निर्देशन के उद्देश्य और सिद्धांत

निर्देशन ऐसी विकास की प्रकिया है जिसके आधार पर इन समस्याओं के समाधान की क्षमता का विकास प्रत्येक व्यक्ति में किया जा सकता है। समस्याओं के विविध पक्षों, कारणों, परिणामों, परिस्थितियों आदि से व्यक्ति को अवगत कराने के साथ ही, इसके आधार पर उन वैयक्तिक एवं सामाजिक विशेषताओं का भी विकास किया जा सकता है जिनके आधार पर किसी भी समस्या का समाधान स्वयं किया जा सकता है। यही कारण है कि इस प्रकिया को स्व-निर्देशन में दक्ष करने की प्रकिया के रूप में जाना जाता है।

निर्देशन के उद्देश्य

इसके आधार पर व्यक्ति को इस प्रकार सहायता प्रदान की जाती है जिससे वह अपनी विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु स्वयं निर्णय ले सके तथा अपने जीवन से सम्बन्धित विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति सफलतापूर्वक कर सके। चाश्शेम के शब्दों में भी निर्देशन का उद्देश्य उन सजीव तथा कियात्मक निहित शक्तियों का विकास करना है जिनकी सहायता से वह अपने जीवन की समस्याओं को सुगमता एवं सरलतापूर्वक हल करने के योग्य बन जाए।,

निर्देशन की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होती है। इसी कारण निर्देशन के अनेक उद्धेश्य होते हैं। परन्तु फिर भी निर्देशन का एक ही महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है और वह उद्देश्य है जीवन से सम्बन्धित विविध परिस्थितियों के समुचित चयन, विश्लेषण एवं समायोजन हेतु इस प्रकार सहायता प्रदान करना जिससे वह इन समस्याओं का समाधान करने में स्वयं सक्षम हो सके। फिर भी व्यक्ति एवं समाज से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए निर्देशन के उद्देश्य निर्धारित किये जा सकते हैं-

1. वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रगति से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के योग्य बनाना - निर्देशन के अन्तर्गत, निर्देशन प्रदान करने वाले व्यक्ति के द्वारा किसी भी व्यक्ति से सम्बन्धित समस्या का समाधान स्वयं नहीं किया जाता है वरन् समस्या से सम्बन्धित व्यक्ति को ही इस योग्य बनाया जाता है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान कर सके। इस उद्धेश्य की पूर्ति के लिए निर्देशन के द्वारा व्यक्ति में निहित योग्यताओं एवं क्षमताओं की जानकारी प्राप्त की जाती है और व्यक्ति को इन विशेषताओं से परिचित कराया जाता है। 

इस विषय के आधार पर ही वह अपने विकास की प्रकिया , उपलब्ध अवसरों तथा समाज की विभिन्न परिस्थितियों को पहचानना सीखता है। यह पहचान ही व्यक्ति को इस योग्य बनाती है कि व्यक्ति अपने विकास पथ पर निरन्तर अग्रसरित होते हुए समाज में समायोजन कर सके तथा समाज की प्रगति हेतु भी अपना योगदान दे सके। अत: संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि निर्देशन का उद्देश्य आत्म-प्रदर्शन हेतु व्यक्ति को सक्षम बनाना है। ‘आत्म दीपौ भव’ की शाश्वत विचारधारा को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करके यह व्यक्ति को अपना पथ स्वयं ही प्रशस्त करने में सहायता प्रदान करता है। 

वेर्दे व वे के अनुसार भी निर्देशन का लक्ष्य दिशा देना नहीं है, अपनी विचारधाराओं को दूसरे पर आरोपित करना भी नहीं है, यह उन निर्णयों का जिन्हें एक व्यक्ति को अपने लिए निश्चित करना चाहिए, निश्चित करना नहीं है, यह दूसरे के दायित्व को अपने । पर लेना भी नहीं है, वरन निर्देशन तो वह सहायता है जिसमें व्यक्ति अपने जीवन का पथ स्वयं प्रशस्त करता है, अपनी विचारधारा का विकास करता है, अपने निर्णय निश्चित करता है तथा अपना दायित्व सम्भालता है।,

2. वातावरण से समुचित समायोजन हेतु सहायता - समायोजन का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्व होता है। इसके अभाव में किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की प्रगति सम्भव नहीं है। कोई व्यक्ति समाज में समायोजित हो सके, इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को अपनी रुचि, योग्यता एवं अभियोग्यता के अनुरूप अवसर प्राप्त हो। वह समाज की आवश्यकता एवं परिस्थितियों को पहचान सके तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को समायोजित कर सके। वर्तमान समाज की परिवर्तित परिस्थितियों में इस प्रकार के समायोजन की और भी अधिक आवश्यकता है। 

आज के युग की परिस्थितियां पहले की अपेक्षाकृत अधिक विषम हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्षरत होकर ही आज प्रगति की जा सकती है। उदाहरण के लिए व्यावसायिक क्षेत्र में उपलब्ध अवसर आज जनसंख्या के अनुपात में कम है। विभिन्न व्यवसायों के लिए जो स्थान विज्ञापित किये भी जाते हैं उन पदों पर चयन हेतु, अभ्यर्थियों की एक विशाल संख्या आवेदन भेजती है तथा सन्तोषप्रद साक्षात्कार अथवा लिखित परीक्षा देने के उपरान्त भी यह आवश्यक नहीं होता कि योग्य व्यक्तियों का चयन किया ही जायेगा। इस प्रकार की अनिश्चितता, अपूर्णता एवं असंगतता की स्थिति में व्यक्ति का निराश एवं हताश होना स्वाभाविक है। 

