पानीपत का प्रथम युद्ध के परिणाम, बाबर के विजय के कारण

पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर और इब्राहीम लोदी के बीच 21 अप्रैल, 1526 ई. को हुआ था। यह युद्ध भारत में संप्रभुता की स्थापना करने के लिए मुगल-अफगान संघर्ष था, जो 1556 ई. तक चलता रहा। भारत वर्ष पर मुगलों का यह प्रथम आक्रमण नहीं था। सुल्तान इल्तुतमिश के शासन-काल में बाबर के पूर्वज चंगेज खां ने 1221 ई. में भारतवर्ष पर आक्रमण किया था। दिल्ली सल्तनत के समय में अनवरत रूप से मंगोल आक्रमण होते रहे। अलाउद्दीन खिलजी के सिंहासनारोहण के तत्काल बाद मंगोल आक्रमण हुआ। अलाउद्दीन के विश्वासपात्र सेनानायकों (उलुग खां एवं जफर खां) द्वारा इसे असफल कर दिया गया। इसके पश्चात हुए मंगोल आक्रमणों को भी अलाउद्दीन खिलजी ने विफल कर दिया।

तुगलक वंश के समय में भी मंगोल आक्रमण होते रहे और उन्होंने भारतीयों को तंग किया। उत्तर तुगलक काल में राज्य में अव्यवस्था फैल गई थी। इसी काल में 1398 ई. में तैमूर ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया। सिंधु, झेलम और रावी नदी को पार करते हुए दिसम्बर माह के प्रथम सप्ताह में वह दिल्ली पहुँचा, जहां उसने लगभग एक लाख लोगों का कत्ले आम किया। उसने सुल्तान महमूद और मल्लू इकबाल को परास्त किया। लगभग 15 दिन दिल्ली में ठहरने के पश्चात् फिरोजाबाद, मेरठ, हरिद्वार, कांगड़ा, जम्मू और सिंधु नदी को पार करता हुआ 1399 ई. में स्वदेश लौट गया। उसने खिज्रखां सैयद को अपना प्रतिनिधि बनाया और उसे मुल्तान, लाहौर तथा दिपालपुर का गवर्नर नियुक्त किया। लोदी वंश के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत का पतन अवश्यम्भावी हो गया था। 

21 नवम्बर, 1517 को सुल्तान सिकन्दर लोदी की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र इब्राहीम लोदी उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। इब्राहीम लोदी में सैन्य कुशलता तो थी, किन्तु परिस्थितियों को समझने और तदनुसार कार्य करने की क्षमता का अभाव था जिसके कारण ही अन्ततोगत्वा उसका पतन हुआ।

इब्राहीम लोदी की शक्तिशाली सामन्तों को अपने अधीन रखने तथा दमनकारी नीति के कारण शक्ति सम्पन्न एवं प्रभावशाली लोहानी, फारमूली और लोदी सामन्त इब्राहीम के शत्रु बन गये। सामन्तों के प्रति इब्राहीम के व्यवहार का वर्णन करते हुए बदायूंनी ने लिखा है कि उसने (इब्राहीम लोदी) अधिकाश सामन्ताें को बन्दी बना लिया अथवा कुचल दिया आरै अन्य को दूर-दराज के स्थानों पर भेज दिया। अफगान सामन्तों की सैनिक शक्ति पर ही सुल्तान की सफलता निर्भर थी। अन्य शब्दों में सल्तनत का आधार ही सामन्तशाही व्यवस्था थी। इब्राहीम के कृत्यों से वे ही सामन्त सल्तनत के विरूद्ध हो गये और सुल्तान के शत्रु बन गये। बिहार में दरिया खां ने अपने आपको स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। दूसरी ओर जब इब्राहीम लोदी पूर्व में विद्रोहों को दबाने में व्यस्त था तब बदला लेने के उद्देश्य से लाहौर के गवर्नर दौलत खां लोदी ने अपने पुत्र दिलावर खां को बाबर से सहायता प्राप्त करने के लिए काबुल भेजा। इब्राहीम का चाचा आलम खां भी इब्राहीम के स्थान पर सुल्तान बनना चाहता था। 

इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाबर से सहायता लेने हेतु वह भी काबुल गया। दौलत खां को यह आशा थी कि बाबर और इब्राहीम लोदी आपस में लड़कर समाप्त हो जायेंगे और पंजाब में वह संप्रभुता ग्रहण कर लेगा। इस प्रकार अन्त में वह भारत का शासक बन जाएगा। लेकिन दौलत खां की यह योजना असफल रही और बाबर ने जो कि पंजाब को अपने अधीन लाने के लिए काफी समय से इच्छुक था, इसे एक सुनहरा अवसर समझा और मौके का लाभ उठाया। परिणामस्वरूप अन्त में दिल्ली सल्तनत का पतन हुआ।

एर्सकिन महोदय के अनुसार जब बाबर हिन्दुस्तान विजय करने का दृढ़ निश्चय कर चुका था, तब सभी ओर से गुटबन्दी, अविश्वास और खुले विद्रोह दिल्ली के सिंहासन को हिला रहे थे। इन परिस्थितियों में बाबर जैसा साहसी, दृढ़ निश्चयी, अनुभवी और आत्म-विश्वासी व्यक्ति नि:संदेह सफल हो सकता था। भाग्य ने भी उसका पूरा-पूरा साथ दिया और वह अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए इब्राहीम लोदी के विरूद्ध युद्ध करने पर आमादा हो गया। पंजाब में दौलत खां की पराजय हो चुकी थी। पंजाब पर बाबर का अधिकार कायम हो गया। पंजाब पर बाबर के प्रभाव में वृद्धि दौलत खां की एक भूल का ही परिणाम था। उसकी इस भूल ने बाबर और इब्राहीम लोदी को एक निर्णायक युद्ध की ओर अग्रसर करने में सहयोग दिया।

पंजाब में बाबर की सफलता से उत्साहित होकर इब्राहीम के असंतुष्ट अफगान अमीरों, आराइश खां तथा मुल्ला मुहम्मद मजहब, ने उसके प्रति शुभ कामनाएं प्रकट करते हुए अपने दूत तथा पत्र भेजे। अन्य अफगान अमीरों यथा - स्माईल जिलवानी तथा बिब्बन ने भी अधीनता स्वीकार करने के प्रस्ताव प्रेषित किए। ऐसी अनुकूल परिस्थितियों ने पंजाब विजय के बाद भी बाबर को हिन्दुस्तान में और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। 

जसवान दूत पहुँचने पर आलम खां और दिलावर खां भी बाबर से मिल गए। आगे बढ़ने पर बाबर को दिल्ली की ओर से इब्राहीम तथा हिसार फिरोजा की ओर से हामिद खां के उसके विरूद्ध आगे बढ़ने के समाचार प्राप्त हुए। बाबर ने हुमायूं को हामिद खां के विरूद्ध भेजा। इसी पड़ाव पर सुल्तान इब्राहीम लोदी का एक अमीर बिब्बन बाबर से आकर मिल गया। हामिद खां के विरूद्ध हुमायूं की जीत हुई तथा उसने हिसार फिरोजा पर अधिकार कर लिया। हामिद खां की पराजय के बाद इब्राहीम लोदी ने 5-6 हजार घुड़सवारों सहित हातिम खां और दाउद खां को अपने अग्रगामी दल का नेतृत्व प्रदान किया। बाबर ने इसके विरूद्ध चिन तैमूर सुल्तान, मैंहदी ख्वाजा, मोहम्मद सुल्तान मिर्जा, आदिल सुल्तान, सुल्तान जुनैद, शाह मीर हुसैन, कुतलुक कदम, अब्दुला और कित्ता बेग के अधीन एक सेना भेजी। दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। अफगान सैनिकों ने वीरता एवं पौरूष का प्रदर्शन किया, किन्तु मुगल पक्ष की जीत हुई।

हामिद खां, दाउद खां तथा हातिम खां के नेतृत्व में इब्राहीम लोदी के दोनों अग्रगामी दलों को पराजित करने के पश्चात बाबर को यह स्पष्ट हो गया कि इब्राहीम लोदी के साथ एक निर्णायक युद्ध लड़ना आवश्यक है। बाबर को लगातार यह संदेश भी मिल रहा था कि इब्राहीम लोदी एक विशाल सेना के साथ आगे बढ़ रहा है। दायें-बायें और मध्य भागों में सेना को व्यवस्थित करके बाबर 12 अप्रैल, 1526 ई. को पानीपत पहुँचा। इब्राहीम लोदी पहले से ही लगभग 12 मील की दूरी पर अपना पड़ाव डाले हुए तैयार था।

