परामर्श का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, आवश्यकता एवं लक्ष्य

परामर्श एक प्राचीन शब्द है और शब्द को परिभाषित करने के प्रयास प्रारम्भ से ही किए गए हैं। वैबस्टर शब्दकोष के अनुसार-’’परामर्श का आशय पूछताछ, पारस्परिक तर्क वितर्क अथवा विचारों का पारस्परिक विनिमय है।’’ इस शाब्दिक आशय के अतिरिक्त परामर्श के अन्य पक्ष भी हैं जिनके आधार पर परामर्श का अर्थ स्पष्ट हो सकता है। उनके विद्वानों ने इन पक्षों पर प्रकाश डालकर परामर्श का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

परामर्श के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके आधार पर सेवार्थी को वैयक्तिक दृष्टि से ही सहायता प्रदान की जाती है। 

गिलबर्ट रेन के अनुसार भी - ‘‘परामर्श सर्वप्रथम एक व्यक्तिगत सन्दर्भ, का परिसूचक है। इसे सामूहिक रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। सामूहिक परामर्श जैसा शब्द असंगत है तथा व्यक्तिगत परामर्श जैसा शब्द भी संगत नहीं है क्योंकि परामर्श सदैव व्यक्तिगत रूप में ही सम्पन्न हो सकता है।’’

परामर्श के आशय के सन्दर्भ में एक विशिष्ट पक्ष यह भी है कि परामर्श की प्रक्रिया के द्वारा परामर्श प्राप्तकर्ना अथवा सेवार्थी पर किसी निर्णय को थोपा नहीं जाता है, वरन् उसकी सहायता इस प्रकार की जाती है कि वह स्वयं निर्णय लेने में सक्षम हो सके। 

जॉर्ज ईद मायर्स के अनुसार- ‘‘परामर्श का कार्य जब सम्पन्न होता है, जब यह सेवार्थी को अपने निर्णय स्वयं लेने के लिये बुद्दिमनापूर्ण विधियों का उपयोग करके सहायता प्रदान करता है। परामर्श स्वयं उसके लिये निर्णय नहीं लेता है। वस्तुत: इस प्रक्रिया में सेवार्थी हेतु स्वयं निर्णय लेना उतना ही असंगत है जितना कि बीजगणित के शिक्षण में शिक्षार्थी के लिए प्रदन समस्या का समाधान शिक्षक के द्वारा स्वयं करना है।’’

राबिन्स के अनुसार परामर्श के अन्तर्गत उन समस्त परिस्थितियों को सम्मिलित किया जाता है जो वातावरण से समायोजन हेतु अपेक्षित होती है। उनके ही शब्दों में - परामर्श के अन्तर्गत वे समस्त परिस्थितियां सम्मिलित कर ली जाती हैं जिनके आधार पर परामर्श प्राप्तकर्ना को अपने वातावरण में समायोजन हेतु सहायता प्राप्त होती है। परामर्श का सम्बन्ध दो व्यक्तियों से होता है- परामर्शदाता एवं परामर्श प्रार्थी का सम्बन्ध दो व्यक्तियों से होता है- परामर्शदाता एवं परामर्शप्रार्थी अपनी समस्याओं का समाधान, बिना किसी सुझाव के स्वयं ही करने में सक्षम नहीं हो सकता है। उसकी समस्याओं का समाधान, बिना किस सुझाव की आवश्यकता होती है और ये वैज्ञानिक सुझाव ही परामर्श कहलाते है।’’ इसी प्रकार कार्ल रोजर्स ने परामर्श की आत्म बोध की प्रक्रिया में सहायक बताये हुये लिखा है कि- ‘‘परामर्श एक निर्धारित रूप से स्वीछत ऐसा सम्बन्ध है जो परामर्शप्रार्थी को, स्वयं को समझने में पर्याप्त सहायता देता है, जिसे वह अपने नवीन ज्ञान के उपयोग से नये निर्णय ले सकें।’’

