निदेशात्मक परामर्श की विशेषताएं, लाभ, सोपान

निदेशात्मक परामर्श विधि में परामर्शदाता की अहम भूमिका होती है, तथा प्रार्थी गौण रूप से इसमें सम्मिलित होता है। परामर्शदाता अपने विभिन्न अनुभवों तथा कौशलों की सहायता से प्रार्थी की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करता है। नेडरिक थार्न के अनुसार, परामर्शदाता की यह प्रयास प्रार्थी के व्यक्तिगत विभवों के व्युत्व्मानुपाती होता है। परामर्शदाता इस विधि में अधिकाधिक प्रयास द्वारा प्रार्थी की समस्याओं का निदान करने का प्रयास करता है।

निदेशात्मक परामर्श के सोपान

निदेशात्मक परामर्श की विधि परम्परागत एवं अत्यंत प्रचलित है। विलियमसन ने निदेशात्मक उपबोधन के छ: सोपान दिए हैं -

1. विश्लेषण : विश्लेषण के अन्तर्गत उपबोमय के बारे में सही जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक पेतों द्वारा आधार-सामग्री एकत्रित की जाती है। 

2. संश्लेषण : द्वितीय सोपान में, संकलित आधार सामग्रियों को व्मब(, व्यवस्थित एवं संक्षेप में प्रस्तुत किया जाता है। जिससे सेवार्थी के गुणों, न्यूनताओं समायोजन एवं समायोजन की स्थितियों का पता लगाया जा सके। 

3. निदान : निदान के अन्तर्गत सेवार्थी द्वारा अभिव्यक्ति समस्या के कारण तत्वों तथा उनकी प्रकृति के बारे में निष्कर्ष निकाले जाते हैं। 

4. पूर्व अनुमान : इसमें छात्रों की समस्या के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जाती है। 

5. परामर्श : पंचम सोपान में, परामर्शदाता सेवार्थी के समायोजन तथा पुन: समायोजन के बारे में वांछनीय प्रयास करता है। 

6. अनुगामी : इसमें उपबोमय की नयी समस्याओं के पुन: घटित होने की सम्भावनाओं से निपटने में सहायता की जाती है और सेवार्थी को प्रदान किए गए परामर्श की प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया जाता है। निदेशात्मक परामर्श की विधि परम्परागत एवं अत्यंत प्रचलित है।

निदेशात्मक परामर्श की विशेषताएं

  1. परामर्शदाता का कर्तव्य, अपने निदान के अनुरूप निर्णय लेने में उपबोमय की सहायता करना होता है।
  2. परामर्शदाता प्रार्थी को आवश्यक सूचनाओं से परिचित कराता है, सेवार्थी की परिस्थिति, वस्तुनिष्ठ वर्णन व अर्थापन करता है तथा उसे विवेकयुक्त उपबोधन प्रदान करता है।
  3. निदेशात्मक परामर्श में, सेवार्थी के बौण्कि पक्ष पर बल दिया जाता है। 
  4. इस प्रकार के उपबोमय के अन्तर्गत, सेवार्थी की उपेक्षा उसकी ‘समस्या’ पर अधिक मयान दिया जाता है। जिससे सम्पूर्ण परिस्थिति एवं उसमें उत्पन्न समस्याओं को जाना जा सके। 
  5. इसके अन्तर्गत, परामर्शदाता के निर्देशन के अनुसार ही उपबोमय को कार्य करना होता है। इस दृष्टि से परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया में सेवार्थी का सहयोग आवश्यक हो जाता है। 
  6. निदेशात्मक परामर्श में, परामर्श प्रदान करने हेतु प्रत्यक्ष, व्याख्यात्मक तथा समझाने-बुझाने की ओर प्रवृन करने वाली विधियों का उपयोग किया जाता है। इस धारणा के अन्तर्गत परामर्शदाता को वैयक्तिक एवं वस्तुनिष्ठ, दोनो प्रकार की विधियों के ममय के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
निदेशात्मक परामर्श में, परामर्श प्रदान करने हेतु प्रत्यक्ष, व्याख्यात्मक तथा समझाने-बुझाने की ओर प्रवृत्त करने वाली विधियों का उपयोग किया जाता है।

निदेशात्मक परामर्श के लाभ

  1. यह विधि समय की बचत करती है। यह समय की दृष्टि से एक लाभप्रद विधि है।
  2. इस विधि का मुख्य केन्द्र समस्या तथा व्यक्ति होता है। 
  3. इसमें परामर्शदाता प्रार्थी को प्रत्यक्ष रूप से देखता है। 
  4. इस विधि में भावनात्मक पहलुओं से अधिक बौद्धिक पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। 
  5. इस विधि में परामर्शदाता सहायता के लिए तत्पर रहता है। जिससे प्रार्थी को आराम का अनुभव होता है।

निदेशात्मक परामर्श की सीमायें

कार्ल रोजर्स का यह कहना है कि निदेशात्मक परामर्श की प्रक्रिया के अन्तर्गत उपबोमय से अलग व्यक्ति द्वारा समस्या का निदान करने, समस्या के बारे में सुझाव देने और सेवार्थी की परिस्थिति का वर्णन करने का परिणाम यह होता है कि यह अनावश्यक रूप से, दूसरे व्यक्ति पर निर्भर रहने की प्रवृनि को प्रदर्शित करने लगता है, तथा स्वयं की समायोजन की समस्याओं का समाधान करने में वह आत्म विश्वास का अभाव अनुभव करता है। निदेशात्मक परामर्श में पूर्व अनुमान से क्या समझते हो?

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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