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गौतम बुद्ध |
गौतम बुद्ध की शिक्षा एवं उपदेशों का वर्णन
भगवान बुद्ध के उपदेशों का सारांश उनके चार आर्य-सत्यों में निहित है। भगवान बुद्ध के ये चार आर्य-सत्य ही तथागत-धर्म तथा दर्शन के मूलाधार हैं ।
- दुःख
- दुःख समुदाय
- दु:ख निरोध
- दु:ख निरोध-मार्ग अर्थात् निर्वाण-मार्ग
1. दुःख
पालि एवं संस्कृत बौद्ध साहित्य में प्राय: दुःख
की व्याख्या एक समान ही की गयी है। भगवान कहते है, जन्म लेना, वृद्ध
होना, मरना, शोक करना, रोना-पीटना, पीड़ित होना, चिन्ता करना,
परेशान होना, इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होना दुःख है। बुद्ध कहते हैं कि सम्पूर्ण
जीवन में दुःख छाया हुआ है। एवं यह सर्वव्यापी है।
2. दुःख समुदाय
समुदाय का अर्थ कारण है- दुःख समुदाय अर्थात -’दुःख का कारण’।
संसार में दुःख ही नहीं बल्कि उसका कारण भी है। बिना कारण के कार्य
नहीं होता, जब कार्य है तब उसका कारण भी अवश्य है। दुःख का कारण
तृष्णा है! तृष्णा ही एक ऐसी है जो (सत्व का) पुनर्भाव कराने वाली है।
नन्दी (आसक्ति) और राग से युक्त है, यहां वहां (यत्र-तत्र) आनन्द
खोजने वाली है। जन्म और मरण के चक्र को चलाने वाली तृष्णा ही दुःख
का मूल कारण है।
दुःख के आदि कारण के विषय में बुद्ध कहते है - ‘‘यथार्थ में प्रबल तृष्णा ही है, जिसके कारण बार-बार जन्म होता है और उसी के साथ इन्द्रिय सुख आते हैं, जिनकी पूर्ति जहां तहां से की जाती है-’’ अर्थात् इन्द्रियों की तृप्ति के लिए प्रबल लालसा अथवा सुख समृद्धि की प्रबल लालसा ही दु:ख का कारण है।’’
दुःख के आदि कारण के विषय में बुद्ध कहते है - ‘‘यथार्थ में प्रबल तृष्णा ही है, जिसके कारण बार-बार जन्म होता है और उसी के साथ इन्द्रिय सुख आते हैं, जिनकी पूर्ति जहां तहां से की जाती है-’’ अर्थात् इन्द्रियों की तृप्ति के लिए प्रबल लालसा अथवा सुख समृद्धि की प्रबल लालसा ही दु:ख का कारण है।’’
3. दु:ख निरोध
नि:षेश दुःख के रोध अर्थात् रूक जाने
को ‘दु:खनिरोध’ है। तृष्णा का नाष होने से ‘उपादान’ का निरोध होता है,
‘उपादान’ के निरोध से ‘भव’ का ‘भव’ से जाति, जरा-मरण, शोक, दु:ख
दौर्मनस्य और उपायास का निरोध हो जाता है। इस प्रकार समस्त दु:ख
का निरोध हो जाने से ‘निर्वाणलाभ’ होता है। राग-द्वेष एवं मोह के क्षय
को निर्वाण कहते है। यह दृष्टि भव-निर्वाण है। इसी जन्म में इसका
साक्षात्कार कर निर्वाण-सुख का अनुभव करते है। निर्वाण ही बौद्ध धर्म
का अन्तिम लक्ष्य है। ‘‘ निर्वाण’’ शब्द का अर्थ है ‘‘ बुझ जाना’’ अथवा ‘‘
ठंडा होना’’। बुझ जाने से विलोप हो जाने का संकेत है। ठंडा हो जाने
का तात्पर्य सर्वथा शून्य भाव नहीं है बल्कि ऊश्णतामय वासना का नष्ट हो
जाना है।
4. दु:ख निरोध-मार्ग अर्थात् निर्वाण-मार्ग
