चिकित्सा का अर्थ, लक्ष्य एवं प्रकार

किसी रोग का उपचार चिकित्सा कहलाता है। अस्वस्थ्य शरीर को स्वस्थ्य बनाना चिकित्सा कहलाता है। रोग से अरोग्यता की ओर बढ़ना, शरीर को निरोगी बनाना, चिकित्सा शब्द के ही प्र्याय है। जब “स्व” अपनी जगह पर स्थित न हो अर्थात् व्यक्ति बीमार हो तो उस रूकावट को दूर करना चिकित्सा है।

चिकित्सा का लक्ष्य 

चिकित्सा का लक्ष्य बाह्य तथा आन्तरिक बीमारियों का उन्मूलन करना होता है। सामान्यत: चिकित्सा दो स्तरों पर होती है।
  1. शारीरिक चिकित्सा
  2. मानसिक चिकित्सा
किसी अंग विशेष में क्षति, रोग या संक्रमण होने से उसकी कार्यक्षमता धीर-धीरे घटते हुये समाप्त हो जाती है उस अंग विशेष को पुन: जीवित व कार्यक्षम बनाने के लिये जिस विधि का उपयोग किया जाता है वह चिकित्सा है। शरीर के अंगों की चिकित्सा शारीरिक चिकित्सा कहलाती है तथा मानसिक स्तर पर होने वाले कष्टों के कारण आज की तनावपूर्ण दिनचर्या व परिस्थितियों के कारण, भावनाओं के आहत होने के कारण भी मानसिक रोग होते देखे गये है। ऐसे रोगों की चिकित्सा मानसिक चिकित्सा कहलाती है।

चिकित्सा सेवा एक ऐसी सेवा है, जिसमें सीधे मानव से संपर्क होता है। मानव के दुख का मूल कारण रोग और इसके निदान से संबंधित होता है। यदि मनुष्य निरोगी व स्वस्थ्य है तो वह सुखी है और यदि रोग संतृप्त है तो वह दुखी है। इस दुख के निवारण में जीतना ईश्वर सहयोगी होता है। इसी कारण चिकित्सक को भगवान की उपाधि दी जाती है।

चिकित्सा के तीन मुख्य बिन्दु हैं - चिकित्सा, औषधि, रोगी

चिकित्सक का सर्वाधिक महत्व होता है परन्तु इसका अस्तित्व रोगी के बिना निरर्थक है और औषधि के सहयोग से वह कार्य करता है, अर्थात् उसके कार्य को सम्पन्न करने में औषधि का सहयोग आवश्यक है।

चिकित्सा के प्रकार 

चिकित्सा पद्धति में अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का समावेश किया गया है जैसे आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, योग चिकित्सा, मनोचिकित्सा, एक्युप्रेशर, रैकी चिकित्सा, यूनानी चिकित्सा, सिद्ध चिकित्सा, हस्तमुद्रा चिकित्सा इत्यादि।


1. रैकी चिकित्सा - स्पर्श द्वारा ऊर्जा का शक्तिपात ही चिकित्सा क्षेत्र में रैकी चिकित्सा पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। स्पर्श चिकित्सा (रैकी चिकित्सा) के प्रणेता डॉ. निकायो उसुई है। रे़की (रैकी-जापानी शब्द) ईश्वरीय सृष्टि प्राण ऊर्जा (जीवन शक्ति) यह सरल सुविधानजक, सस्ती और दुष्प्रभाव रहित उपचार पद्धति है। यह रोग, शोक, चिन्ता से मुक्त कर दुष्प्रवृत्तियों का समूल नाश करने में भी उपयोगी है।

2. सिद्ध चिकित्सा पद्धति -  सिद्ध यह संस्कृत भाषा का एक शब्द है इसका अर्थ है - परिपूर्णता या उत्तमता। इस आधार पर वे व्यक्ति जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध चिकित्सा पद्धति शैव सम्प्रदाय पर आधारित है। तद्नुसार समस्त ब्रह्माण्ड दो तत्वों से बना है।

शिव शक्ति - शिव (भौतिक पदार्थ) 5 प्रकार के है।
  1. मन्न
  2. नीर
  3. थी
  4. वायु
  5. आकाश
रोग निदान - रोग के निदान के लिये सिद्ध चिकित्सक नाड़ी, परीक्षा, मूत्र परीक्षा तथा नेत्र, जिव्हा, स्वर, स्पर्श और मल के रंग की परीक्षा को विशेष महत्व देते हैं। इन्हीं के आधार पर वे रोगी के रोग का निदान करते हैं।