पानीपत के युद्ध में भाग लेने वाली इब्राहीम लोदी एवं बाबर की सैन्य संख्या पानीपत के युद्ध में भाग लेने वाली इब्राहीम लोदी और बाबर की सेनाओं की संख्या के संबंध में समकालीन और आधुनिक इतिहासकार एकमत नहीं है। बाबर के अनुसार इब्राहीम लोदी की सेना में एक लाख सैनिक और दस हजार हाथी थे। उसने अपनी सैन्य संख्या के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। मिर्जा हैदर ने तारीखे-रशीदी में इब्राहीम की सेना एक लाख और बाबर की सेना दस हजार बताई है। निजामुद्दीन, बदायूंनी और अब्दुला के अनुसार इब्राहीम के पास एक लाख सवार, एक हजार हाथी तथा बाबर के पास 15 हजार सवार थे। अबुल फजल, फरिश्ता और तारीखे अलफी के लेखक मुल्ला अहमद का मन्तव्य है कि इब्राहीम के पास 1 लाख सैनिक तथा बाबर के पास 12 हजार सैनिक थे।4 अलाउद्दौला के अनुसार इब्राहीम के पास दो लाख और बाबर के पास 10 हजार सैनिक थे।

गुलबदन बेगम के अनुसार इब्राहीम के पास 1 लाख 80 हजार सवार तथा डेढ़ हजार हाथी एवं बाबर के पास 12 हजार आदमी थे, जिनमें से युद्ध करने के योग्य केवल 6-7 हजार आदमी ही थे। खफी खां के अनुसार इब्राहीम लोदी के पास एक लाख तथा बाबर के पास दस हजार सवार थे।3 तारीखे रशीदुद्दीन खानी के अनुसार इब्राहीम के पास एक लाख सवार और एक हजार हाथी के अतिरिक्त एक बड़ा तोपखाना भी था। अहमद यादगार इब्राहीम की सैनिक संख्या 50 हजार और 2 हजार हाथी तथा बाबर के सैनिकों की संख्या 24 हजार लिखता है। कैम्ब्रिज शार्टर हिस्ट्री के अनुसार बाबर के पास युद्ध के योग्य केवल दस हजार सैनिक थे। 

रश्बु्रक विलियम्स ने बाबर के सैनिकों की संख्या 8 हजार तथा इब्राहीम लोदी के पास एक लाख अश्वारोहियों का होना भी असंभव नहीं माना है। उपर्युक्त वर्णित सभी मध्यकालीन और आधुनिक इतिहासकारों के वृत्तान्तों तथा तत्कालीन परिस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पानीपत के युद्ध में बाबर के पास लगभग 24-25 हजार तथा इब्राहीम लोदी के पास 50 हजार सैनिक थे। 

एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि बाबर के पास प्रभावी तोपखाना था। इब्राहीम से मुकाबले में बाबर रणक्षेत्र का अधिक अनुभवी और व्यूह रचना में भी ज्यादा कुशल था।

पानीपत के रणक्षेत्र में बाबर की व्यूह रचना

पानीपत के रणक्षेत्र में 12 अप्रैल, 1526 को पहुँचने के बाद बाबर ने 8 दिन की अवधि में अपनी सेना की व्यूह रचना रक्षात्मक ढंग से की। उसने सैनिकों का जमाव ‘तुलुगमा पद्धति’ से किया। उसके दाहिनी ओर पानीपत का कस्बा था जो उसकी सेना की रक्षा कर सकता था। सेना के बाई ओर खाइयां खोदकर उन्हें वृक्षों की सूखी डालियों से भर दिया गया था। दोनों पक्षों की व्यूह रचना के सम्बन्ध में एस.आर.शर्मा का मन्तव्य है कि एक ओर निराश जनित साहस एवं वैज्ञानिक युद्ध-प्रणाली के कुछ साधन थे, दूसरी ओर मध्यकालीन ढंग से सैनिकों की भीड़ थी, जो भाले एवं धनुष-बाण से सुसज्जित थी और मूर्खतापूर्ण ढंग से जमा हो गई थी। इससे स्थिति को दृढ़ और सुरक्षित कर लिया गया था। सेना के सामने लगभग 700-800 अशवा अर्थात् गतिशील गाड़ियां रखी गई जिन्हें बैलों के बटे हुए चमड़े से जंजीरों के समान बांधकर सुरक्षा पंक्ति बना ली। प्रत्येक दो गाड़ियों के बीच जो फासला था, उसमें तोड़े (बचाव स्थान) रखवा दिए गए थे। यह व्यवस्था तोपखाने की सुरक्षा की दृष्टि से की गई थी। गाड़ियों के बीच काफी स्थान छोड़ दिया गया था, जहां से अश्वारोही आगे बढ़कर युद्ध कर सकते थे। बन्दूकची गाड़ियों और तोड़ों के पीछे खड़े होकर गोलियां चला सकते थे। इस रक्षात्मक पंक्ति के पीछे बाबर ने अपना तोपखाना, अश्वारोही तथा पैदल सैनिक रखे थे।

तोपखाने के दाहिने पाश्र्व का संचालन उस्ताद अली के हाथों में था तथा बायें पार्श्व का संचालन मुश्तफा के हाथ में था। मोटे रूप से बाबर ने सेना के तीन भाग किये थे। सेना के दायें पक्ष का नेतृत्व हुमायूं को सौंपा गया और बांयें पक्ष की जिम्मेदारी मेंहदी ख्वाजा को दी गयी। सेना के मध्य भाग के दाहिने पाश्र्व को चिन तैमूर सुलतान को सुपुर्द किया गया तथा बांयें भाग को खलीफा ख्वाजा मीर मीरान को दिया गया। तोपखाने के पीछे मध्य भाग में सेना का आगे का जो भाग था, उसका नेतृत्व खुसरो बैकुल्ताश को सौंपा गया। इसके पीछे सेना का केन्द्र स्थान था जिसका संचालक स्वयं बाबर था। केन्द्र भी दो भागों - दाहिना केन्द्र और बांया केन्द्र में विभाजित था। केन्द्र में बाबर ने सुरक्षा के लिए आरक्षित सैनिक रखे थे। सेना के दायें भाग का जो सिरा या पार्श्व था, उसका संचालन वली किजील तथा बायें भाग का नेतृत्व कराकूजी को सौंपा गया। वली किजील तथा कराकूजी को यह आदेश दिया गया कि ज्यों ही शत्रु की सेना आगे बढ़ कर निकट आ जाए त्यों ही सेना के ये दोनों पार्श्व घूमकर शत्रु सेना के पीछे चले जाए और उस पर आक्रमण करें। इसी बीच शत्रु को दायें, बायें तथा सामने से घेरकर उस पर आक्रमण किया जाए। 

शत्रु पर सामने से तोपों के गोले बरसाये जाए। यदि शत्रु इस आक्रमणकारी सेना को खदेड़ दे तो, वह सेना दु्रतगति से रक्षा क्षेत्र में अपने मूल स्थान पर लौट आए तथा पुन: पूरी शक्ति के साथ शत्रु सेना पर आक्रमण करे और इस सेना की सहायतार्थ केन्द्र से नए सैनिक भेजे जाए। बाबर की यही तुलुगमा रण-पद्धति थी जिसका उपयोग बाबर ने मध्य एशिया में उजबेकों से संघर्ष के दौरान सीखा था। तुलुगमा वह दस्ता था, जो सेना के दायें-बायें कोनों पर रहता था और शत्रु सेना के समीप आ जाने पर पीछे से जाकर उसे घेर लेता था।

इब्राहीम की सैन्य व्यवस्था

बाबर के कथनानुसार इस युद्ध में इब्राहीम लोदी के सैनिकों की संख्या लगभग एक लाख थी। बाबर के विवरण से ज्ञात होता है कि इब्राहीम की सेना दायें-बायें और मध्य भागों में विभाजित थी। नियामतुल्ला के मतानुसार सुल्तान इब्राहीम की सेना में उपरोक्त तीनों भागों के अतिरिक्त अग्रगामी दल तथा पृष्ठभाग भी थे। इब्राहीम के पास तोपखाने का अभाव था। उसने अपनी सेना के सभी अंगों को उतनी सुरक्षा और दृढ़ता से नहीं जमाया था जिसका प्रकार बाबर ने किया था। वृक्षों की डालियों तथा खाइयों की सुरक्षा पंक्ति उसने खड़ी नहीं की थी। 

