खानवा का युद्ध के परिणाम, बाबर की विजय के कारण

खानवा का युद्ध के परिणाम

राणा संग्राम सिंह ने खानवा के मैदान में 16 मार्च, 1527 ई. को पड़ाव डाला। 17 मार्च, 1527 ई. को बाबर खानवा पहुँच गया। दोनों के शिविरों के बीच चार मील की दूरी थी। राणा सांगा की सैन्य संख्या बाबर की तुलना में लगभग दुगुनी थी, किन्तु बयाना युद्ध के बाद उसने सीधा बाबर की ओर बढ़ने की अपेक्षा भुमावर का मार्ग पकड़ा जिसके कारण खानवा तक पहुँचने में उसे बहुत समय लग गया और इतना समय नहीं मिल सका जिससे कि वह अपनी सैनिक टुकड़ियों को पंक्तियों में सजा पाता। बाबर ने अपनी व्यूह रचना पानीपत के समान ही की थी। उसने अपनी सम्पूर्ण व्यवस्था खानवा पहुँचने के लगभग 10-25 दिन पहले की थी।

खानवा का युद्ध 17 मार्च, 1527 को हुआ। मुगल सेना के केन्द्र में स्वयं बाबर था। केन्द्र के दायें हाथ की ओर चिन तैमूर सुल्तान, मिर्जा सुलेमान, ख्वाजा दोस्त खाबन्द, कमालुद्दीन यूनुस अली, जलालुद्दीन शाह मंसूर बरलास, दरवेश मुहम्मद सारबान, अब्दुल्ला किताबदार, निजामुद्दीन दोस्त ईशक आगा नियुक्त थे। केन्द्र के बायें हाथ की ओर सुल्तान अलाउद्दीन आलम खां, शेख जैन ख्वाफी, निजामुद्दीन अली खलीफा का पुत्र कमालुद्दीन मुहिब अली, कूच बेग का भाई तरदी बेग और पुत्र शेर अफगान, आराइश खां, ख्वाजा कमालुद्दीन हुसैन नियुक्त थे। 

मुगल सेना का दायां भाग हुमायूं के नेतृत्व में थो। उसके दायें हाथ की ओर कासिम हुसैन सुल्तान, निजामुद्दीन अहमद यूसुफ ऊगलाकची, हिन्दू बेग कूचीन, खुसरो कैकुल्ताश, किबाम बेग उर्दूशाह, वली करा कूजी खाजिन, पीर कुली सीस्तानी, ख्वाता पहलवान बदख्शानी, अब्दुल शकूर, एराक का राजपूत सुलेमान आका तथा सीस्तान का राजदूत हुसैन आका थे। हुमायूं के बाई ओर मीर हामा, मुहम्मदी कैकुल्ताश और निजामुद्दीन ख्वाजगी असद जानदार थे। 

साथ ही खाना दिलावर खां, मलिक दाद करारानी, शेख गूरन आदि हिन्दुस्तानी अमीर भी हुमायूं के दायें बाजू में अपने-अपने निश्चित स्थान पर खड़े थे। मुगल सेना के बाएं भाग का नेतृत्व मैंहदी ख्वाजा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा, आदिल सुल्तान, अब्दुल अजीज मीर आखूर, मुहम्मद अली जंगजंग, कुतलूक कदम करावल, शाह हुसैन बारबेगी, जान बेग अल्का को सौंपा गया। साथ ही कमाल खां, जलाल खां, अली खां, शेखजादा फारमूली तथा निजाम खां आदि हिन्दुस्तानी अमीर भी इसी भाग का नेतृत्व कर रहे थे। दाई तुलुगमा में तरदी यक्का तथा मलिक कासिम और बाई तुलुगमा में मोमिन अल्का तथा रूस्तम तुर्कमान की कुछ विशेष दस्ते देकर नियुक्ति की गई। उस्ताद अली कुली अपनी तोपों के साथ केन्द्र में बाबर के आगे और मुस्तफा रूमी दाएं भाग के केन्द्र में हुमायूं के आगे था।

