अपराध का अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत और कारण

अपराध, 'CRIME' का हिन्दी पर्याय है। क्राइम एक फ्रेंच शब्द है जिसे जुर्म, कसूर, पाप और गुनाह आदि के पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वास्तव में 'CRIME' शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'CRIMEN' से उत्पन्न हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है विलगाव अथवा अलगाव।
 
इस प्रकार अपराध एक ऐसी घटना है जिसके करने से अपराधी, समाज से विलग हो जाता है अर्थात् उसके मन में समाज के प्रति अलगाव पैदा हो जाता है।

अपराध की परिभाषा

विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों ने अपराध शब्द को अपने-अपने तरीके से परिभाषित किया है। 

अपराध को परिभाषित करते हुए आसबर्न कहते हैं कि ‘‘अपराध वह कृत्य या अपकृत्य है जो समाज के समुदाय के हित के विरुद्ध है और जो विधि द्वारा निषिद्ध है, जिसको करने पर सरकार को दंड देने का भी अधिकार होता है।’’ 

मोरर के मुताबिक ‘‘अपराध किसी भी कानून का उल्लंघन करने की प्रक्रिया है।’’ 

जान गिलिन के मुताबिक ‘‘अपराध वे कार्य हैं जो समाज के लिए वास्तव में अहितकर बताए गए हैं या जो उन व्यक्तियों के समुदाय द्वारा जिसको अपने विश्वास को कार्यान्वित करने की शक्ति है, समाज के लिए अहितकर बताए गए हैं और जिसको उन्होंने दंड द्वारा रोक दिया है।’’

सदरलैंड के मुताबिक ‘‘अपराधी आचरण वह आचरण है, जिससे अपराधी कानून भंग होता है।’’ 

जान एस. मैवेफन्जी कहते हैं कि ‘‘अपराध, समाज के विरुद्ध, उन समस्त असंतोषों को प्रकट करता है जिन्हें राष्ट्रीय कानून द्वारा स्वीकार किया गया है तथा जिनका कर्ता दंड का भागी है।’’ 

अपराध को परिभाषित करते हुए टेफ्रट कहते हैं कि ‘‘अपराध वे कार्य हैं जिनको करना कानून द्वारा रोका गया है और जो विधि द्वारा दंडनीय माने गए हैं।’’ 

हत्सबरी के मुताबिक ‘‘अपराध एक ऐसा कार्य या दोष है जो जनता के विरुद्ध असंतोष है और जो कार्य के कर्ता या दोषी को दंड का भागी बनाता है।’’ 

लैंडिस एवं लैंडिस कहते हैं कि ‘‘अपराध वह कार्य है जिसे राज्य ने सामूहिक कल्याण के लिए हानिप्रद घोषित किया है और जिसके लिए दंड देने के लिए राज्य शक्ति रखता है।’

इस आधार पर इलियट और मेरिल कहते हैं कि ‘‘जब किसी व्यक्ति का आचरण असामाजिक ठहराया जाता है तो उसका आचरण उस मान्य आचरण से, जो उस समूह के द्वारा उस स्थिति में निश्चित होता है, भिन्न होता है।’’ इसी प्रकार प्रो. रेकलेस कहते हैं कि ‘‘समाज के बनाए और माने हुए रास्ते को तोड़ने का नाम अपराध है। 

अपराध, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से उन कृत्यों का नाम है जो सामाजिक रूढ़ियों एवं प्रथाओं को तोड़ते हैं लेकिन इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि आधुनिक युग की कानून की किताबों में इसका जिक्र हो ही।’’

अपराध के कारण 

इस संदर्भ में गॉडर्ड ने ठीक ही कहा है कि ‘‘अपराध का सबसे बड़ा अकेला कारण सिर्फ और सिर्फ बौद्धिक दुर्बलता ही है।’’ इसी क्रम में इटली के चिकित्सक लौमब्रोसो ने अपराधियों की शारीरिक संरचना का अध्ययन किया और बताया कि आपराधिक मानसिकता वाले व्यक्ति का सिर नीचा होता है और ललाट अपेक्षाकृत कुछ पीछे की ओर होता है। इसी प्रकार ऐसे व्यक्तियों का जबड़ा कुछ भारी और बाहर को निकला होता है। बाद में 1913 में चाल्र्स बोरिंग ने लौमब्रोसो की उपरोक्त धारणा को सिरे से नकारते हुए बताया कि अपराधी और निरपराधी व्यक्ति को उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर नहीं पहचाना जा सकता। कुछ भी हो, इतना तो निश्चित है कि व्यक्ति की आपराधिक प्रवृत्ति के पीछे उसकी मनोवृत्ति और मानसिक स्थिति का भी महत्त्वपूर्ण हाथ होता है।

