महाभारत का प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय संस्करण

वेदों का विभाग करने के कारण ही इसका नाम व्यास पड़ा है। ये महाभारत के पात्रों के समकालीन एवं उनके निकट के संबन्धी भी थे। वेद का व्यास या विस्तार करने के कारण इनका नाम व्यास पड़ा।

महाभारत के रचयिता

भारतीय परम्परा के अनुसार महर्षि वेदव्यास ही महाभारत के रचयिता हैं और इसके प्रमाण ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं। ये कृष्ण द्वैपायन व्यास महाभारत के रचयिता होते हुए भी उसके एक प्रधान पात्र के रूप में चित्रित हैं ओर कौरवों तथा पाण्डवों के दादा कहे गये हैं। इनका नाम अनेक दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों के निर्माण के रूप में प्रसिद्ध है। ये चारों वेदों के संकलयिता या विभागकर्त्ता तथा महाभारत और पुराणों के मान्य लेखक हैं। 

प्राचीन विश्वास के अनुसार प्रत्येक द्वापर युग में आकर वेद व्यास वेदों का विभाजन करते हैं। इस प्रकार इस मन्वन्तर के अट्ठईस व्यासों के होने का विवरण प्राप्त होता है। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के 28 द्वापर बीत चुके हैं। ‘विष्णुपुराण’ में 28 व्यासों का मानोल्लेख किया गया है। अट्ठाईसवें व्यास का नाम कृष्णद्वैपायन व्यास है। इन्होंने महाभारत एवं अट्ठारह पुराणों का प्रणयन किया है।

व्यास नामधारी व्यक्ति के संबंध में अनेक पाश्चात्य विद्वानों का कहना है कि यह किसी का अभिधान न होकर प्रतीकात्मक, कल्पनात्मक या छद्म नाम है। मैक्डोनल भी इसी विचार के समर्थक हैं, पर भारतीय विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। प्राचीन ग्रन्थों में व्यास का नाम, कई स्थानों पर, आदर के साथ लिया गया है। ‘अहिर्बुध्न्यसंहिता’ में व्यास वेद-व्याख्याता तथा वेदवर्गयिता के रूप में उल्लिखित हैं। 

इसमें बताया गया है कि वाक् के पुत्र वाच्यायन या अपान्तरतमा नामक एक वेदज्ञ थे, जो कपिल एवं हिरण्यगर्भ के समकालीन थे। इन तीनों व्यक्तियों ने विष्णु के आदेश से त्रायी (ऋग्यजुसाम), सांख्यशाò एवं योगशाó का विभाग किया था। इससे सिद्ध होता है कि व्यास का नाम कपिल एवं हिरण्यगर्भ की तरह एक व्यक्तिवाचक संज्ञा थी। अत: इसे भाववाचक न मानकर अभिधानवाचक मानना चाहिए। ‘अहिर्बुध्न्य संहिता’ में व्यास का नाम अपान्तरतमा भी प्राप्त होता है और उसकी संगति ‘महाभारत’ से बैठ जाती है। 

(महाभाारत में) अपान्तरतमा नामक वेदाचार्य ऋषि का उल्लेख है, जिन्होंने प्राचीनकाल में एक बार वेद की शाखाओं का नियमन किया था। ‘महाभारत’ के कई प्रसंगों में अपान्तरतमा नाम को व्यास से अभिन्न मान कर वख्रणत किया गया है।

कतिपय विद्वान् व्यास को उपाधिसूचक मानते हैं। विभिन्न पुराणों के प्रवचनकर्त्ता व्यास कहे गए हैं और ब्रह्मा से लेकर कृष्ण द्वैपायन व्यास तक 27 से लेकर 32 व्यक्ति इस उपाधि से युक्त बताये गये हैं। यदि पुराण ग्रन्थों की बातें सत्य मान जी जायँ तो ‘जय काव्य’ के रचयिता तथा कौरव-पाण्डव के समकालीन व्यास नामक व्यक्ति 32वीं परम्परा के अन्तिम व्यक्ति सिद्ध होते हैं। इस प्रकार व्यास नाम का वैविध्य इसे भारतीय साहित्य की तरह प्राचीन सिद्ध करता है। 