युद्ध एक पहर तथा दो घड़ी (लगभग प्रात: 9-10 बजे के बीच का समय) व्यतीत हो जाने के उपरान्त प्रारम्भ होकर दिन के अंतिम पहर तक चलता रहा। सर्वप्रथम राजपूत सेना के बाएं भाग ने मेदिनी राय और राव मालदेव आदि के नेतृत्व में मुगलों के दाएं भाग के दाएं पक्ष में खुसरो कैकुल्ताश और मलिक कासिम पर हमला किया। राजपूतों का यह आक्रमण इतना तीव्र था कि मुगलों की सेना के दायें और बायें भाग अस्त-व्यस्त हो गए तथा दायें भाग के लिए तो मैदान में खड़ा होना कठिन हो गया। 

रश्बु्रक विलियम्स के अनुसार, “यह कुछ क्षण बहुत ही खतरनाक थे, क्योंकि एक तुलुगमा आक्रमण करने में अभ्यस्त होता है बचाव करने में नहीं और इस समय वह अपनी कमजोरी के चिन्ह प्रकट करने लगा था। यदि दायें भाग के दायें बाजू की सेना पूर्णरूप से परास्त हो गई होती तो शत्रु पूरी की पूरी पंक्ति को समेट लेता और इस प्रकार तुरन्त पराजय हो जाती और फिर विजय पाना कठिन हो जाता।” 

इस परिस्थिति से स्वयं को बचाने के लिए बाबर ने तुरन्त ही चिन तैमूर सुल्तान को सहायता के लिए भेजा। चिन तैमूर सुल्तान ने आगे बढ़कर शत्रु की सेना के बायें भाग पर आक्रमण कर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया तथा उनके प्रभाव को घटा दिया। इतना ही नहीं चिन तैमूर सुल्तान ने सेना के दायें भाग को इस योग्य बना दिया कि वह अपनी पूरी शक्ति के साथ शत्रु पर आक्रमण कर सके। इस प्रकार जब मुगल सेना के दायें भाग ने राणा सांगा की सेना पर आक्रमण किया तो उन्हें हारकर पीछे हटना पड़ा, जिसके कारण उनकी सेना के मध्य तथा बाएं भाग के बीच काफी दूरी हो गई। 2 मुगलों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया। 

मुस्तफा रूमी, जो कि तोपखाने का अध्यक्ष था, ने अपनी लकड़ी की तिपाइयों को, जिन पर तोपें रखी हुई थी, मैदान में आगे ढकेल दिया तथा तोपों की मार शुरू कर दी। तोपों की मार ने राजपूत सेना को आतंकित कर दिया। अखय राज, रायमल राठौड़ और हसन खां मेवाती मुगलों के दाएं पक्ष से संघर्षरत थे। ऐसे प्रतीत हो रहा था कि बिना किसी निर्णय के युद्ध समाप्त हो जाएगा। 

युद्ध में राणा सांगा की जीत की संभावना थी किन्तु बाबर ने कासिम हुसैन सुल्तान, किवाम बेग उर्दूशाह, हिन्दू बेग, मुहम्मदी कैकुल्ताश और निजामुद्दीन ख्वाजगी असद को सेना के दायें भाग की सहायता के लिए भेजा। घोर युद्ध शुरू हुआ। इसी समय राजपूतों की सहायता के लिए भी और सेना आ गई तथा उन्होंने मुगलों के दायें भाग पर पुन: दबाव डालना शुरू किया। 