यह परिस्थिति ही अनेक प्रकार के असामाजिक व्यवहारों को जन्म देती है जिसके फलस्वरूप न केवल व्यक्ति की क्षमताओं का हास होता है, वरन् पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश भी तनाव ग्रस्त हो जाता है। योग्यता होते हुए भी अवसर प्राप्त न हो पाना अथवा योग्यता के प्रतिकूल अवसर की प्राप्ति करना, दोनों की प्रकार की स्थितियां व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के लिए दुखदायी होता है। जो व्यक्ति सामान सम्पन्न होते हैं, अवसर की प्राप्ति जिनकी तात्कालिक आवश्यकता नहीं होती, जिनका परिवेश, योग्यताए एवं आकांक्षाएं अधिक उच्च स्तर की नहीं होती अथवा जिनकी वैयक्तिक एवं पारिवारिक आवश्यकताएं न्यूनतम होती हैं वे इस प्रकार की समस्याओं के समायोजन करने में सक्षम हो जाते हैं लेकिन वे व्यक्ति जो वास्तव में योग्य होते हैं, व्यावसायिक अवसर जिनकी ज्वलन्त आवश्यकता होती है उनके लिए इन विषम परिस्थितियों से समायोजन कर पाना अत्यन्त कठिन होता है। हमारे देश अनेक प्रतिभा सम्पन्न इन विषम परिस्थितियों के कारण सदैव के लिए कुण्ठाग्रस्त होकर रह जाते हैं। अथवा छोटे-छोटे व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों में अल्प वेतन पर अपना शोषण कराने के लिए विवश होते रहते हैं। 

इस प्रकार के व्यक्तियों का भावात्मक सन्तुलन बनाए रखने की विशेष आवश्यकता होती है। निर्देशन के आधार पर छात्रों को उनकी योग्यता के अनुरूप अवसरों को उपलब्ध कराने में सहायता प्रदान की जाती है तथा उनकी विद्यालय सम्बन्धी समस्याओं के सन्दर्भ में वांछित सुझाव दिये जाते हैं। 

व्यावसायिक क्षेत्र में व्यक्ति की रुचि, अभिरुचि आदि के अनुरूप अवसरों के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान की जाती है तथा समाज की विषम परिस्थितियों से मौर्यपूर्वक सामंजस्य करने हेतु भी सहायता प्रदान की जाती है।

3. योग्यतानुसार शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों की जानकारी प्रदान करना - प्रत्येक बालक कुछ विशिष्ट वंशानुगत विशेषताओं को लेकर जन्म लेता है तथा जन्म के उपरान्त अपने सामाजिक परिवेश से भी अनेक प्रकार की बौण्कि, संवेगात्मक एवं गतिशील विशेषताओं को भी अर्जित करता है। व्यक्ति का समस्त व्यक्तित्व इन विशेषताओं का ही परिणाम होता है। व्यक्ति के विकास की गति को तीव्र करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसमें निहित विशेषताओं का समुचित अध्ययन किया जाये तथा उसमें निहित योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों, अभिरुचियों एवं अभिवृनियों के अनुरूप दिशा में ही उसे प्रेरित किया जाए यह अनुरूपता अथवा अवसर एवं योग्यता के मध्य उचित सामंजस्य ही व्यक्ति एवं समाज की प्रगति का आधार होता है। 

प्रगतिशील देशों की प्रगति का यही प्रमुख रहस्य है, जिस देश में मानवीय प्रतिभा एवं क्षमता का समयानुकूल एवं पर्याप्त उपयोग करने की दिशा में सर्वाधिक मयान दिया जाता है वही देश प्रगति की दौड़ में सबसे आगे होता है। अत: प्रगति के लिए वह आवश्यक है कि शिक्षा, व्यवसाय, उद्योग एवं समाज की आवश्यकताओं तथा व्यक्ति में निहित योग्यताओं एवं क्षमताओं के मध्य सन्तुलन स्थापित किया जाए। हमारे देश में माध्यमिक स्तर तक शिक्षा अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या की पृष्ठभूमि में निहित एक कारण यह भी है कि शिक्षा प्रदान करते समय छात्रों की वैयक्तिक भिन्नता का मयान नहीं रखा जाता है। 

परिणामत: छात्रों की क्षमता का अपव्यय होता है और वे वांछित शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। विशेषकर हाईस्कूल स्तर पर छात्रों के पाठ्यक्रम का चयन अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। निर्देशन के माध्यम से छात्रों को यह ज्ञात हो सकता है कि वे किस वर्ग से सम्बन्धित पाठ्यक्रम का चयन करें। इसके साथ ही सीखने की वांछित विधियों तथा विद्यालय वातावरण से समायोजन करने की समस्याओं के समाधान हेतु भी निर्देशन सहायक हो सकता है। 

इसी प्रकार अग्रिम शिक्षा से लाभान्वित होने तथा अभिरुचि के अनुकूल व्यवसाय का चयन करने में भी, निर्देशन सेवाओं का प्रभावी उपयोग किया जा सकता है।