बाबर ने अपनी सेना को पानीपत के कस्बे के बांयी ओर रखा तथा अपनी सेना का दायां भाग इस प्रकार सुरक्षित किया कि इस कस्बे की तरफ से कोई आक्रमण नहीं कर सके। इब्राहीम लोदी ने अपनी सैन्य सुरक्षा के लिए इस प्रकार का कोई उपाय नहीं किया था। उसकी सेना के पास हथियार भी दकियानूस पद्धति के थे, सेना अव्यवस्थित थी और उसमें अनुशासन का अभाव था।

बाबर ने लिखा है कि मैंने अपने पांव संकल्प कर रकाब में रखे और अपने हाथ में ईश्वर के भरोसे की लगाम ली और सुल्तान इब्राहीम लोदी अफगान के विरूद्ध प्रस्थान किया। उस समय देहली का राज सिंहासन तथा हिन्दुस्तान का राज्य उसके अधीन था।

प्रारम्भिक संघर्ष 

यद्यपि बाबर 12 अप्रैल., 1526 ई. को पानीपत के मैदान में पहुँच गया था और इब्राहीम लोदी की सेना भी सामने थी किन्तु दोनों सेनाओं के बीच युद्ध 20 अप्रैल., 1526 को हुआ। 12 अप्रैल. से 19 अप्रैल. तक के 7-8 दिन की अवधि बाबर ने अपनी सेना को युद्ध के लिए व्यवस्थित और तत्पर करने में लगायी। इस अन्तराल में बाबर की सेना ने इब्राहीम लोदी की सेना पर छुट-पुंट धावे भी किए। 

बाबर ने लिखा है - ‘7-8 दिन तक जब हम लोग पानीपत में रहे, हमारे आदमी थोड़ी-थोड़ी संख्या में इब्राहीम के शिविर के समीप तक पहुँच जाते थे और उसकी अपार सेना के दस्तों पर बाणों की वर्षा करके लोगों के सिर काट लाते थे। इस पर भी वह न तो आगे बढ़ा और न उसके सैनिकों ने आक्रमण किया। अन्ततोगत्वा हमने बहुत से हिन्दुस्तानी हितैषियों के परामर्श से 4-5 हजार आदमी उसके शिविर पर रात्रि में छापा मारने के लिए भेजे। अंधेरा होने के कारण, वे भली भांति संगठित न रह सके और इधर-उधर हो जाने के कारण वहाँ पहुँच कर कुछ न कर सके। वे प्रात:काल तक इब्राहीम के शिविर के समीप ठहरे रहे। प्रात:काल (शत्रु की सेना) में नक्कारे बजने लगे और वे सेना की पंक्तियां ठीक करके युद्ध हेतु निकल आए। यद्यपि हमारे आदमी कोई सफलता न प्राप्त कर सके। किन्तु वे सही सलामत लौट आये।

 19 अप्रैल., 1526 को रात्रि में बाबर के चार-पांच हजार सैनिकों ने आक्रमण किया किन्तु उन्हें इस अभियान में असफलता का मुंह देखना पड़ा था। इससे प्रोत्साहित होकर 20 अप्रैल., 1526 को प्रात:काल ही इब्राहीम की सेना ने सर्वप्रथम बाबर की सेना के दाहिने भाग पर आक्रमण कर दिया। शीघ्र ही उसकी सेना काफी दूर तक बाबर के सैनिक शिविरों की तरफ फैल गयी। इसके परिणामस्वरूप इब्राहीम का सैनिक मोर्चा काफी विस्तृत हो गया। फलत: जिसका बाबर ने पूरा-पूरा लाभ उठाया। उसे इस व्यापक मोर्चे में प्रवेश करने का मार्ग मिल गया। जब इब्राहीम की सेना काफी आगे बढ़ आयी तो बाबर ने उचित अवसर देखकर ‘तुलुगमा रण-प्रणाली’ अपनाने का आदेश दिया। 

इस संबंध में बाबर ने लिखा है - ‘हमने तुलुगमा वालों को आदेश दे रखा था कि वे दायें तथा बायें भाग की ओर से चक्कर काट कर शत्रु के पीछे पहुँच जायें और बाणों की वर्षा करके युद्ध प्रारम्भ कर दें। इसी प्रकार दायें तथा बायें बाजू की सेना के लिए आदेश दिया गया था कि वे युद्ध छेड़ दें। तुलुगमा वालों ने चक्कर काट कर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। बायें भाग की सेना में से सर्वप्रथम मैंहदी ख्वाजा ने युद्ध शुरू किया। उसका मुकाबला एक ऐसे दल से हुआ जिसके साथ एक हाथी था। उसके आदमियों के बाणों की वर्षा के कारण वह दल विवश होकर वापस हो गया। बायें बाजू की सेना की कुमक के लिये मैंने अहमदी परवानची, कूज बेग के (भाई) तरदी बेग तथा खलीफा के मुहिब अली को भेजा। दायीं ओर भी थोड़ा सा घोर युद्ध हुआ। 

मुहम्मद कैकुल्ताश, शाह मंसूर बरलास, यूनुस अली एवं अब्दुल्लाह को आदेश हुआ कि वे उन लोगों से जो मध्य भाग पर आक्रमण कर रहे थे, युद्ध करें। मध्य भाग ही से उस्ताद अली कुली ने फिरंगी गोलों की खूब वर्षा की। मुस्तफा तोपची ने मध्य भाग के बायीं ओर से जर्ब जन (एक प्रकार की तोप) के गोलों की खूब वर्षा की। हमारी सेना के दायें, बायें एवं मध्य भाग तथा तुलुगमा के दल वालों ने शत्रुओं को घेर कर बाणों की वर्षा के कारण उन्हें अपने मध्य भाग की ओर वापस होना पड़ा।

युद्ध 20 अप्रैल. की प्रात: से शाम तक चला। अन्त में बाबर की सेना ने इब्राहीम की सेना को पीछे ढकेल दिया। इब्राहीम की सेना के पांव उखड़ गये। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये तथा युद्ध स्थल छोड़कर भाग खड़े हुए। इब्राहीम लोदी स्वयं इस युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ। बाबर विजयी रहा। मध्याºनोत्तर की प्रथम नमाज के समय खलीफा का छोटा साला ताहिर तीबरी, इब्राहीम का सिर लाया। उसे उसका शरीर लाशों के एक ढेर में मिल गया था। बाबर ने भागती हुई लोदी सेना का पीछा किया और सहस्रों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा अनेकों को बन्दी बना लिया गया। इस संबंध में बाबर ने लिखा है कि जब शत्रुओं की पराजय हो गई तो उनका पीछा करना एवं उन्हें घोड़ों से गिराना प्रारम्भ किया गया। हमारे आदमी प्रत्येक श्रेणी के अमीर तथा सरदार बन्दी बना कर लाये। महावतों ने हाथियों के झुण्ड प्रस्तुत किये।

यद्यपि इस युद्ध में बाबर की जीत हुई परन्तु यह कहना कठिन है कि बाबर इस युद्ध में आसानी से सफल हो गया। रश्बु्रक विलियम्स महोदय की यह मान्यता ठीक नहीं है कि बाबर की बहुत थोड़ी सी क्षति हुई।3 बाबर ने स्वयं इस बात को स्वीकार किया है कि वह अपनी जान की बाजी लगाकर ही इब्राहीम लोदी को परास्त कर सका था।4 अब्दुला और यादगार के मतानुसार इब्राहीम की सेना बड़ी वीरता के साथ लड़ी तथा युद्ध बहुत भयानक हुआ।5 इस युद्ध में इब्राहीम लोदी सहित लगभग 15-20 हजार अफगान सैनिक मारे गये। बाबर की सेना के हताहतों की संख्या के संबंध में इतिहासकारों ने कोई विवरण नहीं दिया है। नियामतुल्ला तथा बदायूंनी के अनुसार दोनों पक्ष के काफी लोग मारे गये।

बाबर ने लिखा है कि जब आक्रमण प्रारम्भ हुआ तो सूर्यनारायण ऊँचे चढ़ गये थे। युद्ध दोपहर तक ठना रहा। मेरे सैनिक विजयी हुए और शत्रु को चकनाचूर कर दिया गया। सर्वशक्तिमान परमात्मा की अपार अनुकम्पा से यह कठिन कार्य मेरे लिए सुगम बन गया और वह विशाल सेना आधे दिन में ही मिट्टी में मिल गयी।1