बाबर ने पुन: अपनी सेना के मध्य भाग से सैनिक टुकड़ियां सेना के दायें भाग की सहायता के लिए भेजी जिसमें यूनुस अली, शाह मंसूर बरलास, अब्दुल्ला किताबदार आरै दासेत ईश्क आका आदि थे। ये एक-एक करके शत्रु पर टूट पड़े और उन्हें छिन्न-भिन्न करने की पूरी कोशिश की। मुस्तफा ने तोपों की सहायता से राजपूतों के आक्रमण को नाकाम कर दिया। राजपूत मुगलों की तोपों की भयानक मार के सामने टिक नहीं सके। कुछ ही समय बाद दोनों ओर की सेना के सभी भागों से युद्ध प्रारम्भ हो चुका था। मुगलों ने राजपूतों के प्रत्येक आक्रमण का डटकर मुकाबला किया और वे मैदान में जमे रहे। धीरे-धीरे मुगल तोपों ने राजपूतों की सैन्य संख्या को कम करना शुरू कर दिया। युद्ध में अनेक राजपूत योद्धा मारे गये किन्तु कुछ समय तक युद्ध चलता रहा। इसी समय राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हो गया। उसे मूिच्र्छत अवस्था में पृथ्वीराज, मालदेव और अखय राज दूदा के संरक्षण में युद्ध क्षेत्र से हटाकर बसवां नामक स्थान पर पहुँचा दिया गया। 

राजपूत सरदारों ने सर्वसम्मति से अज्जा झाला के ऊपर छत्र-चंवर (राज-चिन्ह) लगा कर उसे राणा के हाथी पर बिठा दिया, जिससे राणा की अनुपस्थिति में राजपूत सैनिक नेतृत्वविहीन होकर भागने न लगें। परंतु राजपूत सेना में राणा के युद्ध क्षेत्र छोड़ देने का समाचार शीघ्र ही फैल गया और उनमें भगदड़ मच गई। राजपूत सेनाएँ मैदान छोड़कर भागने लगीं किंतु मुगलों ने उन पर धावा बोल दिया। सेना के मध्य भाग को लेकर बाबर अन्य भागों की सहायतार्थ रवाना हुआ।

इसी समय सिलहदी विश्वासघात करके रिजवी, मुगल कालीन मुगलों से मिल गया और बाबर को यह सूचना दे दी कि राणा संग्राम सिंह तो बहुत पहले ही मैदान छोड़कर भाग गया है। इस समय तक मुगलों ने युद्ध जीत लिया था एवं राजपूत पूर्णरूप से पराजित हो गए थे। बाबर ने अपने सैनिकों की विजय की खबर का स्वागत किया। यह उसके जीवन का सबसे शुभ दिन था। बाबर ने राणा सांगा की खोज के लिए एक सैन्य टुकड़ी भी भेजी कितु उसका कोई पता नहीं लगा। दोपहर तक युद्ध समाप्त हो गया। राजपूत सेना युद्ध स्थल से भाग खड़ी हुई। 

बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की। समझा जाता है कि जब राणा सांगा को होश आया तो उसने मुगलों से प्रतिशोध लिए बिना चित्तौड़ वापस न जाने की कसम खाई। इसलिए जब बाबर चंदेरी घेरे हुए था, तब राणा ने युद्ध की तैयारी करके इरिच को घेर लिया, किन्तु अन्य राजपूत सामन्त पुन: मुगलों से युद्ध करने के इच्छुक नहीं थे, इसलिए उन्होंने राणा संग्राम सिंह को जहर दे दिया।

खानवा युद्ध में बाबर की विजय के कारण

बाबर की रण कुशलता और सैन्य संगठन

बाबर ने अपनी सैन्य कुशलता, अनुभव, युद्ध प्रणाली, धैर्य तथा कुशल तोपखाने, सुन्दर योजना एवं सैन्य-संचालन के कारण युद्ध में विजय प्राप्त की। पानीपत के युद्ध की भांति खानवा युद्ध ने एक बार पुन: यह सिद्ध कर दिया कि युद्ध में सफलता कई बातों पर निर्भर करती है। केवल मात्र सैनिकों की संख्या के बल पर ही युद्ध नहीं जीता जा सकता है। वास्तव में बाबर द्वारा सेना का नेतृत्व और उसकी तुलुगमा विधि बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई। उसने अपने धैर्य, साहस और नेतृत्व शक्ति के बल पर ही एक ओजस्वी भाषण देकर अपने हतोत्साहित सैनिकों के मनोबल को ऊँचा उठाया और खानवा के युद्ध को ‘जिहाद’ में परिवर्तित करके विजय प्राप्त की।

