का अंश भी माना जाता है। तुलसी ने इस परपंरा का निर्वाह करते हुए जीव के स्वरूप का प्रतिपादन किया और जीव को पांच तत्वों से निर्मित बताया है छिति जल पावक गगन समीरा। पंच तत्व मिलि बनेउ सरीरा।।वे यह भी कहते हैं कि यह जीव मन, प्राण अैर बुद्धि से विलक्षण है। यह ईश्वर का ही अंश है अत: ईश्वर के समान चेतन, अमूल, अविनाशी एवं सहज सुख का भण्डार है, किन्तु माया के वशीभूत होने के कारण यह अपने मूल स्वरूप को भूल चुका है : ईश्वर अंस जीवन अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।। सो माया बस परसो गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।
संपूर्ण दार्शनिक परंपरा जीव और माया के संबंध से संसार का निर्माण मानती है। तुलसी भी यह कहते हैं कि माया का प्रभाव जीव पर होता है, ईश्वर पर नहीं। माया तो ईश्वर के अधीन है राम सर्वज्ञ, मायापति, सर्वशक्तिमान हैं जबकि जीव अल्पज्ञ, परतन्त्र माया के वशीभूत है। जीव अज्ञानी एवं अंहकारी है। वह माया के वशीभूत होने कारण कर्मबन्धन में फंसा रहता है और नाना प्रकार के कष्ट सहता है। राम की कृपा से ही उसका उद्धार सम्भव है। जीव माया के कारण ही अमल रूप से अलग होकर मलिन हो जाता है और सुख को त्याग कर दु:ख को ग्रहण करता है। जीव का यह स्वरूप परंपरागत है। तुलसी इसी स्वरूप को ग्रहण करते हैं और उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ते हैं। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, किन्तु फल भोगने में परतंत्र है। माया के वशीभूत होकर यह जीव सांसारिक कर्म जाल में फंसा रहता हैं। माया के बन्धन से मुक्ति कैसे मिल सकती है इस विषय में तुलसी का स्पष्ट मत है कि मायापति ईश्वर की कृपा से ही यह संभव है। स्पष्ट है कि तुलसी ने जीव को ईश्वर का अंश मानते हुए भी उसे ईश्वर से पृथक माना है। जीव की मुक्ति के लिए राम की कृपा और दासभाव की भक्ति की अनिवार्यता पर बल देते हैं। राम ही कृपा करें तो यह जीवन माया के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
3. जगत का स्वरूप -
जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि तुलसी के दार्शनिक विचार परंपरा से आये विचारों के अनुरूप ही हैं। अत: जगत के संबंध में भी तुलसी मानते हैं कि राम यानि ब्रह्म ही जगत के निमित्त और उपादान कारण है। जब राम (ब्रह्म) सत्य हैं तो जगत को भी सत्य होना चाहिए। विनय-पत्रिका के कई पदों में तुलसी ने जगत की भयंकरता, विषमता तथा भ्रमात्मक सत्ता पर आश्चर्य प्रकट किया है। संसार में व्याप्त पाखण्ड, काम, क्रोध, मोह, तृष्णा, दंभ, कपट, आदि सदा जीव को भ्रमित करते रहते हैं। जगत के इस स्वरूप के अलावा तुलसी ने इसे ‘सियाराममय’ भी स्वीकार किया है : सियाराममय सब जग जानी। करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी।।इस पंक्ति पर प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब जगत सियाराममय है तो मिथ्या कैसे हो सकता है? वस्तुत: जगत रामरूप ही है, परन्तु माया के कारण ही वह राम से भिन्न प्रतीत होता है। परपंरा के अनुसार जगत् का दृश्यमान रूप मिथ्या है, क्योंकि वह परिवर्तनशील है। राम की कृपा से जब उसे अपने वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है तब वह इस जगत को सियारममय पाता है। कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोऊ मानै।
तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपुन पहिचानै।।
श्यह कहकर तुलसी ने संसार की सत्यता, मिथ्यात्व, सत्यासत्यता तीनों बातो को ही मिथ्या ठहराया है। तीनों भ्रमात्मक रूपों को छोड़कर भक्ति को अपनाने का आग्रह तुलसी ने किया है। इस प्रकार जगत के निरूपण में शंकर का तथा अन्त में भक्ति के प्रतिपादन में रामनन्द का अनुसरण कर तुलसी ने अपने जगत सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत किया है।
4. माया का स्वरूप -
दार्शनिक विचारों में माया का स्थान बहुत महत्वूपर्ण है क्योंकि यही वह तत्व है जो संसार के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माया राम की अभिन्न शक्ति है। इसी शक्ति के द्वारा राम सृष्टि का कार्य सम्पन्न करते है। माया सीता है और राम के साथ ही वह सदा अवतार लेती है। तुलसी कहते हैं कि - आदि सक्ति जेहि जब उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।माया जीव के मोह एवं भवबन्धन का कारण है। इसे ही माया का अविद्या रूप कहा गया है। माया का दूसरा रूप विद्या है। वह ब्रह्म की शक्ति है जो विश्व का सृजन, सिंचन एवं संहार करने वाली है। यही जीव के मोक्ष का हेतु है ‘‘स्रुति सेतुपालक राम तुम्ह जगदीश माया जानकी। सो सृजति जग पालति हरति रूख पाई कृपानिधान की।।’’ जीव के विकारी भाव - काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, कामिनी इस माया के सहायक है। यह माया भक्तों को नहीं व्यापती, ऐसा कहकर तुलसी ने भक्ति की महत्ता बताई है। इस प्रकार तुलसी ने जहाँ जीव और ब्रह्म को एक माना है वहाँ माया और ब्रह्म को भी एक स्वीकार किया है। जहाँ वे जीव और ब्रह्म की एकता स्वीकार करते है वहाँ वे रामानुज के आधार पर मुक्ति की अवस्था में जीव और ब्रह्म में द्धैत स्वीकार करते। इस तरह हम तुलसी के दार्शनिक विचारों का परिचय पा सकते हैं।
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