एडमण्ड विलियमसन-ने परामर्श के विभिन्न पक्षों का व्यापक स्तर पर अध्ययन किया तथा कहा कि- ‘‘एक प्रभावी परामर्शदाता उसी को कहा जाता है जो अपने विद्यार्थियों को अपनी सेवाओं को प्राप्त करने की दिशा में प्रोत्साहित कर सके तथा जिसके पफलस्वरूप उन्हें सन्तोष एवं सफलता प्राप्त हो सके। वस्तुत: परामर्श तो एक प्रकार का ऐसा समाधान है जिसके आधार पर सेवार्थी को अपनी समस्याओं का समाधान करने से सम्बन्धित अधिगम होता है।’’ हम्नी एवं टेंक्सलर-ने परामर्श को समस्या समाधान में सहायक बताया है। परन्तु उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है कि किस प्रकार की समस्याओं के समाधान में परामर्श की प्रक्रिया सहायक है। उनके शब्दों में- ‘‘परामर्श व्यक्ति की समस्या समाधान हेतु विद्यालय या अन्य संस्थानों के कर्मचारियों के उत्सवों का प्रयोग है।’’ 

विली तथा एण्डूं (Willy and Andrew) के अनुसार-’’ये पारस्परिक रूप से सीखने की प्रक्रिया है तथा इसके अन्तर्गत दो व्यक्ति सम्मिलित होते हैं- एक सहायता प्राप्तकर्ना और दूसरा वह व्यक्ति जो इस प्रथम व्यक्ति की सहायता इस प्रकार करता है कि उसका अधिकतम विकास हो सके।’’

जोन्स (Jones)-ने परामर्श को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है जिसके अन्तर्गत परामर्शप्रार्थी को प्रत्यक्ष एवं व्यक्तिगत रूप में सहायता प्रदान की जाती है। उसके अनुसार परामर्श की प्रक्रिया निर्देशीय अधिक है। इस प्रक्रिया में विद्यार्थी से सम्बन्धित समस्त तथ्यों के संकलन एवं विद्यार्थी से सम्बन्धित अनुभवों के अमययन पर बल दिया जाता है। विद्यार्थी से सम्बन्धित अनुभवों के अमययन पर बल दिया जाता है। विद्यार्थियों की योग्यताओं का अमययन किसी विशिष्ट परिस्थिति के सन्दर्भ में किया जाता है इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि परामर्श के आधार पर परामर्शप्रार्थी की समस्याओं का समाधान नहीं किया जाता है वरन् उसे स्वयं ही इस योग्य बना दिया जाता है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके।

कॉम्बस ने परामर्श की प्रक्रिया में, परामर्शदाता के स्थान पर परामर्शप्रार्थी को अधिक महत्व प्रदान किया है। इस प्रकार उनके अनुसार यह एक परामर्शप्रार्थी केन्द्रित प्रक्रिया है।

कॉम्बस (Combas)-के अनुसार ब्रोवर (Brewer) ने भी इस प्रक्रिया को परामर्शप्रार्थी-केन्द्रित ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पारस्परिक विचार-विमर्श, बातचीत एवं सौहार्दपूर्ण, तर्क-वितर्क के आधार पर व्यक्ति को इस प्रकार सहायता प्रदान की जाती है कि वह अपनी समस्याओं से सम्बन्धित निर्णय स्वयं ले सके। पारस्परिक विचार विनिमय के लिए सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का सर्जन एवं समानता के मारातल पर बातचीत करना आवश्यक होता है। इस विचार विनिमय का प्रमुख उद्धेश्य व्यक्ति में निहित योग्यताओं की जानकारी एवं उनका अधिकतम विकास होता है। इस प्रकार विचार-विनिमय के निरन्तर दोनों ही एक दूसरे पर अपने विचार आरोपित करने का प्रयास नहीं करते हैं। 