सिलहदी द्वारा विश्वासघात और राणा सांगा की अकर्मण्यता - 

राजपूत स्रोत-कर्नल टॉड1 , हरविलास शारदा 2 , श्यामल दास आदि के ग्रंथों के अनुसार रायसेन के शासक सिलहदी द्वारा विश्वासघात व युद्ध की प्रारम्भिक स्थिति से ही राणा सांगा की अकर्मण्यता से राजपूतों की पराजय हुई। राजपूत स्रोतों का कहना है कि सिलहदी का राणा सांगा की सेना से अलग हो जाने से युद्ध का सम्पूर्ण ढांचा ही बदल गया। लेकिन रश्बु्रक विलियम्स, लेनपूल आदि इससे सहमत नहीं हैं।

रश्बु्रक विलियम्स का विचार है कि ‘सिलहदी का बाबर की ओर मिल जाने से उसे कोई लाभ नहीं मिला था। खानवा युद्ध के बाद उसका शेष जीवन मालवा की राजनीति तक ही सीमित रहा। अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए पराजित पक्ष द्वारा विश्वासघात का आरोप लगाना एक आम बात है।’

डॉ. जी.एन.शर्मा ने लिखा है कि ‘राजपूत वृत्तान्तकारों ने राणा सांगा की खानवा युद्ध में पराजय की सम्पूर्ण जिम्मेदारी ‘सिलहदी के विश्वासघात’ पर डाली है, किन्तु यह कहना गलत है कि राणा सांगा की पराजय का मात्र कारण ‘सिलहदी का विश्वासघात’ था। घटनाओं से स्पष्ट है कि राणा सांगा के रणक्षेत्र से चले जाने के बाद ही सिलहदी ने पक्ष परिवर्तन किया था और तब तक सांगा की सेना लगभग पराजय के अंतिम चरण में थी। वास्तव में सिलहदी द्वारा पक्ष परिवर्तन के पहले ही बाबर युद्ध जीत चुका था।’

शारदा का मानना है कि युद्ध जब निर्णायक परिस्थिति में था, उसके पूर्व ही सिलहदी बाबर से जा मिला था।2 मेवाड़ के संक्षिप्त इतिहास के अनुसार सिलहदी ने राणा सांगा के रणक्षेत्र से चले जाने के बाद पक्ष परिवर्तन किया था।3 डॉ. ए.सी. बनर्जी की मान्यता है कि ‘सिलहदी का जाना भी निश्चयात्मक नहीं है क्योंकि उसका लड़का भूपत राणा सांगा की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था।’

बाबरनामा में भी इस घटना का कोई विवरण नहीं मिलता। अन्य मुगल वृत्तान्तकार भी इस विषय में मौन है। केवल निजामुद्दीन यह लिखता है कि ‘परोक्ष की सेनाओं ने इस्लाम के सैनिकों की सहायता की।’ वन्दना पाराशर का कथन है कि यद्यपि किसी एक सरदार का दल बदल लेना सम्पूर्ण सेना की पराजय का कारण नहीं हो सकता किन्तु फिर भी 35,000 सवारों के नेता का ऐसी स्थिति में शत्रु से मिल जाना, जब संघर्ष बराबरी का हो रहा हो, युद्ध को निर्णायक मोड़ देने और उसका संतुलन शत्रु की ओर झुकाने में अवश्य सहायक हो सकता है।

इस संबंध में यह बात भी उल्लेखनीय है कि राणा सांगा को मूिर्च्छत अवस्था में खानवा के रण क्षेत्र से हटाकर बसवां नामक स्थान पर ले जाया गया तो इस बात की सूचना सिलहदी ने ही बाबर की सेना को दी कि ‘राणा सांगा तो युद्ध स्थल छोड़ चुका है।’ इस सूचना से अवश्य ही बाबर और उसके सैनिकों का मनोबल बढ़ा तथा युद्ध के अंतिम क्षणों में राजपूतों पर प्रबल प्रहार करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन मिला जिससे युद्ध का निर्णय पूर्णरूप से उनके पक्ष में रहा।

