अर्थव्यवस्था के प्रकार और अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं

अर्थव्यवस्था मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि करने के लिये एक मानव निर्मित संगठन है। प्राचीनकाल में, ‘जीविका प्राप्त करना’ सरल था परन्तु सभ्यता के विकास के साथ यह अत्यंत जटिल हो गया है। यहां यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जिस विधि से व्यक्ति जीविका अर्जन करता है वह वैध तथा न्यायपूर्ण होनी चाहिए। अन्यायपूर्ण तथा अवैध कार्य जैसे लूटपाट, तस्करी से भी किसी को आय अर्जित हो सकती है परन्तु इसे लाभदायक आर्थिक गतिविधि अथवा जीविका प्राप्त करने की पद्धति की श्रेणी में नहीं लेना चाहिये। इसलिये यह कहना उपयुक्त होगा कि अर्थव्यवस्था एक संरचना है जहां सारी आर्थिक गतिविधियां पूरी होती है।

अर्थव्यवस्था के प्रकार

हम विभिन्न प्रकार की आर्थिक पद्धतियों में निम्नलिखित मानदण्डों के आधार पर भेद कर सकते हैं।

अर्थव्यवस्था के प्रकार

संसाधनों पर निजी व्यक्तियों का पूर्ण स्वामित्व हो सकता है। उन्हें इनका प्रयोग कर मन चाहा लाभ कमाने की छूट हो सकती है। अथवा ये सामूहिक स्वामित्व (सरकारी नियंत्रण) में हो सकते हैं तथा सम्पूर्ण समाज के सामूहिक कल्याण के लिये इनका उपयोग किया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के स्तर तथा लाभ के उद्देश्य की कसौटी के आधार पर अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण इस प्रकार हो सकता है:

  1. पूंजीवादी अथवा स्वतंत्र उद्यम अर्थव्यवस्था
  2. समाजवादी अथवा केन्द्रीय नियोजित अर्थव्यवस्था
  3. मिश्रित अर्थव्यवस्था

(1) पूंजीवादी अर्थव्यवस्था

पूंजीवादी या स्वतंत्र उद्यम अर्थव्यवस्था अर्थव्यवस्थाओं का प्राचीनतम स्वरूप है। प्राचीन अर्थशास्त्री आर्थिक मामलों में ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के पक्षधर थे। वे आर्थिक कार्यों में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम स्तर तक सीमित रखना चाहते थे। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं;

1. निजी संपत्ति – पूंजीवादी प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को संपत्ति का स्वामी होने का अधिकार होता है। व्यक्ति अपनी संपत्ति को पाकर उसे अपने परिवार के लाभार्थ प्रयोग करने को स्वतंत्र होते हैं। भूमि, मशीनों, खानों, कारखानों के स्वामित्व, लाभ कमाने और धन संग्रह करने पर कोई रूकावट नहीं लगाई जाती है। व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसकी संपत्ति उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के नाम अन्तरित हो जाती है। इस प्रकार उत्तराधिकार का नियम निजी संपत्ति व्यवस्था को जीवित रखता है।

2. उद्यम की स्वतंत्रता – पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सरकार नागरिकों की उत्पादक गतिविधियों में समन्वय लाने का प्रयास नहीं करती। सभी व्यक्ति अपना व्यवसाय चुनने को स्वतंत्र होते हैं। उद्यम की स्वतंत्रता का अर्थ है कि सभी फर्में संसाधन प्राप्त कर उन्हें अपनी किसी वस्तु और सेवा के उत्पादन में लगाने के लिये स्वतंत्र होती हैं। ये फर्में अपने इच्छित बाजारों में अपना उत्पादन बेचने को भी स्वतंत्र होती हैं। 