4.व्यक्ति में निहित योग्यताओं एवं शक्तियों से परिचित कराना - वैयक्तिक विभिन्नताओं के सिधान्त के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति, किसी न किसी दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न होता है। शारीरिक रचना के आधार पर विभिन्न प्रकार की वैयक्तिक विभिन्नताए प्रतिदिन देखते हैं। इसी प्रकार अनेक प्रमाणीक्रत मनोवैज्ञानिक परीक्षाओं के आधार पर यह भी सिद्ध हो चुका है कि मानसिक एवं संवेगात्मक दृष्टि से भी प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की विभिन्नता पाई जाती है, यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति की जीवन शैली अथवा उसका व्यवहार एक दूसरे से भिन्न होता है। व्यक्ति की रुचि, वृद्धि एवं व्यक्तित्व से सम्बन्धित अनेक कारण उसके इस व्यवहार की पृष्ठभूमि में निहित होते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह स्वाभाविक ही है कि जब तक किसी व्यक्ति को स्वयं में निहित शक्तियों का स्पष्ट ज्ञान न हो वह प्रगति नहीं कर सकता है। 

विद्यालयी जीवन में, छात्रों को यह जानकारी प्राप्त होनी चाहिए कि वे अपने पाठ्यक्रम अथवा विषय से सम्बन्धित समस्याओं के सम्बन्ध में किस प्रकार निर्णय लें, प्रदन ज्ञान को ग्रहण करने हेतु अपनी बुद्धि का उपयोग किस प्रकार करें तथा कम से कम समय में अधिक से अधिक स्थायी ज्ञान किस प्रकार प्राप्त करें। इस प्रकार की जानकारी के आधार पर उन्हें यह ज्ञात हो सकता है कि अपनी शैक्षिक समस्याओं के सन्दर्भ में निर्णय ले पाने की कितनी क्षमता, उनमें विद्यमान है तथा अपनी बुद्धि से सम्बन्धित किन-किन विशिष्ट योग्यताओं अथवा शक्तियों का प्रयोग वे सफलतापूर्वक कर सकते हैं। इन योग्यताओं एवं क्षमताओं की जानकारी उपयुक्त विषयों का चयन करने, समुचित रीति से अध्ययन करने तथा सहज अधिगम के आधार पर वांछित शैक्षिक सम्बोधित करने में सहायक होती है। संगत व्यवसाय के चयन एवं उस व्यवसाय में निपुणता प्राप्त करने की दृष्टि से भी उसी प्रकार की जानकारी उपेक्षित होती है। व्यक्ति में निहित योग्यताओं, क्षमताओं, कौशलों आदि से सम्बद्ध इन विशेषताओं से परिचित करने हेतु निर्देशन सेवाओं की भूमिका को विशेष महत्व प्रदान दिया जाता है। 

यह निर्देशन का प्रमुख उद्धेश्य स्वीकार किया गया है। निर्देशन सन्दर्भ में यूनाइटेट स्टेट्स ऑपिस ऑफ एजूकेशन ने लिखा है-’निर्देशन एक ऐसी कियात्मक पद्धति है जो व्यक्ति का परिचय विभिन्न उपयोगों से ;जिनमें विशेष प्रशिक्षण भी सम्मिलित है तथा जिसके माध्यम से व्यक्ति की प्राकतिक शक्तियों का बोध भी कराती हैं, जिससे वह अधिकतम वैयक्तिक एवं सामाजिक हित एवं विकास कर सकेद्ध कराती है।

5. निहित विशेषताओं के विकास में सहायता प्रदान करना - निर्देशन के माध्यम से व्यक्ति में निहित विशेषताओं का परिचय ही सम्भव नहीं है वरन इन विशेषताओं का विकास करने में भी यह प्रकिया सहायक होती है। उदाहरण के लिए शिक्षा के क्षेत्र में, बालकों को यह जानकारी प्रदान की जा सकती है कि शरीर की विभिन्न प्रणालिया किस प्रकार कार्य करती हैं, इन प्रणालियों में उत्पन्न होने वाले अवरोध कौन-कौन से हैं तथा व्यायाम एवं पौष्टिक भोजन के द्वारा इन अवरोधों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है। 

इस प्रकार की जानकारी शरीर की उचित देखभाल करने में सहायक होती है। इसी प्रकार अभिव्यक्ति के वांछित अवसर प्राप्त करने, सृजनात्मक कार्यो के प्रति रूचि जाग्रत करने, अनुवासनात्मक भावना का विकास करने, संवेगात्मक सन्तुलन को बनाए रखने तथा छात्रों को अपने विचारों, भावनाओं, अभिवृनियों को प्रकट करने का अवसर एवं उन्हें प्रकट करने की नीतियों के सम्बन्ध में भी निर्देशन सहायक है। इसी प्रकार व्यवसायिक निर्देशन के क्षेत्र में व्यक्ति को इस योग्य बनाया जा सकता है कि वह अपने व्यवसाय से सम्बन्धित विभिन्न सूचनाओं को एकत्रित कर सके तथा व्यवसाय में प्रगति के लिए आवश्यक योग्यताओं, क्षमताओं एवं कौशलों का विकास कर सके। 

इसी प्रकार अवकाश के समय का सदुपयोग करने, पारिवारिक, व्यावसायिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करने तथा यौन, प्रेम, मार्म आदि से सम्बन्धित समुचित दृष्टिकोण का विकास करने में भी निर्देशन का उपयोग किया जाता है। संक्षेप में निर्देशन एक ऐसी प्रकिया है जिसके आधार पर वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन से सम्बन्धित प्राय: समस्त पक्षों का विकास किया जा सकता है मानवीय विकास के इस उद्देश्य की दिशा में अपेक्षित मयान देने पर ही यह सम्भव हो पाता है कि व्यक्ति, वैयक्तिक एवं सामाजिक लक्ष्यों एवं उद्धेश्यों की दिशा में तीव्र गति से अग्रसरित हो सके। 