पं. गिरधरशर्मा चतुर्वेदी का कहना है कि ‘‘व्यास या वेदव्यास किसी व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं, वह एक पदवी अथवा अधिकार का नाम है। जब जो ऋषि-मुनि वेदसंहिता का विभाजन या पुराण का संक्षेप कर ले वही उस समय व्यास या वेदव्यास कहा जाता है। किसी समय वसिष्ठ और पराशर आदि भी व्यास हुए। 

इस अट्ठाईसवें कलियुग के व्यास कृष्ण द्वैपायन हैं। उनके रचित या प्रकाशित ग्रन्थ आज पुराण के नाम से चल रहे हैं।’’ उन्होंने इस संबंध में पुन: कहा ऋषि या मुनि जिस प्राणशक्ति का आविष्कारक या दूसरे शब्दों में उपासक रहा, वह उसी शक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वशिष्ठ, विश्वामित्र, कश्यप आदि नाम उपास्य शक्ति अनुसार ही प्रसिद्ध है। उनके व्यक्तिगत नाम दूसरे हैं, जो कहीं-कहीं पाये जाते हैं, इसी प्रकार, पुराणों के निर्माता का व्यक्तिगत नाम कृष्णद्वैपायन है और पदवी या अधिकार का नाम व्यास या वेदव्यास। 

कृष्णद्वैपायन शब्द में भी कृष्ण और द्वैपायन शब्द उत्पत्ति-स्थान के संबंध से विशेषण रूप से जोड़ा गया है।’’ पुराण-परिशीलन, पृ. 48-49 इस कथन से प्रतीत होता है कि व्यास एक उपाधि थी, जो वेदों ओर पुराणों के वर्गीकरण, विभाजन एवं संपादन के कारण प्रदान की जाती थी। आचार्य शंकर ने व्यास के संबंध में एक नवीन मत की उद्भावना की है। 

‘वेदान्तसूत्राभाष्य’ में उनका कहना है कि प्राचीन वेदाचार्य अपान्तरतमा ही बाद में (द्वापर एवं कलियुग के सन्धि काल में) भगवान् विष्णु के आदेश से कृष्ण द्वैपायन के रूप में पुनरुद्भूत हुए थे। कृष्ण द्वैपायन व्यास के सम्बन्ध में अश्वघोष ने तीन तथ्य प्रस्तुत किये हैं-
  1. इन्होंने वेदों को पृथक्-पृथक् वर्गों में विभाजित किया। 
  2. इनके पूर्वज वशिष्ठ तथा शक्ति थे
  3. ये सारस्वतवंशीय थे तथा इन्होंने वेद-विभाजन जैसा दुस्तर कार्य सम्पन्न किया था। 
‘महाभारत’ में कृष्ण द्वैपायन को व्यास कहा गया है और इन्हें वेदों का वर्गीकरण करनेवाला माना गया हैµ। इन्हीं कृष्ण द्वैपायन व्यास का नाम बादरायण व्यास भी था। इन्होंने अपनी समस्त ज्ञान-साधना बदरिकाश्रम में की थी, अत: ये बादरायण के नाम से प्रसिद्ध हुए। व्यासप्रणीत ‘वेदान्तसूत्र’ भी ‘बादरायणसूत्र’ के ही नाम से लोक-विश्रुत हुआ है। इनका अन्य नाम पाराशर्य भी है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम पराश था। 

अलबेरुनी ने भी इन्हें पराशर का पुत्र कहा है और पैल, वैशम्पायन, जैमिनि तथा सुमन्तु नामक इनके चार शिष्यों का उल्लेख किया है, जिन्होंने क्रमश: ऋग्, यजु, साम एवं अथर्ववेद का अध्ययन किया था। पाणिनिकृत ‘अष्टाध्यायी’ में ‘भिक्षुसूत्र’ के रचयिता पाराशर्य व्यास ही कहे गये हैं। ‘भिक्षुसत्र’ ‘वेदान्तसूत्र’ का ही अपर नाम है। ‘महाभारत’ के शान्तिपर्व में इनका निवासस्थान उत्तरापथ हिमालय बताया गया है।

