दूर शिक्षा की समस्याएं

दूर शिक्षा परम्परागत शिक्षा व्यवस्था से सम्पूर्ण रूप में भिन्न है। यह सम्पूर्ण व्यवस्था विविध जनसंचार माध्यम एवं प्रौद्योगिकी के उपयोग पर निर्भर है। इसी प्रकार से इस शिक्षा के उद्देश्य संगठन लक्ष्य स्वरूप, अध्यापक एवं अध्येता की प्रकृति एवं विशेषतायें भी औपचारिक शिक्षा से भिन्न होती है, और इसी प्रकार इसकी अपनी अलग समस्यायें भी होती है।

दूर शिक्षा की समस्याएं 

जो समस्यायें है वे हैं :-
  1. अध्येता सम्बन्धी समस्यायें 
  2. दूर अध्यापकों की समस्यायें 
  3. दूर शिक्षा के प्रति समाज का अपरिपक्त दृष्टिकोण 
  4. जनसंचार माध्यमों के सुविधा की समस्या 
  5. पृथकता की समस्या 
  6. दूर शिक्षा की संगठन एंव प्रबन्धन सम्बन्धी समस्या 
  7. छात्र सहयोग सेवाओं से सम्बन्धित समस्यायें 
  8. स्वशिक्षण समाग्री के गुणात्मकता की समस्या 

1. अध्येता सम्बन्धी समस्यायें 

दूर शिक्षा भी अध्येता केन्द्रित होती है। परन्तु औपचारिक शिक्षा से अलग दूर शिक्षा में अध्यापक एवं अध्येता के अध्येता होती है। इन अध्येताओं की प्रकृति इनकों विशेषतायें सम्पूर्ण दूर शिक्षा व्यवस्ािा के समक्ष समस्यायें उत्पन्न करते है जैसे कि:-
  1. दूर अध्येता अधिकांशत: पूर्व में औपचारिक शिक्षा से जुड़े होने के कारण दूर शिक्षा व्यवस्था के विषय में पूरी जानकारी नहीं रख पाते है। 
  2. अध्येता दूर शिक्षा के विद्याथ्र्ाी होने के बाद भी वे दूर शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। 
  3. कर्इ अध्ययनों से यह निष्कर्ष भी निकला है कि वे औपचारिक शिक्षा से मुक्त एवं दूर शिक्षा को कमतर मानते है।
  4. दूर अध्येता औपचारिक शिक्षा व्यवस्था की अधिक आदत होने के कारण स्व शिक्षण व स्व अधिगम जैसे कार्यो को भी पूर्ण सजगता से नही निभातें हैं।
  5. दूर अध्येता मुख्यालय से दूर होने के कारण समस्त जानकारी समय से नही प्राप्त करने से दुविधा की स्थिति में रहते हैं। 
  6. दूर अध्येता दत्त कार्यों एवं परियोजना कार्यों को स्वंय अपने आप करने तथा अपनी गति से करने के कारण उदासीनता प्रदर्णित करते है।
  7. अधिकांशत: अध्ययन सम्बन्धों समस्या उत्पन्न होने के बाद भी परामर्श कक्षाओं में आना नही चाहते है। 
  8. स्वगति में अध्ययन करने के कारण अध्ययन में रूचि नही प्रदर्शित करते हैं। 
  9. दूर अध्येता अपने दत कार्य, पवरियोजना कार्य इत्यादि को भी समय पर नही जमा करते है। 
  10. व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में भी कार्यशाला इित्यादी की उपस्थिति भी दबाववश करवानी पड़ती है। 