सैन्य कारण 

राणा सांगा की सेना में अधिकांश राजपूत पैदल थे, जबकि मुगल सेना में अश्वारोहियों की प्रमुखता थी। राणा सांगा के पैदल सैनिकों की शक्ति बाबर के फुर्तीले घुड़सवारों से दब कर रह गई। सांगा के हथियार भी पुराने ढंग के थे। बाबर के तोपखाने ने एक प्रमुख भूमिका निभाई तथा उस्ताद अली कुली और मुस्तफा रूमी ने अपनी क्षमता का सुंदर परिचय दिया। राणा सांगा के तीर गोलियों का जबाव देने में कामयाब न हो सके। इसके अतिरिक्त बाबर ने खानवा युद्ध में उजबेक, तुर्क, मुगल युद्ध पद्धतियों का सही समन्वय और उपयोग किया। 

बाबर द्वारा सैनिकों का जमाव इस ढंग से किया गया कि शत्रु पक्ष की अधिक सैन्य संख्या उसकी सफलता के मार्ग में बाधक न बन सकी। डॉ. जी.एन. शर्मा ने लिखा है कि ‘बाबर एक कुशल सेनापति की भांति रणक्षेत्र के हर भाग पर निगाह रख रहा था और अपने सैनिकों की गतिविधियों का निर्देशन कर रहा था वहीं राणा सांगा ने एक साधारण सैनिक के समान युद्ध किया। 

राधेश्याम का मन्तव्य है कि एक बार फिर केवल अपनी सैन्य कुशलता, अनुभव, युद्ध-प्रणाली, धैर्य तथा कुशल तोपखाने, सुंदर योजना एवं सैन्य-संचालन के कारण बाबर ने युद्ध जीता। पानीपत के युद्ध की भांति खानवा युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि युद्ध में सफलता अन्यान्य बातों पर निर्भर करती है। मात्र सैनिकों की संख्या के बल पर ही युद्ध नहीं जीता जा सकता है।

अनुशासनहीन सेना

खानवा युद्ध के दौरान राणा सांगा की जो लम्बी-चौड़ी सेना थी उसमें एकरूपता और अनुशासन का अभाव था। राणा की सेना भिन्न-भिन्न राजपूत राजाओं और सरदारों की सेना थी, जिसकी स्वामिभक्ति राणा की अपेक्षा अपने सरदारों के प्रति अधिक थी। भिन्न-भिन्न राजपूत सैनिक एक नेता के अधीन संगठित न होकर अपने-अपने सरदारों के झण्डे के नीचे ही लड़ सकते थे। इसलिए स्वाभाविक तौर पर सेना में वांछनीय अनुशासन नहीं था। 

बाबर ने स्वयं लिखा है कि -’सांगा एक अनुशासनहीन भीड़ का नेतृत्व कर रहा था।’3 अस्वाभाविक संगठन - डॉ. ए.सी.बनर्जी की मान्यता है कि राणा सांगा की ओर से अफगान और राजपूत दोनों युद्ध में लड़ रहे थे, किन्तु उनका यह गठबंधन अस्वाभाविक था। अफगान और राजपूत धर्म, उद्देश्य और परम्पराओं की दृष्टि से बिल्कुल भिन्न थे, फिर वे संयुक्त रूप से कैसे लड़ सकते थे? ऐसे अस्वाभाविक संगठन के अधीन विजय प्राप्त कर पाना दुष्कर है।

सांगा का रण क्षेत्र में घायल हो जाना

हरविलास शारदा की मान्यता है कि राणा सांगा के खानवा युद्ध के दौरान घायल हो जाने, मूिच्र्छत अवस्था में उन्हें रण क्षेत्र से सुरक्षित स्थान पर ले जाने के कारण राजपूत सेना नेतृत्व-विहीन हो गई तथा अपना साहस खो बैठी। सांगा की अनुपस्थिति से राजपूत सेना में भगदड़ मच गई और वे रण क्षेत्र छोड़कर भागने लगे। यह उनकी पराजय का कारण बना। लेकिन तथ्यों का आलोचनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर इसे भी हार का कारण नहीं माना जा सकता।