इस सम्बन्ध में बाबर ने अपनी आत्म-कथा बाबरनामा में लिखा है कि सबेरे सूर्य निकलने के बाद लगभग नौ-दस बजे युद्ध आरम्भ हुआ था, दोपहर के बाद दोनों सेनाओं के बीच भयानक युद्ध होता रहा। दोपहर के बाद शत्रु कमजोर पड़ने लगे और उसके बाद वह भीषण रूप से परास्त हुआ। उसकी पराजय को देखकर हमारे शुभचिन्तक बहुत प्रसन्न हुए। सुल्तान इब्राहीम को पराजित करने का कार्य बहुत कठिन था। फलत: ईश्वर ने उसे हम लोगों के लिए सरल बना दिया।

बाबर का दिल्ली और आगरा पर अधिकार

पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय एक सीमा तक निर्णायक थी जिसका उसने पूरा-पूरा लाभ उठाया। उसने उसी दिन हुमायूं को छ: बड़े सरदारों (ख्वाजा कलां, मुहम्मदी, शाहे मनसूर बरलास, यूनुस अली, अब्दुल्लाह तथा वली खाजिन) के साथ आगरा और मैंहदी ख्वाजा को चार बड़े सामन्तों (मुहम्मद, सुल्तान मिर्जा, आदिल सुल्तान, सुल्तान जुनैद बरलास एवं कुतलुक कदम) के साथ दिल्ली पर अधिकार करने तथा राजकोष की सुरक्षा के लिए भेजा। कुछ समय बाद बाबर स्वयं दिल्ली पहुंच गया और यमुना नदी के तट पर अपना पड़ाव डाला। बाबर ने दिल्ली में सूफी संत निजामुद्दीन औलिया और ख्वाजा कुतुबुद्दीन की मजार का तवाफ (परिक्रमा, चारों ओर श्रद्धापूर्वक घूमना) किया तथा दिल्ली के भूतपूर्व सुल्तानों-गयासुद्दीन बलवन, अलाउद्दीन खिलजी, बहलोल लोदी, सिकन्दर लोदी आदि के मकबरों को देखा। इसके बाद दिल्ली में उसने वली किजील की अपना शिकदार और दोस्त बेग को दीवान नियुक्त किया। खजानों पर मुहर लगा कर उन्हें सौंप दिया। 27 अप्रैल., 1526 को दिल्ली में बाबर के नाम का खुत्वा पढ़ा गया।

इस विजय ने बाबर को पंजाब के अलावा दिल्ली और आगरा पर भी अधिकार प्रदान कर दिया, किन्तु दिल्ली के सुल्तान को पराजित करने का तात्पर्य दिल्ली सल्तनत पर अधिकार स्थापित होना कदापि नहीं था। दिल्ली सल्तनत अनेक शक्तिशाली अमीरों तथा जागीरदारों में विभाजित थी। ये सामन्त सुल्तान की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी स्वतंत्र होने के इच्छुक रहते थे और इन्हें ऐसे अवसर की तलाश रहती थी। इब्राहीम की पानीपत के युद्ध में पराजय के बाद अन्यान्य स्थानीय जागीरदार स्वतंत्र हो गये। ‘संभल में कासिम संभली, बयाना में निजाम खां, मेवात में हसन खां मेवाती, धौलपुर में मोहम्मद जैतून, ग्वालियर में तातार खां सारंगखानी, रापड़ी में हुसैन खां नूहानी, इटावा में कुतुब खां और कालपी में आलम खां ने बाबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। गंगा के पूर्वी किनारे कन्नौज की ओर के अफगान पहले ही दिल्ली के सुल्तान के विरूद्ध थे। मथुरा में भी इब्राहीम के एक दास मरयूब ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उधर जब हुमायूं ने आगरा पहुँचकर दुर्ग पर कब्जा करना चाहा, तब वहां ग्वालियर नरेश विक्रमादित्य की संतान एवं परिवार वाले आगरा में थे।

पहले तो उन्होंने भागने का प्रयत्न किया, किन्तु हुमायूं ने उन्हें भागने न दिया। उन लोगों ने हुमायूं को अपनी इच्छा से पेशकश दी जिससे अत्यधिक जवाहरात, बहुमूल्य वस्तुएं और विश्व विख्यात कोहिनूर हीरा भी था। जब सुल्तान इब्राहीम लोदी का परिवार बाबर से मिला, तब बाबर ने इब्राहीम लोदी की माता को 7 लाख के मूल्य का एक परगना तथा आगरा से एक कोस पर नदी के उतार की ओर निवास स्थान भी दिया। बाबर स्वयं 10 मई, 1526 को आगरा पहुँचा। बाबर ने लिखा है कि उसके आगरा पहुँचने पर लोगों में उसके प्रति घृणा की भावना थी। उसके सैनिकों के लिए रसद और घोड़ों के लिए चारा नहीं मिलता था। गांव के गांव खाली हो गए थे, मार्ग असुरक्षित थे तथा यात्रा करना कठिन था। यद्यपि बाबर ने स्थिति को सुधारने का विशेष प्रयास किया, किन्तु दिल्ली और आगरा के अलावा अन्य किले विरोध पर डटे रहे। परिस्थितियां प्रतिकूल थीं। इस वर्ष (1526 इर्. में) हिन्दुस्तान की मई-जून की भयंकर गर्मी से उसके सैनिक घबरा उठे और काबुल लौटने की प्रबल इच्छा प्रकट करने लगे। बाबर के सैनिकों तथा अमीरों की काबुल लौटाने की इच्छा और उनके द्वारा बाबर के हिन्दुस्तान में बसने के निर्णय की आलोचना करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे हिन्दुस्तान में लूटमार करने के प्रलोभन से ही आये थे। किन्तु बाबर ने अपनी नेतृत्व शक्ति का परिचय देते हुए उन्हें हिन्दुस्तान में रहने के लिए सहमत कर लिया। केवल ख्वाजा कला ही ऐसा था जो काबुल लौट जाने के निश्चय पर अड़ा रहा। बाबर ने उसे गजनी का सूबेदार बनाकर भेज दिया। 

पानीपत के युद्ध में बाबर के विजय के कारण

पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी अपनी विशाल सेना, साधनों की बाहुल्यता और इसी प्रदेश का निवास होते हुए भी एक विदेशी आक्रमणकारी बाबर जिसके पास अपेक्षाकृत सैन्य-साधनों की कमी थी, के हाथों पराजित हुआ। पानीपत के युद्ध में बाबर के विजय के क्या कारण थे, बाबर की विजय के कारणों का विश्लेषण इस प्रकार से किया जा सकता है - 

इब्राहीम की अन्यायपूर्ण नीति और दुव्र्यवहार - इब्राहीम लोदी एक निर्दयी और जिद्दी प्रकृति का व्यक्ति था। उसकी नीति भी अन्यायपूर्ण थी। वह अफगान अमीरों को बहुत ही संदेह की दृष्टि से देखता था। सामन्तशाही व्यवस्था दिल्ली सल्तनत की आधारशिला थी, किन्तु उसने अनेक योग्य अमीरों को अपनी नीति एवं दुव्र्यवहार से असंतुष्ट कर दिया था। इब्राहीम के शासनकाल में अमीरों का असंतोष पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया था। स्थान-स्थान पर विद्रोही होने लग गए थे। एर्सकिन के शब्दों में ‘जब बार ने हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का विनिश्चय किया तब अमीरों की गुटबन्दी, अविश्वास और खुले विद्रोह चारों ओर से दिल्ली सल्तनत को हिला रहे थे। इब्राहीम की नीति और दुव्र्यवहार से न केवल उसके अमीर और पदाधिकारी अपितु उसके संबंधी भी असंतुष्ट थे। यही कारण था कि आवश्यकता पड़ने पर अमीरों ने उसका साथ नहीं दिया बल्कि एक विदेशी आक्रमणकारी के प्रति उनकी सहानुभूति थी।

इब्राहीम के अमीरों का स्वार्थीपन और विश्वासघात - इब्राहीम के अमीरों का स्वार्थी एवं विश्वासघाती चरित्र बाबर की विजय में सहायक बना। अफगान अमीर इब्राहीम की बढ़ती हुई शक्ति से असंतुष्ट थे। वे सुल्तान को उनके हाथों की कठपुतली या ‘बराबरी वालों में प्रथम’ बनाये  रखना चाहते थे।