2. दूर शिक्षक सम्बन्धी समस्यायें 

दूर शिक्षा की कई  समस्यायें दूर शिक्षकों के कारण है जैसे कि :-
  1. दूर शिक्षक दूर शिक्षा के लक्ष्य, विशेषतायें प्रकृति एवं उद्देश्यों के प्रति सही जानकारी नही रखते हैं। 
  2. अधिकांशत: दूर शिक्षकों में दूर शिक्षा व्यवस्था के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का अभाव पाया जाता है वे दूर अध्येता की प्रकृति से भी अनभिज्ञ रहते हैं। 
  3. दूर शिक्षक इस शिक्षा व्यवस्था के प्रति पूर्ण लगाव का अनुभव नही कर पाते हैं क्योंकि अध्येताओं की दूरी उन्हे शिक्षा से जुड़ाव नही उत्पन्न कर पाती है। 
  4. अध्येताओं की दूरी होने के कारण इनकी आवश्यकताओं एवं उनकी समस्याओं के प्रति जागरूक रहना कठिन होता है।
  5. दूर अध्यापकों को पूरी तरह की प्रशिक्षण नही मिल पाने के कारण यह अध्येताओं को भी उचित जानकारी देने में असमर्थ हो जाते है।
  6. सीमित समय एवं संसाधनों के कारण ये दूर अध्येताओं को पूरा सहयोग नही कर पाते हैं।
  7. पूर्णकालिक नियुक्ति न होने के कारण अधिकतर संकाय अपने नियमित विभागों के प्रति अपेक्षाकृत अधिक सजग रहते हैं। 
  8. दूर शिक्षकों के लिए विशेषकर शैक्षिक उपबोधकों के लिए मुख्यालय पृथक शिक्षण समाग्रियां या जानकारी नही भेजता जिसके कारण उन्हें अधिकतर अपने शिक्षण (परामर्श) कार्य हेतु उपयुक्त पाठ्यक्रम की जानकारी नही हो पाती है।
  9. दूर शिक्षकों को अधिकांशत: परामर्श के तरीकों एवं दूर अध्येताओं की वास्तविक समस्याओं की जानकारी नही हो पाती है। दूर अध्यापकों के पास आवश्यक कौशलों का आभाव रहता है। 
  10. दूर अध्यापक मुख्यालय से आवश्यक तकनीकी तथा प्रशासनिक सहयोग से वंचित रहते है।
  11. वेट्स 1998 यूरो 1994 टेलर पाकर 2001 के अनुसार दूर शिक्षकों पर अत्यधिक संचालित पाठ्यक्रमों का भार रहता है। और इससे वे अपने परिश्रमिक के बारे में ही सोचते है।
  12. दूर शिक्षा की प्रकृति से दूर शिक्षक परिचित नही होते है। 