टेंक्सलर ने इस सम्बन्ध में उचित ही लिखा है कि निर्देशन का उद्धेश्य प्रत्येक छात्र को इस प्रकार सहायता प्रदान करता है कि वह अपनी क्षमता एवं शक्तियों का विकास करते हुए उनका सम्बन्ध जीवन मूल्यों एवं जीवन के उद्धेश्यों से स्थापित कर सके और अन्त में छात्रों को इस योग्य बना सके कि वह अपना पथ-प्रदर्शन स्वयं कर सवेंफ। इस प्रकार निर्देशन एक सोपेश्यपूर्ण प्रकिया है। यह निहित शक्तियों की जानकारी प्रदान करके व्यक्ति के अखिल विकास में सहायक होता है। विकास एवं प्रगति में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान अथवा प्रतिकूल दशाओं में समायोजन की क्षमता उत्पन्न करने की दृष्टि से निर्देशन के अन्तर्गत अनेक प्रभावपूर्ण कार्यव्मों के संचालन की व्यवस्था की जाती है। 

यह एक ऐसी महत्वपूर्ण प्रकिया है जिसका मानव जीवन में सर्वाधिक महत्व है। इसका कारण यह है कि यदि व्यक्ति अपनी समस्याओं के समाधान में ही सक्षम न हो सके तो यह सम्भव नहीं है कि वह सतत रूप से प्रगति पथ पर अग्रसरित हो सके।
मनोवैज्ञानिकों के अथक प्रयासों के उपरान्त विकसित परीक्षणों का उपयोग व्यक्ति में निहित मानसिक एवं संवेगात्मक विशेषताओं की वस्तुनिष्ठ जानकारी प्राप्त करने तथा व्यक्ति के विकास की दिशा एवं गति का निर्धारण करने में किया जा सकता है।

निर्देशन के सिद्धांत

निर्देशन के अधिनियम से आशय उन मूलभूत नियमों से है, जिनके आधार पर निर्देशन की प्रकिया का संचालन किया जाता है। इन सिधान्तों का विस्तार से उल्लेख करने से पूर्व यह आवश्यक है कि वे एण्ड वे द्वारा प्रस्तुत उन चौदह अधिनियमों का उल्लेख कर दिया जाय जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘एन इन्टांेडक्शन टू गाइडेन्स’ में प्रस्तुत किये हैं। इन अधिनियमों का उल्लेख है।
  1. व्यक्ति के सम्बन्ध में सही जानकारी प्राप्त करने के लिये, व्यक्ति का मूल्यांकन अथवा अनुसंधान पर आधारित कार्यव्मों का संचालन किया जाना चाहिये तथा निर्देशन के कियान्वयन के लिये, निर्देशन प्रदान करने वाले व्यक्तियों को उन संचयी अभिलेखों को उपलब्ध कराया जाना चाहिये जो छात्रों की प्रगति एवं सम्बोधित का सम्पूर्ण विवरण प्रदान करने में सहायक हो। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि सही प्रकार से चयनित मानकीक्रत परीक्षणों एवं मूल्यांकन के अन्य उपकरणों के माध्यम से छात्रों की सम्बोधित, रूचियों एवं मानसिक योग्यताओं के सम्बन्ध में संकलित किये गये विशिष्ट प्रकार के प्रदनों का आलेख रखा जाना चाहिये तथा निर्देशन के लिये उनका उपयुक्त उपयोग भी करना चाहिये।
  2. विद्यालय से सम्बन्धित निर्देशन कार्यव्मों का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाना चाहिये, इन कार्यव्मों की सफलता ऐसे परिणामों के आधार पर ज्ञात की जानी चाहिये जो निर्देशन कार्य से सम्बद्ध निर्देशकों तथा निर्देशित व्यक्तियों में कार्यव्म के सम्बन्ध में प्रदर्शित दृष्टिकोण के माध्यम से प्रकट होती है। तथा जिनके आधार पर यह भी भली-भाति ज्ञात हो जाता है कि जिन व्यक्तियों को निर्देशन के आधार पर सहायता उपलब्ध कराई गई है, उनके व्यवहार में क्या परिवर्तन हुए हैं। 
  3. निर्देशन से सम्बन्धित विशिष्ट समस्याओं के समाधान का उनरदायित्व उन्हीं व्यक्तियों को सौंपा जाना चाहिये जो उन विशिष्ट समस्याओं के समाधान अथवा समायोजन की प्रकिया को संचालित करने में अपेक्षाकृत अधिक दक्ष हों। 
  4. यह आवश्यक है कि शिक्षकों एवं प्रधानामयापकों को भी निर्देशन सम्बन्धी उनरदायित्व सौंपे जाए, जिससे वे भी निर्देशन कार्यो में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सके। 
  5. निर्देशन स्वत: ही संचरित होने वाली ऐसी प्रकिया के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये जो बाल्यावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक उपलब्ध रहती है।
  6. निर्देशन सेवा का लाभ मात्र उस व्यक्ति तक सीमित नहीं रहना चाहिये जो स्पष्ट अथवा अप्रत्यक्ष रूप में इसकी आवश्यकता प्रकट करते हैं, वरन् यह उन व्यक्तियों के लिये भी उपलब्ध रहनी चाहिये जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उससे लाभान्वित हो सकते हैं। 
  7. पाठ्यक्रम की सामग्रियों एवं शिक्षण पद्धतियों में निर्देशन का दृष्टिकोण परिलक्षित होना चाहिये।
  8. वैयक्तिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के सन्दर्भ में निर्देशन का कार्यव्म, लचीला होना आवश्यक है। 
  9. निर्देशन का सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष से होता है। इसके अन्तर्गत, अधिकांशत: उन क्षेत्रों में सम्मिलित किया जाता है, जिनके अन्तर्गत व्यक्ति के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य, उसके परिवार, विद्यालय, व्यवसायिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं अथवा मागों तथा सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। साथ ही निर्देशन के अन्तर्गत यह भी अध्ययन किया जाता है कि इन क्षेत्रों में उत्पन्न परिस्थितियों का व्यक्ति के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होता है? 
  10. व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष का विशेष महन्व होता है। यह आवश्यक है कि वे निर्देशन सेवाए जिनका लक्ष्य किसी विशिष्ट अनुभव क्षेत्र में सामंजस्य स्थापित करना है, व्यक्ति के सर्वागीण विकास को ही प्राथमिकता प्रदान करे। 
  11. वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवेश में विभिन्न प्रकार की विषमताओं के परिणामस्वरूप अनेक असामंजस्यपूर्ण परिस्थितिया उत्पन्न हो रही हैं। इनके समाधान के लिये यह आवश्यक है कि अनुभवी एवं प्रशिक्षित निदेशक व परामर्शदाता तथा समस्याओं से सम्बन्धित व्यक्तियों के मध्य सहयोग स्थापित हो।
  12. यद्यपि सभी मनुष्यों में अनेक प्रकार की समानताए दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु फिर भी बालकों, किशोरों एवं प्रौढ़ों की पहचान तथा निर्देशन के माध्यम से उनको वांछित सहायता प्रदान करना आवश्यक है। 
  13. निर्देशन का कार्य व्यक्ति को प्रेरक, उपयोगी व उद्धेश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान करना तथा उन उद्धेश्यों की वैयक्तिक दृष्टि से कियान्वित करना है। निर्देशन का उनरदायित्व ऐसे सुयोग्य एवं सुप्रशिक्षित अमयक्ष पर होना चाहिये, जो अपना कार्य निर्देशन प्रदाताओं, निर्देशन प्राप्तकर्ताओं व निर्देशन से सम्बन्धित अभिकरणों के पूर्ण सहयोग से सम्पन्न कर सके।
निर्देशन के क्षेत्र में वे एण्ड वे को पर्याप्त मान्यता है। इसी कारण यहा उन सिधान्तों का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त लीपिफवर एवं टेलेस, जोन्स टेंक्सलर आदि के द्वारा भी निर्देशन के सिधान्तों को प्रस्तुत किया गया है। 