शिकागो के विद्वान हीले ने अपने एक अध्ययन में पाया कि लगभग 28 प्रतिशत अपराधी निरे मूर्ख होते हैं। इसी प्रकार कैलीफोर्निया के समाजशास्त्री विलियम ने बाल-अपराधियों के बीच एक सर्वेक्षण किया और पाया कि 32 प्रतिशत से भी अधिक बाल-अपराधी मंद बुद्धि वाले थे। इसके बाद कई मनोवैज्ञानिकों ने इसी प्रकार के अध्ययन किए और पाया कि मंद बुद्धि तथा मानसिक कमजोरी, आपराधिकता का एक प्रमुख कारण तो है लेकिन साथ ही कुछ कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति भी अपराधी होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि जालसाजी, तस्करी और धोखाधड़ी जैसे अपराध अधिकतर तीव्र बुद्धि वाले अपराधी ही करते हैं। 

कुछ अत्यधिक तीक्ष्ण बुद्धि वाले अपराधियों का अध्ययन करने पर पाया गया कि ऐसे व्यक्ति का रुझान, किशोरावस्था से ही अपराध की ओर था और जब उन्हें अपराध के लिए अवसर व उपयुक्त परिस्थितियां मिलीं तो उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग, आपराधिक कुकृत्यों को करने में किया। जब व्यक्ति अपनी आंतरिक इच्छाओं को दबा लेता है तो उपर से भले ही यह लगता है कि उसने अपनी इच्छाओं को दबा लिया है लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। वस्तुत: दमित इच्छाएं, मन-मस्तिष्क के किसी कोने में जाकर सुप्तावस्था में बैठ जाती हैं। जब कभी व्यक्ति को आपराधिक माहौल मिलता है अथवा दमित इच्छाएं को फलने-फूलने का अवसर मिलता है तो व्यक्ति आपराधिक कुकृत्य करने लगता है, अपनी इच्छाएं पूरी करने लगता है। 

उदाहरणस्वरूप, हम देखते हैं कि किसी कामुक व्यक्ति की काम से संबंधित इच्छाएं दबाने पर भी नष्ट नहीं होती हैं। यदि व्यक्ति की काम-इच्छाओं को दमित किया जाता है, दबाया जाता है तो वे विकृत स्वरूप में अपना सिर उठाने लगती हैं परिणामस्वरूप व्यक्ति छेड़खानी, यौन-उत्पीड़न जैसे कुकृत्य करने लगता है। बलात्कार करने वाला व्यक्ति पीड़िता को दु:ख पहुंचाकर खुद सुख का अनुभव करता है अर्थात् उसकी मानसिकता विकृत हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि कई बार व्यक्ति, अपने मानसिक दोषों के चलते भी अपराध करने लगता है। यदि व्यक्ति में बौद्धिकता की कमी होगी तो वह अपराध की ओर अधिक तेजी से और अधिक सरलता से मुड़ जाता है।

मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षणों में पाया गया है कि मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति और दुर्बल इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति, आसानी से किसी के भी कहने में आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को यदि अपराध करने के लिए प्रेरित किया जाए तो वह आसानी से आपराधिक निर्देशों को मान लेता है। मानसिक दुर्बलता के कारण व्यक्ति यह निर्णय नहीं कर पाता कि जिस कार्य को उसे करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है वह सही है या गलत। कुछ व्यक्तियों में किसी एक वृत्ति या मानसिक इच्छा का अत्यधिक विकास हो जाता है जिस कारण वह एक विशेष प्रकार के अपराध ही करने लगता है। किसी दूसरे व्यक्ति की देखादेखी भी कुछ व्यक्तियों में आपराधिक प्रवृत्ति पनप जाती है। इस प्रकार अनुकरण के कारण भी कुछ लोग अपराध की ओर उन्मुख हो जाते हैं। 