इसी प्रकार प्रत्येक श्रमिक अपना रोजगार और रोजगारदाता चुनने को स्वतंत्र रहता है। छोटी व्यवसायिक इकाइयों में उनके मालिक स्वयं ही उत्पादन से जुड़े जोखिम उठाते हैं तथा लाभ अथवा हानि उठाते हैं। किन्तु आधुनिक निगमित व्यवसाय में जोखिम अंशधारियों के हिस्से में आते हैं और व्यवसाय का संचालन वेतनभोगी ‘निदेशक’ करते हैं। 

अत: लाभ कमाने के लिये अपनी पूंजी को प्रयोग कर अपना ही नियंत्रण होना आवश्यक नहीं रह गया है। सरकार या कोई अन्य संस्था श्रमिकों के किसी उद्योग में आने या उससे बाहर जाने पर कोई बंधन नहीं लगाती। प्रत्येक श्रमिक वही रोजगार चुनता है जहां से उसे अधिकतम आय प्राप्त हो सके।

3. उपभोक्ता प्रभुत्व – पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता राजा के समान होता है। उपभोक्ता अधिकतम संतुष्टिदायक वस्तुओं और सेवाओं पर अपनी आय खर्च करने को पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं। पूंजीवादी व्यवस्थाओं में उत्पादन कार्य उपभोक्ताओं द्वारा किये गये चयनों के अनुसार किये जाते हैं। उपभोक्ता की निर्बाध स्वतंत्रता को ही उपभोक्ता की सत्ता का नाम दिया जाता है।

4. लाभ का उद्देश्य – पूंजीवाद में मार्गदर्शन करने का सिद्धान्त स्वयं का हित होता है। उद्यमी जानते हैं कि अन्य उत्पादक साधनों को भुगतान के बाद लाभ अथवा हानि उनकी होगी। अत: वे सदैव लागत को न्यूनतम और आगम को अधिकतम करने का प्रयास करते रहते हैं ताकि उनको मिलने वाला अन्तर (लाभ) अधिकतम हो जाए। इसी से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कुशल और स्वयं नियंत्रित अर्थव्यवस्था बन जाती है।

5. प्रतियोगिता – पूंजीवादी पद्धति में किसी व्यवसाय में फर्मों के प्रवेश और उसकी निकासी पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। प्रत्येक वस्तु और सेवा के बहुत से उत्पादक बाजार में वस्तु की आपूर्ति कर रहे होते हैं। इस कारण कोई फर्म सामान्य से अधिक लाभ नहीं कमा पाती। प्रतियोगिता पूंजीवाद की एक आधारभूत विशेषता है और इसी के कारण उपभोक्ता का शोषण से बचाव होता है। यद्यपि आजकल फर्मों के बड़े आकार और उत्पाद विभेदन के कारण बाजार में कुछ एकाधिकारी प्रवृत्तियां पनप रही हैं, फिर भी फर्मों की बड़ी संख्या और उनके बीच कड़ी प्रतियोगिता साफ दिखाई पड़ जाती है।

6. बाजारों और कीमतों का महत्व – पूंजीवाद की निजी संपत्ति, चयन की स्वतंत्रता, लाभ का उद्देश्य और प्रतियोगिता की विशेषताएं ही बाजार की कीमत प्रणाली के सुचारू रूप से काम करने के लिये उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करती हैं। पूंजीवाद मूलत: बाजार आधारित व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक वस्तु की एक कीमत होती है। उद्योगों में मांग और आपूर्ति की शक्तियां ही कीमत का निर्धारण करती हैं। जो फर्में उस निश्चित कीमत के अनुसार अपने उत्पादन को ढाल पाती हैं वही समान्य लाभ कमाने में सफल रहती हैं। अन्यों को उद्योग से पलायन करना पड़ता है। प्रत्येक उत्पादक उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करेगा जिनसे उसे अधिकतम लाभ मिल सके।

