विद्यालय में अनुशासनहीनता के कारण

अनुशासनहीनता का सामान्य अर्थ अनुशासन का पालन न करना है अर्थात स्थापित नियमों एवं प्रक्रियाओं का उल्लंघन करना अनुशासनहीनता कहलाता है।

विद्यालय में अनुशासनहीनता के कारण

छात्रों में अनुशासनहीनता की भावना तीव्र गति से बढ़ती गई और अब तो यहां तक नौबत आ गई कि छात्रों द्वारा तोड़-फोड़, हिंसा तथा अनैतिक कार्यों की कड़ी-सी लग गई। विद्यालयों के अंदर और बाहर सभी स्थानों में छात्रों की अनुशासनहीता से आतंक-सा व्याप्त हो गया है। समाज इस अनुशासनहीनता से त्रस्त और भयभीत हो उठा है तथा सामाजिक नेतृत्व के भविष्य पर एक बड़ा-सा प्रश्न-चिन्ह लग गया है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक तथा आर्थिक सभी क्षेत्र छात्रों की अनुशासनहीनता से आतंकित हो उठे है। वस्तुतः यह अनुशासनहीनता जहां राष्ट्र के भावी नेतृत्व के निर्माण-मार्ग की बाधा है, वहीं हमारे महान् गणतंत्र के लिए बहुत घातक भी। अतः हमारे लिए इस बढ़ती हुई अनुशासनहीनता के मूल कारणों पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। नीचे हम उन कारणों पर संक्षेप में प्रकाश डालते है:-

1. दोषपूर्ण शिक्षा-प्रणाली - वर्तमान शिक्षा-प्रणाली सर्वथा दोषपूर्ण है। यह विशेष रूप से बौद्धिक विकास पर बल प्रदान करती है। अतएव एकांगी तथा जीवन से दूर है। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात मात्र नौकरी के सिवा और कोई जीविकोपार्जन का साधन छात्रों को नजर नहीं आता। अत: वे अपने जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान करने में पूर्णत: असफल रहते है। अंधकारमय भविष्य प्रदान करने वाली शिक्षा में उनका विश्वास नहीं रह जाता और अवसर आने पर वे विद्रोह कर उठते है। इसके अतिरिक्त आज की शिक्षा परीक्षाक्रांत है। 

अत: उसमें भी अनैतिक उपायों द्वारा पास करने का प्रयत्न किया कराया जाता है। इस तरह अनुशासनहीनता का पनपना स्वाभाविक ही है।

2. आर्थिक कठिनाइयाँ - हम सभी अपनी राष्ट्रीय दरिद्रता से परिचित है। इसके कारण हमारे देश के विद्यालय की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं है। सरकार भी इसके लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था करने में पूर्ण रूप स असमर्थ है। अत: विद्यालयों में मकान, भूमि, उपस्कर, सहायक शिक्षण-उपादान तथा योग्य शिक्षक का स्पष्ट अभाव है। इस अवस्था में शिक्षक तथा छात्र दोनों मं असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक है। 

इतना ही नहीं, समाज में शोषण का बाजार अभी भी गर्म है। फलस्वरूप विद्यालय में शोषित तथा शोषक दोनों वर्गों के छात्र पढ़ते है और एक-दूसरे के प्रति घृणा तथा विद्रोह की भावना पालते है। इस प्रकार विद्यालयों में अनुशासनहीनता का जन्म होता है।

3. राजनीतिक दलों का प्रभाव - देश में विभिन्न मतवाले अनेक राजनीतिक दल है। इन दलों द्वारा अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए छात्रों का उपयोग किया जाता है। चुनाव-प्रचार तथा अन्य प्रचार एवं संगठन के कार्य में भी वे छात्रों का खुलकर उपयोग करते है। इस प्रकार छात्रों के बीच मतभेद, झगड़े तथा मारपीट होती है। यही नहीं, कभी-कभी तो ये दल छात्रों को हिंसात्मक कार्य के लिए भी प्रोत्साहित करते है। आज की अवस्था में अनुशासनहीनता का यह एक बहुत बड़ा कारण हो गया है।