जब कोई व्यक्ति गैर-कानूनी धंधे करके ऐशोआराम से रहता है तो उसके आसपास के लोग उसका अनुकरण करने लगते हैं। इस प्रकार अनुकरण भी आपराधिक प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार होता है। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि मनोवैज्ञानिक कारणों से भी व्यक्ति अपराध करने लगता है। मनोवैज्ञानिकों ने अपराध के निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक आधारों की पहचान की है :
  1. मानसिक दोष 
  2. मानसिक दुर्बलता
  3. पैतृक विशेषताएं 
  4. दमित इच्छा
  5. अनुकरण 
  6. प्रवृत्तिशीलता
  7. पारिवारिक कारण
  8. निर्धनता
  9. भौतिकतावादी संस्कृति 
  10. आधुनिकता
विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगों को भी अपराध का एक प्रमुख कारण माना जाता है। मनोविज्ञान में कई ऐसे रोगों की पहचान की गई है जिनका रोगी, अपराध करने को अधिक उन्मुख होता है। आज के भौतिक और आधुनिक जीवन में व्यक्ति की इच्छाएं असीमित हो गई हैं, वह रातोंरात अमीर बनकर सारे ऐशोआराम पा लेना चाहता है, सारी सुख-सुविधाएं जुटा लेना चाहता है। ऐसे भौतिकतावादी इच्छाओं के कारण व्यक्ति तनाव का शिकार होकर कई ऐसे मानसिक रोगों का शिकार हो जाता है जिनके कारण वह अपराध करने लगता है। निम्नवर्गीय लोगों के जीवन में जटिलताएं अधिक होती हैं, उन्हें अधिक संघर्ष करने पड़ते हैं और उनके पास चिकित्सा की सुविधाएं भी कम होती हैं इसलिए उनमें मानसिक रोग अधिक पाए जाते हैं। इसके विपरीत उच्चवर्गीय व्यक्तियों का जीवन अपेक्षाकृत सरल होता है और उनके पास सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध होती हैं इसलिए उन्हें मानसिक रोगों का शिकार कम ही होना पड़ता है। यही कारण है कि अधिकतर अपराधी निम्नवर्ग से संबंधित होते हैं। वैसे आजकल इस तथ्य में काफी विचलन देखने को मिल रहे हैं। महानगरों में उच्चवर्ग के धनाढ्य युवक-युवतियां भी अब गंभीर किस्म के अपराध करने लगे हैं।

अपराध के सिद्धांत

इस सिद्धांत के समर्थक मानते हैं कि वास्तव में अपराध का मूल कारण मानसिक दुर्बलता तथा मानसिक हीनता ही है। सन् 1905 में विने ने एक विने-साइमन पैमाना बनाया जिससे व्यक्ति की बुद्धिमत्ता का स्तर तथा मानसिक हीनता को मापा जा सकता है। इसके बाद 1919 में गोड्डा ने व्यक्ति के मंदबुद्धि व्यवहार को आपराधिकता से जोड़ने का प्रयत्न किया।

1. मनोविकार विश्लेषण पर आधारित सिद्धांत - इस सिद्धांत का प्रतिपादन व्हीले तथा कानर ने किया। इन दोनों विद्वानों ने अपराध के कारणों को शारीरिक व मानसिक लक्षणों के स्थान पर संवेगात्मक व्याकुलता और व्यक्तित्व संघर्ष में खोजने का प्रयत्न किया था। इसी सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए हीतों ने कहा कि निराशा तथा अवसाद, व्यक्ति को अपराध की ओर खींच ले जाते हैं। 

इस सिद्धांत के अधिकतर समर्थकों का मानना है कि व्यक्ति विभिन्न प्रकार के मनोविकारों के कारण ही अपराध करने को प्रेरित होता है और व्यक्ति के मनोविकारों का विश्लेषण करके उसकी आपराधिकता के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है।

2. अपराध का नियंत्रण सिद्धांत - सन् 1970 में इस सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले हेश ने अपराध के नियंत्रण का एक सिद्धांत दिया जो आपराधिक व्यवहार सीखने की स्वीकारात्मक तथा निषेधात्मक प्रवृत्तियों के आधार पर बनाया गया था। हेश ने कहा कि विशेष परिस्थितियों में ही व्यक्ति विधि के अनुरूप कार्य करता है, आचरण करता है। इसी प्रकार व्यक्ति आपराधिक कुकृत्य भी तभी करता है जब उसके लिए कुछ विशेष परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। 

इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का आपराधिक व्यवहार, क्रिया के प्रति प्रतिक्रिया मात्र है और कुछ भी नहीं तथा व्यक्ति वही कार्य शीघ्र सीखता है, शीघ्र करता है, जिसके एवज में उसे कुछ लाभ मिलने की आशा हो। इसलिए अपराध पर तभी नियंत्रण पाया जा सकता है जब व्यक्ति को लगे कि अपराध करने पर उसे नुकसान होगा, दंड मिलेगा।

3. बहुकारवादी सिद्धांत - इस सिद्धांत के प्रणेताओं में मुख्य रूप से हीले, सिरिलबर्ट और अबराहन्सन का नाम लिया जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार कई उपादानों के संयुक्त प्रभाव के कारण ही किसी व्यक्ति में आपराधिक प्रवृत्ति पैदा होती है। इन कारणों को बहुत अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अपराध की घटनाएं, विभिन्न विशिष्ट परिस्थितियों के संयोग के परिणामस्वरूप होती हैं।

विलियम हीले के अनुसार यदि कोई बालक कोई अपराध करता है तो उसके पीछे कोई एक-दो कारण ही नहीं होते हैं अपितु यह क्रिया कई कारकों की वजह से होती है। इसी प्रकार सिरिलबर्ट का भी मानना है कि किन्हीं दो-तीन कारकों के आधार पर ही किसी अपराध की व्याख्या नहीं की जा सकती क्योंकि कोई भी अपराध वास्तव में कई विभिन्न कारणों के संयोग से ही घटित होता है। 

इस सिद्धांत का समर्थन करते हुए बिल एलियर का कहना है कि किसी एक ही कारण से व्यक्ति में आपराधिक प्रवृत्ति का उदय नहीं हो सकता।

4. अपराध का संघर्षता का सिद्धांत - इस सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले प्रमुख अपराधशास्त्री क्वैली ने अपराध की परिभाषा, परिभाषा निर्णय तथा परिभाषा क्रियान्वयनहीन सैद्धांतिक परिकल्पनाएं प्रस्तुत कीं जिनके अनुसार अपराधी व्यक्ति, समाज की राजनैतिक व आर्थिक परिस्थितियों के उत्पाद होते हैं और उन्हीं के अधीन रहते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो अपराध का संघर्षता का यह सिद्धांत, कार्ल माक्र्स की विचारधारा के ही कुछ अधिक करीब है। लेकिन इस सिद्धांत की सबसे बड़ी कमी यह है कि वस्तुत: सामाजिक मान्यताएं, राजनैतिक मान्यताओं की पर्यायवाची नहीं होती हैं।

5. मानदंड धारणा सिद्धांत - इस सिद्धांत को प्रस्तुत करने वाले रेकलेस (1962) के मुताबिक अपराध नियंत्रण के दो मानदंड होते हैं बाह्य और आंतरिक मानदंड। सामाजिक-न्यायिक तंत्र को तो बाह्य मानदंड कहा जाता है जबकि समूह के मानदंड आंतरिक मानदंडों की श्रेणी में आते हैं। 

6. आरोपण सिद्धांत - इस सिद्धांत का प्रणेता फ्रेंक (1938) को माना जाता है तथा इस सिद्धांत में समाज के सदस्यों की प्रतिक्रिया के आधार पर अपराध को संभालने का विचार दिया गया था। बाद में इसी सिद्धांत को एडविन लेमट (1959) ने विकसित किया, जिनके अनुसार औपचारिक अथवा आपराधिकता, सामाजिक प्रतिक्रिया द्वारा परिभाषित की जाती है और इस आपराधिकता का स्वभाव और दर, अपराधी की भूमिका के साथ सामाजिक प्रतिक्रिया द्वारा ही स्वरूप ग्रहण करते हैं।

अपराध के विभिन्न सिद्धांतों में हम पढ़ चुके हैं कि अपराध का सबसे बड़ा कारण, व्यक्ति की मानसिक तथा बौद्धिक दुर्बलता ही होता है। 

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