3. कल्प चिकित्सा - सिद्ध चिकित्सा में दीर्घापुण्य की प्राप्ति और रोगों से बचे रहने के लिये कल्प चिकित्सा का अवधान है।

4. एक्यूप्रेशर चिकित्सा - शरीर के दर्द वाले हिस्सो से संबंधित निश्चित बिन्दु पर दबाव देकर रोग में राहत पहुंचाना ही एक्यूप्रेशर है। इस चिकित्सा पद्धति के उद्भव के बारे में भ्रान्ति व्याप्त है। कुछ विद्वानों का मत है कि इस पद्धति की शुरूआत भारत वर्ष में लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हो गयी थी। जबकि चीनी विद्वानों का मत है कि 6000 वर्ष पूर्व इसकी शुरूआत चीन में हुई।

5. चुम्बक चिकित्सा - इस अखिल ब्रह्माण्ड में चुम्बकीय शक्ति समाहित है। धरती, सूर्य, तारे और यह सभी चुम्बक जैसा कार्य करते हैं। आधुनिक विज्ञान ने भी चुम्बकीय शक्ति से विभिन्न प्रकार के उपयोगी यंत्रों की रचना की है।

सैद्धांतिक आधार : हमारा शरीर मूल रूप से एक विद्युतीय संरचना है और प्रत्येक मानव के शरीर में कुछ चुम्बकीय तत्व जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक रहते हैं। चुम्बकीय शक्ति रक्त संचार प्रणाली के माध्यम से मानव शरीर को प्रभावित करती है। नाड़ियों और नसों द्वारा खून शरीर के हर भाग में पहुँचता है। इस प्रकार चुम्बक हमारे शरीर के प्रत्येक हिस्से को प्रभावित करने की शक्ति रखता है। चुम्बक रक्त कणों के हीमोग्लोबिन तथा साईटोकम नामक अणुओं में निहित लौह तत्वों पर प्रभाव डालता है।

चुम्बक चिकित्सा में 100 ग्रॉस से 1500 ग्रॉस तक के शक्ति सम्पन्न चुम्बकों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। जिसमें सिरेमिक के कम शक्ति सम्पन्न चुम्बक कोमल अंग जैसे ऑंख, कान, नाक, गला आदि के काम में लाये जाते हैं। धातु से बने मध्यम शक्ति सम्पन्न चुम्बक बच्चों तथा दुर्बल व्यक्तियों के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं। आमतौर पर प्रतिदिन रोगी को 10 मिनिट ही चुम्बक लगाना पर्याप्त है।

6. मानसिक चिकित्सा - भारत में सन् 1958 में इंडियन यूनेटिक एस्सायलम एक्ट बनाया गया और 1963 में लखनऊ में एक मानसिक चिकित्सालय की स्थापना की गई। आज सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य योग्यताओं के क्रियान्वयन के लिये काफी प्रयास किया जा रहा है। जिससे मानसिक रोगी को उसके समुदाय में ही व्यवस्थित एवं स्वस्थ्य किया जा सके। मानसिक चिकित्सा की सुविधायें सुदूर अंचलों में उपलब्ध कराने हेतु प्रशिक्षण एवं शोध संस्थानों की व्यवस्था भी की गई है।

7. आयुर्वेद चिकित्सा - आयुर्वेद जनहितकारी प्रत्यक्ष भारतीय शास्त्र है आयुर्वेद को वेद की संज्ञा दी गई है। मनुष्य के कष्टों के निवारण हेतु समग्र जीवन दर्शन के रूप में जिस आरोग्य शास्त्र का प्रतिपादन किया है वह आयुर्वेद ही है। इसमें जड़ी-बूटियों से निर्मित औषधियों का अधिक वर्णन मिलता है। आज महानगरों का सम्पन्न वर्ग भी एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाव से घबराकर आयुर्वेद की ओर लौटने लगा है। एकाएक ही विश्व में एलोपैथिक दवाओं के स्थान पर वैकल्पिक जड़ी-बूटी की परम्परागत दवाओं की ओर लोगों का झुकाव बढ़ने लगा है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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