3. सामाजिक स्तर का पतन - यदि आंख खोलकर देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज हमारे देश का सामाजिक स्तर पतन के गर्त में जा पड़ा है। स्वार्थ, घृणा, वैमनस्य, असहयोग, दुष्टता, भ्रष्टाचार एवं भौतिक लाभ का बाजार गर्म है। हमारे छात्र इसी समाज से आते है, इसी में जन्में हैं, इसी में पलते हैं तथा इसी हवा में सांस लेते है। अत: उनमें भी यदि उक्त दुर्गुणों का समावेश आज हो रहा है, तो इसमें क्या आश्चय है।

4. शिक्षकों में नेतृत्व के गुणों का अभाव - जैसे समाज में नैतिक गुणों का अभाव है, वैसे ही आज अधिकांश शिक्षकों में नेतृत्व के गुणों का अभाव है। आज वह अगुआ नहीं रह गया है, वह तो अब मात्र पिछलग्गू है। वह तो आज अपने आदशों को खोकर मात्र दो-चार प्राइवेट ट्यूशन के पीछे पागल है। यही कारण है कि इस पेशे में बहुत कम कुशाग्रबुद्धि और प्रखर व्यक्ति आते है। इसका फल है कि शिक्षक का प्रभाव न तो समाज पर है और न छात्र पर ही है। नेतृत्व के गुणों से हीन शिक्षक आज अनुशासन के विकास में असमर्थ है। 

5. शक्ति के समुचित उपयोग का अभाव - छात्रों और किशोरों में अपार शारीरिक शक्ति होती है। आज इस शक्ति का सदुपयोग विद्यालयों में हीं किया जा रहा है। समुचित सह-शैक्षणिक क्रियाशीलनों का विद्यालयों में स्पष्ट अभाव है। अत: छात्रों की अतिरिक्त शक्ति एवं उत्साह का पूर्णरूपेण उपयोग नहीं हो पाता और वे अनुशासनहीनता के कार्यों में अनायास ही लग जाते है। 

6. शिक्षक-छात्र संबंध का अभाव - आज विद्यालयों में छात्रों की संख्या अत्यधिक बढ़ गई है। एक-एक वर्ग में 70-80 छात्र ठूंस दिये जाते हैं तथा उच्च विद्यालयों में तो आज हजार-डेढ़ हजार छात्र संख्या सामान्य बात हो गई है। स्पष्ट है कि इस दशा में छात्र और शिक्षक क वैयक्तिक एवं किट का संबंध असंभव है। अत: छात्र अभियंत्रित समूह के सदस्य होकर अनुशासनहीनता के कार्यों में लग जाते है। इसके अतिरिक्त आज शिक्षक और छात्र का संबंध भी अत्यंत कटु हो गया है। आर्थिक लाभ, जातीयता तथा पक्षपात ही शिक्षक-छात्र संबंध के आज आधार हो गए है। इस प्रकार अनुशासनहीनता का उदय हो स्वाभाविक ही है।

घर पर दूषित वातावरण - सामान्यता भारतीय परिवारों का वातावरण अत्यधिक दूषित होता है। अनपढ़ माँ-बाप तथा संबंधी के साथ बच्चे रहते है। अधिकांश परिवारों में शराब पीना, गालीगलौज बकना तथा भद्दे आचरण करा सामान्य बात है। ऐसे परिवार से आने वाले छात्रों का अनुशासनहीनता होना कोई बड़ी बात नहीं है। 

7. छात्रों की समस्या की उपेक्षा - आज छात्रों की समस्या की उपेक्षा की जाती है अथवा उसे छोटी समझकर उसका समाधान नहीं ढूंढा जाता। फलस्वरूप समस्या कालांतर में विशाल हो जाती है तथा इसके विस्फोट से समाज का अस्तित्व ही समाप्त होने लगता है। उदाहरणतः शुल्क वृद्धि, परीक्षा में प्रश्नों का स्तर अथवा छात्र-आवास की समस्या को ही ले सकते है। इनकी उपेक्षा की जाती है और ऐसा देखा गया है कि बाद में इन्हीं के आधार पर बहुत बड़ा हिंसक एवं विनाशक आंदोलन खड़ा हो जता है।

8. उचित मार्गदर्शन का अभाव - आज मनोविज्ञान में छात्रों के उचित मार्गदर्शन (Guidance) का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। किन्तु इक्के-दुक्के विद्यालयों के छात्रों को ही यह सौभाग्य प्राप्त है। अधिकांश विद्यालयों के छात्रों को न तो विषय-संबंधी और ही जीविका-संबंधी मार्गदर्शन प्राप्त होते हैं। फलस्वरूप उनमें अनुशासनहीनता और मार्ग भ्रष्टता के बीच वपन हो जाते है। 

