सम्प्रदाय का अर्थ और सम्प्रदाय का स्वरूप

सम्प्रदाय का अर्थ

सम्प्रदाय शब्द का कोशगत अर्थ है- “ परम्परा से चला आया हुआ ज्ञान, मत सिद्धान्त, गुरु परम्परा से मिलने वाला उपदेश, मंत्र, किसी धर्म के अन्तर्गत कोई विशिष्ट मत या सिद्धान्त। उक्त प्रकार के मत व सिद्धान्त को मानने वालों का वर्ग या समूह यथा शैव, वैष्णव आदि किसी विचार, विषय या सिद्धांत के सम्बन्ध में एक ही तरह के विचार या मत रखने वाले लोगों का वर्ग। 

किसी मत के अनुयायियों की मंडली, फिरका, मार्ग, पंथ, परिपाटी, रीति, चाल को सम्प्रदाय कहते हैं।” अर्थात उक्त उद्धरण के अनुसार सम्प्रदाय गुरु परम्परागत अथवा आचार्य परम्परागत संघटित संस्था है।

सम्प्रदाय का स्वरूप

धर्म और सम्प्रदाय को अलग करके देखना या समझना मुश्किल है। धर्म और सम्प्रदाय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। धर्म के प्रति भारतीय दृष्टिकोण बहुत व्यापक मानी जाती है। समस्त पृथ्वी पर धर्म एक ही माना जाता है। लेकिन सम्प्रदाय अनेक माने जाते हैं। धर्म समस्त भूतल पर व्याप्त है। अत: धर्म की कोई सीमा नहीं हैं। सम्प्रदाय अपने-अपने देश काल की सीमाओं में निबद्ध होते हैं। धर्म शाश्वत है। लेकिन सम्प्रदाय समय के अनुसार संस्थापित होते हैं। सम्प्रदाय किसी महापुरुष के द्वारा संस्थापित होता है। इनमें देश काल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। 

इस परिवर्तन के कारण एक सम्प्रदाय में अनेक शाखाओं का प्रार्दुभाव होता है। उनमें वाद-विवाद भी जन्म लेने लगता है। इसका कारण यह है कि पवित्र या विशुद्ध ‘सम्प्रदाय’ शब्द कालांतर में चलकर मनुष्य के प्रदूषित भावनाओं का शिकार हो जाता है।

सम्प्रदाय शब्द अपने आप में भले ही पवित्र हो, लेकिन उसको स्थापित करने वाला तो पवित्र होना चाहिए। क्योंकि सम्प्रदाय तो किसी महापुरुष के द्वारा ही स्थापित किया जाता है। वे भी अपने अपने देश-काल परिस्थितियों के अनुसार प्रस्थापित किया जाता है। खास कर हमारा भारत देश आदि से ही यानी जब से सभ्यता का विकास शुरू हुआ तब से, जाति, वर्ण, वर्ग, प्रधान देश है। इनमें से कुछ वर्ण, वर्ग, जाति वालों को तो इस तरह के सम्प्रदाय की स्थापना करने का अधिकार ही नहीं था। कुछ वर्णों से तो महापुरुषों का जन्म ही नहीं हो सकता था। महापुरुषों का जन्म तो कुछ ही जातियों में या वर्णों में होता था। जाहिर सी बात है कि एक खास जाति या वर्ण के महापुरुष एक सम्प्रदाय की प्रस्थापना करेगा तो, वह केवल उनके खास जाति या वर्ण के हित के लिए ही, विधि-विधान बनाएंगे। और कहा जायेगा कि ये जो विधि-विधान हैं, सब के हित के लिए हैं जबकि वे कुछ ही लोगों के हित के लिए बनाये गये हैं। इसलिए सम्प्रदाय शब्द अपने आप में कितना पवित्र, विशुद्ध रहने पर भी बेकाम है। सम्प्रदाय शब्द सार्थक तभी होगा जबकि उस की स्थापना करने वाला पवित्र होगा।

आज कोई भी सम्प्रदाय हो, उस के प्रवर्तक अपने फायदे के लिए उसका उपयोग करने लगे हैं। इस उपयोग के पीछे उनका निजी स्वार्थ छुपा हुआ है। आखिर ये स्वार्थ क्या हो सकता है ? इस स्वार्थ का कारण यह है कि ‘हमारा भला हो’, हमारे लोगों को नौकरी मिले, हमारे लोग सबसे ज्यादा श्रेष्ठ हों, हमारी वर्ण पवित्र हो, हमारी जाति ही सबसे ज्यादा 15 योग्य हो। हमारा सम्प्रदाय ही सभी सम्प्रदायों से श्रेष्ठ हो। ये उक्त भावनाएँ उनके स्वार्थ में छिपा है।

इस लिए जब जब उनको खतरा लगता है तब तब अपने हाथों से बनाया हुआ सम्प्रदाय को गलत उपयोग करते हैं। अर्थात एक सम्प्रदाय के अनुयायी, अन्य सम्प्रदाय एवं अनुयायियों के प्रति घृणा, द्वेष, नफरत आदि भावनाएँ प्रकट करते हैं। अन्य सम्प्रदायों की गलत व्याख्या करते हैं। नीचा दिखाते हैं। तब दोनों पक्ष के लोग उग्र रूप धारण कर लेते हैं। साम्प्रदायिक बन जाते हैं। एक सम्प्रदाय के साम्प्रदायिक और दूसरे सम्प्रदाय के साम्प्रदायिक, एक दूसरे पर प्रत्यक्ष रूप से हमला करते हैं। तब साम्प्रदायिकता उत्पन्न होती है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

Post a Comment

Previous Post Next Post