रूथ स्टैंग के शब्दों में परामर्शप्रार्थी में आत्म बोध की योग्यता का विकास किया जाता है। इसके आधार पर ही व्यक्ति को यह ज्ञात हो पाता है कि वह अपनी समस्या का समाधान किस प्रकार कर सकता है? उसकी समस्या का स्वरूप क्या है? तथा समस्या के समाधान हेतु कौन सी योग्यताए उसमें विद्यमान हैं।

स्टैंग के अनुसार-परामर्श प्रक्रिया एक संयुक्त प्रयास है। विद्यार्थी का उनरदायित्व स्वयं को समझाने की चेष्टा करना तथा उस मार्ग का पता लगाना है जिस पर उसे जाना है तथा जैसे ही समस्या उत्पन्न हो, उसके समाधान के लिए आत्म विश्वास का विकास होना है। परामर्शदाता का उनरदायित्व इस प्रक्रिया में जब कभी छात्र को आवश्यकता हो, सहायता प्रदान करना है।’’

रोलो मे (Rollo May) के अनुसार, परामर्श की प्रक्रिया में परामर्शप्रार्थी के स्थान पर परामर्शदाता को भूमिका के केन्द्र मानते हैं। उनके शब्दों में-’’परामर्श प्रार्थी को समाजिक दायित्वों को सहर्ष स्वीकार कराने में सहायता करना, उसे साहस देना, जिससे उसमें हीन भावना उत्पन्न न हो तथा सामाजिक एवं व्यवहारिक उद्धेश्यों की प्राप्ति में उसकी सहायता करना है।’’

रोलो मे के विपरीत इरिक्सन (Erickson)-ने परामर्श को परामर्शप्रार्थी केन्द्रित मानते हुये लिखा है कि- ‘‘एक परामर्श साक्षात्कार व्यक्ति से व्यक्ति का सम्बन्ध है जिसमें एक व्यक्ति अपनी समस्याओं तथा आवश्यकताओं के साथ, दूसरे व्यक्ति के पास सहायता हेतु जाता है।’’