9. अवकाश के सदुपयोग की व्यवस्था नहीं - भारतीय विद्यालयों में अवकाश के क्षणों का सदुपयोग न तो छात्र कर पाते हैं और न शिक्षक। सुन्दर वाचनालय, हॉवी-कक्षा अथवा अन्य सृजनात्मक मनोरंजन की व्यवस्था का विद्यालयों में सर्वथा अभाव है। इसका परिणाम होता है कि अवकाश में छात्र निठल्ले, बेकार गिरोहों में घूमते तथा खुराफात सोचा करते है। 

10. किशोरावस्था तथा युवावस्था की भावनाओं की अवहेला - विद्यालयों में किशोरावस्था के छात्र होते है। उनकी भावनाएं एवं शक्तियां अपार तथा कोमल होती है। उनका आदर करना हम नहीं जानते है। महाविद्यालयों में छात्र-छात्राओं का मिलना, बात करना भी स्वाभाविक ही है। उसे भी हम सहन नहीं करते। फलत: उनकी भावनाओं को ठेस लगती है और उनमें अनुशासनहीनता की भावना बढ़ती है।

अनुशासनहीनता के रोकथाम के उपाय

1. विद्यालय तथा वर्गों में सीमित छात्र-संख्या - वर्गों में छात्रों की निश्चित संख्या निर्धारित हो। इससे वर्ग में भीड़ नहीं हो पाती तथा अध्ययन-अध्यापन अपेक्षित रूप में होता है। इससे एक लाभ यह भी होता है कि विद्यालय की सम्पूर्ण छात्र-संख्या भी सीमित रहती है तथा हंगामा अथवा नियंत्रण की स्थिति नहीं उत्पन्न होने पाती।

2. छात्र-अध्यापक संपर्क - विद्यालय में छात्र-अध्यापक-संपर्क की दृढ़ता तथा स्निग्धता पर ही अनुशासन निर्भर करता है। इससे छात्रों की असुविधा, कठिनाई अथवा मनोभाव को जानने में अध्यापक सफल होता है। मधुर तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से शिक्षक छात्र के हृदय के अत्यधिक निकट आ जाता है तथा उसका प्रभाव उन पर रहता है। यह अनुशासनहीनता को रोकने में बहुत ही सहायक है। 

3. शिक्षा-प्रणाली में सुधार तथा उसके उद्देश्य में स्पष्टता - आज शिक्षा-प्रणाली दोषपूण है तथा उसके उद्देश्य भी पूर्णत: स्पष्ट नहीं है। अत: आज शिक्षा-प्रणाली को बहुमुखी बनाना है। उसका उद्देश्य योग्य नागरिक के व्यक्तित्व को जीवन एवं समाजनिष्ठ बनाा तथा उद्देश्य को स्पष्टत: शिक्षकों के सामने रखना है। इससे अनुशासनहीनता को बहुत बड़ा नियंत्रण मिलेगा।

4. अध्यापक एवं अध्यापन का स्तरोन्नयन -  अध्यापक का आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक स्तरोन्नयन होना अत्यावश्यक है। उन्हें अच्छा वेतन तथा समाज में प्रतिष्ठा प्रदान की जाए। (अब बहुत अंशों में यह प्राप्त है)। इससे अच्छी योग्यता वाले व्यक्ति इस पेशा में आएंगे तथा इस प्रकार अध्यापक का शैक्षिक स्तरोन्नयन स्वत: ही हो जाएगा। जो पहले से इस पेशा में कार्य कर रहे है उनकी आर्थिक दशा भी अच्छी होने से अच्छा फल मिलेगा। वे भी अपने कार्य में मन लगाएंगे तथा अपना शैक्षिक स्तर ऊंचा करेंगे। अध्यापन की दिशा में इस प्रकार उनति होगी। 

5. व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था - विद्यालयों में विभिन्न रुचि एवं बुद्धि-लब्धि के छात्र अध्ययन करते है। अत: उन्हें उनकी रुचि एवं बौद्धिक तीव्रता के अनुसार विभिन्न दिशा में ले जाना लाभकारी होगा। इसे ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को विशेष महत्व प्रदान किया जाए। अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप व्यावसायिक शिक्षा में लगे छात्र अनुशासनहीनता के कार्यों में नहीं लगते। 