7. सरकारी हस्तक्षेप का अभाव – स्वतंत्र बाजार अथवा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में समन्वयकारी संस्था का कार्य कीमत प्रणाली करती है। सरकारी हस्तक्षेप और सहारे की कोई आवश्यकता नहीं होती। सरकार की भूमिका बाजार व्यवस्था के स्वतंत्र और कुशल संचालन में सहायता करती है।

(2) समाजवादी अर्थव्यवस्था

समाजवादी या केन्द्रीय नियोजित अर्थव्यवस्थाओं में समाज के सभी उत्पादक संसाधनों पर समाज के बेहतर हितों की पूर्ति के लिये सरकार का स्वामित्व और नियंत्रण रहता है। सारे निर्णय किसी केन्द्रीय योजना प्राधिकरण द्वारा लिये जाते हैं। एक समाजवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:

1. उत्पादन के संसाधनों का सामूहिक स्वामित्व – समाजवादी अर्थव्यवस्था में जनता की ओर से उत्पादन के संसाधनों पर सरकार का स्वामित्व होता है। यहां निजी संपत्ति का अधिकार समाप्त हो जाता है। कोई व्यक्ति किसी उत्पादक इकाई का स्वामी नहीं हो सकता। वह धन संग्रह कर उसे अपने उत्तराधिकारियों को भी नहीं सौंप सकता। परन्तु लोगों को व्यक्तिगत प्रयोग के लिये कुछ दीर्घोपयोगी उपभोक्ता पदार्थ अपने पास रखने की छूट होती है।

2. समाज के कल्याण का ध्येय – सरकार, समष्टि स्तर पर, सभी निर्णय निजी लाभ नहीं बल्कि अधिकतम सामाजिक कल्याण की प्राप्ति के उद्देश्य से करती है। मांग और आपूर्ति की शक्तियों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। सभी निर्णय ध्यानपूर्वक कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित होकर लिये जाते हैं।

3. केन्द्रीय नियोजन – आर्थिक नियोजन समाजवादी अर्थव्यवस्था की एक मूलभूत विशेषता है। केन्द्रीय योजना प्राधिकरण संसाधनों की उपलब्धता का आकलन कर उन्हें राष्ट्रीय वरीयताओं के अनुसार आबंटित करता है। सरकार ही वर्तमान और भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ‘उत्पादन, उपभोग और निवेश संबंधी सभी आर्थिक निर्णय लेती है। योजना अधिकारी प्रत्येक क्षेत्र के लक्ष्यों का निर्धारण करते हैं और संसाधनों का कुशल प्रयोग सुनिश्चित करते हैं।

4. विषमताओंं में कमी – पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आय और संपत्ति की विषमताओं का मूल कारण निजी संपत्ति और उत्तराधिकार की व्यवस्थाएं हैं। इन दोनों व्यवस्थाओं को समाप्त कर एक समाजवादी आर्थिक व्यवस्था आय की विषमताओं को कम करने में समर्थ होती है। यह ध्यान रहे कि किसी भी व्यवस्था में आय और संपत्ति की पूर्ण समानता को न तो वांछनीय माना जाता है और न ही यह व्यवहारिक है।

5. वर्ग संघर्ष की समाप्ति – पूंजी अर्थव्यवस्थाओं में श्रमिकों और प्रबंधकों के हित भिन्न होते हैं। ये दोनों वर्ग ही अपनी आय और लाभ को अधिकतम करना चाहते हैं। इसी से पूंजीवाद में वर्ग संघर्ष उत्पन्न होता है। समाजवाद में वर्गों में कोई प्रतियोगिता नहीं होती। सभी व्यक्ति श्रमिक होते हैं इसलिये कोई वर्ग संघर्ष नहीं होता। सभी सह-कर्मी होते हैं।

(3) मिश्रित अर्थव्यवस्था

मिश्रित अर्थव्यवस्था में समाजवाद और पूंजीवाद की सबसे अच्छी विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। अत: इनमें पूंजीवादी स्वतंत्र उद्यम और समाजवादी सरकारी नियंत्रणें के कुछ तत्व मिले रहते हैं। मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रकों का सह-अस्तित्व रहता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं :

1. निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र कों का सह-अस्तित्व निजी क्षेत्रक में वे उत्पादन इकाइयां आती हैं जो निजी स्वामित्व में होती हैं तथा लाभ के उद्देश्य के लिये कार्य करती हैं। सार्वजनिक क्षेत्रक में वे उत्पादन इकाइयां सम्मिलित की जाती हैं जो सरकार के स्वामित्व में होती हैं तथा सामाजिक कल्याण के लिये कार्य करती हैं। सामान्यत: दोनों क्षेत्रकों के आर्थिक कार्य क्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन रहता है। सरकार अपनी लाइसेंस, करारोपण, कीमत, मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों द्वारा निजी क्षेत्र के कार्यों पर नियंत्रण और उनका नियमन करती है।

2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता – व्यक्ति अपनी आय को अधिकतम करने के लिये आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं। वे अपना व्यवसाय और उपभोग चुनने के लिये स्वतंत्र होते हैं। परन्तु उत्पादकों को श्रमिकों और उपभोक्ताओं का शोषण करने की छूट नहीं दी जाती है। जन-कल्याण की दृष्टि से सरकार उन पर कुछ नियंत्रण लागू करती है। उदाहरणार्थ, सरकार हानिप्रद वस्तुओं के उत्पादन और उपभोग पर रोक लगाती है। परन्तु सरकार द्वारा जनहित में बनाये गये कानूनों और प्रतिबंधों के दायरे में रहते हुए निजी क्षेत्र ‘पूर्ण स्वतंत्रता का उपयोग’ कर सकता है।

3. आर्थिक नियोजन – सरकार दीर्घकालीन योजनाओं का निर्माण कर अर्थव्यवस्था के विकास में निजी एवं सार्वजनिक उद्यमों के कार्यक्षेत्रों व दायित्वों का निर्धारण करती है। सार्वजनिक क्षेत्र पर सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता है अत: वही उसके उत्पादन लक्ष्यों और योजनाओं का निर्धारण भी करती है। निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन, समर्थन, सहारा तथा आर्थिक सहायताओं आदि के माध्यम से राष्ट्रीय वरीयताओं के अनुसार कार्य करने के लिये प्रेरित किया जाता है।

4. कीमत प्रणाली कीमतें संसाधनों के आबंटन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुछ क्षेत्रकों में निर्देशित कीमतें भी अपनाई जाती हैं। सरकार लक्ष्य समूहों के लाभ के लिये कीमतों में आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है। सरकार का ध्येय जनसामान्य का हित संवर्धन होता है। जो व्यक्ति बाजार कीमतों पर आवश्यक उपभोग सामग्री खरीदने की स्थिति में नहीं होते, सरकार उन्हें रियायती कीमतों पर (या नि:शुल्क भी) वस्तुएं उपलब्ध कराने का प्रयास करती है। अत: एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में जन सामान्य को तथा समाज के कमजोर वर्गों के हित-सवंर्धन में सरकार द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सहारा, दोनों ही उपलब्ध रहते हैं। 

भारतीय अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था समझी जाती है क्योंकि यहां आर्थिक नियोजन के साथ-साथ निजी व सार्वजनिक क्षेत्रकों के आर्थिक कार्य क्षेत्र स्पष्टतया परिभाषित हैं। यू.एस.ए., यू.के. आदि देश भी जो पूंजीवादी देश कहे जाते थे, आर्थिक विकास में इनकी सरकारों की सक्रिय भूमिका के कारण अब मिश्रित अर्थव्यवस्था कहलाते हैं।

विकास के स्तर के आधार पर हम अर्थव्यवस्ताओं को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं:

  1. विकसित अर्थव्यवस्था
  2. विकासशील अर्थव्यवस्था

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