परामर्श की विशेषताएं

इन परिभाषाओं के अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने परामर्श के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु परामर्श से सम्बन्धित विभिन्न तत्वों का निर्धारण भी किया है। उनके अनुसार इन तत्वों अथवा विशेषताओं के आधार पर परामर्श को परिभाषित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आर्बकल (Arbuckle) के अनुसार परामर्श की प्रमुख विशेषताएं हैं:-
  1. परामर्श की प्रक्रिया दो व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध पर आधारित है।
  2. दानों के ममय विचार-विमर्श के अनेक सामान हो सकते हैं।
  3. प्रत्येक परामर्शदाता को अपनी प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये।
  4. प्रत्येक परामर्श साक्षात्कार पर आधारित होता है।
  5. परामर्श के फलस्वरूप, परामर्शप्रार्थी की भावनाओं में परिवर्तन होता है। 
उपरोक्त परिभाषाओं में परामर्श की विशेषताओं, उद्धेश्यों तथा कार्यो का उल्लेख किया गया है, परामर्श की प्रमुख विशेषतायें हैं-
  1. परामर्श वैयक्तिक सहायता प्रदान की प्रक्रिया है इसे सामूहिक रूप में सम्पादित नहीं किया जाता है।
  2. परामर्श शिक्षण की भाति निर्णय नहीं लिया जाता है अपितु परामर्श प्रार्थी स्वयं निर्णय लेता है। 
  3. परामर्शदाता सम्पूर्ण परिस्थितियों के आधार पर समायोजन हेतु प्रार्थी को जानकारी देता है, और उसकी सहायता भी करता है। 
  4. परामर्शप्रार्थी अपनी समस्याओं का समाधान बिना किसी सुझाव व सहायता के स्वयं ही करने में समर्थ नहीं होता है। समस्याओं के समाधान हेतु वैज्ञानिक सुझाव की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिक सुझाव को ही परामर्श कहते हैं।
  5. परामर्शप्रार्थी को समझने में पर्याप्त सहायता देता है जिससे वह अपनी समस्याओं के समाधान के लिये निर्णय लेता है। 
  6. परामर्श द्वारा प्रार्थी को अपनी सेवाओं को प्राप्त करने की दिशा में प्रोत्साहित कर सके तथा जिसके पफलस्वरूप उसे सफलता एवं सन्तोष प्राप्त हो सके। 
  7. परामर्श में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की समस्याओं के समाधान हेतु सहायता इस प्रकार करता है जिससे स्वयं लेकर सीखता है। 
  8. परामर्श की प्रक्रिया निर्देशीय अधिक होती है। इसमें प्रार्थी के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तथ्यों का संकलन करके सम्बन्धित अनुभवों पर बल दिया जाता है। 
  9. परामर्श में प्रार्थी की समस्याओं का समाधान नहीं किया जाता है अपितु इस प्रक्रिया से उसे स्वयं ही इस योग्य बना दिया जाता है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके। 
  10. परामर्श की प्रक्रिया -केन्द्रित होती है जिसमें पारस्परिक विचार-विमर्श, वार्तालाप, तथा सौहार्द्रपूर्ण तर्क-वितर्क के आधार पर प्रार्थी को इस योग्य बनाया जाता है कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिये स्वयं निर्णय ले सके। 
  11. परामर्श की प्रक्रिया में प्रार्थी का उनरदायित्व स्वयं को समझाना तथा उस मार्ग को सुनिश्चित करना जिस ओर उसे अग्रसर होना है। परामर्श से समाधान के लिए आत्म विश्वास का विकास होता है। 
  12. परामर्श प्रार्थी को सामाजिक उनरदायित्वों को सहर्ष स्वीकार करने में सहायता करना, उसे साहस देना जिससे उसमें हीन भावना न विकसित हो।\
परामर्श में प्रार्थी की समस्या व्यक्तिगत होती है। मानसिक रूप से प्रार्थी स्वस्थ नहीं होता है। इसलिये वह निर्णय लेने में समर्थ नहीं होता है उसके परामर्श की आवश्यकता होती है। गीता प्रकरण में अर्जुन रूक्षेत्र में युद्ध करने को गये, परन्तु अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर मोह के कारण कृष्ण से युद्ध के लिये मना कर दिया। कृष्ण अर्जुन को परामर्श देते हैं- विचार-विमर्श, वार्तालाप तथा सौहार्दपूर्ण तर्क-वितर्क से अर्जुन को मोह से मुक्त करते है और क्षत्रिय मार्म की जानकारी देते हैं कि एक क्षत्रीय का मार्म युद्ध करना है तथा युद्ध से भागना कायरता है। इतिहास तुम्हें कायर कहेगा यह तुम्हें स्वीकार है। अर्जुन कहता है यह स्वीकार नहीं है, तब निर्णय लीजिये, युद्ध करना है अथवा नहीं। यह परामर्श की प्रक्रिया का विशिष्ट उदाहरण है।

उपरोक्त समस्त विवरण के आधार पर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि परामर्श एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें साक्षात्कार के माध्यम से दो व्यक्तियों के मध्य विचार-विमर्श होता है। दोनों ही, अर्थात् परामर्शदाता एवं परामर्शप्रार्थी के ममय सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होना इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने की प्राथमिक आवश्यकता है। इस पारस्परिक सम्बन्ध पर आधारित विचार-विमर्श का उद्धेश्य, परामर्शप्रार्थी को इस योग्य बनाना है कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सके। इस प्रकार मानवीय सम्बन्ध एवं सहायता और वह सहायता भी प्रत्यक्ष रूप में आमने-सामने प्रदान करना, परामर्श के महत्वपूर्ण तत्व हैं। जिनके आधार पर इसे अन्य प्रत्ययों से पृथक किया जा सकता है तथा इसका आशय स्पष्ट किया जा सकता है।