6. किशोरावस्था की अतिरिक्त शक्ति का सदुपयोग - इस अवस्था में छात्रों की शक्ति अपार होती है। उनमें उत्साह एवं कल्पनाशीलता का ज्वर उठता रहता है। वे कुछ भी कर गुजरने को तत्पर रहते है। अत: उनकी शक्ति, उत्साह, कल्पना तथा सुधारवादिता को समाज-सेवा, अभिनय, कवि-गोष्ठी, वाद-विवाद-प्रतियोगिता, बालचर संगठन, क्रीड़ादि एवं श्रमदान में लगाकर उनको अनुशासित एवं उपयोगी नागरिक बना सकते है।  

7. उत्तरदायित्व की भावना का विकास - छात्रों पर उत्तरदायित्व के कार्य सौंपे जाएं। छात्र-संसद, छात्र-मंत्रिमंडल, सहयोग-भंडार एवं अन्य क्रियाशील के संगठन-संचालन के भार छात्रों पर सौंपे जाएं। इससे उनमें जनतांत्रिक परंपराओं एवं उत्तरदायित्व के भाव जागेंगे तथा वे स्वतः अनुशासित रहेंगे। 

8. विद्यालयों में राजनीतिक दलों का प्रवेश निषेध - राजनीतिक दलों द्वारा छात्रों का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग निषेध कर दिया जाए। छात्रों का चुनाव-कार्य एवं राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए उपयोग न किया जाए। इससे अनुशासनहीनता की गति बहुत कुछ धीमी पड़ेगी और वे उच्छृंखल न होने पाएंगे। 

9. स्वस्थ वातावरण - विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने के लिए उसके आंतरिक एवं वाह्य वातावरण का स्वस्थ होना आवश्यक है। शिक्षक-शिक्षक, प्रधानाध्यापक-प्रबंध-समिति, छात्र-शिक्षक तथा छात्र-छात्र में वैमनस्य तथा झगड़े न हों। इससे विद्यालय का आंतरिक वातावरण स्वस्थ होता है। विद्यालय-प्रांगण का सौंदर्य तथा समीपस्थ स्थानों की सफाई एवं शांति वाह्य स्वस्थता की निशानी है। इससे विद्यालय के छात्रों में अनुशासनप्रियता की भावना स्वत: जागृत होती है।

10. शैक्षणिक उपादानों की पर्याप्तता - आजकल अधिकांश विद्यालयों में शैक्षणिक उपादानों का बहुत ही अभाव है। खाली-पट्ट, उपस्कर, नक्शे, चित्र प्रयोगशाला आदि देखने को भी नहीं मिलते। इससे शिक्षण मात्र मखौल बनकर रह जाता है। यहां तक देखा गया है कि जि विद्यालयों में विज्ञान का अध्यापन होता है, वहाँ भी प्रयोगशाला नदारद है। यह दयनीय अवस्था यदि अनुशासनहीनता को जन्म देती है तो इसमें क्या आश्चर्य है। अत: विद्यालयों में उक्त शैक्षणिक उपादानों की पर्याप्तता अनुशासन के लिए आवश्यक है। 

11. परीक्षा-प्रणाली में सुधार -  आज परीक्षा प्रणाली मानसिक स्मरण की वस्तु है। वह मुख्यत: निबंधात्मक (Subjective) बनकर रह गई है। इसमें चोरी और पक्षपात होते हैं तथा मूल्यांकन विश्वस्थ नहीं हो पाता। इसके कारण भी अनुशासनहीनता पनपती है। अत: परीक्षा-प्रणाली में सुधार लाना आवश्यक है। परीक्षा को वस्तुष्ठि (Objective) बनाया जाए। इससे मूल्यांकन विश्वस्थ हो सकेगा, रटने को प्रश्रय नहीं मिलेगा तथा पक्षपात की गुंजाइश नहीं रहेगी। इस प्रकार अनुशासन का आधार मजबूत होगा।

12. मार्गदर्शन की व्यवस्था - विद्यालयों में छात्रों का मार्गदर्शन (Guidance) करने के लिए प्रशिक्षित एवं योग्य मनोविज्ञान-शिक्षक का होना आज अत्यावश्यक है। इनकी सहायता से छात्र अपना सही अध्ययन-मार्ग चुनने में सफल होंगे तथा इस प्रकार अनुशासित भी रहेंगे।

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