व्यास जी की शिक्षा कहाँ हुई, इसका कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं है। पर ‘वंशब्राह्मण’ तथा पुराणों में इनके गुरु ‘जातुकण्र्य’ कहे गए हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार, इनका आश्रय सरस्वती तट पर था, जो कुरुक्षेत्रा से कुछ पश्चिमोत्तर रहा होगा। आधुनिक विद्वान् ‘कृष्ण-द्वैपायन व्यास’ तथा ‘बादरायण व्यास’ को भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानकर महाभारतादि ग्रन्थ के निर्माता कृष्ण-द्वैपायन को और ब्रह्मसूत्रा के प्रणेता बादरायण-व्यास को स्वीकार करते हैं। 

इस विचार का खण्डन करते हुए म. म. पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी का कहना है: ‘‘इस पर हमारा इतना ही वक्तव्य है कि इस प्रकार का भेद मानने का कोई मूल भारतीय वाड़्मय के प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता, न जाने यह भेद मानने की कल्पना आधुनिक ऐतिहासिकों ने किस आधार पर उठाई है। एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक नाम हो सकते हैं, जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं कि इनका कृष्ण यह नाम मुख्य था। द्वीप में पैदा होने के कारण द्वैपायन शब्द भी वासुदेव कृष्णआदि से भेद करने के लिए जोड़ दिया गया। 

इसी प्रकार, बदरी वन में तपस्या करने के कारण बादरायण नाम भी प्रसिद्ध हुआ। जैमिनिसूत्रा और वेदान्तसूत्रों में बादरायण नाम ही उल्लिखित हुआ है, यह ठीक है; किन्तु पुराणादि में भी बादरायण नाम कहीं-कहीं पाया जाता है।

विद्वानों का मत है कि वैदिक यज्ञों के अवसर पर प्राचीन आख्यानों का गायन और वर्णन होता था। इन आख्यानों में प्राचीन वीरों की गौरव गाथायें गाई जाती थीं। इनके गाने वाले सूत, बन्दी, चारण आदि होते थे। वैदिककाल से ही वीरों और महापुरुषों की यह कीर्ति-गाथायें भारतवर्ष में प्रचलित थीं। ये वीर-गाथायें ही उस इतिहास के अंश हैं, जिसकी चर्चा ब्राह्मणों और उपनिषदों में मिलती है तथा जिसे वेद के उपबृहण का साधन माना जाता है। महाभारत का विशाल काव्यमय इतिहास इन्हीं प्राचीन गाथाओं की परम्पराओं में है। 

महाभारत के अन्तर्गत भरतवंशी वीरों के गृहयुद्ध की मूलकथा के अतिरिक्त अन्य अनेक उपाख्यान मिलते हैं। विद्वानों का मत है कि ये उपाख्यान वर्तमान महाभारत की संहिता के संकलन के पूर्व भारतवर्ष की बिखरी हुई गाथा-परम्परा में प्रचलित थे। ये उपाख्यान और गाथायें किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं थे। 

इन्हें प्राचीन लोक-काव्य कहा जा सकता है। ये एक प्रकार से सार्वजनिक-साहित्यिक-सम्पत्ति के रूप में थे। 

महाभारत के युद्ध की घटना भी वर्तमान महाभारत संहिता के संकलन के पूर्व इन गाथाओं और गीतिओं के रूप में वर्तमान रही होगी। विन्तटनित्स के मत में यही प्राचीन वीर-गाथा वर्तमान महाभारत का आधार है। विन्तटनित्स तथा अन्य विद्वानों का मत है कि लोक-काव्य की परम्परा में महाभारत की मूलगाथा का विस्तार होता गया तथा अन्य लोक उपाख्यानों का भी उसमें सम्मिश्रण होता गया। इस प्रकार महाभारत का आकार बढ़ता गया। 