उपरोक्त समस्त विद्वानों द्वारा प्रस्तुत सिधान्तों के अन्तर्गत कुछ सिधान्त ऐसे भी हैं जिनको अधिकांश विद्वानों के द्वारा स्वीकार किया गया है। उन सिधान्तों का उल्लेख करना आवश्यक है। इसके अनुसार निर्देशन के अधिनियम हैं-

1. निर्देशन प्रदन वस्तुनिष्ठ विश्लेषण पर आधारित होना आवश्यक है - प्राय: निर्देशन के अन्तर्गत, प्रदनों के संकलन एवं उनके विश्लेषण पर आधारित निष्कर्षो को ही अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। समस्या के सही समाधान के लिए प्रदनों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया जाना आवश्यक भी है, इसके अभाव में निर्देशित प्रकिया का प्रयोग किया जाना पूर्णतया निरर्थक भी है। प्रदनों के विश्लेषण में व्यक्तिनिष्ठता के समावेश का आशय यह है कि निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति के हितों की उपेक्षा की जा रही है। अत: यह आवश्यक है कि निर्देशन प्रदान करने वाले व्यक्ति को प्रदनों के समुचित संकलन करने की जानकारी प्राप्त हो तथा उन प्रदनों के विश्लेषण करने की वस्तुनिष्ठ विधियों में भी वह भली-भाति परिचित हो।

2. निर्देशन कार्यकर्ताओं के लिये नैतिक आचार संहिता की आवश्यकता - कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या को किसी के भी समक्ष प्रस्तुत करने से पहले यह अपेक्षा करता है कि वह जिसके भी समक्ष अपनी बात कहे, वह व्यक्ति उसकी बात को प्रचार करने के स्थान पर उसकी गोपनीयता को बनाए रखे। प्राय: इस विश्वास के अभाव में ही समयाग्रस्त व्यक्ति अपनी समस्या के समाधान के लिए किसी से भी कुछ सहायता प्राप्त करने में संकोच करता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इस स्थिति में दूषित प्रवृनि के व्यक्ति उसका शोषण करने अथवा उसका उपहास करने का अवसर प्राप्त कर सकते हैं। 