परामर्श में प्रार्थी की समस्या व्यक्तिगत होती है। मानसिक रूप से प्रार्थी स्वस्थ नहीं होता है। इसलिये वह निर्णय लेने में समर्थ नहीं होता है उसके परामर्श की आवश्यकता होती है।
  1. परामर्श एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके आधार पर सेवार्थी को वैयक्तिक दृष्टि सहायता प्रदान की जाती है। 
  2. जोन्स के अनुसार परामर्श की प्रक्रिया निर्देशीय नहीं होती है। 
  3. प्रत्येक परामर्श साक्षात्कार पर आधारित होता है। 
  4. परामर्श में प्रार्थी की समस्या व्यक्तिगत नहीं होती है।

परामर्श की आवश्यकता

सीद सीद डन्सूमर एवं मिलर ने अपनी पुस्तक ‘प्रिन्सिपल्स एण्ड मैथड्स ऑफ गाईडेन्स फॉर टीचर’ में विद्यार्थियों हेतु परामर्श के आठ आवश्यकताओं का उल्लेख किया है-
  1. छात्र को उसी सफलता के महत्व के विषयों की जानकारी प्रदान करना। 
  2. छात्र की शैक्षिक एवं व्यावसायिक चयन की योजना निर्माण में सहायता करना। 
  3. शैक्षिक उद्धेश्य की पूर्ति यथोचित प्रयास करने की प्रेरणा छात्र को देना।
  4. छात्रों में, विशिष्ट योग्यताओं एवं सही दृष्टिकोणों को प्रोत्साहित तथा विकसित करना।
  5. छात्रों की स्वयं की योग्यताओं, रूचियों, एवं अवसरों आदि को समझकर स्वयं को और भली प्रकार समझने में सहायता करना। 
  6. छात्रों की स्वयं की कठिनाइयों को हल करने की योजना बनाने में सहायता करना। 
  7. शिक्षक एवं विद्यार्थी के ममय पारस्परिक सम्बन्धों की भावना विकसित करना, तथा। 
  8. छात्रों के सम्बन्ध में वे सूचनाएं प्राप्त करना जो उसकी समस्याओं के निराकरण में सहायक हों।
परामर्श की प्रक्रिया के जो उद्धेश्य हैं उनकी प्राप्ति, प्रक्रिया के अन्य अंगों सेवार्थी तथा उपबोधक के सम्बन्धों पर निर्भर करती है।

परामर्श के लक्ष्य

परामर्श मनोवैज्ञानिकों (Counseling Psychologists) ने उपबोधन एवं मनोचिकित्सा (Phychotheraphy) को पर्यायवाची माना है तथा इसी को मयान में रखकर ही उपबोध के लक्ष्यों को निर्धारित किया है। राबर्ट डब्ल्यू vhaइट के शब्दों में-’जब कोई व्यक्ति मनोचिकित्सक के रूप में कार्य करता है तब उसका अभीष्ट प्रभाव डालने या सहमति प्राप्त न होकर मात्रा उनम स्वास्थ्य की स्थिति को पुन:स्थापित करना होता है। एक मनोचिकित्सक को न तो छ कहना होता है और न ही प्रस्तावित करना।’’

व्हाइट महोदय के उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि उपबोधक अथवा मनोचकित्सक का कार्य मात्र प्रार्थी के मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य बनाना है। अपना कोई विचार, सुझाव अथवा दृष्टिकोण को उस पर थोपना उसका लक्ष्य नहीं होता। उपबोधन के अन्तर्गत उपबोधक सेवार्थी को किसी विशिष्ट जीवन शैली अथवा विचारधारा को स्वीकार करने पर बल नहीं देता।

सेवार्थी-केन्द्रित परामर्श (Client-centred Counseling) की प्रकृति के बारे में एद बीद ब्वाय एवं जीद जे पाइन ने उपबोध द्वारा विशिष्ट रूप से माध्यमिक स्तर पर, विद्यार्थी को ‘‘अधिक परिपक्व एवं स्वयं कियाशील बनाने, विशेषयात्मक तथा रचनात्मक दिशा की ओर अग्रसरित होने, अपने सामानों एवं संभावनाओं के उपयोग तथा समाजीकरण की ओर अग्रसारित होने में सहायता प्रदान करने के लक्ष्य पर मयान देने हेतु कहा है।