किन्तु इब्राहीम लोदी ने अमीरों की शक्ति पर अंकुश लगाने और राजपद की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का प्रयास किया। इससे अमीरों की महत्त्वाकांक्षा को आघात लगा। अमीरों ने अपने स्वार्थों के वशीभूत दिल्ली सल्तनत के हितों को आघात पहुंचाना प्रारम्भ कर दिया। पंजाब के सूबेदार दौलत खां व अन्य अमीरों ने इब्राहीम से विद्रोह कर उसके विरूद्ध आक्रमण करने के लिए बाबर को आमंत्रित किया था। इब्राहीम का चाचा आलम खां भी बाबर से जा मिला। अन्य अमीरों यथा अराइश खां और मुल्ला मुहम्मद मजहब ने युद्ध के पूर्व ही बाबर के पास अपने दूत भेजे थे, इसलिए युद्ध के समय उनका नैतिक समर्थन भी बाबर को प्राप्त रहा। इनके अलावा भी अन्य अफगान अमीर बाबर से मिलने लगे थे। इब्राहीम के पास पानीपत के युद्ध में बाबर के मुकाबले में लगभग दुगुनी सेना थी, किन्तु उसके बहुत से सैनिक युद्ध प्रारम्भ होने पर युद्ध में भाग लिए बिना ही जंगलों में चले गये। अफगान अमीर पानीपत के युद्ध की संभावना से सुपरिचित थे। किन्तु इतना होते हुए भी उन्होंने इस संकट की घड़ी में इब्राहीम को सहयोग देने के बजाय युद्ध के परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिससे कि वे अपना स्वार्थ पूरा कर सके। उनकी आपसी फूट इब्राहीम लोदी एवं सल्तनत के पतन का कारण बनी।

इब्राहीम की अदूरदर्शिता और कूटनीतिज्ञता में कमी - सुल्तान इब्राहीम अदूरदर्शी था तथा उसमें कूटनीजिज्ञता की कमी थी। वह परिस्थितियों को समझने, उन्हें अपने पक्ष में करने तथा स्थिति का मुकाबला करने में अक्षम था। यही कारण था कि जब बाबर जैसे शत्रु से उसका संघर्ष अवश्यम्भावी था तब वह दौलत खां, आलम खां, मुहम्मद शाह तथा मेवाड के राणा सांगा को बाबर के विरूद्ध अपनी ओर नही मिला सका और उससे धन तथा सेना की सहायता प्राप्त नहीं कर सका। इसके विपरीत बाबर युद्ध, कूटनीति और उच्च आदर्शवाद की दृष्टि से इब्राहीम की तुलना में बहुत मझा हुआ था। उसमें उच्च कोटि की नेतृत्व शक्ति थी जिसका उसने भरपूर लाभ उठाया और इब्राहीम को पानीपत के युद्ध में पराजित कर दिया।

इब्राहीम के सैनिक अयोग्य, अनुभवहीन तथा अनुशासित नहीं थे - पानीपत के युद्ध में बाबर के मुकाबले इब्राहीम की सैनिक संख्या लगभग दुगुनी थी किंतु उसके अधिकांश सैनिक अयोग्य, अनुभवहीन और अनुशासनहीन थे। सेना का मुख्य आधार सामन्तवादी व्यवस्था थी। सैनिकों में कबीलों का दृष्टिकोण था अर्थात् वे सुल्तान की अपेक्षा अपने कबीले अथवा सामन्त के प्रति अधिक स्वामिभक्ति रखते थे। इब्राहीम की सेना में अधिकांश नए और अनुभवहीन सैनिक भर्ती किए गए थे। वे युद्ध के संगठन और व्यवस्था के बारे में कोई ज्ञान नहीं रखते थे। उनमें अनुशासन का अभाव था। सेना में अधिकांश भाड़े के टट्टू थे जिनमें राष्ट्र प्रेम की भावना नहीं थी। उन्हें अपने स्वार्थों की पूर्ति की अधिक चिन्ता थी। उनमें  एकता, अनुशासन, संगठन और राष्ट्रीयता की भावना का अभाव था

आवश्यक सैनिक गुणों के विपरीत उनमें क्षेत्रीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता, संकीर्ण स्वार्थ की भावना उत्पन्न हो गई थी। ऐसे सैनिक बाबर जैसे अनुभवी सैनिक, योग्य, सेनानायक और दृढ़ इच्छा शक्ति वाले के विरूद्ध टिक पाने में सर्वथा असफल रहे। इस संबंध में वन्दना पाराशर का मन्तव्य है कि - इब्राहीम पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसकी सेना में जल्दी में धन देकर भर्ती किए रंगरूट अधिक थे और कुशल योद्धा कम, किन्तु निजामुद्दीन, फरिश्ता, अबुलफजल और गुलबदन आदि किसी भी वृत्तांतकार ने बाबर के इस कथन की पुष्टि नहीं की है। दूसरे, यद्यपि यह सत्य है कि सुल्तान की सेना में जितने व्यक्ति थे वे सभी सैनिक नहीं थे और उसमें अनेक व्यापारी, मजदूर आदि भी थे, फिर भी यह सेना पर्याप्त शक्तिशाली थी। स्वयं बाबर के अनुसार इब्राहीम के पास एक लाख स्थायी सेना थी। इस प्रकार यह माना जा सकता है कि इब्राहीम के पास एक शक्तिशाली और स्थायी सेना थी, यद्यपि वह एक लाख नहीं थी। यद्यपि वन्दना पाराशर द्वारा दिया गया तर्क कुछ अंशों में ठीक है, किन्तु यह तो स्पष्ट है कि इब्राहीम अपनी इस शक्तिशाली सेना का बाबर के विरूद्ध लाभ नहीं उठा सका और कई सैनिक तो युद्ध में भाग लिए बिना ही जंगलों में भाग खड़े हुए थे, अस्तु जो नि:संदेह इब्राहीम की नेतृत्वशक्ति में कमी का परिचायक है।

इब्राहीम बाबर की क्षमता का उचित मूल्यांकन करने में अक्षम - बाबर की क्षमता का उचित मूल्यांकन करने में इब्राहीम असफल रहा। यही कारण था कि इब्राहीम बाबर के विरूद्ध कारगर कदम नहीं उठा सका। इब्राहीम ने यह सोचा कि बाबर भी तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के मंगोल आक्रमणकारियों की भांति हिन्दुस्तान पर लूटमार करने के उद्देश्य से आक्रमण कर रहा है। बाबर ने पंजाब पर आक्रमण करके उसे विजय किया तथा उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया तब भी आक्रमण की आंख नहीं खुली और उसने बाबर जैसे प्रतिद्वन्द्वी के विरूद्ध युद्ध करने के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं की। इब्राहीम ने काबुल तथा पंजाब से उसकी रसद बन्द करने तथा सम्पर्क सूत्र तोड़ने के लिए भी कोई उपाय नहीं किया। इब्राहीम की यह लापरवाही उसके लिए घातक सिद्ध हुई और फलत: वह पानीपत के युद्ध में पराजित हुआ।

इब्राहीम लोदी की सैनिक दुर्बलता - इब्राहीम लोदी एक अयोग्य, अनुभवहीन सेनापति था। उसे रण क्षेत्र में सैनिकों के कुशल संचालन और संगठन का अधिक ज्ञान नहीं था। वह युद्ध संचालन की कला में भी निपुण नहीं था। उसमें अपने सैनिकों का विश्वास अर्जित करने की क्षमता नहीं थी। इब्राहीम के मुकाबले में सैन्य प्रतिभा की दृष्टि से बाबर काफी बढ़ा-चढ़ा था। इब्राहीम के अन्य सेनानायक और सामन्त भी दंभी और विलासी प्रकृति के थ े तथा अधिक अनुभवी भी नहीें थे। उसकी सेना में निर्दिष्ट व्यवस्था का अभाव था। परिणामस्वरूप पानीपत के युद्ध में जब इब्राहीम का अग्रगामी दल तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था, किन्तु बाबर की सुरक्षा पंक्ति और तोपों की मार से वह अवरूद्ध हो गया, तब पीछे से आने वाली सेना अपने वेग को रोक नहीं पाई जिससे सेना में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। सैन्य संचालन की दक्षता और व्यवस्था के अभाव में इतनी बड़ी सेना को अनुशासित रख पाना इब्राहीम के लिए दुष्कर कार्य था। इस संबंध में बाबर ने लिखा है - वह बड़ा अनुभव शून्य जवान था। उसने सेना को किसी प्रकार का अनुभव न कराया था - ‘न बढ़ने का, न खड़े रहने का और न युद्ध करने का।’