अनेक शोमाकर्ता, रूचि, अभिरूचि आदि से सम्बन्धित प्रश्नावलियों को भरवाने के लिए जब विभिन्न व्यक्तियों से आग्रह करते हैं तो अनेक व्यक्ति इसी भय के कारण इस आग्रह को अस्वीकार कर देते हैं। अत: निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति का विश्वास बनाए रखना निर्देशन प्रदानकर्ता का प्रमुख कर्नव्य होता है। यदि किसी रूप में निर्देशनकर्ता को कोई जानकारी प्रदान करनी ही हो तो वह जानकारी किसी नोटिस, फाईल आदि के रूप में न देकर वैयक्तिक रूप में ही प्रदान की जानी चाहिए। इस प्रकार प्राप्त जानकारी एवं सूचनाओं के सम्बन्ध में अत्यधिक सावधानी अपेक्षित है।

3. निर्देशन जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रकिया है - निर्देशन एक ऐसी प्रकिया है जिसकी आवश्यकता जीवनपर्यन्त होती है। उसका कारण यह है कि जैसे-जैसे व्यक्ति आगे की दिशा में बढ़ता है उसे विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं इन समस्याओं का वांछित स्तर पर समाधान किए बिना किसी भी प्रकार की प्रगति करना सम्भव नहीं है। जीवन है तो समस्याएं हैं और समस्याएं है तो स्वाभाविक रूप से उनके समाधान की भी आवश्यकता है। समस्याओं के समाधान की आवश्यकता के अनुपात की दृष्टि से व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता हो सकती है परन्तु यह स्पष्ट है कि किसी न किसी समय, किसी न किसी रूप में समस्या समाधान की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को होती है। प्रत्येक स्तर पर यह आवश्यकता व्यक्ति को अनुभव होती है। व्यक्ति अपने परिवार के मध्य शिक्षा प्राप्ति के निरन्तर, व्यावसायिक क्षेत्र में तथा पद निवृनि या वृणवस्था की स्थिति में समायोजन, सहज अधिगम, अधिक सम्बोधित, अवकाश के समय का सदुपयोग करने आदि अनेक प्रकार से समस्याओं के समाधान की योग्यता एवं क्षमता अर्जित करना चाहता है।

4. व्यक्ति के आधारभूत योग्यताओं को स्वीकृति-समाज की प्रगति, व्यक्तियों पर ही आश्रित होती है। प्रत्येक व्यक्ति का समाज के विकास में कुछ न कुछ योगदान रहता है। अत: यदि सम्पूर्ण समाज को अधिकािमाक सशक्त बनाना है तो समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अस्तित्व को समान रूप से महत्व प्रदान करना होगा। इसका स्पष्ट आशय यह है कि हम व्यक्ति के मूलभूत महत्व को स्वीकृति प्रदान करें। व्यक्ति के विकास एवं प्रगति के समान अवसर उपलब्ध कराकर ही ऐसा किया जाना सम्भव है। वस्तुत: यदि किसी समाज के व्यक्तियों को अपने विकास एवं प्रगति हेतु पर्याप्त अवसर एवं सुविधाएं उपलब्ध होती हैं तो वह समाज निश्चित रूप से प्रगति की दिशा में अग्रसरित होता है। उसके विपरीत जिस समाज अथवा राष्ट्र में व्यक्तियों के विकास हेतु किसी सुनियोजित व्यवस्था का अभाव रहता है, वह समाज अन्य देशों की तुलना में पिछड़ जाता है। 

इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए निर्देशन प्रकिया के अन्तर्गत, इस अधिनियम की व्यावहारिक परिस्थिति पर बल दिया जाता है। शिक्षा, व्यवसाय, परिवार आदि विविध क्षेत्रों में व्यक्ति की योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुरूप अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करने एवं प्राप्त करने पर बल देकर, निर्देशन प्रकिया के अन्तर्गत, व्यक्ति के आधारभूत महत्व को ही स्वीकृति प्रदान की जाती है।

5. व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को महत्व प्रदान करना-किसी भी समस्या के वस्तुनिष्ठ एवं समुचित समाधान के लिए, व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को महत्व प्रदान किया जाना स्वाभाविक है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति के किसी भी पक्ष से सम्बन्धित समस्या का उसकी विभिन्न मनोशारीरिक विशेषताओं से सम्बन्ध होता है। अत: व्यक्तित्व का समग्र रूप में अध्ययन आवश्यक हैं उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति के समक्ष, उपयुक्त व्यवसाय के चयन की समस्या है तो उसकी इस समस्या के अध्ययन एवं उचित समाधान के लिए केवल उसकी अभिरूचि का अध्ययन ही पर्याप्त नहीं है अपितु यह भी आवश्यक है कि उसकी रूचि, बुद्धि, शारीरिक स्थिति, व्यवहार, समायोजन की क्षमता का भी समन्वित रूप से अध्ययन किया जाए। 

यह सम्भव है कि एक व्यक्ति किसी पाठ का प्रभावी शिक्षण करने में दक्ष हो। परन्तु वह मद्यपान का अभ्यस्त हो, शीघ्र वेिमात हो जाता हो तथा अपने से छोटे व बड़े व्यक्तियों के व्यवहार करने में पूर्णतया अकुशल हो। शिक्षण व्यवसाय में संलग्न व्यक्तियों पर यदि हम दृष्टि डालें तो ऐसे अनेक शिक्षक दिखाई दे जायेंगे जिनका शिक्षण उनम कोटि का होता है परन्तु उनका चरित्र एवं व्यवहार अति निछष्ट कोटि का होता है। इस प्रकार की स्थिति किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का समग्र रूप में अध्ययन न कर पाने तथा उसे मात्र औपचारिक साक्षात्कार अथवा लिखित परीक्षा के आधार पर ही शिक्षक बनने के अवसर प्रदान किए जाने के कारण उत्पन्न होता है।