सांगा की व्यक्तिगत भूलें

राणा सांगा ने समय और परिस्थितियों का लाभ नहीं उठाया। बयाना के युद्ध में बाबर के सैनिकों की पराजय के बाद उनका मनोबल काफी गिर चुका था। यद्यपि मुहम्मद शरीफ ज्योतिषी की भविष्यवाणी ने मुगल सेना को और भी अधिक हतोत्साहित कर दिया था। उसके अमीर राजपूतों से युद्ध करने को तैयार न थे। ऐसी स्थिति में यदि राणा सांगा तुरन्त आक्रमण कर देता तो संभव है कि परिणाम उसके पक्ष में होता। किन्तु राणा सांगा ने बयाना से आगरा की ओर बढ़ने के लिए भुसावर का एक लम्बा मार्ग चुना जिससे बाबर को अपनी स्थिति सुधारने का पर्याप्त अवसर मिल गया। उसने इसका लाभ उठाकर युद्ध में विजय प्राप्त की।

बाबर की सेना को विश्राम और शक्ति संगठन का अवसर

पानीपत के युद्ध के बाद बाबर की सेना को विश्राम करने तथा अपनी थकान मिटाने का पर्याप्त अवसर मिल गया। बाबर ने इस समयावधि में भावी युद्ध के लिए पूर्ण तैयारियां कर ली, यथा - सैनिकों की रक्षा के लिए खाइयां खुदवाना, पहियेदार तिपाइयां बनवाना और सैन्य टुकड़ियों को अपने-अपने स्थान पर युद्ध करने के लिए पंक्तिबद्ध करना आदि। इसके विपरीत राणा सांगा ने अपनी सेना की रक्षा के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाये।

उपर्युक्त कारणों से खानवा के मैदान में बाबर की विजय निर्णायक रही।

खानवा का युद्ध के परिणाम

भारत के इतिहास में खानवा का युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि पानीपत के प्रथम युद्ध ने भारत में लोदी वंश के शासन को सदैव के लिए समाप्त कर दिया तो खानवा युद्ध ने राजपूतों की शक्ति को कुचल दिया। खानवा युद्ध के क्या परिणाम निकला? खानवा युद्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम थे -

मेवाड़ के गौरव का अंत 

खानवा युद्ध में राणा सांगा की युद्ध और कूटनीति दोनों में ही बाबर से पराजय हुई। इस युद्ध के पश्चात् मेवाड़ राज्य के गौरव का अन्त हो गया। सांगा की मृत्यु से मेवाड़ का प्रभाव जो महाराणा कुंभा के समय से लेकर अब तक बहुत बढ़-चढ़ गया था, वह एकदम कम हो गया। इस युद्ध के कारण मेवाड़ की सीमा और शक्ति कम हो गयी। फलत: इसके स्थान पर मालदेव के नेतृत्व में मारवाड़ शक्ति-सम्पन्न हो गया।

राजस्थान की स्वतंत्रता का अन्त : एक युग की समाप्ति

खानवा के युद्ध में राजपूतों की पराजय केवल मेवाड़ के लिए ही नहीं अपितु राजस्थान के लिए भी बहुत ही घातक प्रमाणित हुई। राजस्थान की सदियों पुरानी स्वतंत्रता तथा उसकी प्राचीन हिन्दू संस्कृति को सफलतापूर्वक अक्षुण्ण बनाये रख सकने वाला अब कोई भी शासक नहीं रह गया था। राजस्थान के लिए यह युद्ध एक युग की समाप्ति का प्रतीक था। डॉरघ् ाुबीर सिंह के मतानुसार ‘खानवा युद्ध क्षेत्र में आग उगलती हुई मुगल तोपों ने राजपूतों के प्रमुख नेता और मेवाड़ के महान् प्रतापी शासक राणा सांगा की पराजय को ही सुनिश्चित नहीं बना दिया था, अपितु उन्होंने मध्यकालीन राजस्थान के अतं की भी स्पष्ट घोषणा कर दी थी।’