इस संबंध में वन्दना पाराशर का कथन है कि वीरता, अनुभव और सैन्य संचालन की क्षमता का अभाव पानीपत के युद्ध में इब्राहीम की पराजय का कारण नहीं थे क्योंकि इस युद्ध के पूर्व भी आलम खां और दिलावर खां के चालीस हजार सैनिकों के साथ दिल्ली घेर लेने पर इब्राहीम ने अपनी सूझ बूझ व चातुर्य से आलम खां को पराजित कर दोआब भागने को विवश कर दिया था। इब्राहीम को बाबर की सुरक्षात्मक व्यूह रचना की पूर्ण जानकारी थी तथा उसने युद्ध तभी प्रारम्भ किया जब 19 अप्रैल., 1526 की रात्रि को बाबर के छापामार दस्ते के हमले को बाबर का आक्रमण समझ लिया।

इब्राहीम द्वारा युद्ध में हाथियों का प्रयोग - बाबर के अनुसार इब्राहीम की सेना में एक हजार हाथी थे। बाबर के पास घुड़सवार थे जो हस्थि सेना की तुलना में अधिक फुर्तीले थे। इब्राहीम द्वारा युद्ध में हाथियों का प्रयोग स्वयं की सेना के लिए घातक साबित हुआ। रण क्षेत्र में बन्दूकों एवं तोपों द्वारा आग उगलने से हाथी अपना संतुलन खो बैठे तथा उन्मत्त और विक्षिप्त अवस्था में उन्होंने स्वयं की सेना को कुचल दिया।

इब्राहीम की अकुशल गुप्तचर व्यवस्था - कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि इब्राहीम की गुप्तचर व्यवस्था अच्छी नहीं थी। अकुशल गुप्तचर व्यवस्था के अभाव में इब्राहीम को बाबर के ससैन्य आगे बढ़ने, उसके द्वारा सैनिकों के जमाव, व्यूह रचना आदि की जानकारी प्राप्त न हो सकी और न ही वह रसद और संचार-व्यवस्था को काट सका। परिणाम यह हुआ कि एक व्यवस्थित शत्रु के मुकाबले में वह नहीं टिक सका और पानीपत के युद्ध में पराजित हुआ।

पानीपत के युद्ध में एक ओर हजारों की संख्या में सैनिक थे और दूसरी ओर सैनिक और तोपें दोनों। फलत: इब्राहीम लोदी तथा बाबर के बीच जो संघर्ष हुआ वह बराबरी का न था। कुछ भी हो, इस युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि बाबर एक कुशल सेनाध्यक्ष था। उसने यह युद्ध अपनाई गई नई युद्ध प्रणाली, तोपखाने, अश्वारोहियों, अच्छी गुप्तचर व्यवस्था तथा अपने सैनिकों के अदम्य उत्साह के फलस्वरूप जीता।

भारतीयों की उदासीन मनोवृत्ति - वन्दना पाराशर ने ‘औसत भारतीय की देश एवं शासन के प्रति उदासीन मनोवृत्ति’ को इब्राहीम लोदी की पराजय का मुख्य कारण माना है। आम हिन्दुस्तानी की यह मान्यता थी कि शासक कोई भी हो, अफगान अथवा मुगल, वह उसका शोषक ही हो सकता है, संरक्षक नहीं। भारतीयों की इस उदासीन मनोवृत्ति ने समाज में ‘कोई भी राजा हो, हमें क्या हानि है’ की विचारधारा को पनपाया। इसका नतीजा यह हुआ कि इब्राहीम लोदी सुल्तान बना रहे अथवा बाबर की विजय हो, इसमें उन्हें कोई रूचि नहीं रही। यद्यपि जनसाधारण ने बाबर की विजय के बाद उसका विरोध भी किया, किन्तु यह विरोध क्षणिक था और इसका कारण मात्र भय था, न कि देश प्रेम की भावना। भारतीय जनता की इस उदासीन मनोवृत्ति ने बाबर की सेना के नैतिक बल में वृद्धि की।

बाबर का तोपखाना - यद्यपि इब्राहीम की अफगान सेना तोपखाने से अपरिचित नहीं थी, किन्तु यह सत्य है कि उसकी सेना में तोपखाने को उतना महत्त्व प्राप्त नहीं था, जितना बाबर की सेना में तोपखाने को प्राप्त था। इब्राहीम का तोपखाना बाबर के मुकाबले में अधिक कुशल और उपयोगी नहीं था। बाबर को पानीपत के युद्ध में विजय दिलाने में तोपखाने की भूमिका विशेष महत्त्वपूर्ण  रही। उस्ताद अली आरै मुस्तफा ने युद्ध के दिन शत्रु सेना पर लगातार पांच घण्टों तक गोलाबारी की। 1 फलत: जिससे युद्ध का परिणाम बाबर के पक्ष में रहा। रश्बु्रक विलियम्स का मन्तव्य है कि बाबर के शक्तिशाली तोपखाने ने भी उसे सफल होने में बहुमूल्य सहायता दी।

इब्राहीम को भारतीय शासकों का सहयोग न मिलना - एक विदेशी आक्रमणकारी के विरूद्ध इब्राहीम को भारतीय शासकों का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ अन्यथा परिणाम कुछ दूसरा ही होता। मेवाड़ के राणा सांगा, बंगाल के शासक नुसरत शाह, मालवा के शासक महमूद द्वितीय तथा गुजरात के शासक मुजफ्फर शाह आदि ने इब्राहीम की धन और सेना से कोई सहायता नहीं की। यदि इब्राहीम को इनका समुचित सहयोग मिल जाता तो वह बाबर को भारत से अवश्य खदेड़ देता।

बाबर की दक्षता, रण कुशलता और सुयोग्य सैन्य संचालन - बाबर एक जन्मजात सैनिक था। बचपन से ही उसे निरन्तर संकटों और संघर्षों में जुझना पड़ा 1 तथा अनवरत युद्ध में भाग लेने से वह अनुभवी सैनिक, कुशल योद्धा बन गया था। उसमें अद्भुत साहस था। वह लिखता है, ‘क्योंकि मुझे राज्य पर अधिकार करने तथा बादशाह बनने की आकांक्षा थी अत: मैं एक या दो बार की असफलता से निराश होकर बैठा नहीं रह सकता था।’ सेना के प्रस्थान के समय वह बड़ा सतर्क रहता था। एक कुशल सैनिक होने के कारण वह अन्य सैनिकों की कठिनाइयों को भली-भांति समझ लेता था। उल्लेखनीय है कि पानीपत के युद्ध के समय बाबर की सेना के कुछ लोग बहुत ही भयभीत और चिंतित थे। किंतु उसने स्थिति को संभाल लिया। बाबर के अनुसार हमारा मुकाबला एक अपरिचित कौम एवं लोगों से था। न तो हम उनकी भाषा समझते थे और न वे हमारी।’3 किन्तु बाबर ने अफगानों की शक्ति एवं उनके सैन्य संचालन की योग्यता को भली प्रकार समझ लिया था। वस्तुत: अफगानों की कमजोरी ने ही उसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया था।

उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि बाबर एक महान् सेनापति था तथा इब्राहीम लोदी की तुलना में उसकी सैन्य संचालन की योग्यता कहीं अधिक श्रेष्ठ थी। इब्राहीम लोदी के सैन्य संचालन के बारे में बाबर ने लिखा है - ‘इब्राहीम ने अभी तक कोई भी अनुशासनयुक्त युद्ध नहीं किया है।’4 बाबर के अतिरिक्त उसके अन्य सेना नायक एवं युद्ध संचालक भी बाबर ने बाबरनामा, पृ. 66 में लिखा है कि भाग्य का कोई ऐसा कष्ट अथवा हानि नहीं है जिसे मैंने न भोगा हो, इस टूटे हुए हृदय ने सभी को सहन किया है। हाय! कोई ऐसा कष्ट भी है, जिसे मैंने न भोगा हो बड़े कुशल और अनुभवी थे। यही कारण था कि इब्राहीम लोदी ऐसे अनुभवी एवं कुशल सेनानायक को पराजित नहीं कर सका। वन्दना पाराशर के अनुसार, ‘बाबर में शत्रु की कमजोरी को भांपने और उसकी विशेषताओं को आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता थी। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया में अनेक जातियों से युद्ध करने का अवसर भी बाबर को मिला था, उससे लाभ उठाकर उसने अपनी सेना में अनेक युद्ध प्रणालियों का सही समन्वय किया था, जिसका उचित परिणाम उसे मिला।’