6. व्यक्ति में स्व-निर्देशित करने की योग्यता का विकास करना-व्यक्ति प्रगति की दिशा में अग्रसरित हो अथवा प्रगति करे, उसे अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। यह सम्भव है कि समस्या के उत्पन्न होते ही, प्रत्येक स्थान पर, तत्काल कोई समाधान प्राप्त कराने वाला मिल जाएगा अत: उचित यह है कि प्रत्येक समस्या के समाधान हेतु व्यक्ति को आश्रित बनाने के स्थान पर व्यक्ति में ही इस प्रकार की योग्यताओं का विकास किया जाए कि वे धीरे-धीरे स्वयं ही अपनी समस्याओं का समाधान कर सवेंफ। यही कारण है कि निर्देशन को समस्या-समाधान की प्रकिया के रूप में परिभाषित करने के स्थान पर एक ऐसी प्रकिया के रूप में स्वीकार किया जाता है जो व्यक्ति को स्व:निर्देशित करने में सहायक होती है। 

निर्देशन के माध्यम से यह प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति में विभिन्न परिस्थितियों को समझने की योग्यता का विकास हो सके तथा वह अपनी विवेक शक्ति के आधार पर उचित एवं अनुचित के मध्य निर्णय लेने में सक्षम हो सके। इस प्रकिया के निरन्तर, निर्देशन प्राप्त करने वाले पर किसी भी समस्या का समाधान थोपने के स्थान पर, निर्देशन प्राप्तकर्ता को ही इस योग्य बनाया जाता है कि वह समाधान खोजने की क्षमता में स्वयं निपुण हो जाए। लेस्टर डी. वे तथा एलिस वे के अनुसार भी निर्देशन से तात्पर्य निर्देशन देना नहीं है, एक व्यक्ति का दृष्टिकोण दूसरे पर थोपना नहीं, दूसरे व्यक्ति के लिए स्वयं निर्णय लेने की अपेक्षा स्वयं निर्णय करना नहीं है और न ही दूसरे के जीवन का बोझ ढोना है। 

इसके विपरीत, योग्य एवं सुप्रशिक्षित व्यक्तियों के द्वारा दूसरे व्यक्ति की चाहे वह किसी आयु वर्ग का हो अपनी जीवन कियाओं को स्वयं गठित करने, अपने निजी दृष्टिकोण विकसित करने, अपने निर्णय स्वयं ले सकने तथा अपना भार अपने आप वहन करने में सहायता करना ही वास्तविक निर्देशन है।

7. निर्देशन सेवाओं के अन्तर्गत वैयक्तिक विभिन्नताओं को महत्व देना चाहिये-प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में एक दूसरे से भिन्न होता है। वातावरण एवं वंशानुगत विशेषताओं से सम्बन्धित अनेक कारण इस वैयक्तिक भिन्नता के लिए उनरदायी होता है। व्यक्ति की रूचि, अभिरूचि, बुद्धि आदि से सम्बन्धित योग्यताओं पर इन कारकों का प्रभाव होता है। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करने से पूर्व, उसकी इन योग्यताओं का वस्तुनिष्ठ अध्ययन किया जाए तथा उन योग्यताओं के अनुरूप अवसरों की दिशा में ही उसे प्रेरित किया जाए। ऐसा न कर पाने का दुष्परिणाम यह होता है कि व्यक्ति प्राप्त अवसर का समुचित लाभ न तो स्वयं उठा पाता है और न ही उस अवसर के माध्यम से, दूसरों के लिए कुछ कर पाता है। इसीलिए वैयक्तिक विभिन्नताओं को गम्भीरतापूर्वक महत्व दिया जाना चाहिए, यह किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा निर्मित अनेक परीक्षण इस उद्धेश्य की पूर्ति में विशेष सहायक हो सकते हैं।

8. निर्देशन प्रदान करने वालों को प्रशिक्षित होना चाहिये-आधुनिक युग में ज्ञान का अत्यधिक विस्तार हुआ है। प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्टीकरण की प्रवृत्ति के कारण आज यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति समस्त क्षेत्रों की सैणन्तिक एवं व्यावहारिक जानकारी, समान रूप से रख सके। एक निर्देशन प्रदाता का कार्य क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत होता है इसी प्रकार उसे पर्याप्त अध्ययन एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। शैक्षिक व्यावसायिक एवं वैयक्तिक क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक समस्याओं के समाधान हेतु व्यक्ति को सहायता प्रदान करने के उद्धेश्य से उसे व्यक्ति के विभिन्न पक्षों एवं समाज की जानकारी होना आवश्यक है। व्यक्ति एवं समाज से सम्बन्धित इन पक्षों की जानकारी न केवल पृथक-पृथक रूप में वरन् समन्वित रूप में होनी भी आवश्यक है। विशेषकर देश, समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक सिधान्तों के व्यावहारिक पक्षों, मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के प्रशासन एवं मूल्यांकन तथा निर्देशन व परामर्श की विभिन्न प्रविधियों की जानकारी एवं निर्देशन प्रदाता के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार समाज के स्वरूप, सामाजिक परिस्थितियों एवं समाज में होने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ रहकर भी वह किसी समस्या के समाधान में सहायक नहीं हो सकता है।