3. मुक्त एवं दूर शिक्षा में प्रबन्धन से सम्बन्धित समस्या 

मुक्त एवं दूर शिक्षा का संगठन आम औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से अलग प्रकार का होता है। इसका कार्यक्षेत्र विस्तश्त एवं व्यापक होता है। इसका सम्पूर्ण संगठन एवं प्रशासन विकेन्द्रीकश्त होता है। मुख्यालय अपने सम्पूर्ण पाठ्यक्रमों के संचालन हेतु अपने क्षेत्रीय अध्ययन केन्द्रों पर निर्भर रहते है। मुक्त विश्वविद्यालय एवं मुक्त विद्यालय अपने सम्पूर्ण क्षेत्रों को क्षेत्रीय केन्द्रों में बांटकर उनके अधिकार क्षेत्र में अनेक अध्ययन केन्द्रों को रख देते है। ये अध्ययन केन्द्र इन क्षेत्रीय केन्द्रों की देख-रेख मे कार्य करते है और इनसे ये सूचनाओं का आदान-प्रदान करते है परन्तु सम्बन्धों के इतने बड़े जाल के बन जाने से ढीलापन आ जाता है।
  1. अधिकांश सूचनायें समय से प्रेषित नही होती है। 
  2. सूचनाओं का स्पष्टीकरण भी बाधित हो जाता है।
  3. अध्ययन केन्द्रों एवं क्षेत्रीय केन्द्रों के क्रियाकलापों का पर्यवेक्षण नही हो पाता है। 
  4. पाठ्यक्रमों का संचालन तो नोटिस या सूचना से प्रारम्भ हो जाता है परन्तु स्व शिक्षण सामाग्री का निर्माण व प्रेषण सही तरीके से नही हो पाता है।
  5. अत्याधिक प्रकार के पाठ्यक्रम चलाये जाने से उनकी गुणात्मकता एवं उपयोगिता को बरकरार रखना कठिन हो जाता है। 
  6. क्षेत्रीय स्तर पर प्रबन्धन पूर्णतया अशंकालिक विभाग द्वारा संचालित होता है अत: पूर्ण रूचि एवं संलग्नता का अभाव पाया जाता है। 
  7. क्षेत्रीय केन्द्रों एवं अध्ययन केन्द्रों की समस्याओं का निस्तारण समय पर नही हो पाता है। 
  8. छात्र सहायता सेवाओं के प्रबन्धन में भी समस्या आती है।
  9. अधिकांशत: प्रबन्धन में स्थानीय समस्याओं की उपेक्षा हो जाती है। 
  10. दूर शिक्षा में केन्द्रीय प्रबन्धन में क्षेत्रीय एवं अध्ययन केन्द्रों की सहभागिता नही होती है। 
  11. परामर्श कक्षाओं, कार्यशालाओं का संचालन, परीक्षा संचालन जैस क्रियाकलाप भी मुख्यालय द्वारा पर्यवेक्षित नही किये जाते इससे गुणात्मकता को बनाये रखना कठिन होता है। 

4. दूर शिक्षा के प्रति उचित दृष्टिकोण का अभाव

मुक्त एवं दूर शिक्षा के प्रति एक सबसे बड़ी समस्या इसके प्रति उचित समझ की कमी है। भारत की अधिकांश जनसंख्या गांवों में बसती है जहां पर औपचारिक शिक्षा के प्रति भी जागरूकता की पर्याप्त कमी पायी जाती है फिर मुक्त एवं दूर शिक्षा के प्रति समझ की कल्पना और भी कठिन हैं। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में सच यही है कि लोग औपचारिक व नियमित शिक्षा को अधिक महत्व देते है। अत्याधिक जागरूक लोग ही मुक्त एवं दूर शिक्षा को चुनते है जिनकों यह समझ आता है कि मुक्त एवं दूर शिक्षा से प्राप्त शिक्षा का नियमित शिक्षा के बराबर ही महत्व है। आज भी यह सत्य है कि मुक्त एवं दूरस्य शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है परन्तु इसके प्रति विकल्प जैसा दृष्टिकोण इसकी लोकप्रियता के मध्य रोड़ा है। 

अत्यधिक प्रचार प्रसार के बाद भी यह अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक लोकप्रिय नही हो पा रही है।

5. पृथकता की समस्या 

दूरस्य शिक्षा में अध्येता को शिक्षा विद्यालय से दूर रहकर अपने घर पर ही दी जाती है। और अध्येता अपनी रूचि के पाठ्यक्रम चयन कर स्वगति से अध्ययन करने हेतु स्वतंत्र होता है। इसके अतिरिक्त अपनी घरेलू जिम्मेदारी के साथ सामाजिक प्रतिबद्धतायें होती है। अत: वह अकेलेपन को झेलने को मजबूर होते है। पृथकता की समस्या दो प्रकार की होती है :-

1. अपने अन्य सहपाठियों से पृथकता- दूर अध्येता अपने नियमित कक्षाओं के अभाव के कारण अपने सहपाठियों से दूर रहते है इससे उसे अभिप्रेरण, प्रतियोगिता अपने सहपाठियों से सहयोग नही मिल पाता। मिलजुलकर सीखने के लाभ से भी वे वंचित रह जाते है और उनकी अपनी शैक्षिक समस्याओं को लेकर अकेले पड़ जाते है। 