दु:ख निरोध करने के उपायभूत मार्ग को दु:ख
निरोधगामिनी प्रतिपद् कहते है। इस मार्ग के आठ अंग है- सम्यक दृष्टि,
सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक क्रमान्त, सम्यक आजीव, सम्यक्
व्यायाम, सम्यक स्मृति एवं सम्यक समाधि।
- सम्यकदृृिश्टि :- सम्यकदृश्टि अश्टांगिक मार्ग की प्रथम सीढ़ी है। इसका अर्थ है - ठीक अथवा यथार्थ दृष्टि। यह दर्शन और ज्ञान से युक्त होती है, वस्तुओं का जैसा स्वरूप है, उनका उसी रूप से ज्ञान और दर्शन होना ही सम्यकदृश्टि है।
- सम्यकसंकल्प -सम्यक् संकल्प सम्यक् दृश्टि की ही उपज है। यह त्याग के लिए तीव्र इच्छा है, सबके साथ मिलकर प्रेम पूर्वक जीवन बिताने की आशा (संकल्प) है, एवं यथार्थ मनुष्य जाति के निर्माण की महत्वाकांक्षा है। पृथकता के विचार को त्यागकर महत्वाकांक्षी व्यक्ति सम्पूर्ण जगत के लिए कार्य करता है। संकल्प यथार्थ होना चाहिए। सम्यक-संकल्प को निष्काम-संकल्प, अल्पवाद-संकल्प एवं अविहिंसा संकल्प कहा गया है
- सम्यक् वाक्- सम्यक संकल्प कर लेने के उपरान्त सम्यक वाक् का अभ्यास किया जाता है। ‘‘ सम्यक वाक् का तात्पर्य है, असत्य से दूर रहना, किसी की चुगली करने से अपने को बचाना
- सम्यक् कर्म - सम्यक् कर्म उन कर्मो को कहा जाता है जो सांसारिक प्राणियों पर अनुकम्पा करने के आषय से लिए जाते है।
- सम्यक् आजीव - सम्यक् आजीव अर्थात् ठीक अथवा यथार्थ आजीविका। लोग विश, शस्त्र, सत्व, मंदिरा, मांस बेचकर, झूठे नाप-तौल से ग्राहकों को धोखा देकर, देकर, झांसों, नौकरों एवं जानवरों का व्यापार आदि करके अपना जीवन-निर्वाह करते है, ये ही सब मिथ्या आजीव है और इन्ही आजीविकाओं का सहारा न लेकर सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।
- सम्यक् व्यायाम -‘व्यायाम’ का अर्थ यहां ‘प्रयत्न’ अथवा ‘पुरूशार्थ’ है। अकुशल धर्मों का त्याग करना और कुषल धर्मों का उपार्जन करना ही सम्यक् व्यायाम है।
- सम्यक् स्मृति - स्मृति का अर्थ स्मरण है। सम्यक् स्मृति का अर्थ हुआ ठीक स्मरण, यथार्थ स्मृति।
- सम्यक समाधि - कुषल चित की एकाग्रता को ‘समाधि’ कहा गया है।
बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय
वैशाली में आयोजित दूसरी सभा में, बौद्ध धर्म का निम्न दो सम्प्रदायों में विभाजन हुआः- स्थविरावादी
- महासंघिक स्थविरावादी
महायान सम्प्रदाय का विकास चौथी बौद्ध सभा के बाद हुआ। हीनयान सम्प्रदाय, जो बुद्ध
की रूढि़वादी शिक्षा में विश्वास करता था, इनका जिस गुट ने विरोध किया और जिन्होंने
नये विचारो को स्वीकार किया, वे लागे महायान सम्प्रदाय के समर्थक कहलाये । उन्होंने बुद्ध
की प्रतिमा बनायी और ईश्वर की भांति उसकी पूजा की। लगभग प्रथम सदी सी.ई. में
कनिष्क के शासन काल के दौरान कुछ सैद्धांतिक परिवर्तन किए गए।