इस प्रकार परामर्श का लक्ष्य है- विद्यार्थी को स्वयं कार्य करने तथा अधिक परिपक्व ढंग से विचार-विमर्श करने में सहायता प्रदान करना। इसके अतिरिक्त विद्यार्थी को स्वयं की योग्यताओं व सम्भाव्यताओं को ज्ञान करने तथा योग्यताओं का स्वयं के सामाजिक विकास में उपयोग करना भी उपबोधन का महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया है। ब्वाय एवं पाइन ने, सामान्य नैदानिक उपबोधन (General Clinical Counseling) के जिन लक्ष्यों को मयान में रखने हेतु बताया है वे हैं-प्रार्थी को अधिक अच्छा करने में सहायता देने अर्थात् सेवार्थी को स्वयं के महत्व को स्वीकार करने, वास्तविक ‘स्व’ के ममय अन्तर को समाप्त करने में सहायता देने तथा व्यक्तियों को स्वयं की व्यक्तिगत समस्याओं में अपेक्षाकृत स्पष्टतापूर्वक विचार करने में सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है।

संक्षेप में, ब्वाय एवं पाइन के अनुसार उपबोधन का उद्धेश्य है- विद्यार्थी को और अधिक परिपक्व बनाने में सहायता प्रदान करना, स्वयं सक्रिया बनने और स्वयं के यथोचित मूल्यांकन में सक्षम हो सकने में सहायता देना है।

अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ (American Psychological Association) के अनुसार उपबोध के तीन लक्ष्य हैं- 1. परामर्शप्रार्थी द्वारा स्वयं के अभिप्रेरकों, आत्म-दृष्टिकोणों एवं क्षमताओं को यथार्थ रूप से स्वीकार करना, 2. सेवार्थी के द्वारा सामाजिक, आर्थिक एवं व्यावसायिक वातावरण के साथ तर्कयुक्त सामंजस्य की प्राप्ति करना तथा 3. व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समाज द्वारा स्वीकृति एवं समुदाय, रोजगार व वैवाहिक सम्बन्धों के क्षेत्र में उनका निहितार्थ करना।

इस वर्णन के आधार पर परामर्श के तीन मुख्य उद्धेश्य माने जा सकते हैं-
  1. आत्म-ज्ञान प्रदान करना (Self-Knowledge),
  2. आत्म-स्वीकृति का विकास करना (Self-Acceptance) तथा
  3. सामाजिक सामंजस्य का विकास करना (Social-Harmony)।
1. आत्म-ज्ञान (Self-knowledge): परामर्श का प्रथम महत्वपूर्ण उद्धेश्य है- व्यक्ति को, स्वयं के मूल्यांकन में सहायता प्रदान करना। व्यक्ति को उपबोधन की आवश्यकता, स्वयं के बारे में जानने, स्वयं की शक्ति, योग्यता एवं सम्भावनाओं को पहचानने के लिए होती है। सीताराम जायसवाल के अनुसार-’’उपबोधन एक प्रकार से उस ज्योति के समान है, जिसके उपयोग से व्यक्ति को स्वयं के अन्दर व बां स्वरूप को पहचानने में सहायता प्राप्त होती है।’’ व्यक्ति के आत्म-ज्ञान हेतु और उसके मूल्यांकन हेतु उपबोधन की विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है। यथा अनिदेशात्मक परामर्श (Non-directive Counseling) परामर्श साक्षात्कार (Counseling Interview) इत्यादि। इन विभिन्न प्रकार की विधियों से व्यक्ति को स्वयं के वास्तविक स्वरूप में अवगत होने से सहायता प्राप्त होती है। उपबोधन, सेवार्थी को उसके यथार्थ आत्म ज्ञान से परिचित कराने में कहा तक सहायक हुआ है, इसके द्वारा उपबोध की प्रक्रिया की सफलता का मूल्यांकन किया जाता है। 