बाबर द्वारा युद्ध में नवीनतम युद्ध तकनीक एवं हथियारों का प्रयोग - बाबर ने मध्य एशिया में कई जातियों से युद्ध करके पर्याप्त अनुभव अर्जित कर लिया था। उसने सेना में कई युद्ध प्रणालियों का उचित समन्वय किया था। बाबर के पास दृढ़ तोपखाना था जिसका संचालन उस्ताद अली और मुस्तफा जैसे सुयोग्य एवं अनुभवी सेनानायकों के सुपुर्द था। बाबर के पास अश्वारोही सेना थी। बाबर की सेना ने इब्राहीम के विरूद्ध बारूद, गोले, बन्दूक एवं तोपों का उपयोग किया था जबकि अफगान सैनिकों ने दकियानूस प्रणाली के हथियारों एवं हाथियों का प्रयोग किया था। ऐसी स्थिति में इब्राहीम की सेना बाबर की सेना के मुकाबले में नहीं टिक सकी और पांच घण्टे की अवधि में ही उखड़ गई।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि बाबर ने अपनी सेना का जमाव रक्षात्मक ढंग से किया और ‘तुलुगमा युद्ध-प्रणाली’ को अपनाया। बाबर ने तुलुगमा दस्तों ने भी उसकी विजय को अधिक आसान बना दिया। बाबर ने सुल्तान इब्राहीम को पहले प्रहार करने का मौका दिया किन्तु युद्ध शुरू होते ही बाबर की सेना के दक्षिण और वाम पाश्र्व की सैनिक टुकड़ियों ने बहुत ही नियमित तरीके से घूमकर इब्राहीम की सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया जिसके कारण उसकी सेना में भगदड़ मच गई। अब इब्राहीम के सैनिक न आगे बढ़ सकते थे और न ही पीछे लौट सकते थे। इस प्रकार इब्राहीम लोदी परास्त हो गया तथा युद्ध में लगभग 15-20 हजार अफगान मारे गये।

ईश्वरीय कृपा - पानीपत के युद्ध में बाबर ने अपनी विजय का कारण ईश्वरीय कृपा बताया है। बाबर ने लिखा है कि हमारे शत्रु की सेना और साधन अधिक थे, किन्तु ईश्वर में हमारी दृढ़ आस्था थी। उसने शक्तिशाली शत्रु के विरूद्ध हमारी सहायता की और हमें कामयाबी मिली। यद्यपि पानीपत के युद्ध में अपनी जीत को बाबर ने ईश्वर का अनुग्रह माना है किन्तु वास्तविकता यह है कि ईश्वर के प्रति उसका अटूट विश्वास था जिससे बाबर का मनोबल ऊँचा रहा तथा उसने जीत के लिए अथक प्रयास किया, परिस्थितियाँ उसके अनुकूल रहीं, विगत अनुभव और योग्यता के समन्वय ने उसे विजय दिलाने में सहायता दी जिसे बाबर ने ईश्वरीय कृपा माना।

पानीपत का प्रथम युद्ध के परिणाम

पानीपत का प्रथम युद्ध मध्यकालीन भारतीय इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है इससे भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई। डॉईश्वरी प्रसाद के अनुसार लोदीवंश की सत्ता टूट कर नष्ट हो गई और हिन्दुस्तान का प्रभुत्व चुगताई तुर्कों के हाथों में चला गया। इस युद्ध के प्रमुख परिणाम इस प्रकार थे -

इब्राहीम लोदी की मृत्यु एवं लोदी वंश की समाप्ति 

पानीपत के प्रथम युद्ध में लोदी वंश का अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी अपने 15-20 हजार अफगान सैनिकों सहित मारा गया। इस प्रकार लोदी वंश का अन्त हो गया तथा पंजाब के अतिरिक्त दिल्ली और आगरा पर भी बाबर का अधिकार कायम हो गया।

लेनपूल के अनुसार अफगानो के लिए पानीपत का प्रथम युद्ध बडा़ भयंकर सिद्ध हुआ। इससे उनका साम्राज्य समाप्त हो गया और उनकी शक्ति का अंत हो गया। डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव का मन्तव्य है कि लोदियों की सैन्य शक्ति पूर्णत: छिन्न-भिन्न हो गई और उनका राजा युद्ध भूमि में मारा गया। हिन्दुस्तान की सर्वोच्च सत्ता कुछ काल के लिए अफगान जाति के हाथों से निकल कर मुगलों के हाथों में चली गयी।

अफगान शक्ति और शासन का अन्त 

पानीपत के प्रथम युद्ध के बाद भारत में अफगानों की शक्ति, सत्ता और शासन का व्यावहारिक रूप से अन्त हो गया था। पानीपत का प्रथम युद्ध दिल्ली के अफगानों के लिए कब्र साबित हुआ। इब्राहीम अपने हजारों सैनिकों सहित मारा गया था। उसकी मृत्यु के साथ आलम खां और महमूद खां जैसे कुछ अफगान सरदार अब भी बचे थे जिन्हें बाद में बाबर ने पददलित किया था, किन्तु इन अफगान सरदारों में इतनी योग्यता, साहस और बल नहीं था कि वे लोदी वंश के खोये हुए गौरव एवं शक्ति को पुन: स्थापित कर पाते। लेनपूल के अनुसार, ‘पानीपत का युद्ध दिल्ली के अफगानों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। इससे उनका राज्य और शक्ति सर्वथा नष्ट-भ्रष्ट हो गई।

मुगल राजवंश की स्थापना 

पानीपत के प्रथम युद्ध के कारण लोदी राजवंश का अन्त हो गया तथा बाबर ‘सोलहवीं शती का साम्राज्य निर्माता’ बन गया। 27 अप्रैल., 1526 ई. को दिल्ली में बाबर के नाम का खुत्बा पढ़ा गया और उसे हिन्दुस्तान का शासक घोषित किया गया। प्रा.े एस.एम. जाफर ने इस सम्बन्ध में लिखा है - ‘इस युद्ध से भारतीय इतिहास में एक नए युग की शुरूआत हुई। लोदी वंश के स्थान पर मुगल राजवंश की स्थापना हुई। इस नए वंश ने समय आने पर प्रतिभा सम्पन्न तथा महान् बादशाहों को जन्म दिया, जिनकी छत्र छाया में भारत ने असाधारण उन्नति एवं महान्ता अर्जित की। आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का मन्तव्य है कि पानीपत की विजय ने बाबर के दावे को वैधानिकता का जामा पहना दिया। अत: उसकी भविष्य की योजनाएं तथा प्रयत्न उसी के दावे को कार्य रूप में परिणत करने के प्रयास-मात्र थे।3 उल्लेखनीय है कि अकबर और शाहजहां जैसे सम्राट् जिनके शासनकाल को भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है, इसी राजवंश के सदस्य थे।

बाबर के दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की समाप्ति 

बाबर के व्यक्तिगत जीवन के लिए भी पानीपत की विजय विशेष महत्त्वपूणर् साबित हुई। इस युग ने बाबर को एक महान् विजेता के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। बाबर के साहस, वीरता, दृढ़ निश्चय, उत्साह, रणकुशलता, वैज्ञानिक-युद्ध-प्रणाली आदि गुणों के कारण उसके दुर्भाग्यपूर्ण एवं संघर्षपूर्ण जीवन का अन्त हो गया। इसके द्वारा उसे उत्तरी भारत पर बहुमूल्य अधिकार मिल गया। उसकी भारत-विजय का यह दूसरा महत्त्वपूणर् भाग था। युद्ध के तात्कालिक लाभ भी बाबर के लिए कुछ कम महत्त्व के नहीं थे। बाबर को दिल्ली, आगरा एवं अन्य स्थानों से अपार धन-सम्पदा प्राप्त हुई। कोहिनूर हीरा भी उसके हाथ लगा। उसने परवर्ती युद्ध अब अधिकार प्राप्ति के लिए नहीं अपितु अधिकारों की पुष्टि के लिए लड़े थे।