राजस्थान के योद्धाओं को पहली बार तोपों का सामना करना पड़ा था। बाबर की व्यूह रचना एवं पाश्र्वों पर आक्रमण करने की उसकी युद्ध-प्रणाली भी राजपूतों के लिए सर्वथा नई तथा उनकी सेना में पराजय जनक अस्त-व्यस्तता उत्पन्न कर देने वाली थी। साथ ही यह युद्ध राजपूतों में युद्ध-विद्या के विकास के लिए एक नया अध्याय प्रारम्भ करने वाला था।

राजनीतिक पराधीनता के साथ-साथ राजस्थान में इस युद्ध में पराजय के कारण यहां की कला, संस्कृति और विद्या का भी ह्रास होने लगा, क्योंकि मुगलों की अधीनता में आने के कारण वह नए-नए विदेशी प्रभावों से अछूता नहीं रह सका। इससे राजस्थान का मध्यकालीन स्वरूप ही बदल गया। राजस्थान में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई। साथ ही धीरे-धीरे समूचे राजस्थान की संस्कृति तथा साहित्य में इस युद्ध ने और मुगल सम्पर्क ने एक अनोखी समानता भी उत्पन्न कर दी। मुगल साम्राज्य की स्थापना के बाद उत्तरी भारत में उत्पन्न होने वाली नई सम्मिलित हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव कुछ समय बाद राजस्थान के निवासियों के आचार-विचार, रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान आदि में भी दिखाई देने लगा। 

इन सभी नवीन प्रवृत्तियों तथा महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी प्रभावों की शुरूआत खानवा युद्ध के बाद तथा उसी के परिणामों की देन है। इसलिए राजस्थान के इतिहास में पूर्व आधुनिक काल का प्रारम्भ इस निर्णायक युद्ध के दिन से ही माना जाना चाहिए।

राजपूत शक्ति का ह्रास

खानवा युद्ध में पराजय के कारण राजपूतों की संगठित शक्ति नष्ट हो गई। खानवा युद्ध में राजपूतों की प्रतिष्ठा का आतंक जो पिछले दस वर्षों से भारत में मुसलमानों की आंखों में छाया हुआ था, सदैव के लिए दूर कर दिया।1 इस पराजय के बाद शेष राजपूत राज्यों को बाबर और अकबर ने अपने अधीन कर लिया। रश्बु्रक विलियम्स की यह मान्यता अतिशयोक्तिपूर्ण है कि खानवा युद्ध से राजपूत शक्ति सदैव के लिए नष्ट हो गयी। यद्यपि यह सत्य है कि खानवा युद्ध में हर राजपूत परिवार का एक-न-एक योद्धा अवश्य मारा गया। राजपूत इस युद्ध के बाद भविष्य में संगठित होकर शत्रु का मुकाबला करने की बात ही नहीं सोच सके। राजपूतों के लिए यह युद्ध भयंकर सिद्ध हुआ, मेवाड़ की सीमा और शक्ति घट गई, राजपूत संगठन जो मेवाड़ की शक्ति और प्रतिष्ठा पर निर्भर थी, वह भी समाप्त हो गया, किन्तु राजपूत शक्ति नष्ट नहीं हुई। 

स्वयं बाबर ने भी यह अनुभव किया था, इसीलिए उसने भी इस महत्त्वपूर्ण विजय के बावजूद राजपूताना में अपना साम्राज्य विस्तार करने का प्रयास नहीं किया। कुछ ही वर्षों में राजपूतों की शक्ति पुन: बढ़ गई।2 जब शेरशाह सूरी ने राजपूतों से युद्ध एस.आर. शर्मा के अनुसार राजपूतों के सर्वोच्चता का भय, जो गत दस वर्षों से मंडरा रहा था। वह सदैव के लिए समाप्त हो गया।

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