‘समाज’ शब्द की उत्पत्ति लॅटिन भाषा के 'Societies' धातु से हुई है, जिसका अर्थ समाज, संगति, मंडल, संस्था है । " समाज एक स्थान पर रहने वाला अथवा एक ही प्रकार के कार्य करने वाले लोगों का दल, किसी विशिष्ट उद्देश्य से स्थापित समूह”” आदि भिन्न अर्थ प्रचलित हैं। अतः इन अर्थो को समाजशास्त्र ने वैज्ञानिक नहीं माना है क्योंकि समाजशास्त्र के अनुसार ये संज्ञा मानव समाज के बाह्य स्वरूप का ही निर्देश करती हैं। ये सभी समाज शब्द के प्रत्येक पर्यायी शब्द के अर्थ भिन्न - भिन्न हैं ।
मानवीय समाज का जाति एवं व्यक्ति से निरपेक्ष अस्तित्व संभव नहीं है। अर्थात जाति और व्यक्ति से समाज का अस्तित्व बनता है । प्रत्येक मानवी समुदाय का निश्चित और सीमित भू - भाग पर वास्तव्य होता है, उस मानव - समूह के बीच व्यक्ति व्यक्ति में विभिन्न प्रकार के व्यवहार संपन्न होते हैं। समूह में रहते हुए व्यक्ति को जीवनावश्यक जरूरतों की जैसे अन्न, वस्त्र, निवास इत्यादि की आवश्यकता होती है । इनके साथ ही व्यक्ति में सुरक्षात्मक भावना सतर्क होती है और उसे प्रतिक्षण लगता है कि उसके व्यक्तित्व की रक्षा होनी चाहिए। इस हेतु से वह सह - जीवन की इच्छा से एक दूसरे के नजदीक आता है तथा समूह का निर्माण करते विशिष्ट स्थान पर एक दूसरे के सहारे रहने का प्रयास करता है। इससे स्पष्ट है कि समाज केवल व्यक्तियों की एकाधिक संख्या से बना हुआ समुदाय नहीं है तो मनुष्य ने परस्पराश्रित और सहयोगपूर्ण जीवन की इच्छा से समाज का निर्माण किया है।
डॉ. पुरूषोत्तम दुवे ने समाज की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए कहा है “कि एक दूसरे के सहारे प्रगति पथ पर पर अग्रसर होने वाले व्यक्तियों का समूह समाज है"
समाज का अर्थ
‘‘शाब्दिक दृष्टि से समाज शब्द का पर्यायवाची शब्द अंग्रेजी में ‘सोसाइटी’ है। यह ‘Society’ लैटिन शब्द से बना है जिसका अर्थ है संगी, साथी या मित्र संस्कृत में सम् + अज् + धञ’ से समाज शब्द की व्युत्पत्ति बताई गई, जिसका तात्पर्य सभा, मिलन, गोष्ठी, परिषद या समिति से लिया जाता है।’’
व्यक्ति के बिना समाज नहीं, समाज के बिना व्यक्ति नहीं दोनों में अटूट सम्बन्ध होता है। समाज समानता और भिन्नता दोनों के बिना नहीं रह सकता क्योंकि यह एक गतिशील और विकासमान अवस्था है। जहॉं, सामाजिक सम्बन्ध हितों उद्देश्यों रूढ़ियों, आवश्यकताओं आदि की समानता पर आधारित होते हैं वही, मानव समाज की क्रियाएं परस्पर आदान-प्रदान, रूचि-अभिरूचि आदि की भिन्नता पर आधारित होती है।
समाज एक अमूर्त प्रत्यय है, जिसकी अमूर्तता मूर्त मानव में निहित है। समाज मानव की अभिव्यक्ति और व्यवहारों को आयाम प्रदान करता है। इसके द्वारा सम्बन्ध निर्मित करता है और यह सम्बन्ध पीढ़ी-दर-पीढ़ी व्यवहारों का निर्माण करता है।
समाज का अर्थ साधारण बोल चाल में समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह से माना जाता
है। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मनुष्य को सामाजिक सम्बन्धों की
आवश्यकता पड़ती है। ‘समाज’ शब्द ‘सम्’ ‘उपसर्ग’ और ‘अज्’ धातु में