9. विभिन्न कार्यकर्ताओं की भूमिका में समन्वय करना निर्देशन प्रकिया के अन्तर्गत विभिन्न कार्यकर्ताओं की भूमिका का समन्वित महत्व होता है। इस प्रकिया की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि समस्त प्रकार के निर्देशन कर्मियों के कार्य में उचित समन्वय स्थापित किया जाये। निर्देशन का क्षेत्र व्यापक होने के कारण, कार्य का विशिष्टीकरण एवं वशिष्टीकरण में योग्य व्यक्तियों को उन कार्यो के सम्पादन का उनरदायित्व सौंपना ही वर्तमान परिस्थितियों में उचित है। आज यह सम्भव ही नहीं है कि एक व्यक्ति समस्त क्षेत्रों में निर्देशन प्रदान करने की दृष्टि से योग्य हो। 

अत: निर्देशन प्रकिया से सम्बन्धित कार्यो का वितरण इसी दृष्टि से किया जाना चाहिए कि प्रत्येक कार्यकर्ता को अपनी योग्यता के अनुरूप कार्य करने का अवसर प्राप्त हो सके तथा प्रत्येक कार्यकर्ता एक दूसरे के कार्य को महत्व प्रदान करते हुए अपनी भूमिका का निर्वाह करे। साथ ही यह भी आवश्यक है कि समस्त निर्देशन कर्मियों के कार्यो का समन्वय करने के लिए एक निर्देशन कार्य समन्वय अधिकारों की भी नियुक्ति की जाए।

निर्देशन कार्यक्रम की व्यापक सफलता के लिए केवल निर्देशन कर्मियों की भूमिका का ही महत्व नहीं है, अपितु अभिभावकों, विद्यालयों, अधिकारियों एवं शिक्षकों तथा समाज के अन्य व्यक्तियों को भी इस दिशा में सहयोग हेतु प्रेरित करना चाहिए।

10. तात्कालिक राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की जानकारी-व्यक्ति एवं समाज के विकास में तत्कालिक सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों का विशेष योगदान रहता है। एक निर्देशन प्रदान करने वाले व्यक्ति को इन परिस्थितियों से परिचित रहना नितान्त आवश्यक होता है। व्यक्ति के सामाजिक पक्ष का विकास करने तथा उसे समाज के योग्य सदस्य बनाने के लिए समय-समय पर उत्पन्न सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों को मयान में रखना चाहिए, इनकी जानकारी के अभाव में समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का निदान एवं समाधान कर पाना कठिन है। समाज की परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में रखकर ही समस्याओं का समाधान करने हेतु सहायता प्रदान की जानी सम्भव है। इसी के आधार पर यह सम्भव है कि व्यक्ति को समाज का योग्य सदस्य बनाते हुए व्यक्ति एवं समाज की प्रगति हेतु वांछित सफलता प्राप्त की जा सके। अत: एक निर्देशन कर्मी के लिए निर्देशन पद्धति एवं व्यक्ति के अध्ययन की जानकारी ही अपेक्षित नहीं है, अपितु यह भी आवश्यक है कि समाज की दीर्घकालीन एवं सामाजिक परिस्थितियों से भी परिचित रहे। 

11. व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तनीय-प्रत्येक समाज की अपनी निजी आवश्यकताएं होती है और इन आवश्यकताओं की पूर्ति के माध्यम से ही यह सम्भव है कि उस समाज के अस्तित्व को बनाए रखा जा सके अथवा उसे प्रगति की दिशा में अग्रसरित किया जा सके। समाज की इन आवश्यकताओं की निरन्तर जानकारी आवश्यक होती है, व्यक्ति की प्रत्येक समस्या किसी न किसी रूप में उन सामाजिक आवश्यकताओं से ही संयुक्त रहती है और उसकी इन समस्याओं पर सामाजिक आवश्यकताओं का प्रभाव, किसी न किसी रूप में अवश्य होता है। परिवेशजन्य, इन आवश्यकताओं को मयान में रखकर ही व्यक्ति का विकास किया जाना चाहिए, अन्यथा व्यक्ति व समाज, दोनों ही प्रगति की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। 

वस्तुत: समाज में उत्पन्न समस्याए सामाजिक परिवेश के रूप में परिवर्तित होती है। अत: निर्देशन के स्वरूप एवं कार्य पद्धतियों में भी इन समस्याओं एवं सामाजिक परिवेश में परिवर्तन के अनुरूप परिवर्तन की सम्भावना रखनी चाहिए।

12. सामान्य व्यक्तियों के लिए निर्देशन की उपलब्धता निर्देशन कार्यव्मों का संचालन करते समय, यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि अधिकािमाक व्यक्तियों को निर्देशन सेवाओं का लाभ प्राप्त हो सके। यह सत्य है कि विशिष्ट समस्याओं से ग्रस्त व्यक्तियों को निर्देशन की आवश्यकता अधिक होती है। परन्तु समस्याओं का उदय केवल मानसिक रूप से पिछड़े संवेगात्मक दृष्टि से असन्तुलित तथा शारीरिक दृष्टि से बािमात व्यक्तियों के जीवन में ही नहीं होता है वरन् सामान्य व्यक्तियों के जीवन में भी अनेक ऐसी समस्याए आती है जिनका समाधान, सहज ही सम्भव नहीं होता है। वांछित निर्देशन सहायता उपलब्ध न हो पाने की स्थिति में केवल यही उपाय शेष रह जाता है। निर्देशन कार्यकर्ता के लिए नैतिक आचरण संहिता की आवश्यकता क्यों है?

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