विन्तटनित्स का यह भी मत है कि ब्राह्मणों और पुरोहितों ने बाद में इसमें अनेक उपाख्यान जोड़ दिये।

धीरे-धीरे महाभारत में वीर-गाथाओं तथा धर्म और नीति के उपदेशों का मिश्रण और विस्तार होता गया। पश्चिमी विद्वानों के मत में वर्तमान महाभारत एक दीर्घ परम्परा का पर्यवसान है। इस प्रकार संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों का प्राय: यह अनुमान है कि महाभारत के वर्तमान रूप का विस्तार तीन चरणों में तथा तीन संस्करणों के रूप में हुआ है। 

इस मत का आधार वे विद्वान वर्तमान महाभारत के अन्तर्गत मिलने वाले जय, भारत और महाभारत के तीन नामों तथा महाभारत के गायन के तीन आरम्भों में खोजते हैं। 

महाभारत के संस्करण

उनके अनुसार इस महाकाव्य का प्रथम संस्करण जय, द्वितीय भारत तथा तृतीय महाभारत के रूप में सामने आया।

1. जय 

महाभारत का मौलिक रूप जय के नाम से विख्यात था। ग्रन्थारम्भ में नारायण, नर था सरस्वती देवी को नमस्कार करके जिस ‘जय’ नामक ग्रन्थ के पठन का विधान है, वही मूल महाभारत है। वहीं यह भी लिखा हुआ है कि इसका प्राचीन नाम जय था। पाण्डव-विजय के वर्णन के कारण इसका यह अभिधान सार्थक प्रतीत होता है। 

आदि पर्व के प्रथम अध्याय में ही विजिगीषुओं के लिए जय नामक इतिहास सुनने का आदेश दिया गया है।

2. भारत 

दूसरी अवस्था में इसका नाम भारत पड़ा। इसमें उपाख्यानों का समावेश नहीं था। केवल युद्ध का विस्तृत वर्णन प्रधान विषय था, जो चौबीस हजार श्लोकों में निबद्ध था। 

इसी भारत को वैशम्पायन ने जनमेजय को पढ़कर सुनाया था ।

3. महाभारत 

इस ग्रन्थ का यही अन्तिम रूप है, जिसे ‘शतसाहòी संहिता’ कहा जाता है। ‘हरिवंश’ को मिलाकर ही श्लोक संख्या एक लाख पहुंचती है। हरिवंश को महाभारत का परिशिष्ट (खिल पर्व) माना जाता है। विक्रम से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व विरचित आश्वलायन गृह्यसूत्र में महाभारत का उल्लेख इस बात का प्रमाण है कि महाभारत का यह रूप लगभग दो हजार वर्ष पुराना अवश्य है। 

इन रूपों को तथा महाकाव्य में उपलब्ध सामग्री-वैविध्य को देखकर ही विन्टरनित्स ने कहा था कि महाभारत कोई एक व्यक्ति और एक समय की रचना नहीं है। वह उस युग का एक समूचा साहित्य है।

पश्चिमी परम्परा में दीक्षित अधिकांश भारतीय विद्वान् विन्तटनित्स के इस मत को ही मानते हैं। भारतीय परम्परा के विद्वानों में पण्डित इन्द्रनारायण द्विवेदी तथा महाभारत के दक्षिणी पाठ के सम्पादक पीñपीñ एस शास्त्राी ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सम्पूर्ण महाभारत वेदव्यास की ही रचना है तथा उसके तीन संस्करण नहीं हुए। उनके अनुसार जय, भारत और महाभारत, महाभारत के तीन संस्करणों के नाम नहीं, वरन् उनके तीन पर्यायवाची नाम हैं। 
उनके अनुसार चौबीस हजार की श्लोक संख्या उपाख्यानों से रहित महाभारत की है तथा छियत्तर हजार श्लोकों में उपाख्यान हैं।