‘धम’ प्रत्यय लगाने से बनता है। ‘सम्’ का अर्थ सम्यक रूप से तथा ‘अज्’ का
अर्थ है जाना।’’
समाज केवल मनुष्यों में नहीं, अपितु पशुओं में भी दृष्टिगोचर होता है।
समाज के आवश्यक लक्षण-समानता, भिन्नता, संगठन, सहयोग और अन्योन्याश्रित
आदि पशुओं में भी देखे जा सकते हैं।
समाज की परिभाषा
समाज की परिभाषा - समय-समय पर समाज को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है।मैकावर और पेज के अनुसार - ‘‘मनुष्यों में जो चलन है जो कार्य विधियां है।
परस्परिक सहायता की जो प्रवृत्ति है शासन की जो भावना है जो अनेक समूह व
विभाग में विद्यमान है, मानव व्यवहार के संबंध में स्वतन्त्रताएॅं व मर्यादाएं हैं उनकी
व्यवस्था को समाज कहते हैं।’’ जहॉं परिवर्तित होती जटिल स्थितियॉं अपना
ताना-बाना बनाती बिगाड़ती रहती है।
मैकावर और पेज समाज के व्यवस्थित रूप के
कारणों के समाज में समूह की चेतना की बात करते हैं तो विविध रूपों में परिलक्षित
होती है।
समाज के शाब्दिक व पारिभाषिक विवेचन के आधार पर ‘‘समाज मनुष्य के अस्तित्व का आधार है क्योंकि उसका जन्म विकास एवं व्यक्तित्व का निर्माण समाज में ही होता है। उसकी अनेक शारीरिक व सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी समाज के अन्तर्गत ही होती है। समाज मनुष्यों द्वारा निर्मित होता है। इस अर्थ में समाज एक ऐसा जन समूह है जिसमें एकात्म भाव है।’’
समाज के शाब्दिक व पारिभाषिक विवेचन के आधार पर ‘‘समाज मनुष्य के अस्तित्व का आधार है क्योंकि उसका जन्म विकास एवं व्यक्तित्व का निर्माण समाज में ही होता है। उसकी अनेक शारीरिक व सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी समाज के अन्तर्गत ही होती है। समाज मनुष्यों द्वारा निर्मित होता है। इस अर्थ में समाज एक ऐसा जन समूह है जिसमें एकात्म भाव है।’’
समाज का वर्गीकरण
उच्च वर्ग
समाज का सबसे अधिक सम्पन्न वर्ग उच्च वर्ग की श्रेणी में आता है।
उच्चवर्ग के व्यक्ति धनधान्य एवं सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण होते है। इस कारण यह
ऐश्वर्य पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। गॉंवों में उच्च वर्ग के अन्तर्गत जमींदार, महाजन,
तहसीलदार, सेठ साहूकार, मुखिया, नेता व सरकारी अफसर आते हैं।
मध्यवर्ग
उच्च वर्ग औरनिम्न वर्ग के बीच का वर्ग मध्य वर्ग कहलाता है। इनकी
बौद्धिक विचारधारा उच्च वर्ग के समान होती है। परन्तु आर्थिक अभाव के कारण उच्च
वर्ग के समान जीवन यापन करने में प्राय: असमर्थ रहते हैं।
निम्नवर्ग
समाज का सबसे अधिक पिछड़ा हुआ वर्ग निम्न वर्ग की श्रेणी में आता
है। इस वर्ग के अन्तर्गत अनुसूचित जातियॉं अनुसूचित जन जातियॉं, खेतिहर किसान,
भूमिहीन मजदूर, आदि आते हैं। इनका जीवन अत्यन्त संघर्षपूर्ण होता है। गॉंवों में
अधिकांश व्यक्ति कृषि कर्म से जुड़े हैं। उनके पास श्रम के अलावा उत्पादन का कोई
साधन नहीं होता। ‘‘यह निम्न वर्ग उन लोगों का वर्ग है जो अपने जीविकोपार्जन के
लिए श्रम पर निर्भर रहते हैं।
Tags:
समाज