बाबर को आगरा एवं दिल्ली से अपार धन मिला था। फलत: उसे विख्यात कोहिनूर हीरा मिला। अब उसकी आर्थिक दशा सुधर गई। डॉआर. पी. त्रिपाठी का मन्तव्य है कि बाबर ने जो धन दिल्ली एवं आगरा में प्राप्त किया था, उसमें से बहुत सा धन अपने सैनिकों को दे दिया। वह समरकन्द, इराक, खुरासान व काश्गर में स्थित सम्बन्धियों को तथा समरकन्द, मक्का व मदीना तथा खुरासान के पवित्र आदमियों को भी भेंट भेजना न भूला।

बाबर के प्रभुत्व और शक्ति में वृद्धि  

पानीपत के युद्ध में बाबर की विजय ने उसके प्रभुत्व एवं शक्ति में भी पर्याप्त वृद्धि की। उसने ‘पादशाह’ की उपाधि धारण की जो उसके वंश के लिए नवीन प्रभुत्व और गौरव की बात थी। इस युद्ध में विजय के बाद बाबर की सत्ता और शक्ति बढ़ती ही गई। 

हिन्दुओं में निराशा की भावना का संचार

औसत हिन्दुस्तानी आदमी का यह विचार था कि बाबर भी तैमूर की भांति लूटमार करके लौट जाएगा तथा बाबर के आक्रमण से इब्राहीम लोदी की शक्ति और राज्य का अन्त हो जाएगा। भारत से मुस्लिम सत्ता समाप्त हो जाएगी और एक बार पुन: हिन्दुओं को अपनी शक्ति और राज्य बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो जाएगा। परन्तु जब बाबर ने हिन्दुस्तान में रहने और अपना राज्य कायम करने का निश्चय किया तो, हिन्दुओं की आशाओं पर तुषारापात हो गया और उनमें निराशा व्याप्त हो गई।

भारतीय इतिहास का निर्णायक मोड़ 

बाबर में अवसर को पहचानने तथा उससे लाभ उठाने की असीम क्षमता थी। इसी क्षमता ने पानीपत की विजय को महत्त्व प्रदान किया। बाबर ने इस युद्ध में विजय के बाद भारत में रहने का दृढ़ निश्चय किया। यद्यपि उसके इस निर्णय के मार्ग में कई बाधायें आयीं। किंतु वह अपनी क्षमता के कारण सब को पार कर गया। परिणामस्वरूप पानीपत का प्रथम युद्ध मध्ययुगीन भारतीय इतिहास का मोड़ बन गया और यह मुगल साम्राजय की नींव का पत्थर साबित हुआ। बाबर की एक लम्बे अर्से से चली आ रही मनोकामना पूर्ण हुई। भारतीय संस्कृति पर प्रभाव - इस युद्ध का सभ्यता एवं संस्कृति पर भी प्रभाव पड़ा। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार भारत में मुगल संस्कृति व सभ्यता के समन्वय से भारत में नवीन सभ्यता का सूत्रपात हुआ। 

मुगलों के ठाट-बाट ने भारतीयों के जनजीवन में महान् परिवर्तन किया। इरान की कला व साहित्य ने भारत पर अपना प्रभाव जमाना आरम्भ कर दिया।

 बाबर की सफलता के कारण - बाबर ने इब्राहीम की विशाल सेना को परास्त किया था। बाबर की विजय के मुख्य कारण इस प्रकार थे -
  1. बाबर एक अनुभवी तथा योग्य सेनानायक था। डॉ. आर.पीत्रि पाठी के अनुसार, वास्तव में उत्कृष्ट नेतृत्व, वैज्ञानिक रण कला, श्रेष्ठ शस्त्रास्त्र तथा सौभाग्य के कारण बाबर की विजय हुई। विलक्षण सैन्य प्रतिभा वाले बाबर के समक्ष इब्राहीम पूर्णत: अयोग्य था। लेनपूल के अनुसार, पानीपत के रणक्षेत्र में मुगल सेनाओं ने घबराकर युद्ध आरम्भ किया, परंतु उनके नेता की वैज्ञानिक योजना तथा अनोखी चालों ने उन्हें आत्म-विश्वास और विजय प्रदान की।
  2. बाबर ने कुशल तोपखाने की मदद से इब्राहीम को परास्त किया। आर.वी. विलियम्स के अनुसार, बाबर के शक्तिशाली तोपखाने ने भी उसे सफल होने में बहुमूल्य सहायता दी। 3. इब्राहीम की सेना में एकता तथा अनुशासन नहीं था। इब्राहीम के अविवेकपूर्ण कार्यों से जनता तथा सरदारों में उसके विरूद्ध असंतोष था। उसकी सेना के अधिकांश सैनिक किराये के थे, जिनके बारे में बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि हिन्दुस्तान के सैनिक मरना जानते हैं, लड़ना नहीं।
  3. इब्राहीम एक अयोग्य सेनापति था। जे.एन. सरकार के अनुसार, इब्राहीम ने भारत के राजसी तरीके से लड़ाई के लिए कूच किया था अर्थात् दो तीन मील तक कूच करता था और तदुपरान्त दो दिन तक अपनी सेनाओं के साथ आराम करता था। उसका फौजी खेमा एक चलते-फिरते अव्यवस्थित शहर की तरह था। बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, कि इब्राहीम एक योग्य सेनापति नहीं था। वह बिना किसी सूचना के कूच कर देता था और बिना सोचे-समझे पीछे हट जाता था। इसके अतिरिक्त वह बिना दूरदर्शिता के युद्ध में कूद पड़ता था। अत: बाबर ने उसे आसानी से परास्त किया। 
  4. मुगल सैन्य-संगठन अफगान सैन्य संगठन से बहुत उत्तम था। मुगल सैनिक वीर, अनुभवी, साहसी तथा कुशल योद्धा थे, जबकि इब्राहीम के अधिकतर सैनिक किराये के थे और उनमें एकता, अनुशासन, संगठन एवं राष्ट्रीय हित की भावना नहीं थी।

पानीपत के युद्ध के बाद बाबर की कठिनाइयाँ

पानीपत के युद्ध के बाद बाबर को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा -
  1. यद्यपि पानीपत के मैदान में विजय प्राप्त करने से बाबर दिल्ली का शासक बन गया था, किन्तु उसका अधिकार क्षेत्र बहुत सीमित था। लेनपूल के अनुसार, भारत कहाँ, उसे तो अभी उत्तरी भारत का भी राजा नहीं कहा जा सकता था। अत: बाबर के लिए साम्राज्य विस्तार करना अनिवार्य था।
  2. उसे अपने सिंहासन की सुरक्षा के लिए मध्यवर्ती भारत के विद्रोही सरदारों का दमन करना था तथा राजपूतों को परास्त करना था।
  3. भारत की जनता बाबर को विदेशी समझकर उससे नफरत करती थी। लेनपूल के अनुसार, भारत का प्रत्येक गांव मुगलों के लिए एक शत्रु शिविर था। अत: बाबर को भारतीयों का विश्वास जीतना था।
  4. इब्राहीम की मृत्यु के बाद कासिम खां ने सम्भल, निजाम खां ने बयाना तथा हसन खां ने मेवात पर अधिकार कर लिया था। बाबर को इन सरदारों को अपनी अधीनता में लाना था।
  5. बाबर के सैनिक तथा सरदार अपने घर लौटाने के लिए व्यग्र थे तथा वे भारत की गर्मी सहन नहीं कर पा रहे थे। अत: बाबर को उन्हें अगले आक्रमण के लिए तैयार करना था। बाबर ने बड़े साहस तथा धैर्य से इन कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की। बाबर ने सैनिकों तथा सरदारों को यह कहकर समझा लिया कि ‘वर्षों के परिश्रम से, कठिनाइयों का सामना करके, लम्बी यात्राएँ करके, अपने वीर सैनिकों को युद्ध में झोंककर और भीषण हत्याकाण्ड करके हमने खुदा  की कृपा से दुश्मनों के झुण्ड को हराया है, ताकि हम उनकी लम्बी-चौड़ी विशाल भूमि को प्राप्त कर सकें। अब ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो हमें विवश कर रही है और ऐसी कौन सी आवश्यकता है, जिसके कारण हम उन प्रदेशों को छोड़ दें, जिन्हें हमने जीवन को संकट में डालकर जीता है।.मध्यवर्ती भारत के विद्रोहियों को कुचलना -महमूद, फीरोज खां, शेख बयाजीद आदि अफगान सरदारों ने युद्ध लड़े बिना ही बाबर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। बाबर ने अन्य विद्रोही अफगान सरकार को कुचल दिया तथा सम्भल, बयाना, इटावा, धौलपुर, कन्नौज, ग्वालियर तथा जौनपुर पर अधिकार कर लिया।

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