ऐतिहासिक ओर वैज्ञानिक दृष्टि से विन्तटनित्स आदि पश्चिमी विद्वानों के अभिमत के आधार बहुत कुछ संगत प्रतीत होते हैं। फिर भी यह विचारणीय है कि भारतीय परम्परा में अत्यन्त प्राचीनकाल से महाभारत सतसाहòी संहिता के नाम से विख्यात है तथा महख्रष वेदव्यास की कृति मानी जाती है। और महाभारत में ही वैशम्पायन और सौति को उसका कर्त्ता नहीं, वरन् अनुगायक माना गया है। अत: मुख्यरूप से महाभारत को वेदव्यास की कृति मानना ही उचित है। भारतीय मुनियों और विद्वानों ने अकेले ही विशाल आकार के ग्रन्थ रचे हैं। एक लाख श्लोकों के महाभारत की रचना भी उनके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं। प्राचीन वीर-गाथायें महाभारत की पूर्ववर्ती हो सकती हैं, किन्तु महाभारत उनका संकलन मात्रा नहीं है। अपने मूल रूप में महाभारत सम्भवत: महख्रष वेदव्यास की ही रचना है। 

मौखिक गायन के इस लोक-काव्य में अनुगायकों के द्वारा कुछ परिवर्धन होना स्वाभाविक है। किन्तु इन परिवर्धनों को महाभारत के संस्करण माना आवश्यक नहीं है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के विरोध की कल्पना पश्चिमी विद्वानों का आग्रह मात्रा है। इतिहास में इस विरोध के कोई प्रमाण नहीं मिलते। वीर-गाथा धर्म, नीति आदि के विविध विषयों का सम्मिश्रण भारतीय परम्परा में एक लेखक के द्वारा भी सम्भव है। 

विषय और शैली की विविधता भी आवश्यक रूप से महाभारत में कई लेखकों के योग को प्रमाणित नहीं करती। 

तार्किक दृष्टि से महाभारत के अनेक लेखकों की कल्पना उतनी ही संदिग्ध है, जितनी कि उसके एक-लेखक की कृति होने की कल्पना है। महाभारत की परम्परा और उसकी सम्पूर्ण योजना को देखते हुए उसके मौलिक रूप और उसके अधिकतम अंश को वेदव्यास की कृति मानना अनुचित नहीं है। व्यक्तियों, स्थानों, ग्रन्थों आदि के पर्याय भारतवर्ष में बहुत प्रचलित हैं। संस्कृत पर्याय-बहुल भाषा है। 

अत: जय, भारत और महाभारत के नाम भी आवश्यक रूप से उसके तीन संस्करणों के सूचक नहीं हैं, वे एक ही ग्रन्थ के पर्याय भी हो सकते हैं।

पाठ भेद की दृष्टि से इस समय महाभारत के दो पाठ उपलब्ध होते हैं। 1. उत्तरी पाठ 2. दक्षिणी पाठ। इन उत्तरी और दक्षिणी पाठों के आधार पर आजकल महाभारत के मुख्य रूप से पाँच संस्करण प्रकाशित हैं। जिनमें एक है निर्णय सागर प्रैस द्वारा प्रकाशित बम्बई संस्करण। द्वितीय है चित्र शाला प्रेस द्वारा प्रकाशित पूना संस्करण। तृतीय है- गीता प्रैस संस्करण। 

चतुर्थ है एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता से प्रकाशित बंगीय संस्करण। इन चारों के अतिरिक्त पाँचवा महत्त्वपूर्ण संस्करण भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध संस्थान पूना से प्रकाशित है।

यद्यपि महाभारत के स्वाध्याय हेतु सम्पूर्ण देश में गीता प्रैस गोरखपुर का संस्करण ही अधिक प्रचलित है। सम्भवत: मूल्य आदि की दृष्टि से सुलभ होने के कारण ऐसा है। तथापि विद्वानों द्वारा शोध की दृष्टि से भण्डारकर शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित संस्करण बहु समादृत है।

1 Comments

  1. महाभारत एक साहित्यिक रचना है, जिसमें समय-समय पर कई चीजें जोड़ी गई है. यह किसी भी तरह से भारतीय इतिहास से जुड़ा नहीं है. भारत का वास्तविक इतिहास गौतम बुद्ध और मौर्य वंश से जुड़ा है.

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