लियोना टायलर के शब्दों में- ‘‘हमें उपबोधन को एक सहायक प्रक्रिया के रूप में प्रयोग करना है, जिसका उद्धेश्य व्यक्ति को परिवर्तित करना नहीं है वरन् उसके उन श्रोतों के उपयोग में सक्षम बनाना है जो उसके पास इस समय जीवन का सामना करने हेतु योग्यता उपलब्ध है। तब उपबोधन में इस सम्बोधित की अपेक्षा करेंगे कि सेवार्थी स्वयं की ओर से कतिपय रचनात्मक किया करे।’’

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उपबोधन की प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति स्वयं में अनेक प्रकार की समस्याओं के प्रति अन्तदृष्टि का विकास करता है तथा अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरूप समस्याओं का निराकरण ढूंढने में सक्षम बनता है।

2. आत्म-स्वीकृति - आत्म-स्वीकृति से आशय व्यक्ति द्वारा स्वयं के व्यक्तित्व या प्रतिबिम्ब (Image) को स्वीकार करना है। अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो स्वयं के बारे में उचित दृष्टिकोण नहीं बना पाते, कोई निर्णय नहीं ले पाते। ऐसे व्यक्तियों, जैसे दूसरे व्यक्ति जिस भी रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वह उससे ही अपना वास्तविक स्वरूप मानने लगते हैं। लेकिन व्यक्ति का जहा, अन्य व्यक्तियों द्वारा स्वीकार करना होता है। अत: व्यक्ति स्वयं के वास्तविक मूल्यांकन के रूप में, अपने यथार्थ स्वरूप को ही स्वीकृति प्रदान करे। इस कार्य में उपबोधन उसे सहायता प्रदान कर सकता है।

आत्म-स्वीकृति के अन्तर्गत, व्यक्ति को स्वयं के स्वरूप के निर्माण एवं मूल्यांकन में स्वयं की न्यूनताओं एवं सीमाओं को भी मयान में रखना चाहिए। व्यक्ति स्वयं के स्वरूप के ज्ञान के आधार पर, जीवन के लक्ष्यों को सुगमता से निर्धारित कर सकता है तथा लक्ष्यों की प्राप्ति में सफलता भी प्राप्त कर सकता है।

न्यूनताओं एवं सीमाओं के ज्ञान के अभाव में व्यक्ति स्वयं के बारे में अनुचित धारणा विकसित कर सकता है तथा उसे भविष्य में निराशा, हताशा एवं असफलता का भी सामना करना पड़ सकता है। यदि परामर्श, व्यक्ति को स्वयं को सही एवं वास्तविक स्वरूप को स्वीकार करने में सहायक बनता है तो परामर्श व्यक्ति के विकास एवं प्रगति हेतु सुदृढ़ आधार भी प्रदान कर सकता है।

3. सामाजिक-सामंजस्य - व्यक्ति के सामाजिक जीवन में सहायक बनना भी उपबोध का एक अन्य महत्वपूर्ण लक्ष्य माना जाता है। व्यक्ति के समक्ष विभिन्न समस्याओं का उद्भव समाज के साथ उचित समायोजन न कर पाने के कारण होता है। सामाजिक जीवन एवं व्यवहार को समझने के लिए तथा समाज-स्वीकृत व्यवहार के अनुरूप कार्य करने के लिए, व्यक्ति को स्वयं के व्यक्तिगत स्वाथोद्व की सीमा का परित्याग करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति तभी कर सकता है जब वह उदार, सहिष्णु एवं मित्र बनाने के गुणों से युक्त हो। परामर्श के माध्यम से व्यक्ति अपने संकीर्ण चिन्तन से मुक्त होता है। इसके अतिरिक्त, उपबोधन, व्यक्ति को सामाजिक जीवन के साथ समायोजित करने में भी सहायक होता है। निष्कर्ष रूप में, सामाजिक सामंजस्य की प्राप्ति में व्यक्ति की सहायता करनी, उपबोधन का अन्तिम महत्वपूर्ण लक्ष्य माना जाता है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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