2. अध्यापकों से पृथकता - दूर शिक्षा की एक प्रमुख विशेषता अध्यापक एवं अध्येता के मध्य दूरी है। नियमित शिक्षा का यह घनात्मक पक्ष है जबकि मुक्त एवं दूर शिक्षा में इस कमी को दूर करने हेतु परामर्श कक्षाओं का आयोजन एवं दत्त कार्य प्रदान किये जाते है, जिससे कि अल्प काल के लिए ही अध्येता एवं अध्यापक के मध्य द्विमार्गी सम्प्रेषण हो सकें। इसके अतिरिक्त यह भी प्रयास किया जाता है कि स्वशिक्षण सामाग्री की संरचना सुस्पष्ट, विचारपूर्ण तथा उद्देश्यपरक हो। 

शिक्षक दत्त कार्यों एवं परियोजना कार्य में उपयुक्त टिप्पणी देकर द्विमार्गी सम्प्रेषण को जन्म देता है। शिक्षा का एक बहुत बड़ा उद्देश्य व्यिक्त्व का सम्पूर्ण निर्माण है जो कि बिना अध्यापक के कठिन होता है।
  • अध्यापक से दूरी अध्येता की नियमित समस्याओं को भयावह बना देती है।
  • अध्यापक से दूर रहने से अध्येता अपने अध्ययन की समस्याओं को सुलझाने में असमर्थता का अनुभव करता है।
  • अध्येता को तत्काल प्रतिपुष्टि व प्रेरणा नही मिल पाती है। 

6. स्वशिक्षण सामाग्री के गुणात्मकता की समस्या 

मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था पूर्णतया स्व शिक्षण सामाग्री के उत्पादकता एवं गुणात्मकता पर निर्भर करती है। स्व शिक्षण सामाग्री ही मुक्त एवं दूर शिक्षा का जीवंत पक्ष है। यह दूर शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों के लिए सहयोग के रूप में प्रदान की जाती है। यह व्यवस्यात्मक एवं बोधगम्य होती है तथा सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु को अपने मे समेटे रहती है। परन्तु अधिकांशत: अध्ययनों से यह निकल कर आया है कि स्वशिक्षण समाग्री सम्पूर्ण मानकों को पूरा नही करती है यह भी अध्ययन के परिणाम रहे कि अधिकतर स्वशिक्षण सामाग्री को भाषा क्लिष्ट हो जाती है या स्थानीय आवश्यकता को देखकर भाषा माध्यम नही चुना गया। इसके भाषा में अनुवाद करने पर विषय सामाग्री की बोधगम्यता, सरसता एवं रोचकता समाप्त हो गयी।
  1. इसके अतिरिक्त अधिकाशत: स्वशिक्षण सामाग्री दूर अध्येता को समय पर नही मिलती है। 
  2. स्वशिक्षण सामाग्री कभी-कभी तैयार भी नही रहती है और पाठ्यक्र को संचालित करने का फैसला ले लिया जाता है और दूर अध्येता दूरे सत्र पाठ्यवस्तु का अभाव झेलते रहते है। 

7. छात्र सहयोग सेवाओं से सम्बन्धित समस्यायें 

मुक्त एवं दूर शिक्षा व्यवस्था अध्येताओं को अनेक सहयोग सेवायें प्रदान करती है जिसमें कि सम्पर्क कार्यक्रमों का आयोजन सूचना सेवायें इत्यादि है। परन्तु अधिकांशत: यह देखा जाता है कि सम्पर्क कार्यक्रमों के आयोजन मे पूर्ण गुणात्मकता एवं उपयोगिता प्रदर्शित नही हो पाती है। सम्पर्क कार्यक्रमों के आयोजन के लिए अध् येताओं की सुविधा एवं ध्यान केन्द्रित किया जाता है परन्तु दूर अध्यापकों की सुविधायें उपेक्षित है और दोनों की सुविधा को देखकर सम्पर्क कार्यक्रमों का अयोजन एक दुरूह कार्य बन जाता है।
  1. सम्पर्क कार्यक्रम अधिकांशत: कक्षा शिक्षण का स्वरूप ले लेते है। क्योंकि अध् यापक एव अध्येता दोनों ही सम्पर्क कार्यक्रमों के स्वरूप से अनभिज्ञ रह जाते हैं। 
  2. सम्पर्क कार्यक्रम के लिए दूर अध्येता पहले से तैयार होकर समस्या लेकर नही आते हैं वे निर्धारित अवधि में ही सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु को केवल अध्यापक से शिक्षण कर देने की आशा करते है।
  3. दूर अध्यापक को दूर अध्येता की इस प्रवृत्ति से दबाव में आकर सम्पूर्ण विषय सामाग्री का शिक्षण करना पड़ता है।
  4. दूर अध्यापकों मे प्राय: सम्पर्क कक्षाओं के लिए उदासीनता प्रदर्शित होती है क्योंकि नियमित सम्पर्क न होने के कारण दूर अध्येताओं से नियमित विद्यार्थियों की तरह लगाव नहीं हो पाता है। 
  5. अधिकांशत: सम्पर्क कक्षाओं के आयोजन में पूर्व स्वशिक्षण सामाग्री प्रेषित नही की जाती है। स्वशिक्षण सामाग्री के अभाव में अध्यापक एवं अध्येता दोनों ही सम्पर्क कक्षाओं के उद्देश्यों को पूरा नही कर पाते हैं। 
  6. दूर अध्येता सम्पर्क कक्षाओं का पूरा लाभ लेने मे उदासिनता प्रदर्शित करते है जिससे कि इसका प्रभाव उनके दत्त कार्य परियोजना कार्य एवं अन्य व्यावहारिक एवं प्रायोगिक कार्यों में परिलक्षित होता है। 

8. जनसंचार माध्यमों की सुविधा से सम्बन्धित समस्यायें 

सम्पूर्ण दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ जनसंचार माध्यम एवं सूचना प्रौद्योगिकी है। इसकी सबसे बड़ी दुविधा यह है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या अभी सभी संचार माध्यमों के उचित प्रयोग से अनभिज्ञ है। ग्रामीण क्षेत्रों में टी0वी0, कम्प्यूटर जैसे माध्यमों की भी कमी है। और अधिकतर अध्येता कम्प्यूटर एवं इण्टरनेट का उपयोग करना नही जानते है। इसीलिए वे जनसंचार माध्यमों से उचित रूप में लभान्वित नही होते है। जनसंचार माध्यमों के प्रयोग की प्रवश्त्ति का अभाव भी इसका एक प्रमुख कारण है।

9. पूर्णकालिक संकाय की नियुक्ति न होने से समस्या 

दूर शिक्षा व्यवस्था का विकेन्द्रीकश्त संगठन पूर्णतया दूर दराज में स्थित क्षेत्रीय केन्द्रों व अध्ययन केन्द्रो पर ही निर्भर है। परन्तु इन स्थानों में अधिकांशत: पूणकालिक संकायों की नियुक्ति नही की गयी है। अध्ययन केन्द्रों को अत्याधिक कार्य दबाव को झेलना पड़ता है। अधिकांश शिक्षक, तश्तीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अंशकालिक है जबकि अध्ययन केन्द्रों पर कागजी कार्य सूचना प्रेषण, सम्पर्क कार्यक्रम, परीक्षा संचालन, दत्तकार्यों को जंचवाने, कार्यशालाओं के आयोजन आदि का गुरूतर दायित्व रहता है। जिसके कारण काफी कम मानदेय पर काफी अधिक श्रम करना पड़ता है इसका एक कारण यह है कि बड़े केन्द्रों पर निर्धारित मानक से अधिक मानव श्रम नही रखा जाता है। बड़े अध्ययन केन्द्र हमेशा दबाव झेलते है और इससे अन्य सभी सम्बन्धित कार्यों की गुणावत्ता प्रभावित होती है।

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